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फ़हमीदा रियाज़ की रचनाएँ

नया भारत

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गँवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई ।

प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिन्दू राज करोगे ?
सारे उल्टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !

तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिन्दू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी

होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी-तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी

माथे पर सिन्दूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा !
क्या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नज़र न आई ?

कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आई
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई ।

मश्क करो तुम, आ जाएगा
उल्टे पाँव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आए
बस, पीछे ही नज़र जमाना

भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना ।
आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना

एक जाप-सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
‘कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत’

फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे

हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना ।

आलम-ए-बर्ज़ख़

ये तो बर्ज़ख़ है यहाँ वक़्त की ईजाद कहाँ
इक बरस था कि महीना हमें अब याद कहाँ

वही तपता हुआ गर्दूं वही अँगारा ज़मीं
जा-ब-जा तिश्ना ओ आशुफ़्ता वही ख़ाक-नशीं

शब-गराँ ज़ीस्त-गराँ-तर ही तो कर जाती थी
सूद-ख़ोरों की तरह दर पे सहर आती थी
ज़ीस्त करने की मशक़्क़त ही हमें क्या कम थी

मुस्ताज़ाद उस पे पिरोहित का जुनून-ए-ताज़ा
सब को मिल जाए गुनाहों का यहीं ख़म्याज़ा

ना-रवा-दार फ़ज़ाओं की झुलसती हुई लू!
मोहतसिब कितने निकल आए घरों से हर सू

ताड़ते हैं किसी चेहरे पे तरावत तो नहीं
कोई लब नम तो नहीं बशरे पे फ़रहत तो नहीं

कूचा कूचा में निकाले हुए ख़ूनी दीदे
गुर्ज़ उठाए हुए धमकाते फिरा करते हैं

नौ-ए-आदम से बहर-तौर रिया के तालिब
रूह बे-ज़ार है क्यूँ छोड़ न जाए क़ालिब

ज़िन्दगी अपनी इसी तौर जो गुज़री ‘ग़ालिब’
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे

अब सो जाओ

अब सो जाओ
और अपने हाथ को मेरे हाथ में रहने दो

तुम चाँद से माथे वाले हो
और अच्छी क़िस्मत रखते हो
बच्चे की सौ भोली सूरत
अब तक ज़िद करने की आदत
कुछ खोई-खोई-सी बातें
कुछ सीने में चुभती यादें
अब इन्हें भुला दो सो जाओ
और अपने हाथ को मेरे हाथ में रहने दो

सो जाओ तुम शहज़ादे हो
और कितने ढेरों प्यारे हो
अच्छा तो कोई और भी थी
अच्छा फिर बात कहाँ निकली
कुछ और भी यादें बचपन की
कुछ अपने घर के आँगन की
सब बतला दो फिर सो जाओ
और अपने हाथ को मेरे हाथ में रहने दो

ये ठण्डी साँस हवाओं की
ये झिलमिल करती ख़ामोशी
ये ढलती रात सितारों की
बीते न कभी तुम सो जाओ
और अपने हाथ को मेरे हाथ में रहने दो

अबद

ये कैसी लज़्ज़त से जिस्म शल हो रहा है मेरा
ये क्या मज़ा है कि जिससे है उज़्व-उज़्व बोझल
ये कैफ़ क्या है कि साँस रुक-रुक के आ रहा है
ये मेरी आँखों में कैसे शहवत-भरे अँधेरे उतर रहे हैं
लहू के गुम्बद में कोई दर है कि वा हुआ है
ये छूटती नब्ज़, रुकती धड़कन, ये हिचकियाँ-सी
गुलाब ओ काफ़ूर की लपट तेज़ हो गई है

ये आबनूसी बदन, ये बाज़ू, कुशादा सीना
मिरे लहू में सिमटता सय्याल एक नुक्ते पे आ गया है
मिरी नसें आने वाले लम्हे के ध्यान से खिंच के रह गई हैं
बस, अब तो सरका दो रुख़ पे चादर
दिये बुझा दो

अक़्लीमा

अक़्लीमा
जो हाबील की क़ाबील की माँ-जाई है
माँ-जाई
मगर मुख़्तलिफ़

मुख़्तलिफ़ बीच में रानों के
और पिस्तानों के उभारों में
और अपने पेट के अन्दर
अपनी कोख में
इन सब की क़िस्मत क्यूँ है
इक फ़र्बा भेड़ के बच्चे की क़ुर्बानी

वो अपने बदन की क़ैदी
तपती हुई धूप में जलते
टीले पर खड़ी हुई है
पत्थर पर नक़्श बनी है

उस नक़्श को ग़ौर से देखो
लम्बी रानों से ऊपर
उभरे पिस्तानों से ऊपर
पेचीदा कोख से ऊपर

अक़्लीमा का सर भी है
अल्लाह कभी अक़्लीमा से भी कलाम करे
और कुछ पूछे

चादर और चार-दीवारी

हुज़ूर, मैं इस सियाह चादर का क्या करूँगी
ये आप क्यूँ मुझ को बख़्शते हैं ब-सद इनायत
न सोग में हूँ कि उस को ओढूँ
ग़म-ओ-अलम ख़ल्क़ को दिखाऊँ
न रोग हूँ मैं कि इस की तारीकियों में ख़िफ़्फ़त से डूब जाऊँ
न मैं गुनाहगार हूँ न मुजरिम
कि इस स्याही की मेहर अपनी जबीं पे हर हाल में लगाऊँ

अगर न गुस्ताख़ मुझ को समझें
अगर मैं जाँ की अमान पाऊँ
तो दस्त-बस्ता करूँ गुज़ारिश
कि बन्दा-परवर
हुज़ूर के हुजरा-ए-मुअत्तर में एक लाशा पड़ा हुआ है
न जाने कब का गला सड़ा है
ये आप से रहम चाहता है

