अछूत
तुम फेंक देते हो
वह थाली
जिसमें मैं झाँकती हूँ
अपने अक्स को
मेरी परछाइयाँ भी
तुम्हें उद्विग्न कर देते हैं…
तुम्हारे प्रार्थना घरों के देवता
भाग खङ़े होते हैं
मेरी पदचाप सुनकर!
जिस कूंए से होकर मैं गुजरती हूँ
खारा हो जाता है
उसका मीठा पानी
एक त्याज्य व अछूत कन्या
होते हुए भी
तुम रांधते हो मेरी देह को
मरी हुई मछलियों की तरह!
जो स्वादहीन व गंधहीन होकर भी
तुम्हारे भोजन में
घुल जाती हूँ नमक की तरह…
एक शहर का ज़िन्दा होना
एक शहर
ज़िन्दा होता है
दम खींचते हुए
उन बूढ़े रिक्सेवालों से
जो रखते हैं
पाई–पाई का हिसाब
अपनी साँसों का…
उनके काले मटमैले हाथों में
होता है शहर भर का नक्शा
जिसमे रहते हैं
खेत–खलिहान / नदी–नाले
और उन गलियों के पते
जिन्हें लोग जानते हैं
अपने ही ठिकाने से…
शहर की गलियों और चौराहों के नाम
इनकी हथेलियों पर
खैनी चूने की तरह जमी होती है
जिन्हें ये चुटकियों में भरकर
दबा लेते हैं
मुंह के एक किनारे पर…
एक शहर
सुनसान होता है
जब होती है
हत्याएँ, अपहरण और लूटपाट
भीड़ उग्र से उग्रतर होती जाती है
बंद हो जाती है दुकानें और बाज़ार…
एक शहर
ज़िंदा होता है तब भी
उन रिक्शे की पहियों के घूमने के घुमते रहने से!
कि नहीं हुआ करती है
हत्याएँ
एक रिक्शे वाले की…
ढील मारती लड़की
तंग गलियों के भीतर
सीलन भरे
तहखाने नुमा घर के भीतर
सीढियों पर बैठी
ढील मारती लड़कियों के
नाखूनों पर
मारे जाते हैं ढील
पटापट
ठीक उसके सपनों की तरह
जो रोज-ब-रोज
मारे जाते हैं
एक-एक करके
अंधेरे में…
नहीं लिखी जाती हैं
इन पर कोई कहानियाँ
कविता
और न ही बनती है
इन पर कोई सिनेमा
कि ये कोई पद्मावती नहीं
जो बदल सके
इतिहास के रुख को…
भूसे की तरह
ठूंस-ठूंस कर
रखे गये संस्कार
उसके माथे में
भर दी जाती हैं
जिसे वे बांध लेती हैं
कस कर
लाल रिबन से…
कि वह नहीं खेल सकती
खो-खो कबड्डी
नहीं जा सकती स्कूल
गोबर पाथना छोड़कर…
वह अपने सारे अरमानों का
लगाती हैं छौंक
कङ़ाही में
और भून डालती हैं उन्हें
लाल-लाल
अपने सपनों को
जलने से पहले…
प्रसव कक्ष में
प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
असभ्य मानी जाती हैं
बचपन से ही इनके मुँह में
जड़ दिया जाता है ताला
ताकि वह इसे खोलने की
हिमाकत न कर सके!
इसीलिए नाक-कान छेद कर
इन्हें जकड़ा जाता है बेड़ियों में…
प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
घुट–घुट कर रोती हैं
इनके रुदन और संताप से
जन्म लेते हैं
मुट्ठी भींचे हुए
ललछौहें नवजात शिशु
लाल लाल गुलाब की तरह!
प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
खून के छींटे से लिखती हैं
अपने वलिदान और संघर्ष की गाथा
उनके लाल लहू से
हम उतारते हैं समूची पृथ्वी का ऋण
ताकि हमारी अगली पीढियाँ
करती रहे हमारा अनुसरण!
