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जुगनू चमके, मौसिम बदला, रात हुई है प्यारी

जुगनू चमके, मौसिम बदला, रात हुई है प्यारी।
ऐसे में मेरी भी उनसे, बात हुई है प्यारी।

मेरी आँखों ने देखा है, अद्भुत एक नज़ारा,
पानी-पानी बारिश में वो ज़ात हुई है प्यारी।

ऐसा बदला सारा आलम कुछ न रहा कहने को,
आग लगी तन मन में जिससे घात हुई है प्यारी।

सतरंगी फूलों ने मेरी बग़िया महकाई है,
मौसिम ने अँगड़ाई ली है प्रात हुई है प्यारी।

‘नूर’ नये सूरज की किरनें उजियारा फैलाएँ,
बादे-सबा से मेरी भी तो बात हुई है प्यारी।

वो धमाका अजब कर गया

वो धमाका अजब कर गया।
आदमी ख़ौफ़ से मर गया।

बेहिसी सब पे क़ाबिज़ हुई,
ज़हर नस-नस में वो भर गया।

कौन-किसके बराबर हुआ?
कैसे कहता वो जब डर गया।

उसकी यादों में कैसा असर?
सबसे कहता सुख़नवर गया।

आरज़ू उसकी पूरी हुई,
वक़्त देकर उसे ज़र गया।

जब नज़र आया कोई नहीं,
वो उदासी लिए घर गया।

‘नूर’ ही नूर चारों तरफ़,
कौन आँखों में घर कर गया।

तंगहाली अब न छोड़ेगी मुझे

तंगहाली अब न छोड़ेगी मुझे।
उम्र भर यूँ ही झिंझोड़ेगी मुझे।

चैन से कब रहने देगी ज़िन्दगी?
आख़िरी दम तक निचोड़ेगी मुझे।

पत्थरों को मारकर बदक़िस्मती,
आइनों की तरह तोड़ेगी मुझे।

दर-ब-दर भटका के मेरी ज़िन्दगी,
अब हवा किस सम्त मोड़ेगी मुझे।

तोड़ कर उम्मीद का कच्चा मकां,
सब्र से वो ‘नूर’ जोड़ेगी मुझे।

दे गईं यादें तिरी क्या ख़ूब नज़राना मुझे 

दे गईं यादें तिरी क्या ख़ूब नज़राना मुझे?
आ गया हर हाल में अब दिल को बहलाना मुझे।

मुद्दतों के बाद तुम आए हो मेरे सामने,
इस जहाँ में अब न तन्हा छोड़कर जाना मुझे।

इस जनम में और कितनी दूरियाँ सहता रहूँ?
छोड़ भी दे इस तरह ऐ यार! तड़पाना मुझे।

इस क़दर हैरान हूँ मैं देख तेरी ख़ूबियां,
कह रहे हैं आते-जाते लोग दीवाना मुझे।

‘नूर’ अपनी रहमतों की बारिशें तू मुझ पे कर,
अहले-दुनिया ने समझ रक्खा है बेगाना मुझे।

मीत! मन से मन मिला तू और स्वर से स्वर मि

मीत! मन से मन मिला तू और स्वर से स्वर मिला।
धड़कनों को प्रीत की झंकार से बेहतर मिला।

गंध तेरी फैल जाए सब दिशाओं में यहाँ,
ऐ गुलेतर इसलिए तुझको हसीं अवसर मिला।

रौशनी की खोज में घर से निकल आए थे वो,
यास का गहरा अँधेरा उनको क्यों दर दर मिला।

बादलों के पार खोजे जब प्रभाकर के नुक़ूश,
आसमां में कुछ न पाया शून्यता का घर मिला।

हौसले भरकर चले जो मिल गई मंजिल उन्हें,
जो भी डर-डर कर चले उनको सफ़र में डर मिला।

हर किसी से एक जैसा प्रश्न दुहराए समय,
जिस बशर ने घर बनाया क्यों वही बेघर मिला।

यूँ बहुत कुछ ज़िन्दगी में ‘नूर’ ने पाया मगर,
प्यार से जो कुछ मिला संसार में दूभर मिला

चिलचिलाती धूप में परछाइयाँ कैसे मिलें

चिलचिलाती धूप में परछाइयाँ कैसे मिलें?
दूर हैं हमसे, हमें रा’नाइयाँ कैसे मिलें?