हुज़ूर इतना करम तो कीजे
सियाह चादर मुझे न दीजिए
सियाह चादर से अपने हुजरे की बे-कफ़न लाश ढाँप दीजिए
कि उस से फूटी है जो उफ़ूनत
वो कूचे-कूचे में हाँफती है
वो सर पटकती है चौखटों पर
बरहनगी तन की ढाँपती है

सुनें ज़रा दिल-ख़राश चीख़ें
बना रही हैं अजब हयूले
जो चादरों में भी हैं बरहना
ये कौन हैं जानते तो होंगे
हुज़ूर पहचानते तो होंगे

ये लौंडियाँ हैं
कि यर्ग़माली हलाल शब-भर रहे हैं
दम-ए-सुब्ह दर-ब-दर हैं
हुज़ूर के नुतफ़े को मुबारक के निस्फ़ विर्सा से बे-मो’तबर हैं

ये बीबियाँ हैं
कि ज़ौजगी का ख़िराज देने
क़तार-अन्दर-क़तार बारी की मुन्तज़िर हैं

ये बच्चियाँ हैं
कि जिन के सर पर फिरा जो हज़रत का दस्त-ए-शफ़क़त
तो कम-सिनी के लहू से रीश-ए-सपेद रंगीन हो गई है
हुज़ूर के हजला-ए-मोअत्तर में ज़िन्दगी ख़ून रो गई है
पड़ा हुआ है जहाँ ये लाशा
तवील सदियों से क़त्ल-ए-इंसानियत का ये ख़ूँ-चकाँ तमाशा

अब इस तमाशा को ख़त्म कीजे
हुज़ूर अब इस को ढाँप दीजिए
सियाह चादर तो बन चुकी है मिरी नहीं आप की ज़रूरत
कि इस ज़मीं पर वजूद मेरा नहीं फ़क़त इक निशान-ए-शहवत
हयात की शाह-राह पर जगमगा रही है मिरी ज़ेहानत
ज़मीन के रुख़ पर जो है पसीना तो झिलमिलाती है मेरी मेहनत

ये चार-दीवारियाँ ये चादर गली सड़ी लाश को मुबारक
खुली फ़ज़ाओं में बादबाँ खोल कर बढ़ेगा मिरा सफ़ीना
मैं आदम-ए-नौ की हम-सफ़र हूँ
कि जिसने जीती मिरी भरोसा-भरी रिफ़ाक़त

दिल्ली तिरी छाँव…

दिल्ली ! तिरी छाँव बड़ी क़हरी
मिरी पूरी काया पिघल रही
मुझे गले लगा कर गली-गली
धीरे से कहे” तू कौन है री?”

मैं कौन हूँ माँ तिरी जाई हूँ
पर भेस नए से आई हूँ
मैं रमती पहुँची अपनों तक
पर प्रीत पराई लाई हूँ

तारीख़ की घोर गुफाओं में
शायद पाए पहचान मिरी
था बीज में देस का प्यार घुला
परदेस में क्या क्या बेल चढ़ी

नस-नस में लहू तो तेरा है
पर आँसू मेरे अपने हैं
होंटों पर रही तिरी बोली
पर नैन में सिन्ध के सपने हैं

मन माटी जमुना घाट की थी
पर समझ ज़रा उस की धड़कन
इस में कारूँझर की सिसकी
इस में हो के डालता चलतन !

तिरे आँगन मीठा कुआँ हँसे
क्या फल पाए मिरा मन रोगी
इक रीत नगर से मोह मिरा
बसते हैं जहाँ प्यासे जोगी

तिरा मुझ से कोख का नाता है
मिरे मन की पीड़ा जान ज़रा
वो रूप दिखाऊँ तुझे कैसे
जिस पर सब तन मन वार दिया

क्या गीत हैं वो कोह-यारों के
क्या घाइल उन की बानी है
क्या लाज रंगी वो फटी चादर
जो थर्की तपत ने तानी है

वो घाव-घाव तन उन के
पर नस-नस में अग्नी दहकी
वो बाट घिरी संगीनों से
और झपट शिकारी कुत्तों की

हैं जिन के हाथ पर अँगारे
मैं उन बंजारों की चीरी
माँ उन के आगे कोस कड़े
और सर पे कड़कती दो-पहरी

मैं बन्दी बाँधूँ की बान्दी
वो बन्दी-ख़ाने तोड़ेंगे
है जिन हाथों में हाथ दिया
सो सारी सलाख़ें मोड़ेंगे

तू सदा सुहागन हो, माँ री !
मुझे अपनी तोड़ निभाना है
री दिल्ली छू कर चरण तिरे
मुझ को वापस मुड़ जाना है ।

एक औरत की हँसी

पथरीले कोहसार के गाते चश्मों में
गूँज रही है एक औरत की नर्म हँसी
दौलत ताक़त और शोहरत सब कुछ भी नहीं
उस के बदन में छुपी है उस की आज़ादी

दुनिया के मा’बद के नए बुत कुछ कर लें
सुन नहीं सकते उस की लज़्ज़त की सिसकी
इस बाज़ार में गो हर माल बिकाऊ है
कोई ख़रीद के लाए ज़रा तस्कीन उसकी

इक सरशारी जिस से वो ही वाक़िफ़ है
चाहे भी तो उस को बेच नहीं सकती
वादी की आवारा हवाओ आ जाओ
आओ और उस के चेहरे पर बोसे दो

अपने लम्बे-लम्बे बाल उड़ाती जाए
हवा की बेटी साथ हवा के गाती जाए

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