प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
किसी वर्ग में नहीं गिनी जाती हैं
न इनका कोई वाद होता है
ये बस औरतें होती हैं…
और / शिशु बस शिशु होता है
वर्ग विहीन / जाति विहीन
इस दुनिया का सबसे पवित्र कक्ष
प्रसव कक्ष है…
क़तार में खड़ी चीटियाँ
हमारा देश
उछल रहा है
गिल्ली की तरह
पुलिस डंडा उठाये
घूम रही है!
लोग अब भी
नींद में नहीं है
जग उठे हैं
उन्हें सब कुछ दीखता है
शीशे में साफ़–साफ़
कतार में खड़ी
चीटियाँ भी
खतरनाक हो सकती है
यह तथ्य
हाथी ने
कभी पढ़ा था
किसी किताब में…
इन ख़बरों से बेखबर
सूंड़ उठाए घूम रहा है हाथी
की भीड़ भी
पारंगत होती है
हत्यायों में—
{मनहूस वक़्त की एक मनहूस कविता}
बाज़ार
साधने की कला–कौशल है
ज़िन्दगी की वृताकार वाले में!
यह तनी हुई रस्सी पर
संतुलन बखूबी जानती है
वह लड़की!
जब वह नपे तुले क़दमों से
डगमगाती है
उस राह पर
जो टिकी होती है
दो बांस के सहारे…
करतब दिखती वह लड़की
बाज़ार का वह हिस्सा
बन कर रह जाती है
जहाँ सपने खरीदे और बेचे जाते हैं
वह चंद सिक्कों में ही
समेट लेती है
अपने हिस्से का बाज़ार…
भगत सिंह की माशूका
दो चुटिया बाँधे
उस अल्हड़ लड़की ने
अभी-अभी तो
जमीं पर पाँव रखा ही था
दुनिया अभी गोल होने की प्रक्रिया में थी
और / पृथ्वी चपटी होती जा रही थी…
उसकी नजरें अभी
पृथ्वी के उन अवांछित फलों पर,
ठीक से टिकी भी नहीं थी
जिसे चख लेने पर
भंग हो जाती है सारी नैतिकताएँ!
ठीक उसी वक़्त
उसकी नज़रें
तीर से भी आक्रामक
उस क्रांतिकारी नज़र से
ऐसे विंध गयी
की उसे वह फल खाना
याद ही न रहा
जिसे खाने के लिए वह
उतरी थी ज़मीं पर…
भगत सिंह तो उसी दिन शहीद हो गए थे
जिस दिन उनकी नजरें
इस माशूका से मिली थी!
प्रेम की कोंपलें फूटने से पहले ही
उन्हें दफना देना
हमारे देश की प्रथा रही है
उन दोनों को भी
यह रस्म अदायगी करनी पड़ी…
भगत सिंह जेल के सीखचों से
निहारते रहे अपनी माशूका का चेहरा
और वह अल्हड़ लडकी
पथ्थरों को फेंक–फेंक कर
गिनती रही
उन बेहिस वक़्त की रवायतों को…
वह आजीवन कुंवारी मासूमा
जिसका कौमार्य कभी भंग नहीं हुआ
आज भी कूकती है
अमिया के बागों में
और / भगत सिंह वहीँ उसकी डालों पर
झूल रहे हैं
फाँसी का फंदा बनाकर…
कुछ कहानियाँ कभी ख़तम नहीं होती
और / कुछ प्रेम कवितायें लिखी नहीं दुहराई जाती हैं…
मासूम जनवरी
१
नव वर्ष का पहला महीना
नया साल नया दिन
नए लोग और इस नई दुनिया में
तुम्हारा पहला कदम…
मेरे बच्चे ।
तुम मेरी पहली कविता हो
जिसके सर्जन हेतु
पहले प्यार के मानिंद
कविता का जन्म हुआ हो,
जब पीडाएँ दुःख के साथ
सम्भोग करती हैं
वहाँ रति सुख नहीं
आत्मप्रवंचना अधिक है!
