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सरवर आलम राज़ ‘सरवर’ की रचनाएँ

दिल पे गुज़रे है जो बता ही दे

दिल पे गुज़रे है जो बता ही दे
दास्तान अब उसे सुना ही दे

मेरे हक़ में दुआ नहीं, न सही
किसी हीले से बद्दुआ ही दे

खो न जाए कहीं मिरी पहचान
तो वफ़ा क़ा सिला जफ़ा ही दे

शाम-ए-फुरक़त की तब सहर हो जी
हुस्न जब इश्क़ की गवाही दे

बे-ज़बानी मिरी ज़बान है अब
सोज़-ए-शब, आह-ए-सुभगाही दे

कौन समझाए, किस को समझाए
अब तो ऐ दिल! उसे भुला ही दे

कुछ तो मिल जाए तेरी महफ़िल से
न-मुरादी क़ा सिलसिला ही दे

दिल ज़माने से उठ चला है अब
कब तलक दाद-ए-कम निगाही दे

अपनी मजबूरियों पे शाकिर हूँ
इतनी तौफ़ीक़ तो इलाही दे

तुझ पर ‘सरवर’ कभी न यह गुज़रे
शायरी दाग़-ए-कजकुलाही दे

ज़माने की अदा है क़ाफ़िराना

ज़माने की अदा है क़ाफ़िराना
जुदा मेरा है तर्ज़-ए-आशिक़ाना

तिरा ज़ौक़-ए-तलब न-महरिमाना
न आह-ए-शब ने सोज़-ए-शबाना

शबाब-ओ-शेर-ओ-सहबा-ए-मुहब्बत
बहुत याद आए हैं गुज़ारा ज़माना

बहुत नाज़ुक है हर शाख-ए-तमन्ना
बनाएँ हम कहाँ फिर आशियाना?

मकाँ जो है वो अक्स-ए-लामकाँ है
अगर तेरी नज़र हो आरिफ़ाना

मिरी आह-ओ-फुघान इक नई-नवाज़ी
मिरा हरफ़-ए-शिकायत शायराना

मुझे देखो, मिरी हालत न पूछो
मुझे आता नहीं बातें बनाना

उलझ कर रह गया मैं रोज़-ओ-शब में
समझ में कब यह आया ताना-बाना

न देखो इस तरह, मुझ को न देखो
बिखर जाऊँगा हो कर दाना-दाना

मुझे है हर किस पर खुद का धोका
यह दुनिया है के है आईनाखाना

निकालो राह अपनी आप “सरवर”
कभी दुनिया की बातों में न आना

शब-ए-उम्मीद है, सीने में दिल मचलता है

शब-ए-उम्मीद है, सीने में दिल मचलता है
हमारी शाम-ए-सुखन का, चिराग़ जलता है

न आज का है भरोसा, न ही ख़बर कल की
ज़मान रोज़, नयी करवटें बदलता है

अज़ीब चीज़ है दिल का मु,आमला यारों
संभालो लाख मगर, यह कहाँ संभलता है!

न तेरी दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी अच्छी
न जाने कैसे, तिरा कारोबार चलता है!

सुना है आज, वहाँ मेरा नाम आया था
उम्मीद जाग उठी, दिल में शौक़ पलता है

वोही है शाम-ए-जुदाई, वोही है दिल मेरा
करूँ तो क्या करूँ, कब आया वक़्त टलता है!

मिलेगा क्या तुम्हें, यूँ मेरा दिल जलाने से
भला सता के, ग़रीबों को कोई फलता है?

इसी का नाम कहीं दर्द-ए-आशिक़ी तो नहीं?
लगे है यूँ कोई रह-रह के दिल मसलता है

न दिल-शिकस्त हो बज़म-ए-सुखन से तू ‘सरवर’
नया चिराग़ पुराने दीए से जलता है!

मंज़िले-दर्द से गुज़र आए 

मंज़िले-दर्द से गुज़र आए
आज अपने किए को भर आए !

थी क़यामत निगाह का मिलना
आँख से दिल में वह उतर आए !