जिस धमाके से ज़मीं तक धँस गई, उसके सबब,
आदमी को पुर सुकूं तन्हाइयाँ कैसे मिलें?

खोज की इन्सां ने लेकिन वो भी थक के सो गया,
शुहरतों की और अब ऊँचाइयाँ कैसे मिलें।

शाम का आलम हसीं और चाय की वो चुस्कियाँ,
दूर तुम, महकी हुईं परछाइयाँ कैसे मिलें?

नाच-गाने तो बहुत होते हैं हर बारात में,
‘नूर’ पर नग़्मा-सरा शहनाइयाँ कैसे मिलें।

बेरुख़ी की कोई दवा है क्या 

बेरुख़ी की कोई दवा है क्या?
ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा है क्या?

बात तक हमसे वो नहीं करता,
हम से वो इस क़दर ख़फा है क्या?

बेवफ़ा पूछता है इस-उस से,
कोई बतलाए तो वफ़ा है क्या?

दर्द जो बाँट ले यहाँ सबका,
वो जहाँ मे कोई हुआ है क्या?

मैं ख़ुदा मानने लगा ख़ुद को,
सोचता हूँ मिरी अना है क्या?

ताक़ते-मर्ग से जो नावाक़िफ़,
कैसे जानेगा वो फ़ना है क्या?

ग़म के मारों को ये नहीं मालूम,
इन फ़ज़ाओं में कुछ नया है क्या?

नौजवानों को जो लगी है,वो,
मग़रबी मुल्क की हवा है क्या?

ऐ मिरे दोस्त! तूने हाथों से,
‘नूर’ को भी कभी छुआ है क्या?

बिजलियाँ जो भी अब गिराएगा

बिजलियाँ जो भी अब गिराएगा।
वो किसी तौर बच न पाएगा।

चाँद-तारे फ़लक से ग़ायब हैं,
कौन शब का बदन सजाएगा?

रिश्ता नाज़ुक है आग-पानी का,
कब समझ में बशर की आएगा?

मन लगाऊँ कहाँ मैं दुनिया में,
कब मुझे कोई ये बताएगा?

‘नूर’ उसको कहाँ तलाशें हम?
मस्अला ये सुलझ न पाएगा।

तुम ज़रा-सा मुस्कुराओ तो बहार आए

तुम ज़रा-सा मुस्कुराओ तो बहार आए।
ग़मज़दा दिल पर मुहब्बत से निखार आए।

बेबसी कैसी है दिल लगता नहीं मेरा,
यार का दीदार हो दिल को क़रार आए।

जी रहा हूँ, सच मगर हालात वैसे ही,
सोच लूं तुमको तो पलकों पर ख़ुमार आए।

अपनी ज़ुल्फ़ें खोल दें शानों पे’ वो अपने,
उनकी ज़ुल्फ़ों की महक लेकर बयार आए।

रास्ते दुश्वार हैं संदेश यह लेकर,
साथ देने कब मिरा, तेरी पुकार आए।

पाँव से लिपटी थकन भी मुन्तज़िर उसकी,
वो कि बन कर दश्तो-सहरा में दयार आए।

मैं नज़र भर कर तुझे कब देख पाया ‘नूर’?

कोई नहीं मेरा यहाँ, मुझको कि जो पहचान दे

कोई नहीं मेरा यहाँ, मुझको कि जो पहचान दे,
फिर कौन मेरी ज़ीस्त को जीने का कुछ सामान दे।

राहे-अदब पर मैं चलूं ,मुझको अता कर हौस्ले,
मेरे ख़ुदा मेरे लिए , कुछ तो मुनासिब ज्ञान दे।

ऐसा न हो संसार मे , मैं भूल जाऊँ ख़ुद को ही,
आ कर तू मेरे सामने मुझ पर ज़रा सा ध्यान दे।

मैं आम लोगों से अलग, रब! काम करना चाहता,
जज़्बात जिस से तुल सकें वो जादुई मीज़ान दे।

तेरी इनायत के सबब, ख़ामोश दुश्मन हो गए,
हम्दो-सना तेरी करूँ, मुझको ज़बां आसान दे।