अमूर्तन शब्द
इतनी पीडाएँ देती हैं
जितनी की कोई भूख से तड़पता हुआ बच्चा
चीखने में पूर्णतः असर्थ हो…
ईसा के सलीब पर
टाँगे जाने पर
रक्त की पतली दो धार बही
और चेहरे पर निस्तब्धता थी!
मेरे बच्चे,
मरियम ने फिर से ईसा को जन्म दिया
तू भी ईसा की तरह शांत है
जब तुमने इस दुनिया में
पर्दार्पण किया
तब जबकि सभी रोते चीखते हैं
तुम जीसस की तरह मौन थे…
२
इंतज़ार शब्द धूमिल पड़ गया
मेरे शब्दकोश से
जब तुम माँ बोलने में
असमर्थ रहे
कई वर्षों तक
मेरी आँखें पथरा गई
मेरे कान बहरे हो गए
तुम्हारे शब्द सुनने के लिए
मैं चीखती रही
पाषाण मूर्तियों के आगे
और / तुम सुनते रहे
चुपचाप मेरी रुदन
माँ शब्द की प्रतिध्वनि
टकराती रही
मंदिर के घंटों से…
३
तुमने मुझे चमत्कृत किया
अपनी असामान्य हरकतों से
लोग कहते हैं कि तू
विशेष बच्चा है
हाँ मेरे लिए तो तुम
एक नायाव तोहफा ही ठहरे
जिसने मुझे कभी
समझदार बनने ही न दिया
तुम बच्चे बने रहते हो
सोलहवें वर्ष में भी
और / मैं भी तुम्हारे साथ
बच्ची बन जाती हूँ
इस उम्र में भी!
बस्तों की दुनिया से इतर
तुम समझते हो ई॰ और अंकों की बातें
अचंभित होते हैं लोग
तुम्हारी विलक्षणता से
और / तुम हँस रहे होते हो,
मुझे देखकर…
४
मैं अब समझने लगी हूँ
तुम्हारी इस रहस्मय हँसी में
छिपे उसके मायने को
यह दुनिया जो पागल है
सामान्य को असामान्य बना देती है
जबकि ये लोग खुद अराजक हैं
तुम हँसते हो उनकी मंद बुद्धि पर
और / मैं भी शरीक हो जाती हूँ
तुम्हारी इस शैतानी में…
मेरे बच्चे
एक मासूम-सी हँसी बिखेर देते हो
मेरे कंधे पर हाथ रखकर
देते हो दिलासा
मैं जीत जाऊँगा जंग
एक दिन माँ!
५
उम्मीदों के ललछौहें सपने में
मैं अक्सर देखती हूँ
तुम्हें लम्बी छलांगे लगाते हुए
बाजों से पंजा लड़ाते हुए
अपनी दुनिया में
दखलंदाजी देते हुए
दाखिल हो जाते हो
धड़ाम से…
मेरे बच्चे,
जैसे माँ शब्द सुना मैंने
देर से ही सही
ठीक वैसे ही
मुझे यकीन है
की तुम जीत जाओगे
यह रेस भी
मैं दौड़ रही हूँ
तुम्हारे साथ–साथ
हर कदम पर
ताल से ताल मिलकर…
मैं कुर्मी हूँ, मुंडा हूँ
मैं कर्मी हूँ मुंडा हूँ
मेरे बालों में फूल नहीं शोभते
कंघी लगाना रास नहीं आया मुझे
मेरी कोमल उँगलियों में
तीर धनुक है कलम का वार है…
मैं भात नहीं रांधती
दूर से उसकी खुशबू आती है
हंडिया पर चढ़े भात को मैं देखती हूँ
दूर से जलते हुए धुओं से
मैं पहचानती हूँ भात का रांधना…
घाटो खाकर मेरी चमड़ी भी
मोटी हो गई है घाटो की तरह
जंगली फूल पत्ते शाही खरहा मेरे आहार हैं
धधकती आग मेरे उनी वस्त्र
पत्तों की छाल ही मेरे आवरण हैं!
