अब इश्क़ रहा न वो जुनूँ है
अब इश्क़ रहा न वो जुनूँ है
तूफ़ान के बाद का सुकूँ है
एहसास को ज़िद है दर्द-ए-दिल से
कम हो तो ये जानिए फ़ुज़ूँ है
रास आई है इश्क़ को ज़बूनी
जिस हाल में देखिए ज़ुबूँ है
बाक़ी न जिगर रहा न अब दिल
अश्कों में हुनूज़ रंग-ए-ख़ूँ है
इज़हार है दर्द-ए-दिल का ‘बिस्मिल’
इल्हाम न शाइरी फ़ुसूँ है
बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर
बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर
ठहरा हुआ हूँ वक़्त की रफ़्तार देख कर
हम-मशरर्बी की शर्म गवारा न हो सकी
ख़ुद छोड़ दी है शैख़ को मय-ख़्वार देख कर
क्या जाने बहर-ए-इश्क़ में कितने हुए हैं ग़र्क़
साहिल से सतह-ए-आब को हमवार देख कर
हैं आज तक निगाह में हालाँकि आज तक
देखा न फिर कभी उन्हें एक बार देख कर
‘बिस्मिल’ तुम आज रोते हा अंजाम-ए-इश्क़ को
हम कल समझ गए थे कुछ आसार देख कर
इश्क़ जो ना-गहाँ नहीं होता
इश्क़ जो ना-गहाँ नहीं होता
वो कभी जावेदाँ नहीं होता
इश्क़ रखता है जिस जगह दिल को
मैं भी अक्सर वहाँ नहीं होता
मुझ पे होते हैं मेहरबाँ जब वो
ख़ुद पर अपना गुमाँ नहीं होता
इश्क़ होता है दिल का इक आलम
और दिल का बयाँ नहीं होता
मैं ने देखा है उन की महफ़िल में
कुछ ज़मान-ओ-मकाँ नहीं होता
इश्क़ होता है दिल-ब-दिल महसूस
ये फ़साना बयाँ नहीं होता
कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम
कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम
दो अश्क पोंछने को तिरी आस्तीं से हम
होगा तुम्हारा नाम ही उनवान-ए-हर-वर्क़
औराक़-ए-ज़िंदगी को उलट दें कहीं से हम
संग-ए-दर-ए-अदू पे हमारी जबीं नहीं
ये सज्दे कर रहे हैं तुम्हारी जबीं से हम
दोहराई जा सकेगी न अब दास्तान-ए-इश्क़
कुछ वो कहीं से भूल गए हैं कहीं से हम
‘बिस्मिल’ हरीम-ए-हुस्न में हैं काम-याब-ए-शौक़
जोश-ए-शबाब ओ रंग-ए-रूख़-ए-आतिशीं से हम
कौन समझे इश्क़ की दुश्वारियाँ
कौन समझे इश्क़ की दुश्वारियाँ
इक जुनूँ और लाख ज़िम्मेदारियाँ
एहतिमाम-ए-ज़िंदगी-ए-इश्क़ देख
रोज़ मर जाने की हैं तैयारियाँ
इश्क़ का ग़म वो भी तेरे इश्क़ का
कौन कर सकता मिरी ग़म-ख़्वारियाँ
बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ जैसे ग़म की नींद
ग़म की नींदें रूह की बेदारियाँ
इश्क़ भी है किस क़दर बर-ख़ुद-ग़लत
उन की बज़्म-ए-नाज़ और ख़ुद्दारियाँ
इस मोहब्बत उस जवानी की क़सम
फिर न ये नींदें न ये बेदारियाँ
ये नियाज़-ए-आरज़ूमंदी न देख
और कुछ हैं इश्क़ की ख़ुद्दारियाँ
इख़्तिलाज-ए-क़ल्ब के दौरे नहीं
इश्क़ की ‘बिस्मिल’ हैं दिल-आज़ारियाँ
रह-रव-ए-राह-ए-मोहब्बत कौन सी मंज़िल में है
रह-रव-ए-राह-ए-मोहब्बत कौन सी मंज़िल में है
दिल है बे-ज़ार-ए-मोहब्बत और मोहब्बत दिल में है
क्या ज़बाँ पर है किसी की क्या किसी के दिल में है
जिस की महफ़िल है वही जाने वो जिस मुश्किल में है
कारवान-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ अब तक कहीं ठहरा नहीं
क़ैस अभी सहरा में है लैला अभी महमिल में है
इशरत-ए-रफ़्ता का रोना क्या ग़म-ए-इमरोज़ में
ऐश-ए-फ़र्दा भी वो माज़ी है जो मुस्तक़बिल में है
रंग-ए-महफ़िल में नज़र आता है इक रंग-ए-दिग
तेरी महफ़िल के सिवा भी कुछ तिरी महफ़िल में है
हम-सफ़र कुछ दिन रहे लेकिन खुदा जाने कि अब
इश्क़ है किस मरहले में हुस्न किस मंज़िल में है
मंज़िल-ए-मक़्सूद ‘बिस्मिल’ वो नज़र आने लगी
हर नज़र मंज़िल पे जैसे हर क़दम मंज़िल में है
सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते
सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते
हर दर पे जो झुक जाए उसे सर नहीं कहते
क्या अहल-ए-जहाँ तुझ को सितमगर नहीं कहते
कहते तो हैं लेकिन तिरे मुँह पर नहीं करते
काबे में मुसलमान को कह देते हैं काफ़र
बुत-ख़ाने में काफ़र को भी काफ़र नहीं कहते
रिंदों को डरा सकते हैं क्या हज़रत-ए-वाइज़
जो कहते हैं अल्लाह से डर कर नहीं कहते
हर बार नए शौक़ से है अर्ज़-ए-तमन्ना
सौ बार भी हम कह के मुकर्रर नही कहते
मय-ख़ाने के अंदर भी वो कहते नहीं मय-ख़्वार
जो बात कि मय-ख़ाने के बाहर नहीं कहते
कहते हैं मोहब्बत फ़क़त उस हाल को ‘बिस्मिल’
जिस हाल को हम उन से भी अक्सर नहीं कहते
वही होती है रहबर जो तमन्ना दिल में होती है
वही होती है रहबर जो तमन्ना दिल में होती है
ब-क़द्र-हिम्मत-ए-रह-रौ कशिश् मंज़िल में होती है
मोहब्बत दिल में होती है तमन्ना दिल में होती है
जवानी उम्र की कितनी हसीं मंज़िल में होती है
मोहब्बत ऐ मआज़-अल्लाह मोहब्बत दम निकल जाए
अगर महसूस भी उतनी हो जितनी दिल में होती है
ठहरने भी नहीं देती है उस महफ़िल में बेताबी
मगर तस्कीन भी जा कर उसी महफ़िल में होती है
मिरा क्या साथ देंगे ग़ैर बहर-ए-इश्क़ में ‘बिस्मिल’
वो उस कश्ती में हैं जो दामन-ए-साहिल में होती है