दीवार-ए-शब
कारवाँ लुट गया
क़ाफ़िले मुंतशिर हो गए
तीरगी का धमाका हुआ
और
दीवार-ए-शब ढह गई
सिर्फ़ सरगोशियाँ
मेरी आँखों में
अलफ़ाज़ की
किरचियाँ भर गईं
और एहसास की
शाह रग कट गई
वक़्त
तारीख़ के गुमशुदा
गुंबदों की तरह
मुंजमिद ख़ून-ए-इंसा
बहाता रहा
वक़्त की करवटें
सो चुकीं
ज़ेहन-ए-दिल
अपनी आशुफ़्तगी खो चुका
ख़ामुशी मुज़महिल हो गई
और
अल्फ़ाज़ अपना फ़ुसूं खो चुके
जो निगह्बान थे
अहद-ए-रफ़्ता की पहचान थे
अपनी रानाइयाँ खो चुकेक़ाफ़िले मुतशिर हो गए
तीरगी का धमाका हुआ
और एहसास की
शाह रग कट गई
सिर्फ़ सरगोशियाँ
मेरी आँखों में
अल्फ़ाज़ की
किरचियाँ भर गईं
तुम निगहबान हो
अहद-ए-रफ़्ता की पहचान हो
तुम पशेमाँ रहो
तुम सवालात की तीरगी में
हरासाँ रहो
शहर-ए-आशोब में
इस घड़ी
ज़िक्रे गंग-व-जमन
अब किसे चाहिए
दावत-ए-फ़िक्र-व-फ़न
अब किसे चाहिए
कारवाँ लुट गया
काफ़िले मुंतशिर हो गए
तीरगी का धमाका हुआ
और
दीवारे शब ढह गई
ख़ुदाया तू बता
ख़ुदाया तू बता
इन बस्तियों में
कौन, कैसे लोग बसते हैं
कि मुझ से
मौसमों के रंग
फूलों की ज़बां
लिखने को कहते हैं
कि मुझ से
नद्दियों की आग
बर्फ़ीली फ़िज़ा
लिखने को कहते हैं
ख़ुदाया तू बता
इन बस्तियों में
कौन, कैसे लोग बसते हैं
कि मुझ से
पेड़-पौधों की
परिंदों की
क़बा
लिखने को कहते हैं
ख़ुदा तू ही बता
अगर मैं
मौसमों के रंग
फूलों की ज़बां
और नद्दियों की आग
बर्फ़ीली फ़िज़ा और
पेड़-पौधों की, परिंदों की
क़बा
लिक्खूँ तो क्या लिक्खूँ
सुलगते शहर की
आब-व-हवा
लिक्खूँ तो क्या लिक्खूँ
आग से ख़ौफ़ नहीं
आग से ख़ौफ़ नहीं
आग जलती है तो
उसकी लौ से
एक पैकर-सा उभरता है
मेरे ख़्वाबों में
एक पैकर
जो बसद इज्ज़-व-अना
मांगता है
मेरी ख़ातिर
मेरे रब से
कोई अच्छी-सी दुआ
और मैं नीद की गहराई से
जाग उठता हूँ
कितने भी तीरह-व-तारीक
रहे हों लम्हात
मैंने महसूस किया है ऎसा
आग जलती है
जलाती है, सभी को, लेकिन
इसके जलने से
स्याही की रिदा हटती है
मेरे ग़मख़ाने में
चाहत की फ़िज़ा बनती है
आग से ख़ौफ़ नहीं
आग जलती है तो
उसकी लौ से
एक पैकर-सा उभरता है
सियह बख़्त
हिसारो में मेरे
और मैं
नींद की गहराई से
जाग उठता हूँ
आग जलती है तो
उसकी लौ से
एक पैकर-सा उभरता है
ख़्यालों में मेरे
एक पैकर
जो बताता है मुझे
शम-ए-उल्फ़त की ज़िया कैसी हो
मौसम-ए-गुल की क़बा कैसी हो
आग से ख़ौफ़ नहीं
आग जलती है तो
उसकी लौ से
एक दिलावेज़ सदा आती है
और मैं
नींद की गहराई से
जाग उठता हूँ
आग से ख़ौफ़ नहीं
कभी इस जा
गली-कूचे में
खेतों में, पहाड़ों में
गुफ़ा में, जंगलों में
नदी में, आबशारों में
फ़िज़ाओं में, ख़ला में
इकहरी धूप में
ठंडी हवा में
घने कुहरे में
रौशन
आग की लौ में
सुनहरी घास में
रेतीली ज़मीं में
चांद जैसे आसमाँ में
किसी आबाद बस्ती में
किसी उजड़े मकाँ में
दुआ-ए-नीम शब में
बद-दुआ में
कभी इस जा
कभी उस जा
बहुत ढूंढा किए
उस बे-अमाँ को
ख़ुदा मालूम
कैसी बेख़ुदी थी
कैसी आशुफ़्ता-सरी थी
बहुत ढूंढा किए
उस मेहरबाँ को
कर्ब-ए-जाँ को