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इक बहाना है तुझे याद किए जाने का

इक बहाना है तुझे याद किए जाने का
कब सलीक़ा है मुझे वर्ना ग़ज़ल गाने का

फिर से बिखरी है तिरी ज़ुल्फ़ मिरे शानों पर
वक़्त आया है गए वक़्त को लौटाने का

जिस की ताबीर अता कर दे मुझे वो ज़ुल्फ़ें
कौन कहता है कि वो ख़्वाब है दीवाने का

पीने वाले तो तुझे आँख से पी लेते हैं
वो तकल्लुफ़ ही नहीं करते हैं पैमाने का

किस क़दर हाथ यहाँ साफ़ नज़र आते हैं
फ़ैज़ कितना है तिरे शहर पे दस्ताने का

आप तो शेर में मफ़्हूम की सूरत होते
लफ़्ज़ होता जो कोई आप को पहनाने का

इस कड़ी धूप में हम वर्ना तो जल जाएँगे
वक़्त ‘बिस्मिल’ है यही ज़ुल्फ़ को लहराने का

जो भी तेरी आँख को भा जाएगा

जो भी तेरी आँख को भा जाएगा
जान-ए-जाँ महबूब समझा जाएगा

नाम ज़ुल्फों का न लेना भूल कर
दिल का पंछी दाम में आ जाएगा

वक़्त के मक़्तल में हम हैं दोस्तो
वक़्त इक दिन हम को भी खा जाएगा

वो समझता है मिरी हालत मगर
मैं अगर कह दूँ तो शरमा जाएगा

कुछ न कहना राज़-दाँ बस देखना
आँख से वो मुद्दआ पा जाएगा

कह रहे हैं वो न ‘बिस्मिल’ यूँ तड़प
तुझ पे ज़ालिम दिल मिरा आ जाएगा

फूल होंटों को ग़ज़ल-ख़्वाँ देखना

फूल होंटों को ग़ज़ल-ख़्वाँ देखना
मुझ को बहकाने के सामाँ देखना

देखना दिल के दर ओ दीवार पर
चाँद चेहरों का चराग़ाँ देखना

गुल-लबों से की है मैं ने गुफ़्तुगू
मेरे होंटों पर गुलिस्ताँ देखना

ज़ुल्फ़ लहरा के मिरे दिल में ज़रा
ख़्वाहिशों का एक तूफ़ाँ देखना

उस को पा लेना तो फिर मेरी तरह
ख़ुद को ख़ुद अपना ही ख़्वाहाँ देखना

जलते रहना उस के ग़म की आँच पर
दर्द बन जाएगा दरमाँ देखना

तुझ को जब चाहा तो ‘बिस्मिल’ बन गया
कितना दाना है ये नादाँ देखना

शिद्दत-ए-इज़हार-ए-मज़मूँ से है घबराई हुई

शिद्दत-ए-इज़हार-ए-मज़मूँ से है घबराई हुई
तेरी बे-उनवाँ कहानी लब पे शरमाई हुई

मैं सरापा जुर्म जन्नत से निकाला तो गया
डरते डरते पूछता हूँ किस की रूस्वाई हुई

एक सन्नाटा है दिल में इक तस्व्वुर आप का
इक क़यामत पर क़यामत दूसरी आई हुई

इम्तियाज़-ए-सूरत-ओ-मअ’नी के पर्दे चाक हैं
या तिरे चेहरे पे मस्ती की घटा छाई हुई

आरज़ू फ़ित्ने जगाए दिल में थी अब है मगर
इस क़यामत के जहाँ को नींद सी आई हुई

हुस्न हरजाई है ‘बिस्मिल’ इश्क़ की लज़्ज़त गई
अंदलीब-ए-वक़्त हर इक गुल की शैदाई हुई

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