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आपदा

प्यारी लड़की…
तुम्हारे पास
अधिकतर
दो ही विकल्प होंगे

लड़ना
या चुप
रह जाना

तुम कोई भी
चुनाव करो
भीतर
कुछ मर जाएगा

बहरा

बहत्तर गूँगी कविताएँ
मेरे कण्ठ में मकड़जाल बना
उल्टी लटकी हैं

अन्दर इतने सनाट्टे के बावजूद
मेरी भाषा का
एक-एक शब्द बड़बोला है

इतना कुछ कह सकने के बाद भी
हम समझ नहीं पाते
समझा नहीं पाते

अपनी आँखों की तोतली बोलियों से
जस-तस कर अर्थ जुगाड़ते हैं
सच ! हम बहरे हो चुके लोग चीख़ते बहुत हैं !

जेठ

क्या पता ? शायद जेठ की
इस मन्थर दुपहर में
तुम किसी रूईदार ख़्वाब में
देख रही हो मुझे

जब मैं
ठोस पसीने में
दबा जा रहा हूँ

तुम्हारा ख़्वाब
मेरे होने की सबसे महफ़ूज़ जगह है
वहाँ फूल लगते हैं मुझ पर
ज़ंग नहीं लगता, जान !

त्रिशंकु 

कितने ही द्वार
बड़े उद्गार से
तोड़कर निकले

तन्द्रा नहीं
हम भँवर थे
सब झकझोर कर निकले

न ज़मीन मिली
न नभ अपना
हम त्रिशँकु संसार छोड़कर निकले

पिंजरे

ओ पगली लड़की !
तुम पिंजरे की नहीं
जँगलों की हो

स्थिरता नहीं उत्पात चुनो
अपनी माँओं को जन्म दो
बेटियों को रीढ़

कोई पर्यावरणविद् कभी नहीं बताएगा
कि एक ज़िद्दी लड़की
दुनिया का सबसे लुप्तप्राय जीव है

मानचित्र 

शहर से गुज़रते हुए
हम मानचित्र में देख रहे थे
यातना शिविर कहाँ थे ?
बमबारी कहाँ हुई थी ?
रेफ़्यूजी कैम्प कहाँ-कहाँ लगे थे ?
पर यातनाएँ और अवसाद वहाँ नहीं थे

सड़क रेलमार्ग बन्दरगाह
सभी के चिह्न थे
पर गोलियों के छर्रे
धमाके चीत्कार और
थक्कों के लिए कोई भी सँकेत
वहाँ नहीं दिखा

तभी तुमने उँगली रखकर
मेरा गाँव दिखाया मुझे
मैंने गिने तो नदियाँ और महासागर पूरे थे
पर वहाँ खेतों के दक्खन में
जो राजपूतों का कुँआ हुआ करता था
वो रिस गया है

सतत फैलता शहर
बेतहाशा बिखरा पड़ा था
पर शहर से गुज़रते हुए
जो गाँव छूट गया भीतर
उसके प्रवासी लोकगीतों का कलरव
मानचित्र में नहीं था

अक्षांश और देशान्तर
एकदम सटीक थे
स्थिर थे लगतार खिसकते महाद्वीप
हर चलायमान गतिशीलता दर्ज़ थी
बस, निष्कासित आँखों का
पलायन वहाँ दर्ज़ नहीं था !

गीता सार

शब्द पर सन्देह रखना
रँगों पर नहीं
कलरव पर सन्देह करना
भोर पर नहीं

सन्देह करना परबतों
और रास्तों पर
नदियों और
यात्रा पर नहीं

तुम श्वास पर सन्देह रखो
जीवन पर नहीं
सन्देह रखना
प्रेम धर्म और नीति पर

पार्थ ! युद्ध पर
कृष्ण पर सन्देह करना
पर शान्ति पर कभी सन्देह न हो
एक वही अच्युत है

शेष 

शेष कुछ भी नहीं बचता !
सच कहती हूँ

सूरज डूबे भस्म हो जाती है
धरा कविताएँ और आँखें

बस, बच रहता है
तलवों पर रास्ते का स्वाद

रात की ढिबरी पर
मन का स्याह रह जाता है

भस्म हो जाते हैं
आलिंगन भाषा और नदियाँ

बचते हैं, बस, खुरदरे पोर
सच कुछ भी शेष नहीं अब बचाने को !