तौक़ीर तूने की अता, तौफ़ीक़ मुझको बख़्श दी,
अब चाहे कुछ तू दे न दे, रौशन मगर ईमान दे।

तुहमत लगा मुझ पर कोई मंज़ूर है मुझको मगर,
तू ‘नूर’ मेरे इश्क़ को सब से अलग ही शान दे।

अब ख़ौफ़ भी कोई नहीं, तूफ़ां यहाँ कोई नहीं

अब ख़ौफ़ भी कोई नहीं, तूफ़ां यहाँ कोई नहीं।
तेरा मकां है हर जगह, मेरा मकां कोई नहीं।

बहके सवालों में रखा, कुछ भी नहीं दिन-रात के,
मुझको पता ये चल गया, मेरा यहाँ कोई नहीं।

कैसे यक़ीं ले आए तुम ख़ुद सोच में डूबा हूँ मैं?
तुमने सुनी जो भी वहाँ वो दास्तां कोई नहीं।

तुहमत लगाई जा रही बेवज्ह की किरदार पर,
हमने दिया इजलास में ऐसा बयां कोई नहीं।

असली समां वो लूट कर महफ़िल से ग़ायब हो गए,
जो दिख रही हमको वहाँ वो कहकशां कोई नहीं।

तारीख़ में तक़दीर का अपनी सिकन्दर जो बना,
मैं सच कहूँ उससे बड़ा था बदगुमां कोई नहीं।

क्या ‘नूर’ बज़्मे-नाज़ में तस्लीम सब करने लगे?
तुम-सा हसीं कोई नहीं, तुम-सा जवां कोई नहीं।

गुज़रा हुआ ज़माना अब याद क्या करें हम

गुज़रा हुआ ज़माना अब याद क्या करें हम?
उजड़े हुए चमन को आबाद क्या करें हम?

तन्हा सफ़र की सूरत ये ज़िन्दगी है अपनी,
मुश्किल में फँस गए हैं फ़रियाद क्या करें हम?

अश्कों से भर गई हैं महमिल नशीं वो आँखें,
नाकाम ख़्वाहिशों से आबाद क्या करें हम?

अफ़सोस मत करो तुम जो दिल में है, कहो वो,
सबको हमीं से शिकवा संवाद क्या करें हम?

जब क़ैद में तुम्हारी बे जुर्म के हैं तो फिर,
बोलो न ‘नूर’ ख़ुद को आज़ाद क्या करें हम?

सुख़नवर जो भी बन जाता 

सुख़नवर जो भी बन जाता।
अदब को क्या, वो दे पाता?

ग़ज़ल की बात मत छेड़ो,
ग़ज़ल कहना किसे आता?