आज याद आई उसकी यूँ जैसे
सुबह का भूला शाम घर आए !

ना-तवानी[1] से ना-तवानी है
ग़म उठाते हुए भी डर आए !

हम अगर काम से गये तो क्या ?
आप तो अपना काम कर आए !

कैसे दुनिया से ग़म छुपाएँ जब
दिल उमँद आए , आँख भर आए !

हमने माना कि कुछ नहीं हासिल
क्या करें कोई याद अगर आए ?

आरज़ू है कि आरज़ू न रहे
चाहे फ़िर और कुछ न बर आए !

पहले जिस आरज़ू में जीते थे
आज उसी आरज़ू में मर आए !

अश्क़े-ग़म पी तो लूँ मगर हमदम
चैन ही इस तरह अगर आए !

दिल दुखे और आँख खु़श्क रहे
आए तो कैसे ये हुनर आए ?

मेरे आँसू ग़रीब के आँसू
इनमें फिर किस तरह असर आए ?

बाज़ आ अब भी इश्क़ से ‘सरवर’
कितने इल्ज़ाम तेरे सर आए !

आ भी जा कि इस दिल की शाम होने वाली है 

आ भी जा कि इस दिल की शाम होने वाली है
दिन तो ढल गया ज्यों त्यों, रात अब सवाली है !

इक निगाह के बदले जान बेच डाली है
इश्क़ करने वालों की हर अदा निराली है !

हर्फ़-ए-आरज़ू लब पर आए भी तो क्या आए
नाबकार यह दुनिया किसकी सुनने वाली है ?

कोई क्या करे तकिया दूसरों की दुनिया पर
हमने ख़ुद ही इक दुनिया ख़्वाब में बसा ली है !

आब आब आईना ख़्वाब ख़्वाब उम्मीदें
रू-ए-ज़िन्दगानी का नक़्श भी ख़याली है !

फ़िक्र-ओ-फ़न की दुनिया पर वक़्त कैसा आया है
फ़न है बे-सुतून यारो ! फ़िक्र ला-उबाली है !

कोई क्या करे शिकवा वक़्त की खुदाई का
बज़्म-ए-मय हुई वीराँ और जाम खाली है

इश्क़ में बता ’सरवर’! क्या मिला तुझे आखिर
तूने ये मुसीबत क्यूँ अपने सर लगा ली है ?

यूँ अहले-दिल में मेरा इलाही ! शुमार हो / सरवर आलम राज ‘सरवर’

यूँ अहले-दिल में मेरा इलाही ! शुमार हो
मेरी जबीं पे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए यार हो

इतना असर तो तुझ में ग़मे-यादे-यार हो
मैं बे-सुकूँ इधर वो उधर बे-क़रार हो !

शाम-ए-ख़िज़ाँ बा-रंगे-जमाल-ए-बहार हो
गर ज़िन्दगी पे अपनी कोई इख़्तियार हो

दामन है चाक मेरा,गिरेबाँ भी तार-तार
कोई तो हो जो इश्क़ का आईनादार हो !

मैं हूँ ,ख़्याल-ए-यार हो,शाम-ए-उमीद हो
यूँ ख़ातिमा हयात का पायानेकार हो !

अफ़्सोस अब सज़ा के भी का़बिल नही रहा
मेरी तरह ख़ुदा न करे कोई ख़्वार हो !

गुम हूँ मैं इस तरह खु़द अपनी ही जात में
जैसे वह मौज ,बेह्र की जो राज़दार हो !

हुस्ने-ख़ुदी में रंग हो ऐसा कि हमनशीं
आईना जिसको देख के ख़ुद शर्मसार हो !

जैसा कि मेरे साथ राह-ए-दर्द में हुआ
वैसा ही तेरे साथ हो और बार-बार हो !

’सरवर’ दुआ हमारी तिरे हक़ में है यही
ये बज़्म-ए-शे’र तेरे लिए साज़गार हो !