जीरू 

जब सुभद्रा की आँख लगी
उसने देखा
वो कृष्ण की कोख में गर्भस्थ है

अभिमन्यु ने देखा
सारे व्यूह अभेद्य हैं
सारा भेद है कृष्ण

जब अर्जुन ने देखा
सोई सुभद्रा का मुख
वह जान गए
कृष्ण हैं समस्त धर्मयुद्ध

सारे व्यूह कृष्ण हैं
कृष्ण ही व्यास, कृष्ण ही जीरू[1]
अनन्त कृष्ण है !

गडरिया

 आस्था के किसी क्षण में
मैंने तुमसे माँग ली थी सारी सृष्टि
उस वक्त मैं गडरिया होना चाहता था

मेरी भेड़ें पृथ्वी की परिक्रमा करतीं
और टूँग लेतीं सारी वस्तुनिष्ठता
मेरी एक हाँक पर पीछे चल पड़ता … प्रेम

हम शाब्दिक नहीं रह पाते
तरल हो जाते … तरलता भी वैसी
जो खुले अम्बर तले मन की थाप पर थिरके

मुझे मालूम होते नगण्य तथ्य
जैसे अम्बर में कितने तारे
और कितने मोड़ हैं ?
जैसे धरा नभ और आकाशगँगाएँ
किस दरवेश की नाभि के गिर्द घूमते हैं ?
किस के चिमटे की ’झन’ पर नाचती हैं
बाहरी और अन्दरूनी सभी घनिष्ठताएँ ?

एक गडरिए की मीमांसा ज़्यादा कुछ नहीं देखती
अपनी भेड़ों के पीछे चलते हुए
उसके रास्ते कच्चे हो जाते हैं
उसकी आस्था एक नदी
और पूरा संसार एक चारागाह

वह करता है दूब बारिश और छाँह की प्रार्थनाएँ
सपाट समतलों में हरित की कामनाएँ
एक गडरिए की आस्था का ईश्वर हरा होता है
इल्लियों की बस्ती में रहने वाला !

दोपहर

सुबह और शामें
आस्था से भरी बेला हैं
पर दोपहरें सदा से ही
ख़ाली और निर्लेप रही हैं

ईश्वर के सोने का समय
हलाँकि मैंने देखा है ईश्वर को
दोपहर में मन्दिर के कपाटों के बाहर
हथौडे़ गँड़ासे तसले उठाए

नँगे बदन खड़ा है ईश्वर
जलते तलवों तले सृष्टि दबाए
दोपहरें दिन का सबसे पवित्र समय हैं
ईश्वर के पसीने से भीजती बेला

देखो ! मन्दिर के गर्भ-गृह के बाहर
वो अपने विराट रूप में खड़ा है
पीठ पर सूरज ढोता
तर्जनी पर अम्बर उठाए !

गुमी हुई औरत

एक पुरातन अज्ञातवास की
बोझिल दोपहर में उसने
ख़ुद को इस कदर सहल पाया
कि उसे क्लिष्टता की
बेतहाशा इच्छा होने लगी ।

यूँ तो प्रेम सदा से
उलझन का कोई बिम्ब रहा है
पर आज उसे वह भी सरल जान पड़ा ।
मैले-कुचैले शब्दों के ढेर के नीचे
कुछ पुराने फ़िल्मी गाने और
एक बिसराया मौन पड़ा था ।

कोई आगन्तुक उसके गर्भ में था
और एक लम्बे उघड़े सफ़र की सौन्ध
उसके पोरों में ।
सब कितना आसान लगने लगा था
औरत होना भी !
उसे साँस लेने में इतनी सहूलियत कभी नहीं हुई थी
इसलिए इतनी सहजता से घबरा गई ।

उसने हौले से अम्बर खटखटाया
कि उस पार शायद कोई विषम नदी होगी
जिसपर पुल बनाते-बनाते
दुहरी हो जाएगी उसकी रीढ़ ।
पर, हाय ! विषमताएँ कब इतनी सुलभ हुई हैं !
सब सरलताएँ कितनी सघन !
बीच का सबकुछ तो त्वरित ही हुआ है हमेशा ।

सच कितना दुःखद था सब !
उसका होना ।
उसका एक जटिल औरत होना ।
उसका स्थायित्व ।
उसका निर्वासन ।
उसकी बाहरी और आन्तरिक यात्राएँ ।
उसके स्वघोषित अज्ञातवास ।

ऊपर देखा तो सितारों के सुराख़ से
रिस रहा था अम्बर.
दोपहर कोनों से कुछ गीली थी ।
कमरे की खिड़कियाँ ऊँघ रहीं थीं ।
उसने अन्धियारे मन को टाकियाँ लगाईं
और लौट गई एक स्थगित भाषा के
मौन अवसान में ।

जब एक औरत खो जाती है
कोई नहीं आता उसे लौटाने
जब पलट आती है कोई गुमी हुई औरत
समय की सारी किरचें बुदबुदाती हैं
सरलताएँ टटोलती हैं अपना घनत्व ।
क्लिष्टता की कोई परत दरक जाती है !