ग़ज़ल को भूल बैठा जो,
ख़ुदा को वो नहीं भाता।

ग़ज़ल की बन्दगी करके,
ख़ुदा से जुड़ गया नाता।

ग़ज़ल की रहनुमाई में,
सफ़र आसां हुआ जाता।

ग़ज़ल को अज्मतें बख्शो,
तुम्हारा कुछ नहीं जाता।

यहाँ है कौन ऐसा जो,
न रक्खे ‘नूर’ से नाता।

झुकी नज़रें कहाँ खोईं बताओ तो

झुकी नज़रें कहाँ खोईं बताओ तो।
तुम अपना हाले-दिल हमको सुनाओ तो।

लिपट जायेंगे पैरों से तुम्हारे भी,
हमें हमराज़ तुम अपना बनाओ तो।

सज़ा जो तुम करो तज्वीज़ वो कम है,
हमें आखिर सज़ा कोई सुनाओ तो।

मुसलसल हाथ चूमेंगे तुम्हारे हम,
हमारे वास्ते मँहदी रचाओ तो।

‘कन्हाई’ हम बनेंगे ‘नूर’ हस्ती में,
मगर ‘राधा’ हमें बनकर दिखाओ तो।

दुआओं में असर आना ज़रूरी है

दुआओं में असर आना ज़रूरी है।
नहीं तो बन्दगी अपनी अधूरी है।

बुलंदी पर जो चाहें ख़्वाहिशें पहुँचें,
तो उन में भी जिगर होना ज़रूरी है।

बहुत-सी ख़ामियाँ हैं इस ज़माने में,
हुकूमत की इक इनमें जी हुज़ूरी है।

मैं कैसे झूठ से मुँह मोड़ सकता हूँ?
मिला करती मुझे इसकी “मजूरी” है।

करो ख़ुद फ़ैस्ला ऐ ‘नूर’ तुम इसका,
तुम्हारी हर अदा कितनी सिन्दूरी है।

मदद को कोई क्यों आए, सभी जब ग़म के मारे हैं 

मदद को कोई क्यों आए , सभी जब ग़म के मारे हैं।
कोई उनमें से आ जाए फ़लक पर जो सितारे हैं।

सही नुक़्सान का ब्यौरा यहाँ रखना भी मुश्किल है,
वो कारोबार उनका है कि जिसमें वारे-न्यारे हैं।

भँवर में जा के डूबे या किनारे जा लगे कश्ती,
हमें कहना नहीं कुछ भी कि हम तेरे सहारे हैं।

वज़ाहत उनकी कर पाना बहुत मुश्किल है लोगों को,
मिरी ग़ज़लों के वो अशआर जो तुमने सँवारे हैं।

पहुँचना गैर मुमकिन है किसी का पास तक उनके,
तसव्वुर में जो रहते हैं, करम फ़रमा हमारे हैं।

जो मिलते ही नहीं आख़िर समुन्दर से कभी पहले,
उफनती उस नदी के हम जुदा वो दो किनारे हैं।

समुन्दर से भी गहरा है तुम्हारी आँख का पानी

समुन्दर से भी गहरा है तुम्हारी आँख का पानी।
नए लहजे में उभरा है तुम्हारी आँख का पानी।

दुखों की धार से पैदा तरंगों ने इसे चूमा,
हिलोरें ले के निखरा है तुम्हारी आँख का पानी।

किसी झरने से निकला या ज़मीं की कोख से आया,
ग़ज़ब का साफ़-सुथरा है तुम्हारी आँख का पानी।

इबादत के जो काम आएगा मंदिर और मस्जिद में,
वो गंगा-जल-सा पसरा है तुम्हारी आँख का पानी।

बहुत से तीर्थों का ‘नूर’ शामिल बावजूद इसके,
ये काशी और मथुरा है तुम्हारी आँख का पानी।

ग़रीबी में कहाँ कोई फ़साना याद रहता है

ग़रीबी में कहाँ कोई फ़साना याद रहता है।
मगर वो आशिक़ी का ग़म पुराना याद रहता है।

बहुत मुमकिन है दिल की चोट को हम भूल भी जाएं,
मगर वो प्यारी आँखों का निशाना याद रहता है।

कोई भी काम दुनिया का भुलाया जा सके लेकिन,
किसी का नाम भूले से मिटाना याद रहता है।

ये हुस्नो इश्क़ की बाज़ी चले तो चलती ही जाए,
मगर बीता हुआ कल का ज़माना याद रहता है।

नशे में कुछ नहीं रहता है मुझको याद पर तेरा,
दबाकर मुँह में आँचल दौड़ जाना याद रहता है।

किसे वो याद रहते हैं जो कंकर झील में फेंके,
मगर पहला वो इक बोसा चुराना याद रहता है।

अभी तक याद है मुझको बरसना ‘नूर’ का पैहम,
मगर सब को कहाँ मंज़र सुहाना याद रहता है।

ग़ज़ब का ख़ौफ़ ग़ालिब है कि दुनिया सर झुकाती 

ग़ज़ब का ख़ौफ़ ग़ालिब है कि दुनिया सर झुकाती है।
मगर ऐसा भी होता है कि ये हमको सताती है।

हमें तो साथ देना है तिरा आख़िर क़यामत तक,
ये कैसी ज़िद है तेरी, तू कि जो क़स्में खिलाती है।

अभी तो फ़ैस्ला करना असंभव रात में साथी!
मगर ये रात कैसी है हमें डर से सुलाती है।

बहुत मुश्किल है जो गुज़री, सँभलकर वो बयां करना,
तबीअत अपनी संजीदा, लहू हमको रुलाती है।

