मधु ऋतु की हँसती घड़ियाँ ये,

जीवन-पतझर में क्यों लाए ?

ये मस्ती की फुलझड़ियाँ ले,

मेरे खंडहर में क्यों आए ?

छेड़ी क्यों तुमने सूने में

वंशी-ध्वनि मीठी, क्यों आए ?

जिसको सुन पागल-विकल हुआ

यह मन मेरा, तुम क्यों आए ?

रोदन के एकाकी जग में,

पल एक हँसाने क्यों आए ?

नाता इस पीड़ामय उर से,

तुम हाय ! जोड़ने क्यों आए ?

उस गीली स्मिति की छवि नयनों

में तुम उलझाने क्यों आए ?

मधु का प्याला आँखों में भर

पल-पल छलकाने क्यों आए ?

तुम पूर्ण अपरिचित मग चलते,

चिर परिचित बन कर क्यों आए ?

हे पथी, कहो, जाना ही था

तो रुकने पल भर क्यों आए ?

हम बाल गुपाल

हम बाल गुपाल सभी मिलकर
दुनिया को नई बनाएँगे।

जो अभी नींद में सोए हैं,
जो अंधकार में खोए हैं,
कल उनको हमीं जगाएँगे।

जो नींवें अब तक भरी नहीं,
जो फुलवारी है हरी नहीं,
कल उनको हमीं बसाएँगे।

जो शीश सदा से झुके हुए,
जो कदम आज हैं रुके हुए,
कल उनको हमीं उठाएँगे।

जो अंकुर डरें उभरने से,
जो पौधे डरें सँवरने से,
कल उन्हें हमीं लहराएँगे।

हम छोटे आज, बढ़ेंगे कल,
धरती से गगन, चढ़ेंगे कल
हम ऊँचा देश उठाएँगे।