ऋण मुक्त

तुम्हारी पूरी वातानुकूलित सभ्यता
इतनी हवा कभी नहीं जुटा पाएगी
कि सूख सके
एक किसान की बग़ल का पसीना

मैं कितना विरोध करूँ
किसका और कब तक ?
मेरी कई पीढ़ियाँ विद्रोह की बन्धुआ रही हैं

मेरे पिता कहते थे ईश्वर हर जगह हैं
शायद मेरी भाषा के बाहर
’ईश्वर’ के लिए चुना गया शब्द ’दमन’ है

शायद कोई इष्ट रूठा है मुझसे
या पितृदोष लगा है कि
मेरे नारों से हर बार पतझड़ तो आए
पर उसके बाद के वसन्त
कभी मेरी बही में दर्ज़ नहीं हुए

अब मैं स्थगित करता हूँ ये निरन्तर विद्रोह
और जुटाता हूँ एक
निर्मल दिवास्वप्न देखने की आस्था
स्वप्न में मेरा एक खेत है
जिसमें लहकता है मक्का

आद्र है आकाश
मेरी श्वास है
जिसमें सूदखोर का ज़रा भी हिस्सा नहीं

मैं हार नहीं मानता
मैं थका हुआ भी नहीं हूँ
अब, बस, ये चाहना है कि
दीमकों की बाम्बी पर
कभी चहके नन्हीं पीली चिड़िया

और किसी दबी परत से
अकुलाहट तोड़कर रिहा हों वो गीत
जिनमें कहा जाए कि ऋण मुक्त हूँ मैं !

प्रेम प्रस्ताव 

लो !
मैं तुम्हें देती हूँ
फ़रवरी के दो
लापता दिन
क्या तुम मुझे बदले में
अपने हाथों की
दूब दोगे ?

जो मैं तुम्हारे
सिरहाने रख दूँ
बसन्त की पहली सुबह
क्या तुम दोगे मुझे
अपने शहर की
सुस्त गलियाँ ?

गर मैं दे दूँ तुम्हें
मेरे गाँव का शिवालय
वो पुराना गुम्बद और
बारहदरी के सब दर
क्या तब तुम मुझे दोगे
एक जर्जर नदी
एक मन्थर भँवर ?

दूँ अगर
दो शून्यतम आँखें
दर्ज़न कविताओं का बोझ
और हाशिए पर उगते
साँझ के खारे मौन
क्या तब तुम अन्तर में
थोड़ी जगह दोगे मुझे ?

सुबह का भूला 

जो सुबह का भूला
शाम को लौटे
तो भूला नहीं कहते

पर जो सुबह का भूला
दोपहर में लौटे तो
उसे चखाना धूप की चित्तियाँ

जो कहीं लौटे रात ढले
तो पिलाना घोलकर
बिहाग में चान्द

यदि भूला ही रहे
तो बहा देना पेड़ों के प्रेमपत्र
नदियों की थाह में

भूलना प्रेम की पहली सीढ़ी है

राष्ट्रद्रोह

वो चिल्ला रहे थे
पूछ रहे थे
मैं किस पक्ष में हूँ ?

मैं, बस, इतना ही कह पाई
वर्षा नदियों पाखियों के
झीनी उदासियों और
निशंक आँखों के पक्ष में

ये जानते हुए भी कि
जीवन कितना सस्ता है
मैंने परस्पर महँगे प्रेम किए हैं
मैं एक नश्वर सीत्कार और
चिरन्तन शान्ति के पक्ष में हूँ

वो राष्ट्रद्रोह !
राष्ट्रद्रोह ! चिल्लाते रहे
पर मैंने ओज की कोई कविता नहीं लिखी

मैंने लिखे सिर्फ़
कलरव और लोकगीत
हाँ, मैं प्रार्थनाओं के पक्ष में हूँ !