मिरे जब भी क़रीब आई बहुत है

मिरे जब भी क़रीब आई बहुत है
ये दुनिया मैने ठुकराई बहुत है !

मै समझौता तो कर लूँ ज़िन्दगी से
मगर ज़ालिम यह हरजाई बहुत है !

तुम्हें सरशारी-ए-मंज़िल मुबारक
हमें ये आबला-पाई बहुत है !

कहाँ मैं और कहाँ मेरी तमन्ना
मगर यह दिल ! कि सौदाई बहुत है

बला से गर नहीं सुनता है कोई
मजाल-ओ-ताब-ए-गोआई बहुत है

मैं हसरत-आशना-ए-आरज़ू हूँ
मिरी ग़म से शनासाई बहुत है !

मैं ख़ुद को ढूँढता हूँ अन्जुमन में
मुझे एहसास-ए-तन्हाई बहुत है

ना आई याद तो बरसों न आई
मगर जब आई तो आई बहुत है

मिरी रिंदी बा-रंग-ए-पार्साई
हरीफ़े-खौफ़-ए-रुस्वाई बहुत है

ज़माने को शिकायत है यह ’सरवर’
कि तुझ मे बू-ए-खुदराई बहुत है

दिल को यूँ बहला रखा है

दिल को यूँ बहला रखा है
दर्द का नाम दवा रखा है !

आओ प्यार की बातें कर लें
इन बातों में क्या रखा है !

झिलमिल-झिलमिल करती आँखें
जैसे एक दिया रखा है !

अक़्ल ने अपनी मजबूरी का
थक कर नाम ख़ुदा रखा है !

मेरी सूरत देखते क्या हो ?
सामने आईना रखा है !

राहे-वफ़ा के हर काँटे पर
दर्द का इक क़तरा रखा है

अब आए तो क्या आए हो ?
आह ! यहाँ अब क्या रखा है !

अपने दिल में ढूँढो पहले
तुमने खु़द को छुपा रखा है

अब भी कुछ है बाक़ी प्यारे?
कौन सा ज़ुल्म उठा रखा है !

’सरवर’ कुछ तो मुँह से बोलो
यह क्या रोग लगा रखा है ?

दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी, हर तरह आज़माए तो मैं क्या करूँ ?

दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी, हर तरह आज़माए तो मैं क्या करूँ ?
मैं उसे याद करता रहूँ हर घड़ी , वो मुझे भूल जाए तो मैं क्या करूँ ?

हाले-दिल गर कहूँ मैं तो किस से कहूँ,और ज़बाँ बन्द रखूँ तो क्यों कर जियूँ ?
यह शबे-इम्तिहां और यह सोज़े-दुरूं ,खिरमने-दिल जलाए तो मैं क्या करूँ ?

मैने माना कि कोई ख़राबी नहीं , पर करूँ क्या तबियत ’गुलाबी’ नहीं
मैं शराबी नहीं ! मैं शराबी नहीं ! वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ ?

सोज़े-हर दर्द है , साज़े-हर आह है , गाह बे-कैफ़ हूँ सरखुशी गाह है
मेरी हर आह में इक निहाँ वाह है ,इश्क़ जादू जगाए तो मैं क्या करूँ ?

कुछ ये खुद-साख़्ता अपनी मजबूरियाँ ,कुछ ज़माने की सौगा़त मेह्जूरियाँ
और उस पर कि़यामत कि ये दूरियाँ,चैन एक पल न आए तो मैं क्या करूँ ?

मुझको दुनिया से कोई शिकायत नहीं , झूठ बोलूँ मिरी ऐसी आदत नहीं
ये हक़ीक़त है यारो ! हिकायत नहीं ,बे-सबब वो सताए तो मैं क्या करूँ ?

ज़हमते – ज़ीस्त है ,दौर-ए-अय्याम है , ना-मुरादी मिरा दूसरा नाम है
क्यों ग़मे-मुस्तक़िल मेरा अन्जाम है,जब क़ियामत ये ढाए तो मैं क्या करूँ ?

