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सुधा ओम ढींगरा की रचनाएँ

तुम्हें क्या याद आया

तुम
अकारण रो पड़े–
हमें तो
टूटा सा दिल
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया–

तुम
अकारण रो पड़े–
बारिश में भीगते
शरीरों की भीड़ में
हमें तो
बचपन
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया—

तुम
अकारण रो पड़े–
दोपहर देख
ढलती उम्र की
दहलीज़ पर
हमें तो
यौवन
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया–

तुम
अकारण रो पड़े–
उदास समंदर के किनारे
सूनी आँखों से
हमें तो
अधूरा सा
धरौंदा
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया–

तुम
अकारण रो पड़े–
धुँधली आँखों से
सुलगती लकड़ियाँ देख
हमें तो
कोई
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया–

बर्फीली सर्दी का पहला दिन

सुबह भिंची-भिंची आँखों से
खिड़कियों के पर्दे हटाते हुए
बाहर देख
अवाक् रह गई !

शिल्पकार ने
पूरे बगीचे में
पारदर्शी काँच के वृक्ष
औ’ झाड़ियां जड़ दी थीं !

रिमझिम फुहार
सारी रात गाती रही
तापमान गिरने से
बर्फ बन गुनगुनाती रही !

तभी शायद
पाइन , टीक औ’ पाम के
वृक्षों को शिल्पी घड़ता रहा
रूप नया देता रहा.

ऐसा लगा
काँच बगीचा है मेरा
एक -एक पत्ती
मैग्नोलिया की एक -एक पंखुड़ी
कुशल शिल्पी की कृतियाँ हैं !

काँच की घास
निहार तो सकतीं हूँ …..
पाँव नहीं रख सकती …….

बर्फीली सर्दी का दूसरा दिन

सूरज ने अंगड़ाई ली
पहली किरण ने
अधखुली घुटी-घुटी
आँखों से
काँच बगीचे का नरीक्षण किया……
चकाचौंध से चुंधिया कर
उनींदी -उनींदी सी वह
फिर सूरज में सिमट गई
दिन भर दुबकी रही…….
एक म्यान में दो तलवारें कैसे रहतीं

तेरा मेरा साथ

छाँव छम्म से
कूद कर
वृक्षों से
स्वागत करती है…..
धूप के मुसाफिर का.

जिसके,
चेहरे की रंगत
हो गई
तांबे रंग सी
जिस्म
बुझे अलाव सा.

और………कहती है
ऐ! मुसाफिर
दो घड़ी
मेरे पास आ
सहला दूँ,
ठंडी साँसों से-
तरोताज़ा कर दूँ
तुम्हें,
चहकते
महकते
बढ़ सको
अपनी मंजिल की ओर.

फिर पूछा…..
जीवन के किसी
मोड़ पर
तुम्हारा मेरा
सामना हुआ,
तो…….
तुम
पहचान लोगे मुझे?

पगली सामना कैसे?
पहचानना कैसे?
तेरा मेरा
जन्म जन्मांतर
हर पल
क्षण
का है साथ
प्राकृत
आत्मिक
वह मुस्कराया…….

इतना सुन
छाँव—
पेड़ की
टहनियों में
छुप कर
निहारने लगी…..
धूप के
मुसाफिर
अपने पथदर्शक के
पाँव के निशाँ.

बदलाव

सूखे पत्तों को
उड़ते देख
ऋतु ने
प्रश्न किया–
क्या तुम्हें
मेरे साथ की
इच्छा नहीं रही?

पत्तों ने कहा–
हम तो
बूढ़े,
बेकार
हो गए.
सोचा,
क्यों ना
बिखर कर
राख हों जायें.

इसी
बहाने
अपनी जननी से
मिलने की ललक
पूर्ण हो जाए.

शायद
उसके
नव प्रजन्न में
सहायक हो सकें.

सुनते ही
ऋतु भी
इठलाती
रंग बदलने लगी.

खिलवाड़-१

दिन की आड़ में
किरणों का सहारा ले
सूर्य ने सारी खु़दाई
झुलसा दी.
धीरे से रात ने
चाँद का मरहम लगा
तारों के फहे रख
चाँदनी की पट्टी कर
सुला दी .

