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सालिम सलीम की रचनाएँ

बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है

बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
सो ता-हद्द-ए-नज़ वहम ओ गुमाँ फैला हुआ है

हमारे पाँव से कोई ज़मीं लिपटी हुई है
हमारे सर पे कोई आसमाँ फैला हुआ है

ये कैसी ख़ामुशी मेरे लहू में सर-सराई
ये कैसा शोर दिल के दरमियाँ फैला हुआ है

तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
अभी तक मेरे कमरे में धुआँ फैला हुआ है

हिसार-ए-ज़ात से कोई मुझे भी तो छुड़ाए
मकाँ में क़ैद हूँ और ला-मकाँ फैला हुआ है

दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं

दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
सायों के इंतिज़ार में शब भर खड़ा हूँ मैं

क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं

फैला हुआ है सामने सहरा-ए-बे-कनार
आँखों में अपनी ले के समुंदर खड़ा हुआ हूँ मै।

सन्नाटा मेरे चारों तरफ़ है बिछा हुआ
बस दिल की धड़कनों को पकड़ कर खड़ा हूँ मैं

सोया हुआ है मुझ में कोई शख़्स आज रात
लगता है अपने जिस्म से बाहर खड़ा हूँ मैं

इक हाथ में है आईना-ए-ज़ात-ओ-काएनात
इक हाथ में लिए हुए पत्थर खड़ा हूँ मैं

दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ

दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
मुझ में ठहरा है कोई बे-पैरहन होता हुआ

एक परछाईं मिरे क़दमों में बल खाती हुई
एक सूरज मेरे माथे की शिकन होता हुआ

एक कश्ती ग़र्क़ मेरी आँख में होती हुई
इक समुंदर मेरे अंदर मौजज़न होता हुआ

जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
रूह के अंदर कोई कार-ए-बदन होता हुआ

हंगामा-ए-सुकूत बपा कर चुके हैं हम

हंगामा-ए-सुकूत बपा कर चुके हैं हम
इक उम्र उस गली में सदा कर चुके हैं हम

अपने ग़ज़ाल-ए-दिल का नहीं मिल रहा सुराग़
सहरा से शहर तक तो पता कर चुके हैं हम

अब तेशा-ए-नज़र से ये दिल टूटता नहीं
इस आईने को संग-नुमा कर चुके हैं हम

हर बार अपने पाँव ख़ला में अटक गए
सौ बार ख़ुद को रिज़्क़-ए-हवा कर चुके हैं हम

अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में
वो जब्र था कि ख़ुद को ख़ुदा कर चुके हैं हम

काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से

काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
उस ने फिर मुझ को समेटा है परेशानी से

मुझ पे खुलता है तिरी याद का जब बाब-ए-तिलिस्म
तंग हो जाता हूँ एहसास-ए-फ़रावानी से

आख़िरश कौन है जो घूरता रहता है मुझे
देखता रहता हूँ आईने को हैरानी से

मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है
जो भड़कती है तिरे छिड़के हुए पानी से

था मुझे ज़ोम कि मुश्किल से बंधी है मिरी ज़ात
मैं तो खुलता गया उस पर बड़ी आसानी से

कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है

कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है
ये कार-ओ-बार-ए-दुनिया बेकार चल रहा है

वो जो ज़मीं पे कब से इक पाँव पर खड़ा था
सुनते हैं आसमाँ के उस पार चल रहा है

कुछ मुज़्महिल सा मैं भी रहता हूँ अपने अंदर
वो भी बहुत दिनों से बीमार चल रहा है

शोरीदगी हमारी ऐसे तो कम न होगी
देखो वो हो के कितना तय्यार चल रहा है

तुम आओ तो कुछ उस की मिट्टी इधर उधर हो
अब तक तो दिल का रस्ता हमवार चल रहा है

मिरे ठहराओ को कुछ और भी वुसअत दी जाए

मिरे ठहराओ को कुछ और भी वुसअत दी जाए
अब मुझे ख़ुद से निकलने की इजाज़त दी जाए

मौत से मिल लें किसी गोशा-ए-तन्हाई में
ज़िंदगी से जो किसी दिन हमें फ़ुर्सत दी जाए

बे-ख़द-ओ-ख़ाल सा इक चेहरा लिए फिरता हूँ
चाहता हूँ कि मुझे शक्ल-ओ-शबाहत दी जाए

भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
शर्त ये है कि मिरी ख़ाक की क़ीमत दी जाए