ख़ुद ही मैं अक़्स हूँ ,ख़ुद ही आईना हूँ ,मैं बला से ज़माने पे ज़ाहिर न हूँ
हाँ ! छुपूँ गर मैं ख़ुद से तो कैसे छुपूँ यह ख़लिश जो सताए तो मैं क्या करूँ ?

शायरी मेरी ’सरवर’ ये तर्ज़े-बयाँ ,यह तग़ज़्ज़ल , तरन्नुम ,यह हुस्ने-ज़बाँ
सब अता है ज़हे मालिक-ए-दो जहाँ! गर किसी को न भाए तो मैं क्या करूँ ?

दिल ही दिल में डरता हूँ कुछ तुझे न हो जाए

दिल ही दिल में डरता हूँ कुछ तुझे ना हो जाए
वरना राह-ए-उल्फ़त में जाए जान तो जाए

मेरी कम नसीबी का हाल पूछते क्या हो
जैसे अपने ही घर में राह कोई खो जाए

गर तुम्हे तकल्लुफ़ है मेरे पास आने में
ख़्वाब में चले आओ यूँ ही बात हो जाए

झूठ मुस्कराए क्या आओ मिल के अब रो लें
शायरी हुई अब कुछ गुफ़्तगू भी हो जाए

ये भी कोई जीना है? खाक ऐसे जीने पर
कोई मुझ पे हँसता है, कोई मुझको रो जाए

मेरे दिल के आँगन में किस क़दर अँधेरा है
काश ! चाँदनी बन कर कोई इसको धो जाए

याद एक धोखा है ,याद का भरोसा क्या
तुम्ही खु़द यहाँ आकर ,याद से कहो जाए

देख कर चलो ’सरवर’! जाने कौन उल्फ़त में
फूल तुमको दिखला कर ,ख़ार ही चुभो जाए

बात ऐसी हुई है क्या साहेब ?

बात ऐसी हुई है क्या साहेब ?
हो गए आप क्यों ख़फ़ा साहेब?

कुछ तो कहिए कहाँ कि ये आखिर
लग गई आप को हवा साहेब ?

ख़ामशी और ऐसी खामोशी !
कब मुहब्बत में है रवा साहेब ?

हाय यह कैसी बे-नियाज़ी है ?
रंगे-हस्ती बिखर गया साहेब

क्या कोई मुझसे बद गुमानी है ?
तौबा ,तौबा ! ख़ुदा ! ख़ुदा ! साहेब !

याद है आप को कि मैं हूँ कौन ?
आशना और बावफ़ा ! साहेब !

मुझसे कोई अगर शिकायत है
कीजिए आप बरमला[1] साहेब !

छोड़िए अब मुआफ़ कर दीजिए
कुछ अगर हो कहा-सुना साहेब !

दोस्ती और आश्ती[2] के सिवा
इस जहाँ में रखा है क्या साहेब ?

आप दिल में हैं ,आप आँखों में
मेरी सूरत है आईना साहेब !

रह-रवे-राहे-आशानाई हूँ
गरचे हूँ शिकस्ता-पा[3] साहेब !

दर्दमन्दी के और मुहब्बत के
वादे सब कीजिए वफ़ा साहेब !

मैं भी हो जाँऊ आप ही जैसा
मेरे हक़ में करें दुआ साहेब !

बह्रे-तज़्दीदे-शौक़[4]’सरवर ’ को
याद करना है क्या बुरा साहेब ?

न सोज़ आह में मिरी, न साज़ है दिल में

न सोज़ आह में मिरी, न साज़ है दिल में
मैं लाऊँ कौन सी सौग़ात[1] तेरी महफ़िल में ?

मैं आईना हूँ कि आईना-रू [2]नहीं मालूम
ये वक़्त आया है इस आशिक़ी की मंज़िल में

ख़ुदी कहूँ कि इसे बेख़ुदी बताओ तुम
मैं अपने आप चला आया कू-ए-क़ातिल में

हमारे ज़ब्त ने रख्खा भरम ख़ुदाई का
ज़बां पे आ ही गई थी जो बात थी दिल में

न अपने दिल की कहो तुम ,न दूसरों की सुनो
अजीब रंग यह देखा तुम्हारी महफ़िल में

हरम के हैं ये शनासा[3], न दैर से वाकि़फ़
रखा है क्या भला इन मुफ़्तियान-ए-कामिल[4] में?