हाँ! मैं कर्मी हूँ मुंडा हूँ…
मैं मक़बूल
कुंची में है रंग इतना भरा
कि मैं रंग सकता हूँ
पंढरपुर की दीवारों को ही नहीं
मुंबई की रिहायशी बस्तियों को भी
ओर / खिंच सकता हूँ खाका
इस्लामाबाद से लेकर
लंदन की गलियों तक का…
मेरी ज़मीन इतनी छोटी भी नहीं की
समा जाती मेरी रंगीन दुनिया
एक भू खंड में…
देशनिकाला तुमने मुझे नहीं
कला को दिया
अपनी संस्कृति को दिया
नग्नता देखने की आदी
तुम्हारी आँखे
द्रोण और भीष्म की तरह चुपचाप
देखा करतीं है
जब भरी सभा में
द्रोपदी की नग्न देह पर
बिछता है चौसर…
मैं मकबूल
कबूल करता हूँ की
मैंने तुम्हारी आँखों की पट्टी खोली है
ताकि तुम देख सको
हस्तिनापुर का सच
तुम देख सको अग्नि में जलता हुआ सीता का शारीर
तुम देख सको
रामायण व महाभारत के उन किस्सों को
जिन्हें तुम नहीं देख सकते
अपनी नंगी आँखों से…
मैं मकबूल
एक सजायाफ्ता कैदी
गुनाहगार हूँ
तुम्हारी भारत माता के
जिनके चिथड़े वस्त्रों पर
मैंने चलाई है अपनी कुंची
मैं मकबूल
धुल फांकता रहा परदेसों में
अपने देश की मिटटी बुलाती रही मुझे…
तुमने मुझे ज़मीन का दो गज टुकड़ा
देना मुनासिब नहीं समझा
मुझे दफ़न करने के लिए
मैंने तुम्हे सारा जहाँ दे दिया…
मैं मकबूल
फ़िदा हूँ आज भी अपने वतन पर
और मैं गाता हूँ
सारा जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा…
यह इंसान बनने का समय है
अपनी पुतलियों को फैलाकर
सिकोड़ लेती है
बजबजाती भूख से
अतृप्त इच्छाओं को…
खैरात में मिले उन टुकड़ों को
चबा–चबा कर खाती हैं
ताकि देर तलक
बजती रहे
चपर चपर की आवाज़
और / उसकी गंध को भारती रहे वह
अपनी नथुनों में!
जब इंसान चुक जाता है
अपनी संप्रेषणीयता बनाने में
पशु की आँखें बोल पड़ती है…
यह इंसान की आखिरी अवस्था है
जब इंसानियत
पशुता की भेंट चढ़ जाती है
और / पशु इन्सान बनने लगता है!
यह इंसान का / पशुता की शक्ल में
इंसान बनने का समय है…
सिमरिया घाट
चलो चलते हैं
सिमरिया घाट
जहाँ दिनकर की अस्थियाँ
जली होंगी तिल-तिल कर
डोमवा
जनवाद का चीवर ओढ़ कर
सिसक रहा है
आज भी…
हरिजन नहीं कहूँगी उसे
जिसे छूने भर से
मलिन गंगा में स्नान करके
पवित्र हो जाते हैं लोग…
चलो चलते हैं
सिमरिया घाट
जिसके किनारे
मृत पशुओं की खाल से
बना एक बड़ा उद्योग
पनप रहा है आज भी
जिसे छूने भर से लोग
हो जाते हैं अपवित्र
चमरा नहीं कहूँगी उसे…
जिसके निर्मित थैले को लोग
लटकाते हैं अपने गर्दन में!
और / शान के प्रतीक
समझे जाने वाले
बाटा जूते को
लोग करते हैं धारण
बड़े ही शौक से…
चलो चलते हैं
बरौनी के डोम बस्ती में
जहाँ डोमवा
आश्विन मास से ही
बुनने लगते हैं
अपनी अद्भुत कलाकृतियों को
सूप और डगरा के रूप में
डोमवा
तुम्हें हरिजन नहीं कहूँगी
कि तुम्हें छूते ही
लोग हो जाते हैं अपवित्र
उसी सूप से देते हैं
सूर्य भगवान को अर्ध्य!
