दश्त ले जाए कि घर ले जाए
दश्त ले जाए कि घर ले जाए
तेरी आवाज़ जिधर ले जाए
अब यही सोच रही हैं आँखें
कोई ता-हद्द-ए-नज़र ले जाए
मंज़िलें बुझ गईं चेहरों की तरह
अब जिधर राहगुज़र ले जाए
तेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी ऐ दिल
क्या ख़बर कौन नगर ले जाए
साया-ए-अब्र से पूछो ‘सरवत’
अपने हमराह अगर ले जाए
घर से निकता तो मुलाक़ात हुई पानी से
घर से निकता तो मुलाक़ात हुई पानी से
कहाँ मिलती है ख़ुशी इतनी फ़रावानी से
ख़ुश-लिबासी है बड़ी चीज़ मगर क्या कीजिए
काम इस पल है तिरे जिस्म की उर्यानी से
सामने और ही दीवार ओ शजर पाता हूँ
जाग उठता हूँ अगर ख़्वाब-जहाँबानी से
उम्र का कोह-ए-गिराँ और शब-ओ-रोज़ मिरे
ये वो पत्थर है जो कटता नहीं आसानी से
शाम थी और शफ़क़ फूट रही थी ‘सरवत’
एक रक़्क़ासा की जलती हुई पेशानी से
इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
तोड़ी जो शाख़-ए-रंग-फ़िशाँ हाथ जल गया
दीवार ओ सक़फ़ ओ बाम नए लग रहे हैं सब
ये शहर चंद रोज़ मैं कितना बदल गया
मैं सो रहा था और मिरी ख़्वाब-गाह में
इक अज़्दहा चराग़ की लौ को निगल गया
बचपन की नींद टूट गई उस की चाप से
मेरे लबों से नग़्मा-ए-सुब्ह-ए-अज़ल गया
तन्हाई के अलाव से रौशन हुआ मकाँ
‘सरवत’ जो दिल का दर्द था नग़मों में ढल गया
जंगल में कभी जो घर बनाऊँ
जंगल में कभी जो घर बनाऊँ
उस मोर को हम-शजर बनाऊँ
बहते जाते हैं आईने सब
मैं भी तो कोई भँवर बनाऊँ
दूरी है बस एक फ़ैसले की
पतवार चुनूँ कि पर बनाऊँ
बहती हुई आग़ से परिंदा
बाँहों में समेट कर बनाऊँ
घर सौंप दूँ गर्द-ए-रहगुज़र को
दहलीज़ को हम-सफ़र बनाऊँ
हो फ़ुर्सत-ए-ख़्वाब जो मयस्सर
इक और ही बहर ओ बर बनाऊँ
जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में
जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में
फिर से हो गया शामिल ज़िंदगी के धारे में
इस्म भूल बैठे हम जिस्म भूल बैठे हम
वो हमें मिली यारों रात इक सितारे में
अपने अपने घर जा कर सुख की नींद सो जाएँ
तू नहीं ख़सरो में मैं नहीं ख़सारे में
मैं ने दस बरस पहले जिस का नाम रक्खा था
काम कर रही होगी जाने किस इदारे में
मौत के दरिंदे में इक कशिश तो है ‘सरवत’
लोग कुछ भी कहते हों ख़ुद-कुशी के बारे में
मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
पेड़ मुझ से कलाम करने लगा
देख ऐ नौ-जवान मैं तुझ पर
अपनी चाहत तमाम करने लगा
क्यूँ किसी शब चराग़ की ख़ातिर
अपनी नींदें हराम करने लगा
सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
क्यूँ मिरा एहतिराम करने लगा
उम्र-ए-यक-रोज़ कम नहीं ‘सरवत’
क्यूँ तलाश-ए-दवाम करने लगा
फिर वो बरसात ध्यान में आई
फिर वो बरसात ध्यान में आई
तब कहीं जान जान में आई
फूल पानी में गिर पड़े सारे
अच्छी जुम्बिश चट्टान में आई
रौशनी का अता पता लेने
शब-ए-तीरा जहान में आई
रक़्स-ए-सय्यार्गां की मंज़िल भी
सफ़र-ए-ख़ाक-दान में आई
पूरे चाँद की सज धज है शहज़ादों वाली
पूरे चाँद की सज धज है शहज़ादों वाली
कैसी अजीब घड़ी है नेक इरादों वाली
नई नई सी आग है या फिर कौन है वो
पील फूलों गहरे सुर्ख़ लिबादों वाली
भरी रहें ये गलियाँ फूल परिंदों से
सजी रहे तारों से ताक़ मुरादों वाली
आँखें हैं और धूल भरा सन्नाटा है
गुज़र गई है अजब सवारी यादों वाली
क़सम इस आग और पानी की
क़सम इस आग और पानी की
मौत अच्छी है बस जवानी की
और भी हैं रिवायतें लेकिन
इक रिवायत है ख़ूँ-फ़िशानी की
जिसे अंजाम तुम समझती हो
इब्तिदा है किसी कहानी की
रंज की रेत है किनारों पर
मौज गुज़री थी शादमानी की
चूम लीं मेरी उँगलियाँ ‘सरवत’
उस ने इतनी तो मेहरबानी की
क़िन्दील-ए-मह-ओ-महर का अफ़्लाक पे होना
क़िन्दील-ए-मह-ओ-महर का अफ़्लाक पे होना
कुछ इस से ज़ियादा है मिरा ख़ाक पे होना
हर सुब्ह निकलना किसी दीवार-ए-तरब से
हर शाम किसी मंज़िल-ए-ग़मनाक पे होना
या एक सितारे का गुज़रना किसी दर से
या एक प्याले का किसी चाक पे होना
लौ देती है तस्वीर निहाँ-ख़ाना-ए-दिल में
लाज़िम नहीं इस फूल का पोशाक पे होना
ले आएगा इक रोज़ गुल-ओ-बर्ग भी ‘सरवत’
बाराँ का मुसलसल ख़स-ओ-ख़ाशाक पे होना
रात ढलने के बाद क्या होगा
रात ढलने के बाद क्या होगा
दिन निकलने के बाद क्या होगा
सोचता हूँ कि उस से बच निकलूँ
बच निकलने के बाद क्या होगा
ख़्वाब टूटा तो गिर पड़े तारे
आँख मलने के बाद क्या होगा
रक़्स में होगी एक परछाई
दीप जलने के बाद क्या होगा
दश्त छोड़ा तो क्या मिला ‘सरवत’
घर बदलने के बाद क्या होगा