यक़ीं गुमान में बदला ,गुमां अक़ीदे[5] में
हमें तो बस ये मिला तेरे ख़ाना-ए-गिल[6] में

फ़राज़-ए-इश्क़ ने इस मर्तबे को पहुँचाया
रहा न फ़र्क़ कोई राह और मंज़िल में

ख़रोश-ए-मौजा-ए-तूफ़ां ने लाख दावत दी
उलझ के रह गये लेकिन फ़रेब-ए-साहिल में

अभी मिला भी न था हसरतों से छुटकारा
उम्मीद डाल गई आ के और मुश्किल में

कोई मुझे ’सरवर’ ! कहे न दीवाना
शुमार मुझको करो आशिक़ान-ए-कामिल[7] में !

हो गई मेराज-ए-इश्क़-ओ-आशक़ी हासिल हमें

हो गई मेराज-ए-इश्क़-ओ-आशक़ी हासिल हमें
पहले दर्द-ए-दिल मिला ,बाद उसके दाग़े-दिल हमें !

बन्दगान-ए-आरज़ू में कर लिया शामिल हमें
आप ने ,शुक्र-ए-ख़ुदा ! समझा किसी क़ाबिल हमें !

कम-निगाही ,तंग दामानी ,वुफ़ूर-ए-आरज़ू
ज़िन्दगी! तेरी तलब में यह हुआ हासिल हमें !

इस क़दर आसूदा-ए-राहे-मुहब्बत हो गये
ढूंढती फिरती है हर सू शोरिश-ए-मंज़िल हमें !

लम्हा-लम्हा लह्ज़ा-लह्ज़ा वो क़रीब आते गये
रफ़्ता-रफ़्ता कर गए ख़ुद आप से ग़ाफ़िल हमें !

बन गया ख़ुद अपना हासिल आलम-ए-ख़ुद रफ़्तगी
देखती ही रह गई दुनिया-ए-आब-ओ-गिल हमें

दीदा-ए-बीना दिल-ए-ख़ुश्काम फ़िक्र-ए-बेनियाज़
अब कोई मुश्किल नज़र आती नहीं मुश्किल हमें !

खु़द को ही तारीख़ दुहराती है जब “सरवर’ तो फिर
क्यों नज़र आया नहीं माज़ी में मुस्तक़्बिल हमें ?

-सरवर

शोरिश =हंगामा.झगड़ा.फ़साद
हर सू =हर तरफ़
मेराज-ए-इश्क़ =प्रेम की उच्चता
वुफ़ूर-ए-आरज़ू = तीव्र-इच्छा
कम निगाही =उपेक्षा
तंग-दामानी = ग़रीबी
आसूदा = तृप्त होना/सन्तुष्ट होना
शोरिल =उन्माद
आब-ओ-गिल =पानी-मिट्टी
मुस्तक़्बिल =भविष्य

बेखु़दी आ गई लेकर कहाँ ऐ यार मुझे ? 

बेखु़दी आ गई लेकर कहाँ ऐ यार मुझे ?
कर गई अपनी हक़ीक़त से ख़बरदार मुझे

ख़ूब कटती है जो मिल बैठे हैं दीवाने दो
उसको शमशीर मिली ,जुर्रत-ए-इज़हार मुझे

तेरी महफ़िल की फ़ुसूँ-साज़ियाँ[1] अल्लाह!अल्लाह !
खेंच कर ले गई फिर लज़्ज़त-ए-आज़ार[2] मुझे

सुब्ह-ए-उम्मीद है आइना-ए-शाम-ए-हसरत
आह अच्छे नज़र आते नहीं आसार मुझे !