ये मुमकिन है कि टकराएँ हमारे दिल भी आपस में,
कभी हो पाएगा ऐसा नज़र सूरत न आती है।

सफ़र जो तय किया हमने ज़मीं पर हम सफ़र बनकर,
कहानी उस सफ़र की आज भी बस्ती सुनाती है।

सबब क्यों ख़ामुशी का पूछते हो ‘नूर’ से यारो!
किसी की बेरुख़ी है, लब पे जो ताला लगाती है।

सहर होने से पहले आस्मां पर ये जो लाली है 

सहर होने से पहले आस्मां पर ये जो लाली है।
उभर कर आई है हसरत जो ख़ूं से हमने पाली है।

ये दुनिया ऐसा दरिया है, ख़ुदा का ‘नूर’ है जिसमें,
किनारों से जो टकराए वो दस्ते-मौज ख़ाली है।

सफ़र में धूप है बाकी, मिलन की प्यास भी बाक़ी,
मगर वो ज़िन्दगी डरती है जो घर से निकाली है।

हवस जो बढ़ रही है वो हमें भी मार डालेगी,
बहादुर है वो जिसने भी हवस पर फ़त्ह पा ली है।

बशर सब डरने वाले हैं, मुहाफ़िज़ गैर-हाज़िर हैं,
अजब है इन्तिज़ाम उनका, मुसीबत भी निराली है।

ग़नीमत है कि दुनिया में मुहब्बत आज भी कायम,
कोई है पत्ते-पत्ते पर तो कोई डाली-डाली है।

हमें भी याद है वो ‘नूर’ का ग़फ़लत भरा आलम,
गिरे फिर दौड़ में आगे बढ़े, ठोकर भी खा ली है।

किसी दरवेश की झोली दुआओं से नहीं ख़ाली 

किसी दरवेश की झोली दुआओं से नहीं ख़ाली।
कि जैसे दामने-दुनिया ख़ताओं से नहीं ख़ाली।

वफ़ादारी वो नुस्ख़ा है जो ज़िन्दा रक्खे दुनिया को,
परस्तारे-वफ़ा रहते, दवाओं से नहीं ख़ाली।

बहुत मुमकिन बुलन्दी पर न ठहरे आदमी लेकिन,
जफ़ा परवर मगर होगा जफ़ाओं से नहीं ख़ाली।

फ़लक पर रोज़ चमकेंगे ये दिलकश चाँद और तारे,
किसी दिन भी ज़मीं होगी फ़ज़ाओं से नहीं ख़ाली।

गुनाहों का कभी ब्यौरा न रख पाया है ‘नूर’ अब तक,
मगर दुनिया गुनाहों की सज़ाओं से नहीं ख़ाली।

तिरी आँखों का पानी मर गया है

तिरी आँखों का पानी मर गया है।
तभी तू गंद फैला कर गया है।

नहीं है ज़िन्दगी में कुछ रवानी,
जुनूं पंछी को बे पर कर गया है।

सफ़र जोखिम भरा लगता है हमको,
कि जब से रूठ कर रहबर गया है।

निशाने पर हैं सारे ही उसूल अब,
ज़माना बेहिसों से डर गया है।

ग़ज़ब की वहशतें, चर्चे बला के,
जहाँ से ‘नूर’ का जी भर गया है।

है क़ायम आदमीयत, क्या ये कम है

है क़ायम आदमीयत, क्या ये कम है?
ग़रज़ क्या इससे हर सू ग़म ही ग़म है?