अनपढ़ 

उसके पाँव अनपढ़ थे
एक आखर न पढ़ पाते
पर तलवों को राहें
मुँह ज़बानी याद रह जातीं

वो दरवाज़े टटोलता
रट लेता खिड़कियाँ
“काला आखर भैंस बराबर”
उसके पाँवों के लिए कहा गया था

खुरों से अटी पगडण्डियों पे
निकल जाता गोधूलि में
सुनने का बहुत चाव था उसे
सो सड़कों से बतियाता

उसके पाँव जितना चलते
उतना ही भूलते जाते चलना
मानो ’चलना’ क्रिया नहीं
विशेषण हो !

रोम-रोम से छूता सफ़र
ठहरा हुआ भी चलता
सच ! इतना मूढ़मति था
पाँव अनपढ़ थे उसके !

अहमक लड़की 

1.

तुम दो चुटकी धूप
और एक मुश्त रात का
नरम टुकड़ा हो

तुम हो स्थगित उल्लास
और गहन उदासियों का
वनचर गीत

तुम फूलों के लावण्य
और मेघों की तितिक्षा से
प्रोत नदी हो

तुम किसी त्रासदी में
कल्पना का हस्तक्षेप हो
किसी तन्द्रा का अस्ताचल

तुम तथागत का उपदेश
मीरा का गीत
शिव का तीसरा नेत्र हो

अहमक लड़की
तुम हो !
तुम कहो !
तुम अहो !

2.

कई इष्ट एकसाथ रूठे थे उससे
पितृदोष भी था
राहू कटे चान्द भी

पर वो भी कहाँ मनाने वाली थी !
सो कागों को चुग्गा डाल देती
अपनी अधलिखी आँखें
और नदियों को अर्घ्य देती
अँजुरी भर आँच

उफ़्फ़, वो अहमक लड़की !

बस एक ही सनक थी उसे
’अपनी शर्त पर जीना’
वही शर्त जो सदियों से
भारी पड़ती आई है

वो जानती थी
बे-खटका लड़की होना
नसीब से नहीं जूझ से मिलता है

तो सबसे लड़ जाती
अपने आप से सबसे ज़्यादा
अड़ियल लड़कियाँ जानती हैं लानतों का बोझ !

लोप 

एक लोप है जो
बार-बार ढूँढ़ लेता है मुझे

किसी अछूते विलोम तले
होती हूँ….जब

जब सहजता में विलुप्त रहूँ
तब भी

और तब भी जब मैं
आसानी से प्राप्य रहूँ

एक लोप है जो
श्वास से सटकर चलता है

मेरे लुप्त होने की प्रतीक्षा में
मण्डलाते हैं किसी विचार में गिद्ध

भूलना

एक आस्था है
जो बुलाती है मुझे
एक समय है जिसकी चाबी
मैं रखकर भूल गई हूँ

दूर किसी सड़क से
कोई आवाज़ आती है
मैं सारी प्रार्थनाएँ
बड़बड़ाकर भूल गई हूँ

चेतना के
एक सिरे पर नाम हैं
दूसरा सिरा अम्बर
मध्यस्थ सारे क्षितिज
भूल गई हूँ

आना कितना सरल है
जाना कितना सुखद
बीच की सारी आपदाएँ
भूल गई हूँ

छूटना 

गलियाँ दरवाज़े
बाज़ार चौपाल सब छूट रहे हैं
मेरा घर छूट रहा है

एक तरलता है
जो आँखों के सिवाय
हर जगह से रिस रही है

मेरी एकरसता
और एकाकीपन
गुन्थ गए हैं

सन्ताप की सभी वज़हें
छूट रहीं हैं
सारे रास, सारे भेद
सारे सवाल छूट रहे हैं

मेरी आवाज़ अब
पहाड़ों से टकराकर लौटती नहीं
मेरे शब्द छूट रहे हैं

रात भर धूप रहती है आँखों में
दिन दोपहर
छूट रहे हैं

मैं छूट रही हूँ
चेहरे छूट रहे हैं
ज़मीन छूट रही है

पर मैं किसी पेड़ की तरह
नितान्त निश्चिन्त खड़ी हूँ
मैं जो सतत छूट रही हूँ

बिल्लियाँ

मुझे बिल्लियाँ अच्छी लगतीं हैं
एकदम मनमौजी और ज़िद्दड़

उन्हें देखकर लगता है कि
’दुनिया’ दो टका सेर बिकने वाली
कोई उबाऊ चीज़ है
जो उनके चलने से धमकती है

’नौ’ बारगी जीने को आतुर
’नौ’ दफ़ा मरकर भी अटल
सच ! बहुत अच्छी लगतीं हैं मुझे !
काश ! सभी बिल्लियाँ लड़कियाँ होतीं !

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