मैं दिल-ओ-जान से इस हुस्न-ए-अता के क़ुर्बान
जल्वा-ए-हुस्न उसे ,हसरत-ए-दीदार मुझे

अल-अमान अल-हफ़ीज़ अपनों की करम-फ़र्मायी
बन गई राहत-ए-जां तोहमत-ए-अग़्यार[3] मुझे

एक तस्वीर के दो रुख़ हैं ब-फ़ैज़-ए-ईमान
तवाफ़-ए-क़ाबा[4] हो कि वो हल्क़-ए-ज़ुन्नार मुझे

मैं ज़माने से ख़फ़ा ,दुनिया है मुझ से नालां
इम्तिहां हो गई ये फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार मुझे

साग़र-ए-मय ना सही दुर्द-ए-तहे-जाम[5] सही
तिश्ना लब यूँ तो न रख साक़ी-ए-ख़ुश्कार मुझे!

मंज़िल-ए-दर्द में वो गुज़री है मुझ पर ’सरवर’
अब कोई मरहला[6] लगता नहीं दुश्वार मुझे

दामन-ए-तार-तार ये,सदक़ा है नोक-ए-ख़ार का 

दामन-ए-तार-तार ये,सदक़ा है नोक-ए-ख़ार का
शुक्र-ए-ख़ुदा कि मुझसे कुछ रब्त[1] तो है बहार का!

तेरे मक़ाम-ए-जब्र से मेरे मक़ाम-ए-सब्र तक
सिलसिला-ए-आरज़ू रहा दीदा-ए-अश्कबार[2] का

क़िस्सा-ए-दर्द कह गया लह्ज़ा-ब-लह्ज़ा नौ-ब-नौ[3]
“पर भी क़फ़स[4] से जो गिरा बुल्बुल-ए-बेक़रार का”

मंज़िल-ए-शौक़ मिल गई कार-ए-जुनूं हुआ तमाम
इश्क़ को रास आ गया आज फ़राज़ दार[5] का !

ज़ीस्त की सारी करवटें पल में सिमट के रह गईं
सदियों का तर्जुमां था लम्हा वो इन्तिज़ार का

ज़िक्र-ए-हबीब हो चुका फ़िक्र-ए-ख़ुदा की ख़ैर हो !
चाक रहा वो ही मगर दामन-ए-तार-तार का !

सोज़-ओ-गुदाज़[6]-ए-ज़िन्दगी अपना ख़िराज[7] ले गया
नौहा-कुनां में रह गया हस्ती-ए-कम-अयार[8] का

हुस्न की सर-बुलंदियाँ इश्क़ की पस्तियों[9] से हैं
सोज़-ए-खिज़ां से मोतबर[10] साज़ हुआ बहार का

नाम-ए-ख़ुदा कोई तो है वज़ह-ए-शिकस्त-ए-आरज़ू
यूँ ही तो बेसबब नहीं शिकवा ये रोज़गार का ?

नाम-ओ-नुमूद[11] एक वहम और वुजूद इक ख़याल !
अपने ही आईने में हूँ अक्स मैं हुस्न-ए-यार का !

हर्फ़-ए-ग़लत था मिट गया अपने ही हाथ मर गया
अब क्या ख़बर कि क्या बने “सरवर’-ए-सोगवार[12] का !

मुहब्बत आशना हो कर वफ़ा ना-आशना होना 

मुहब्बत आशना हो कर वफ़ा ना-आशना होना
इसी को तो नहीं कहते कहीं काफ़िर-अदा होना ?

ये तपती दोपहर में मुझसे साए का जुदा होना
ज़ियादा इस से क्या होगा भला बे-आसरा होना ?

यकीं आ ही गया हमको तुम्हारी बे-नियाज़ी से
बुज़र्गो से सुना था यूँ तो बन्दों का खु़दा होना !

न जाने कौन से मन्ज़िल है जो बेगाना-ए-ग़म हूँ
मुझे रास आ गया क्या इश्क़ में बे-दस्त-ओ-पा होना ?

