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सुदीप बनर्जी की रचनाएँ

एक और बच्चा मर गया

एक और बच्चा मर गया

गिनती में शुमार हुआ

तमाम मेहनत से सीखे ककहरे

पहाड़े गुना भाग धरे रह गए

शहर के स्कूल से जाकर

सैकड़ों नंग-धडंग बच्चों के

रक्खे-फ़ना शरीक़, गो कि थोड़ा शरमाता हुआ

आख़िरकार आदिवासी बन गया

कोई तारा नक्षत्र नहीं बना फलक पर

इतनी चिताएँ जल रही है

पर रोशनी नहीं, थोड़ी गर्मी भी नहीं

इतने हो रहे ज़मींदोज़ पर भूकंप नहीं

ईश्वर होता आदमक़द तो

ज़रूर उदास होता

यह सब देखकर

सिर झुकाए चला गया होता

पर आदमक़द आदमी भी तो नहीं

ईश्वर का क्या गिला करें

सिर्फ़ शायरों की मजबूरी है

दुआएँ माँगना या थाप देना

इस निरीश्वर बिखरे को

बिलावजह वतन को

जंगलों को चीरकर

आते नहीं दीखते कोई धनुर्धारी

आकाश रेखा पर कोई नहीं गदाधर

केवल उनके इंतज़ार में गाफ़िल

मैं ख़ुद को नहीं बख्शूँगा सुकून

इस मुल्क के बच्चों के वुजूद से

बेख़बर, बेजबाँ ।

उतना कवि तो कोई भी नहीं

उतना कवि तो कोई भी नहीं
जितनी व्‍यापक दुनिया
जितने अंतर्मन के प्रसंग

आहत करती शब्‍दावलियां फिर भी
उंगलियों को दुखा कर शरीक हो जातीं
दुर्दांत भाषा के लिजलिजे शोर में

अंग प्रत्‍यंग अब शोक में डूबे
चुपचाप अपने हाड़ मांस रूधिर में आसीन
उंगलियां पर मानती नहीं अपनी औकात

उतना कवि तो बिल्‍कुल ही नहीं
कि उठ खड़ा होता पूरे शरीर से
नापता तीन कदमों से धरती और आसमान

सिर पर पैर रखता समय के

आइने में उसकी हँसी

आइने में उसकी हंसी
उसकी अंतरात्‍मा को
नजर अंदाज करती

अपना नाम पहने वह
दस्‍तक देती है
नित नये ठिकानों पर
अपनी आमद का ऐलान करती

अपना नाम पहने
उसकी हंसी
दस्‍तकों से भर देती है
समूची दुनिया को

कोई है क्‍या कहीं
इस निरवधि काल
और विपुला पृथ्वि में
कोई कहीं छिपा हुआ ?

अपना नाम उतार कर
अब वह आइने के समक्ष

उसके नजर अंदाज को
समानधर्मा सहेलियों के
जन्‍मांतरों में पिरोती हुई

मलबा

समतल नहीं होगा कयामत तक
पूरे मुल्क की छाती पर ऐला मलबा
ऊबड़-खाबड़ ही रह जाएगा यह प्रसंग
इबादतगाह की आख़िरी अज़ान
विक्षिप्त अनंत तक पुकारती हुई ।

उंगलियाँ भूल आई हूँ

उंगलियाँ भूल आई हूँ, दफ़्तर में
अनामिका में फँसी अंगूठी
रह गई है मेज़ पर

मैं वापस ले आऊंगी
उन्हें शनिवार को
तुम्हारे लिए बुनने को स्वेटर

हम ऊन का रंग तय कर लें
इन सदियों में, तब तक

धीरे-धीरे दरकिनार होते

धीरे-धीरे दरकिनार होते हुए
मैं देख रहा हूँ एक निरर्थक नदी पर
वेगवान है, मेरे हमउम्र
तमाम दोस्तों की दिनचरयाएं
वे सब किनारे लगेंगे अगली सदी में

अगली सहस्त्राब्दि में
अपने नाती पोतों के नाती पोतों के
नाती पोतों के ज़माने तक
हरकत में रहने का दमख़म है उनमें

अपनी इनसानियत में ईश्वर के प्रतिस्पर्धी
उसको पराजित कर भी माफ़ कर देने की
विनम्र शक्ति उनकी जिजीविषा में

मैं और ज़माने का बाशिंदा
अपने दादों-परदादों के दादों-परदादों
के दादों-परदादों के पहले से प्रेतों का हमसाया

धीरे-धीरे लौटते हुए
माँ की कोख से होते हुए
अज़ल की ओर मुखातिब

वे वयस्क होंगे युगान्तरों के बाद
मैं कब का बुज़ुर्ग हुआ
आदमज़ाद के शाया होने से थोड़ा अव्वल।

नदियाँ मेरे काम आईं

जहाँ भी गया मैं
नदियाँ मेरे काम आईं

भटका इतने देस-परदेस
देर-सबेर परास्त हुआ पड़ोस में
इसी बीच चमकी कोई आबेहयात
मनहूस मोहल्ला भी दरियागंज हुआ

पैरों के पास से सरकती लकीर
समेटती रही दीं और दुनिया
काबिज़ हुई मैदानों बियाबानों में
ज़माने की मददगार
किनारे तोड़कर घर-घर में घुसती रही

सिरहाने को फोड़ती सुर सरिता
दुखांशों से देशान्तरों को
महासागर तक अपने अंत में
पुकारती हुई

मलेनी नेवज डंकनी शंखनी
इन्द्रावती गोदावरी नर्मदा शिप्रा
चम्बल बीहड़ों को पार करती
कोई न कोई काम आई पुण्य सलिला

जैसे ही मैं शिकार हुआ
अब सब मरहले तय करके
व्यतीत व्यसनों में विलीन
दाखिल हुआ इस दिल्ली में उदास

इसका भी भला हो
सुनता हूँ यहाँ भी एक यमुना है
वह भी एक दिन काम ज़रूर आएगी।

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