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रैदास के दोहे

  • जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।

रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

  • कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।

वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

  • कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।

तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।

  • रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।

तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।

  • हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।

दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।

  • हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।

ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।

  • मन चंगा तो कठौती में गंगा।
  • वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।

सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी॥
प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती॥
प्रभु जी तुम मोती हम धागा।

प्रभु जी तुम संगति सरन तिहारी

प्रभु जी तुम संगति सरन तिहारी।जग-जीवन राम मुरारी॥
गली-गली को जल बहि आयो, सुरसरि जाय समायो।
संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो॥
स्वाति बूँद बरसे फनि ऊपर, सोई विष होइ जाई।
ओही बूँद कै मोती निपजै, संगति की अधिकाई॥
तुम चंदन हम रेंड बापुरे, निकट तुम्हारे आसा।
संगति के परताप महातम, आवै बास सुबासा॥
जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।
नीचे से प्रभु ऊँच कियो है, कहि ‘रैदास चमारा॥

जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै ‘रैदासा॥

 

परचै राम रमै जै कोइ

परचै राम रमै जै कोइ।

पारस परसें दुबिध न होइ।। टेक।।

जो दीसै सो सकल बिनास, अण दीठै नांही बिसवास।

बरन रहित कहै जे रांम, सो भगता केवल निहकांम।।१।।

फल कारनि फलै बनराइं, उपजै फल तब पुहप बिलाइ।

ग्यांनहि कारनि क्रम कराई, उपज्यौ ग्यानं तब क्रम नसाइ।।२।।

बटक बीज जैसा आकार, पसर्यौ तीनि लोक बिस्तार।

जहाँ का उपज्या तहाँ समाइ, सहज सुन्य में रह्यौ लुकाइ।।३।।

जो मन ब्यदै सोई ब्यंद, अमावस मैं ज्यू दीसै चंद।

जल मैं जैसैं तूबां तिरै, परचे प्यंड जीवै नहीं मरै।।४।।

जो मन कौंण ज मन कूँ खाइ, बिन द्वारै त्रीलोक समाइ।

मन की महिमां सब कोइ कहै, पंडित सो जे अनभै रहे।।५।।

कहै रैदास यहु परम बैराग, रांम नांम किन जपऊ सभाग।

ध्रित कारनि दधि मथै सयांन, जीवन मुकति सदा निब्रांन।।६।।

।। राग रामकली।।

अब मैं हार्यौ रे भाई

अब मैं हार्यौ रे भाई।

थकित भयौ सब हाल चाल थैं, लोग न बेद बड़ाई।। टेक।।

थकित भयौ गाइण अरु नाचण, थाकी सेवा पूजा।

काम क्रोध थैं देह थकित भई, कहूँ कहाँ लूँ दूजा।।१।।

रांम जन होउ न भगत कहाँऊँ, चरन पखालूँ न देवा।

जोई-जोई करौ उलटि मोहि बाधै, ताथैं निकटि न भेवा।।२।।

पहली ग्यांन का कीया चांदिणां, पीछैं दीया बुझाई।

सुनि सहज मैं दोऊ त्यागे, राम कहूँ न खुदाई।।३।।

दूरि बसै षट क्रम सकल अरु, दूरिब कीन्हे सेऊ।

ग्यान ध्यानं दोऊ दूरि कीन्हे, दूरिब छाड़े तेऊ।।४।।

पंचू थकित भये जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ थिति पाई।

जा करनि मैं दौर्यौ फिरतौ, सो अब घट मैं पाई।।५।।

पंचू मेरी सखी सहेली, तिनि निधि दई दिखाई।

अब मन फूलि भयौ जग महियां, उलटि आप मैं समाई।।६।।

चलत चलत मेरौ निज मन थाक्यौ, अब मोपैं चल्यौ न जाई।

सांई सहजि मिल्यौ सोई सनमुख, कहै रैदास बताई।।७।।

गाइ गाइ अब का कहि गाऊँ

गाइ गाइ अब का कहि गाऊँ।

गांवणहारा कौ निकटि बतांऊँ।। टेक।।

जब लग है या तन की आसा, तब लग करै पुकारा।

जब मन मिट्यौ आसा नहीं की, तब को गाँवणहारा।।१।।

जब लग नदी न संमदि समावै, तब लग बढ़ै अहंकारा।

जब मन मिल्यौ रांम सागर सूँ, तब यहु मिटी पुकारा।।२।।

जब लग भगति मुकति की आसा, परम तत सुणि गावै।

जहाँ जहाँ आस धरत है यहु मन, तहाँ तहाँ कछू न पावै।।३।।

छाड़ै आस निरास परंमपद, तब सुख सति करि होई।

कहै रैदास जासूँ और कहत हैं, परम तत अब सोई।।४।। ।। राग रामकली

राम जन हूँ उंन भगत कहाऊँ

राम जन हूँ उंन भगत कहाऊँ, सेवा करौं न दासा।

गुनी जोग जग्य कछू न जांनूं, ताथैं रहूँ उदासा।। टेक।।

भगत हूँ वाँ तौ चढ़ै बड़ाई। जोग करौं जग मांनैं।

गुणी हूँ वांथैं गुणीं जन कहैं, गुणी आप कूँ जांनैं।।१।।

ना मैं ममिता मोह न महियाँ, ए सब जांहि बिलाई।

दोजग भिस्त दोऊ समि करि जांनूँ, दहु वां थैं तरक है भाई।।२।।

मै तैं ममिता देखि सकल जग, मैं तैं मूल गँवाई।

जब मन ममिता एक एक मन, तब हीं एक है भाई।।३।।

कृश्न करीम रांम हरि राधौ, जब लग एक एक नहीं पेख्या।

बेद कतेब कुरांन पुरांननि, सहजि एक नहीं देख्या।।४।।

जोई जोई करि पूजिये, सोई सोई काची, सहजि भाव सति होई।

कहै रैदास मैं ताही कूँ पूजौं, जाकै गाँव न ठाँव न नांम नहीं कोई।।५।।

।। राग रामकली।।

अब मोरी बूड़ी रे भाई

अब मोरी बूड़ी रे भाई।

ता थैं चढ़ी लोग बड़ाई।। टेक।।

अति अहंकार ऊर मां, सत रज तामैं रह्यौ उरझाई।

करम बलि बसि पर्यौ कछू न सूझै, स्वांमी नांऊं भुलाई।।१।।

हम मांनूं गुनी जोग सुनि जुगता, हम महा पुरिष रे भाई।

हम मांनूं सूर सकल बिधि त्यागी, ममिता नहीं मिटाई।।२।।

मांनूं अखिल सुनि मन सोध्यौ, सब चेतनि सुधि पाई।

ग्यांन ध्यांन सब हीं हंम जांन्यूं, बूझै कौंन सूं जाई।।३।।

हम मांनूं प्रेम प्रेम रस जांन्यूं, नौ बिधि भगति कराई।

स्वांग देखि सब ही जग लटक्यौ, फिरि आपन पौर बधाई।।४।।

स्वांग पहरि हम साच न जांन्यूं, लोकनि इहै भरमाई।

स्यंघ रूप देखी पहराई, बोली तब सुधि पाई।।५।।

ऐसी भगति हमारी संतौ, प्रभुता इहै बड़ाई।

आपन अनिन और नहीं मांनत, ताथैं मूल गँवाई।।६।।

भणैं रैदास उदास ताही थैं, इब कछू मोपैं करी न जाई।

आपौ खोयां भगति होत है, तब रहै अंतरि उरझाई।।७।।

।। राग रामकली।।

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