ख़ुदी और बे-ख़ुदी में फ़र्क़ है तो सिर्फ़ इतना है
मुहब्बत आशना होना ,मुहब्बत में फ़ना होना !

कोई सीखे तो सीखे आप से तर्ज़े-खुदावन्दी
मिरी बे-चारगी पर आप का यूँ ख़ुद-नुमा होना !

ये सुबह-ओ-शाम की उलझन ये रोज़-ओ-शब के हंगामे
क़ियामत हो गया क़र्ज़े-मुहब्बत का अदा होना

ये सोज़ो-साज़े-उल्फ़त और ये जज़्बो-जुनूँ ’सरवर’
मुबारक हो तुझे शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना

-सरवर-
बे-दस्त-ओ-पा होना = बेबस/लाचार होना
शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना = वफ़ा के का़बिल होना

उम्मीद-ओ-आरज़ू मिरी दमसाज़ बन गई

उम्मीद-ओ-आरज़ू मिरी दमसाज़ बन गई
इक सोज़-ए-आशिक़ी बनी,इक साज़ बन गई !

सौदा न कम हुआ सर-ए-मक़्सूद-ए-आशिक़ी
क्या इन्तिहाये-आरज़ू आग़ाज़ बन गई ?

यारों !ये क्या हुआ कि सर-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी?
जो भी ग़ज़ल कही ,शरार-अन्दाज़ बन गई !

कैसी तलाश ,किस की तमन्ना,कहाँ की दीद
ख़ुद मेरी ज़ात मेरे लिये राज़ बन गई !

वा-मांदगी-ए-बाल-ओ-पर-ए-फ़िक्र ?अल-अमां !
हद से बढ़ी तो हिम्मत-ए-परवाज़ बन गई

यूँ आश्ना-ए-कूचा-ए-आवारगी रहे
हर ना-मुरादी शौक़-ए-तग-ओ-ताज़ बन गई

जब मैनें बढ़ के उसकी नज़र को किया सलाम
झुक कर वो फ़ित्ना-ज़ा ग़लत अन्दाज़ बन गई !

“सरवर” ये फ़ैज़-ए-’राज़’ है कि तेरी शायरी
हुस्न-ए-सुख़न से गुलशन-ए-शिराज़ बन गई !

-सरवर-
दमसाज़ =दोस्त
सोज़-ए-आशिक़ी =प्रेमाग्नि
शरार-अन्दाज़ = चिंगारी जैसी अन्दाज़
गुलशने-शिराज़ = शिराज़ के बाग(इरान का एक शहर जो
अपने बागों के लिए मशहूर है

खेल इक बन गया ज़माने का

खेल इक बन गया ज़माने का
तज़करा मेरे आने जाने का

ज़िन्दगी ले रही है हमसे हिसाब
क़तरे क़तरे का ,दाने दाने का

क्या बताए वो हाल-ए-दिल अपना
“जिस के दिल में हो ग़म ज़माने का”

हम इधर बे-नियाज़-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
शौक़ उधर तुम को आज़माने का

दिल फ़िगारी से जाँ-सुपारी तक
मुख़्तसर है सफ़र दिवाने का

ज़िन्दगी क्या है आ बताऊँ मैं
एक बहाना फ़रेब खाने का

बन गया ग़मगुसार-ए-तन्हाई
ज़िक्र गुजरे हुए ज़माने का

दिल्लगी नाम रख दिया किसने
दिल जलाने का जी से जाने का

हम भी हो आएं उस तरफ ’सरवर’
कोई हीला तो हो ठिकाने का

-सरवर-

तज़्करा = चर्चा
बेनियाज़ी-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ =हानि-लाभ से रहित
दिल फ़िगारी = ज़ख़्मी दिल
जाँ सुपारी तक =जान सौपने तक
हीला =बहाना

ढूँढते-ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला

ढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला !

मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर तह-ओ-बाला निकला
गौ़र से देखा तो हर शख़्स तमाशा निकला !

एक ही रंग का ग़म खाना-ए-दुनिया निकला
ग़मे-जानाँ भी ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला !

इस राहे-इश्क़ को हम अजनबी समझे थे मगर
जो भी पत्थर मिला बरसों का शनासा निकला !

आरज़ू ,हसरत-ओ-उम्मीद, शिकायत ,आँसू
इक तेरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला !

जो भी गुज़रा तिरी फ़ुरक़त में वो अच्छा गुज़रा
जो भी निकला मिरी तक़्दीर में अच्छा निकला !

घर से निकले थे कि आईना दिखायें सब को
हैफ़ ! हर अक्स में अपना ही सरापा निकला !

क्यों न हम भी करें उस नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तलाश
शोला-ए-तूर भी तो एक बहाना निकला !

जी में था बैठ के कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’
तू भी कमबख़्त ! ज़माने का सताया निकला !

-सरवर-

शनासा = परिचित ,जाना-पहचाना
नक़्स-ए-कफ़-ए-पा = पाँवों के निशान
हैफ़ ! = हाय !

डूबता है दिल कलेजा मुँह को आया जाए है 

डूबता है दिल कलेजा मुँह को आया जाए है
हाय! यह कैसी क़ियामत याद तेरी ढाए है !

इश्क़ की यह ख़ुद फ़रेबी!अल-अमान-ओ-अल हफ़ीज़ !
जान कर वरना भला खु़द कौन धोखा खाए है

आँख नम है ,दिल फ़सुर्दा है ,जिगर आशुफ़्ता खू
लाख समझाओ वा लेकिन चैन किसको आए है ?

क्या तमन्ना ,कौन से हसरत ,कहाँ की आरज़ू ?
रंग-ए-हस्ती देख कर दिल है कि डूबा जाए है !

ऐतिबार-ए-दोस्ती का ज़िक्र कोई क्या करे ?
ऐतिबार-ए-दुश्मनी भी अब तो उठता जाए है !

इस दिल-ए-बे-मेह्र की यह कज अदायी देखिए
आप ही शिकवा करे है ,आप ही पछताए है !

बेकसी तो देखिये मेरी राह-ए-उम्मीद में
दिल को समझाता हूँ मैं और दिल मुझे समझाए है !

क्या शिकायत हो ज़माने से भला ’सरवर’ कि अब?
मैं जहाँ हूँ मुझसे साया भी मिरा कतराए है !

-सरवर-
कज अदायी = बेरुख़ी

छोड़िए-छोड़िए यह ढंग पुराना साहिब ! 

.छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना साहिब !
ढूँढिए आप कोई और बहाना साहिब !

खत्म आख़िर हुआ हस्ती का फ़साना साहिब
आप से सीखे कोई साथ निभाना साहिब !

भूल कर ही सही ख़्वाबों में चले आयें आप
हो गया देखे हुए एक ज़माना साहिब !

हमने हाथों की लकीरों में तुम्हें ढूँढा था
वो भी था इश्क़ का क्या एक ज़माना साहिब !

क्यों गए ,कैसे गए ,ये तो हमें याद नहीं
हाँ मगर याद है वो आप का आना साहिब !

कू-ए-नाकामी-ओ-नाउम्मीदी-ओ-हसरतसंजी
हो गया अब तो यही अपना ठिकाना साहिब !

क़स्रे-उम्मीद ,वो हसरत के हसीन ताज महल
हाय! क्या हो गया वो ख़्वाब सुहाना साहिब ?

रहम आ जाए है दुश्मन को भी इक दिन लेकिन
तुमने सीखा है कहाँ दिल का दुखाना साहिब ?

आते आते ही तो आयेगा हमें सब्र हुज़ूर
खेल ऐसा तो नही दिल का लगाना साहिब !

इसकी बातों में किसी तौर न आना ’सरवर’
दिल तो दीवाना है ,क्या इसका ठिकाना साहिब !

-सरवर-

कू-ए-नाकामी-ओ-नाउम्मीदी-ओ-हसरतसंजी= असफलता,निराशा और अपना दुख
बयान करने की जगह
क़स्रे-उम्मीद = उमीदों का महल

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