चलो चलते हैं
पवित्र सिमरिया घाट
दिनकर नगरी सिमरिया घाट…
सूरजमुखी का सच
ओ री सूरजमुखी,
ताकती है सूरज का मुँह
अंधेरों से घबराकर
सौंप देती है
अपना सर्वस्व
सूरज के हवाले?
एक सूरज के इशारे पर
कठपुतली-सी नाचती हुई
तुमने अपनी सारी महक खो दी है
तुम्हारा सारा वजूद
समा गया है
सूरज की किरणों में…
ओ री सूरजमुखी
कभी होश आये तो
आना चांदनी रात में
रातरानी बनकर
दीदार करना चाँद से
जब तेरे रूह में
समा जाए चाँदनी
यकीन मानो
छोड़ देगी गुलामी
सूरज की…
उलझते रिश्ते
अंगना बुहारती स्त्रियाँ
अपनी सारी वेदनाओं को
उड़ा देती हैं घर के धूल के साथ!
उनींदी रातों की कहानी
चिपक जाया करती हैं
कमरे की दीवारों पर-
बासी कमरे से आती बू
उदास चेहरे पर
जबरन मुस्कान थोपते हुए
वह सहजता से मिटा देना चाहती है
अपने सारे निशान
बिखरे हुए तिनके की तरह-
बेतरतीब जुल्फों को
करीने से काढ़ती हुई
आड़ी तिरछी बिन्दी को
माथे पर सुनिश्चित कर
आश्वस्त करती है
अपना पता ठिकाना!
झाड़ू कोई उपकरण नहीं
बस एक समाधान है
उलझते बिगड़ते रिश्तों को
तहजीब से रखने की
क्या फर्क पड़ता है?
सज / सँवर के बैठी
वह औरतें
अपनी देहरी पर करती इंतजार
अपने पति या / किसी ग्राहक का
क्या फर्क पड़ता है?
देह तो एक खिलौना है
जो बिकता है सब्जियों से भी सस्ता
सरे आम मंडी में
या / बंद कुंडी में क्या फर्क पड़ता है—-सारे निशान दर्द व जख्म उनके अपने हैं
जिसे बिना शृंगार के वे लगती अधूरी हैं
चंद पैसों के लिए हर रोज दफन होती हैं
उनकी ख्वाहिशें
पर कभी खरीद नहीं पाती
वे अपने सारे सपने फिर भी जीती हैं
वे अपने बच्चों की खातिर करती हैं कामना
पति के दीर्घायु के लिए रख कर करवाचौथ
हर रोज वे करती रहें सोलह शृंगार
और नुचवाती रहें अपनी देह
वे हर हाल में खरीदी या बेची ही जाती हैं
वह कोई दलाल हो या फिर पति
या पिता क्या फर्क पड़ता है?
उल्टे पाँव
कहते हैं
उल्टे होते हैं
भूतनी के पाँव
क्यों न हो
उल्टे पाँव वापस जो आती हैं
स्त्रियाँ
सीधे शमशान घाट से—
सौ व्रत व पुण्य भी
जो कमाया उसने ज़िन्दगी भर
आरक्षित न करा सकी
स्वर्ग में
अपनी जगह
अधजली लाश
फंदे पर झूलती औरतें
कहाँ छोड़ कर जा पाती है?