बस कि दुनिया मिरी आँखों में समा जाएगी
कोई दिन और मिरे ख़्वाब को मोहलत दी जाए

पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है

पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
ये रात मेरे बदन पर सरकती रहती है

मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
फिर इस के बाद कोई शय चमकती रहती है

नदी ने पाँव छुए थे किसी के उस के बाद
ये मौज-ए-तुंद फ़क़त सर पटकती रहती है

मैं अपने पैकर-ए-ख़ाकी में हूँ मगर मिरी रूह
कहाँ कहाँ मिरी ख़ातिर भटकती रहती है

दरख़्त-ए-दिल पे हुई थी कभी वो बारिश-ए-लम्स
ये शाख़-ए-जख़्म हर इक पल महकती रहती है

एक हंगामा बपा है अर्सा-ए-अफ़्लाक पर

एक हंगामा बपा है अर्सा-ए-अफ़्लाक पर
ख़ामुशी फैला रखी है आज मैं ने ख़ाक पर।

अब मिरा सारा हुनर मिट्टी में मिल जाने है
हाथ उस ने रख दिए हैं दीदा-ए-नमनाक पर।

रोज़ बढ़ती ही चली जाती है बीनाई मिरी
रोज़ रख देता हूँ आँखों को तेरी पोशाक पर।

हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो

हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
मैं जी रहा हूँ तो जीना मिरी सज़ा ही न हो।

जो इब्तिदा है किसी इंतिहा में ज़म तो नहीं
जो इंतिहा है कहीं वो भी इब्तिदा ही न हो।

मिरी सदाएँ मुझी में पलट के आती हैं
वो मेरे गुम्बद-ए-बे-दर में गूँजता ही न हो।

बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
ज़रा सा झाँक के देखें कहीं हवा ही न हो।

अजब नहीं कि हो उस आस्ताँ पे जम्म-ए-ग़फ़ीर
और उस को मेरे सिवा कोई देखता ही न हो।

वो ढूँड ढूँड के रो रो पड़े हमारे लिए
सो दूर दूर तक अपना अता-पता ही न हो।

हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है

हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है
चराग़ों के लिबादा कर लिया है।

बहुत जीने की ख़्वाहिश हो रही थी
सो मरने का इरादा कर लिया है।

मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
तुम्हें इतना ज़ियादा कर लिया है।

जो कंधों पर उठाए फिर रहा था
वो ख़ेमा ईस्तादा कर लिया है।

न था कुछ भी मिरी पेचीदगी में
तो मैं ने ख़ुद को सादा कर लिया है।

हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला

हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
मैं अपने दाइरा-ए-ज़ात से नहीं निकला।

अभी तो ख़ुद पे मिरा इख़्तियार बाक़ी है
अभी तो कुछ भी मिरे हाथ से नहीं निकला।

वो वक़्त बन के मिरे सामने रहा हर दिन
तमाम-उम्र मैं औक़ात से नहीं निकला।

इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है

इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है
दश्त में भी दर-ओ-दीवार की बीमारी है।

एक ही मौत भला किसे करे उस का इलाज
ज़िंदगानी है कि सौ बार की बीमारी है।

बस इसी वज्ह से क़ाएम है मिरी सेहत-ए-इश्क़
ये जो मुझ को तेरे दीदार की बीमारी है।

लोग इक़रार कराने पे तुले हैं कि मुझे
अपने ही आप से इंकार की बीमारी है।

ये जो ज़ख़्मों की तरह लफ़्ज़ महक उठते हैं
सिर्फ़ इक सूरत-ए-इज़हार की बीमारी है।

घर में रखता हूँ अगर शोर मचाती है बहुत
मेरी तन्हाई को बाज़ार की बीमारी है।

 

 

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