खिलवाड़-२

किरणों के फावड़ों से
सूर्य ने
सारी खुदाई
खोद डाली.

रात उतरी
मेढ़ से और
चाँद तारे
बो गई.

कभी-कभी

कभी-कभी
मन की
उद्वेलना
मस्तिष्क में
स्मृतियों को
सपंदित
उत्तेजित
झंकृत कर
रतजगा है करवाती .

हृदय की
पोटली में बंधे
एहसास
अनुभूतियाँ
स्पर्श
खुल-खुल कर
विचलित हैं करते .

पुराने जर्जर
पीले पड़े पत्र
उद्धव का संवाद से
गोकुल में भटकती
ग्वालिन के
व्यथित हृदय
पीड़ित मस्तिष्क में
नई संचेतना
संचारित हैं करतें .

ऐसे में
कल्पना
सोच
मन में
तुम्हें
करीब पा
अपनी वेदना की पीड़ा
से निवृति हूँ पाती .

भ्रम

शंकर को ढूंढने चले
हनुमान मिल गए;
क्या-क्या बदल के रूप-
अनजान मिल गए.

एक दूसरे से पहले
दर्शन की होड़ में;
अनगिनत लोग रौंदते-
इन्सान मिल गए.

माथे लगा के टीका
भक्तों की भीड़ में;
भक्ति की शिक्षा देते-
शैतान मिल गए.

अपने ही अंतर्मन तक
जिसने कभी भी देखा;
दूर दिल में हँसते हुए-
नादान मिल गए.

तोड़ा था पुजारी ने
मन्दिर के भरम को;
जब सिक्के लिए हाथ में-
बेईमान मिल गए.

कुछ रिसते झोंपड़ों में
जब झाँक कर देखा;
मानुषी भेस में स्वयं-
भगवान मिल गए.

अपने को समझतें हैं
जो ईश्वर से बड़कर;
संसार को भी कैसे-कैसे-
विद्वान् मिल गए.

किस पर करे विश्वास
आशंकित सी सुधा;
देवता के रूप में जब-
हैवान मिल गए.

यह वादा करो

यह वादा करो
कभी ना उदास होंगे;
सृष्टि के कष्ट चाहे सब साथ होंगे.

प्रसन्नता के क्षणों को
एकांत से ना सजाना;
हम ना सही, कुछ लोग खास होंगे.

दुःख में स्वयं को
कभी अकेला ना समझना;
दिल के तेरे हम पास-आस होंगे.

देखना कभी ना
नज़रों को उठा कर;
कुछ अश्रु, कुछ प्रश्नों के वास होंगे.

तन्हा ना घूमना
जंगल में तन्हाइयों के ;
कुछ टूटे फूटे शब्द मेरे तेरे पास होंगे.

नज़रों से ओझल

मस्जिदों की अजाने
मंदिरों के घंटे
शून्य चीरते
हवाओं संग गूंजते
बुलाएँ ऐसे जैसे शाम को सहर.

सुखद क्षणों में भूलें
दुखद पलों में पुकारें
गम की लहरें
खोजें उसका ठौर
ढूंढें ऐसे जैसे रात को पहर.

हर गाँव
हर बस्ती में
है उसका बसर
फिर क्यूँ भटके इधर-उधर
खोजा ऐसे जैसे सागर को लहर.

झलक न पाई उसकी
पढ़ डाले वेद-पुराण
नज़रों से ओझल रहा
देखा हर द्वार
कम रही आराधना
पाया न ऐसे जैसे आंसू को नज़र.

मन घबराता है

जब भी मेरा मन
घबराता है
मस्तिष्क —
तेरी यादों में
डूब जाता है.

रात
आँखों में
कटने लगती है–
तेरे एहसास से
चैन आता है.

उलझनों से घिरे
मन औ’
बेचैन मस्तिष्क को–
एक नया साहस
बंध जाता है.

सोचों में करीब
पा कर तुझे
ग़म से छुटकारा पा–
वेदना को नया
मार्ग मिल जाता है.

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