अपनी यह दुनिया
प्रसव पीड़ा से कराहती
ये औरतें भी
वापस आ जाती हैं
उल्टे पाँव
अपने दुधमूंहे बच्चों के पास
घर की चारदिवारी
जो कभी लांघ न सकी
सीधे पाँव
अपनी ज़िन्दगी में
बरबस खिंची चली आती है
स्वर्ग लोक से
उल्टे पाँव—
लोग जो डरते नहीं जीते जी
औरतों से
डरावनी हो जाती हैं
ये औरतें
मरने के बाद
चूड़ैल बनकर करती हैं
अट्ठाहास
शमशान घाट से
उल्टे पाँव भागी हुई औरतें
सिन्धु नदी की विरासत है स्त्रियाँ
मोहनजोदड़ो की
कभी न पढ़ सकने वाली
लिपि होती हैं स्त्रियाँ
जिनके मन की तह को
खोलने के लिए
पाना होता है एक दिव्य दृष्टि—
साधारण चक्षु से
हम देख पाते हैं
बस उपरी आवरण को
जिसे मापा जा सके
गणितीय इकाइयों में—
जैसे सागर के तरंगों की
कोई माप नहीं होती
स्त्रियों को भी
नहीं मापा जा सकता है
उनकी लंबाई चौड़ाई व गोलाई में—
तरल द्रव्य-सी स्त्रियाँ
बहती हैं अपनी ही धारा में
जिसमें कोई भी रंग मिला दो
सहज घुल जाती हैं
उसी रंग में-
स्त्रियाँ समझती हैं
बस प्रेम की भाषा
गर उसे दे सको
थोड़ा-सा भी प्रेम
पढ लोगे फिर
आसानी से उनकी भाषा-
स्त्रियाँ जितनी अबूझ होती हैं
उतनी ही सरल हैं
कच्ची मिट्टी की तरह
जिसे चाक पर घुमा कर
मन चाहा पा सको-
सिन्धु नदी की विरासत हैं स्त्रियाँ
जिसकी जितनी खुदाई करो
उतने ही दुर्लभ
प्रस्तर मूर्तियाँ निकलेंगी
प्राचीन धरोहर की तरह-
एक स्त्री का प्रेम
एक स्त्री को पढ़ना
गढ़ना होता है
इतिहास और संस्कृति को
उनके रीति रिवाजों
और उनके मान्यताओं को
जो हर युग म़े
भिन्न भिन्न परिवेश में
बदलती रहती है…
उनकी सीमाएँ
कभी खत्म नहीं होती
किसी नक्शे की तरह
वह एक ही खांचे में
ढाली जाती हैं
भिन्न-भिन्न परिवेश में
किसी विलुप्त प्राणी की तरह…
एक स्त्री का प्रेम
सामंती होता है
हर युग में
जिसकी परिणीति
दीवारों में चुनवाने से आरंभ
और जौहर पर खत्म होती है…
प्रेम में समर्पित स्त्री
अक्सर
शतरंज की रानी होती हैं
जिसे
शहजादे की शह के लिए
खुद को मात देना पड़ता है…
चुप्पा कवि
शब्द खामोश नहीं होते
उनके स्वर और मात्राएँ
मिलकर बनाते हैं
हमेशा ही नई कोई व्यंजना!
एक कवि
कभी चुप नहीं बैठता
चुप्पा कवि
दरअसल
चढ़ा रहा होता है
अपनी कविता पर शान…
बाज समय के
क्रूर अहसासों को
फड़ङ़ाते हुए वह
समेट रहा होता है
चंद उबलते हुए हालात को
जिनके गर्म लहू के छींटे
यदा-कदा
गिरते रहते हैं
उसके बदन पर
और वह
और तेज / और तेज
करता जाता है
अपनी धार को
और भी पैना
बिन कहे
चुपचाप…
काफ़िर
तुम करते रहे घुर्णन
अपनी परिधि में
मैं
देखती रही
अपलक
पृथ्वी का घूमना
मैं
चाहती थी
अक्ष होना
उस धूरी की
जिसमें
तुम्हारा संसर्ग हो
और / तुम मुझे समझाते रहे
तटस्थता के नियमों को…
सुनो काफिर,
इश्क़ कोई
उदासीनता वक्र विश्लेषण का सिद्धांत नहीं
जहाँ हम तटस्थ रहे…
आवेगो़ को
कभी बांध नहीं पाई मैं
अपने जूङे की
उपत्यकाओं म़े
और तुम्हें पसंद नहीं
मेरा यो़ खुलकर बह जाना…
मैं
दोनों वक्रों की
वह संयोग हूँ
जहाँ तुम्हारी
उदासीनता भंग होती है…
वक्रों के इस
कुटिल चाल में
मैं चाहती हूँ “संग” होना
और तुम “सार” किए जाते हो…