मैं तन्हाई से बाहर निकलूँ कैसे?
दिखाई कुछ न दे यूँ आँख नम है।

नहीं मिल पाऊँगा मैं कोई ढूँढे,
छुपाए आँख में मुझको सनम है।

असर अपना दिखाए कोई ऐसा,
लगा मरहम, तुझे मेरी क़सम है।

निकलना ग़ैर मुमकिन ‘नूर’ उसका,
जो मेरी ज़िन्दगी में आज ख़म है।

मुक़द्दर ने मुसलसल ग़म दिए हैं

मुक़द्दर ने मुसलसल ग़म दिए हैं।
मगर हम शान से फिर भी जिए हैं।

परस्तारे-वफ़ा होकर भी हारे,
सर अपना ख़म इसी से हम किए हैं।

हवा ने छीन ली हम से बुलंदी,
ये पस्ती, जिससे हम यारी किए हैं।

सज़ा को काट लें अब हम ख़ुशी से,
लबों को इसलिए अपने सिए हैं।

ज़माने में वफ़ा नकली मिलेगी,
पता है जिनको, वो आँसू पिए हैं।

हवा-ए-तेज़ में जलना कठिन है,
मगर वो अज़्मे-मुहकम के दिए हैं।

अभी दिल ‘नूर’ का टूटा नहीं है,
ग़मों की अंजुमन ख़ुद में लिए हैं।

ये नर्म-नर्म धूप भी बहार का है सिलसिला

ये नर्म-नर्म धूप भी बहार का है सिलसिला।
हवा में ख़ुशबुएं रवां, ख़ुमार का है सिलसिला।

धुली सहर ने कह दिया इशारतन फ़ज़ाओं से,
ये भी किसी के प्यार के क़रार का है सिलसिला।

ज़रा तो सोचिए हैं क्यों हम अपने ग़म में मुब्तिला,
ये क्या हमारे ज़ब्त के उतार का है सिलसिला।

नदी के पार का नज़र न आए साफ़-साफ़ कुछ,
हमें लगे कि उस तरफ ग़ुबार का है सिलसिला।

अजीब हैं ये लोग भी न प्यार इन के दिल में है,
ज़ुबां पे ‘नूर’ डॉलरी शुमार का है सिलसिला।

सितम ही मुझपे अगर बेहिसाब होना था

सितम ही मुझपे अगर बेहिसाब होना था।
तो हौस्लों को न ख़ाना-ख़राब होना था।

वो क्यों छुपाए था ख़ुद को तमाम दुनिया से?
सभी के सामने जब बेनिक़ाब होना था।

तअल्लुक़ात उसे ख़ुद से दूर रखने थे,
महाज़े-ज़ीस्त पे जो कामयाब होना था।

अँधेरा दूर भगाना था जिसको ग़ुर्बत का,
मशक़्क़तों का उसे आफ़्ताब होना था।

हमें तो दोस्त ! तिरे वास्ते गुलिस्तां में,
हर एक शाख़ पे महका गुलाब होना था।

तिरे बग़ैर, मुझे इल्म मेरे दिल का ‘नूर’!
किसी तरह भी न कम इज़्तिराब होना था।

घबराए जो अजल से इंसान वो नहीं है

घबराए जो अजल से इंसान वो नहीं है।
लाए न जो तबाही तूफ़ान वो नहीं है।

इंसान की तरह जो आता नहीं है दौड़ा,
जो भक्त की न सुनता भगवान वो नहीं है।

करते हो छुप के तुम क्यों सब काम ज़िन्दगी के?
हर काम से तुम्हारे अन्जान वो नहीं है।

इल्मो-अदब की पूजा करता नहीं जो इन्सां,
बेबाक मेरा कहना विद्वान वो नहीं है।

अपनों के हक में जो कुछ अब तक किया है हमने,
कुछ भी है ‘नूर’ लेकिन अहसान वो नहीं है।

तारीख़ गवाही दे कि आज़ाद हुए हम

तारीख़ गवाही दे कि आज़ाद हुए हम।
नदियों के किनारों पे ही आबाद हुए हम।

अपनों के लिए सख़्त हुए ज़ीस्त में अपनी,
दुश्मन के लिए और भी फ़ौलाद हुए हम।

वो दिन भी हमें याद बँटा मुल्क हमारा,
कहने को नहीं कुछ भी कि बर्बाद हुए हम।

दीवार ने मज़हब की ग़ज़ब हम पे वो ढाया,
ख़ुशहाल भी होते हुए नाशाद हुए हम।

इस तरह लुटे हम कि ज़ुबां खोल न पाए,
ये बात अलग ‘नूर’ कि फ़रियाद हुए हम।

ज़माने का हर दर्द मैं पी रहा हूँ

ज़माने का हर दर्द मैं पी रहा हूँ।
ज़रा देखिए किस तरह जी रहा हूँ!

गुनाहों की गठरी को मैं फेंक आया,
तुम्हें इस से क्या, कल मैं जो भी रहा हूँ!

