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सतीश बेदाग़ की रचनाएँ

थक गया है दिल यहाँ रह-रह के बरबस 

थक गया है दिल यहाँ रह-रह के बरबस
ढूँढने निकलेगा दुनिया फिर कोलंबस

एक लेडी-साइकल और एक बाइक
एक है चादर बिछी और एक थर्मस

इस क़दर जब मुस्कुरा के देखती हो
याद आता है मुझे कॉलेज का कैम्पस

हैं अलग टी.वी., अलग कमरों में दिल हैं
एक टी.वी. था गली में, हम थे रस-मस

ये विचार और वो विचार ऊपर से नीचे
रात-दिन जारी ज़हन में एक सर्कस

अन्दर ऊँची ऊँची लहरें उठती हैं

अन्दर ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं
काग़ज़ के साहिल पे कहाँ उतरती हैं

माज़ी की शाखों से लम्हे बरसते हैं
ज़हन के अन्दर तेज़ हवाएँ चलती हैं

आँखों को बादल बारिश से क्या लेना
ये गलियां अपने पानी से भरती हैं

बाढ़ में बह जाती हैं दिल की दीवारें
तब आँखों से इक दो बूंदें झरती हैं

अन्दर तो दीवान सा इक छप जाता है
काग़ज़ पर एहसान दो बूंदें करती हैं

रुकी-रुकी रहती हैं आँखों में बूंदें
रुखसारों पर आके कहाँ ठहरती हैं

तेरे तसव्वुर से जब शे’र निकलते हैं
इक-दो परियाँ आगे-पीछे रहती हैं

एक मासूम मुहब्बत पे मचा है घमसान

एक मासूम मुहब्बत पे मचा है घमासान
दूर तक देख समन्दर में उठा है तूफ़ान

एक लड़की थी सिखाती थी जो खिलकर हँसना
आज याद आई है, तो हो आई है सीली मुस्कान

एक वो मेला, वो झूला, वो मिरे संग तस्वीर
क्या पता ख़ुश भी कहीं है, कि नहीं वो नादान

फिर से बचपन हो, तिरा शहर हो और छुट्टियाँ हों
काश मैं फिर रहूँ, कुछ रोज़ तिरे घर मेहमान

एक मुंडेर पे, इक गाँव में इक नाम लिखा है
रोज़ उस में से ही खुलता है ये नीला आसमान

रोज़ एल्बम से आ निकलती है

रोज़ एल्बम से आ निकलती है
रोज़ तू मुझसे झगड़ा करती है

तेरी यादों की खोलकर एल्बम
रात मेरे सिरहाने रखती है

एक लम्हा बंधा है पल्ले से
जाने कब इसकी गाँठ खुलती है

कभी पुरख़्वाब थी जो दिल की ज़मीं
तेरी यादों का पानी भरती है

इक घड़ी तेरे संग सदियों से
बस तुझे मिलती मिलती मिलती है

कितने लम्हे बरसते हैं दिल पर
शाख़-ए-माज़ी कोई लचकती है

तेरी ख़ुश्बू की प्यासी शब-शब भर
मेरे सीने पे सर पटकती है

इतनी गर्मी में तेरी याद तुझे
जैसे शिमले में बर्फ़ गिरती है

ये कुँजे किस देस को जातीं है जाने 

ये कूँजें किस देस को जाती हैं जाने
क्यूँ इस देस में यूँ घबराती हैं जाने

घरवालों के आगे बोल नहीं पातीं
क्यूँ ये झूठी क़समें खाती हैं जाने

रंग-बिरंगी हँसियाँ इक दो सालों में
किन गलियों में क़ैद हो जाती हैं जाने

इक पिंजरे में बंद है चिड़ियों का चम्बा
इक दूजी को क्या समझाती है जाने

इक रिफ़्यूजी कैम्प में नन्ही लड़की है
कौन-सी परियाँ उसे सुलाती हैं जाने

कुछ शेरों से हूकें-सी क्यूँ उठती हैं
कौन बिरहनें भीतर गाती हैं जाने

तेरी हँसी

देखकर तेरी हँसी,देखा है

आँखें मलता है उस तरफ़ सूरज
जागने लगती है सुबह हर ओर
धुंध में धुप निकल आती है

पेड़ों पर कोम्पलें निकलतीं हैं
बालियों में पनपते हैं दाने
भरने लगते हैं रस से सब बागान

जब सिमट आती है हाथों में मेरे तेरी हँसी
तब मेरे ज़हन में अल्लाह का नाम आता है

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