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सुदेश कुमार मेहर की रचनाएँ

काश

मैं जब तनहा सा रोता हूँ लिपटकर शब के सीने से
बिखरने लगते हैं ये अश्क आँखों से करीने से

ख़यालों में मिरे तुम दौड़कर मुझको बुलाती हो
मुझे बाँहों में लेकर सीने से अपने लगाती हो
छुपाकर मुंह दामन में सिमटने सा मैं लगता हूँ
तिरे शाने पे रखकर सर सिसकने सा मैं लगता हूँ
तसल्ली देती हो मुझको मुझे ढांढस बंधाती हो
बस इक मेरी हो मुझको ये बिना बोले जताती हो
मिरे बालों को हौले हौले से सहलाने लगती हो
कभी थपकी सी देती हो कभी बहलाने लगती हो
मिरे गालों पे बह आये हैं आंसू मेरी आँखों से,
उन्हें तुम पोंछने लगती हो इन नाजुक से हाथों से
लिपटकर तुमसे मैं यूं बेतहाशा रोने लगता हूँ,
बिखरकर हिचकियों में आंसुओं में खोने लगता हूँ
मिरे गम से बहुत गमगीन होने लगती हो तुम भी,
मुझे समझाती हो पर खुद ही रोने लगती हो तुम भी

मगर ये तो हैं सब ख़्वाबों ख्यालों की फ़कत बातें
गुजरती हैं मिरी तन्हाई में तनहा सी ये रातें
अकेलेपन में कमरे के सिसकता अब भी रहता हूँ
तुम्हे पाने की जिद में मैं बिखरता अब भी रहता हूँ

यहाँ है कौन जो मुझको सदा देकर बुलायेगा
मुहब्बत से मुझे सीने से अपने यूं लगाएगा

ये तन्हाई ये सन्नाटे ये यादें हैं फ़क़त मुझमें
ये उम्मीदें मिरे सपने ये बातें हैं फ़कत मुझमें
यही तो हैं जो मुझको यूं जगाते हैं सुलाते हैं,
मिरे ही संग रोते हैं मुझे आकर रुलाते हैं

मैं तन्हाई में रोता हूँ लिपटकर इन के सीने से
बिखरने लगते हैं ये अश्क आँखों से करीने से

कहीं से तुम चली आतीं मुझे बरबस बुलातीं काश
मुझे बाँहों में लेकर सीने से अपने लगातीं काश
छुपाकर मुंह दामन में सिमटने सा मैं लगता जब
तिरे शाने पे रखकर सर सिसकने सा मैं लगता जब
तसल्ली देती यूँ मुझको मुझे ढांढस बंधातीं काश
बस इक मेरी हो मुझको ये बिना बोले जतातीं काश
मिरे बालों को हौले हौले से सहलाने लगतीं काश
कभी थपकी सी देती औ कभी बहलाने लगतीं काश
मिरे गालों पे बह आते जो आंसू मेरी आँखों से,
उन्हें फिर पोंछने तुम लगती उन नाजुक से हाथों से
लिपटकर तुमसे कुछ यूं बेतहाशा रोने लगता मैं,
बिखरकर हिचकियों में आंसुओं में खोने लगता मैं,
गमों से तुम मिरे कुछ यूँ भी गमगी होने लगतीं काश,
अचानक मुझको समझाते हुये तुम भी रोने लगतीं काश

बेखटके

तुम्हारे होठों के ऊपर किनारों पर उगे रोयें,
वही हैं, जान जिन पर मैं लुटा सकता हूँ बेखटके,
तुम्हारी हसलियों से जो उभर आते हैं वो गड्ढे
वही हैं, जान जिन पर मैं लुटा सकता हूँ बेखटके,
तुम्हारे शाने पे उजली चमक सी टिक के बैठी है,
तुम्हारे कान की लौ पे किरन जो आ के लेटी है
ज़माने की रवायते और तश्बीहें न मानेंगीं,
तुम्हारी नींद में डूबी हुई आँखें न जानेंगीं,
कि ख्वाबों में तुम्हारे ही मेरे सब रतजगे अटके
यही हैं, जान जिन पर मैं लुटा सकता हूँ बेखटके,
वही हैं, जान जिन पर मैं लुटा सकता हूँ बेखटके

शनासाई

बहाने ढूंढता हूँ सोचता हूँ अक्सर,
किसी सूरत तो उससे भी शनासाई हो
खयालों के क़फ़स में यादों की जंजीरें,
उसी की बस उसी की हर सूं तस्वीरें,
किसी भी तौर मुझमें कम न तन्हाई हो
न जाने वो मिरे बारे में क्या सोचेगी,
यही सब सोचकर मैं रात भर जागा हूँ
बना डालूँ मैं खुद को भी तमाशा लेकिन,
यही इक शर्त है वो भी तमाशाई हो
बहाने ढूंढता हूँ सोचता हूँ अक्सर,
किसी सूरत तो उससे भी शनासाई हो

सुना है मर रही हैं

सुना है मर रही हैं ये दिसम्बर की हसीं रातें
सुना है मर रहे हैं ये दिसम्बर के हसीं लम्हे
कहीं तो कैद हैं वो याद के टुकड़े कई शामों के,
बदन को चीरती तीखी हवाओं गुनगुने घामों के,
समय की अधबुझी सिगरेट सा रिश्ता जला सा है,
कोई कश आखिरी तो ले, कि भीतर कुछ मरा सा है,
सुना है मर रही हैं ये दिसम्बर की हसीं रातें
सुना है मर रहे हैं ये दिसम्बर के हसीं लम्हे
मगर मैंने अभी देखे हैं पिछले वो कई लम्हे,
सफे में जिनके लिक्खे हैं हमारे टूटते हिस्से,
कोई हिस्सा तेरे उस गाल के तिल की अमानत है,
कोई टुकड़ा तेरी बेलौस आँखों की हरारत है,
ये मुझमें और तुममें भी अभी तक सांस लेते हैं
हमारे हैं, चलो आपस में इनको बाँट लेते हैं
नहीं मरतीं कभी भी ये दिसम्बर की हसीं रातें
नहीं मरते कभी भी ये दिसम्बर के हसीं लम्हे

उसे कह तो दूँ

उसे कह तो दूँ कि वो नूर है,
मेरी शाइरी का गुरुर है,
मेरी ख्वाहिशों का खुमार है,
मेरी आरज़ू का करार है,
मेरी हसरतों का जूनून है
मेरी चाहतों का सुकून है,

उसे कह तो दूँ कि वो इश्क है,
वो ही रूह है, वो ही मुश्क है
वो वुजूद है, वो सबात है
उसे कह तो दूँ वो हयात है,

मैं तो जिस्म हूँ कि जो ख़ाक है,
तुझे कह तो दूँ कि तू जान है,
मुझे इश्क है तेरे नाम से,
तेरी ज़ात से तेरी बात से,

रगे जाँ के वो जो करीब था
किसी और को ही नसीब था
उसे कह तो दूँ कि वो गैर है
उसे कह तो दूँ कि मैं लाश हूँ

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