सफ़र तय करें अनगिनत साथ मेरे,
मगर मैं तो तन्हा क़मर ही रहा हूँ।

ज़ुबां के ज़रा-सा फिसलने से पहले,
लबों को मैं अपने अभी सी रहा हूँ।

वफ़ाओं की दुनिया सजाए हुए हूँ,
उमीदों पे ऐ ‘नूर’ मैं जी रहा हूँ।

मुझे तेरा कब आशियाना मिलेगा 

मुझे तेरा कब आशियाना मिलेगा?
किसी और का ही ठिकाना मिलेगा।

सभी कुछ मिलेगा मगर ये हक़ीक़त,
किसी को न गुज़रा ज़माना मिलेगा।

करो गुफ़्तगू तो मिरे पास आकर,
तुम्हें रूठने को बहाना मिलेगा।

जिसे पढ़ के अश्कों की बरसात होगी,
मुझे दर्द का वो फ़साना मिलेगा।

वो दामन को अपने सँभाले तो कैसे?
ये मौसिम कहाँ आशिक़ाना मिलेगा।

जिसे लूटने की वो ख़्वाहिश रखेंगे,
उन्हें क्या कहीं वो ख़ज़ाना मिलेगा।

जिसे सुन के दिल ख़ून रोएगा पैहम,
वो क्या ‘नूर’ क़िस्सा यगाना मिलेगा?

इबादत मुसलसल मैं करता रहूँगा 

इबादत मुसलसल मैं करता रहूँगा।
तिरे तेवरों से भी डरता रहूँगा।

वज़ाहत की कोई ज़रूरत कहाँ है,
तुम्हें देखकर मैं सँवरता रहूँगा।

वकालत तो मेरी करेगा न कोई,
मगर आग ख़ुद में मैं भरता रहूँगा।

सज़ा काटकर मैं गुनाहों की अपने,
नज़र में ख़ुद अपनी निखरता रहूँगा।

फ़ज़ीहत न होगी कभी ‘नूर’ मेरी,

ज़माने में रौशन शराफ़त हमारी

ज़माने में रौशन शराफ़त हमारी।
मगर अब कहाँ है ज़रूरत हमारी।

रफ़ीक़े-सफ़र साथ चलते हमारे,
बड़े काम की है विरासत हमारी।

अगर ज़हर को हमने पानी कहा तो,
समझ जाएंगे लोग फ़ितरत हमारी।

लड़ाई उसूलों की लड़ते रहे वो,
हड़पते रहे जो कि दौलत हमारी।

मरे ‘नूर’ हिन्दू, मुसलमां की ख़ातिर,
न देखी किसी ने शहादत हमारी।

आँखों को मेरी आज भी तेरी तलाश है

आँखों को मेरी आज भी तेरी तलाश है।
नाकामियों की दिल पे भले ही ख़राश है।

आने लगा यक़ीन कि वो लौट आएगा,
चेहरे पे एतमाद के दहका पलाश है।

जिसको भी दे शिकस्त अँधेरा गुनाह का,
सोचूँ मैं,वो सवाब का कैसा प्रकाश है?

दस्ते-फ़रेब-ओ-मक्र की हल्की-सी चोट से,
दिल आईने की तरह हुआ पाश-पाश है।

कोई भी क़हक़हा न उछाले फ़ज़ाओं में,
इस वक़्त ‘नूर’ मन से ज़रा-सा निराश है।

अजीब कुछ भी नहीं है सब कुछ क़यास में है 

अजीब कुछ भी नहीं है सब कुछ क़यास में है।
वो भेड़िया है जो मेमने के लिबास में है।

फलों का राजा भी अब मिलेगा न हमको शीरीं,
बला की तुर्शी मआशरे की मिठास में है।

नहीं है आसान दुश्मनी को बनाए रखना,
कि दुश्मनी का हाथ ख़ौफ़ो-हिरास में है।

मुवक्किलों की सुनेगा कैसे कि आज मुंसिफ,
मसर्रतों से सजे-सजाए निवास में है।

वो पी चुका है शराब इतनी कि कुछ न पूछो,
कमाल ये है कि ‘नूर’ होशो-हवास में है।

दिल आगे बढ़, पीछे हटता, ये कैसा चक्कर है यारो 

दिल आगे बढ़, पीछे हटता, ये कैसा चक्कर है यारो!
हर ख़्वाब हुआ रेज़ा-रेज़ा, ये कैसी टक्कर है यारो!

सूरज में जिसकी गर्मी है, है चाँद में जिसकी रा’नाई,
महबूब मिरा इस दुनिया में सबसे ही तो बरतर है यारो!

जो अपने लिए रस्ता चुनता,वो राह सभी को दिखलाए,
चलता जो नेक उसूलों पर वो ऐसा रहबर है यारो!

ले हाथ कटोरा भिक्षा का,फिर भी मालिक सारे जग का,
क़िस्मत का खेल ये देखो तो वो फिरता दर-दर है यारो!

जो सारे सुख़नवर छोड़ के भी अपनी ही बात करे पैहम,
ख़ुद ‘नूर’ के ख़्वाबों में आए वो ऐसा दिलबर है यारो!

कुछ एक हसीं यादें हैं जो इस दिल को थामे रहती हैं

कुछ एक हसीं यादें हैं जो इस दिल को थामे रहती हैं।
कहना न जो आए दुनिया को ये मुझ से वो हर दम कहती हैं।

कितनी ही लाशें बिछती हैं यूँ तो हर दिन ही ख़्वाबों की,
फिर भी वो दुआएँ रख लब पर इल्ज़ाम बरहना सहती हैं।

कोई तो मिरे जैसा भी है, क़ाबू में जो अपना दिल रखता,
हर सुब्ह उमंगे लुटती हैं, हर शाम ही आँखें बहती हैं।

आँखों ने जो सपने देखे थे, वो चकना चूर हुए कैसे?
क्या जाने मुसाफ़िर हस्ती का दीवारें यहाँ क्यों ढहती हैं।

क्या सूरज ‘नूर’ क़मर को भी लगता है गहन जब वक़्त पड़े,
चमकें जो ज़माने में चीज़ें इक रोज़ यक़ीनन गहती हैं।

मीठी-मीठी बातों से वो कानों में रस घोल गए

मीठी-मीठी बातों से वो कानों में रस घोल गए।
वज्ह से जिसकी चलते-चलते हम रस्ते से डोल गए।

बात तो वाजिब थी वो लेकिन उस को कहा था तल्ख़ी से,
सुनने वाले सुन न सके पर तुम तो आख़िर बोल गए।

अफ़सुर्दा बातें करना तो सब को आए दुनिया में,
हम कितने पानी में रहते वो आँखों से तोल गए।

हार गए जब बाज़ी अपनी खेल समझ में तब आया,
लेकिन वो उम्मीद जगाकर ज़हन हमारा खोल गए।

‘नूर’ हकीक़त से वाक़िफ़ क्या ये दुनिया हो पाएगी?
जाते-जाते भी कुछ लम्हे ये कहकर अनमोल गए।

ग़म जो कर दे छू मंतर

ग़म जो कर दे छू मंतर।
ऐसा दिखला कोई हुनर।

सब की सुन और मन की कर,
फिर न किसी मुश्किल से डर।

किसको, किसकी फ़िक्र यहाँ,
चलता जा तू राह गुज़र।

सब अपनी दुनिया में मस्त,
सब की अपनी मस्त नज़र।

तेरा मुक़द्दर साथ है जब,
‘नूर’ तुझे काहे का डर।

आँचल की छाया में रहना, अच्छा लगता है

आँचल की छाया में रहना, अच्छा लगता है।
सारे सुख-दुख यूँ ही सहना,अच्छा लगता है।

तेरी यादों में यूँ पल-पल कटता जाए है,
आँखों-आँखों में कुछ कहना, अच्छा लगता है।

छम-छम, छम-छम बजता जाए हौले-हौले से,
पाँव बँधा तेरे यह गहना, अच्छा लगता है।

तन्हा-तन्हा सबसे रहना, सबसे मिलना भी,
तेरा दुनिया में यूँ रहना, अच्छा लगता है।

चुपके-चुपके ‘नूर’ बहाकर आँसू आँखों से,
तेरा मुझसे सब कुछ कहना, अच्छा लगता है।

लगता है मेरी आँखों ने फिर से धोखा खाया है

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