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वे इस पृथ्वी पर

वे इस पृथ्वी पर
कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं ज़रूर
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर
कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं
बचाए हुए हैं उसे
अपने ही नरक में डूबने से
वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं
इतने नामालूम कि कोई उनका पता
ठीक-ठीक बता नहीं सकता
उनके अपने नाम हैं लेकिन वे
इतने साधारण और इतने आमफहम हैं
कि किसी को उनके नाम
सही-सही याद नहीं रहते
उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे
एक दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं
कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता
वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं
और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है
और सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि उन्हें
रत्ती भर यह अंदेशा नहीं
कि उन्हीं की पीठ पर
टिकी हुई यह पुथ्वी।

इतनी बड़ी मृत्यु

इतनी बड़ी मृत्यु
आजकल हर कोई, कहीं न कहीं जाने लगा है
हर एक को पकड़ना है चुपके से कोई ट्रेन
किसी को न हो कानों कान ख़बर
इस तरह पहुँचना है वहीं उड़कर

अकेले ही अकेले होता है अख़बार की ख़बर में
कि सूची में पहुँचना है, नीचे से सबसे ऊपर
किसी मैदान में घुड़दौड़ का होना है
पहला और आख़िरी सवार

इतनी अजीब घड़ी हैं
हर एक को कहीं न कहीं जाने की हड़बड़ी है
कोई कहीं से आ नहीं रहा
रोते हुए बच्चे तक के लिए रुक कर
कहीं कोई कुछ गा नहीं रहा

यह केवल एक दृश्य भर नहीं है
बुझकर, फेंका गया ऐसा जाल है
जिसमें हर एक दूसरे पर सवार
एक दूसरे का शिकार है
काट दिए गए हैं सबके पाँव
स्मृति भर में बचे हैं जैसे अपने घर
अपने गाँव,
ऐसी भागमभाग
कि इतनी तेज़ी से भागती दिखाई दी नहीं कभी उम्र
उम्र के आगे-आगे सब कुछ पीछे छूटते जाने का
भय भाग रहा है

जिनके साथ-साथ जीना-मरना था
हँस बोलकर जिनके साथ सार्थक होना था
उनसे मिलना मुहाल
संसार का ऐसा हाल तो पहले कभी नहीं हुआ
कि कोई किसी को
हाल चाल तक बतलाता नहीं

जिसे देखो वही मन ही मन कुछ बड़बड़ा रहा है
जिसे देखो वही
बेशर्मी से अपना झंडा फहराए जा रहा है
चेहरों पर जीवन की हँसी कही दिख नहीं रहीं
इतनी बड़ी मृत्यु
कोई रोता दिख नहीं रहा
कोई किसी को बतला नहीं पा रहा
आखिर
वह कहाँ जा रहा है।

बदलते हुए मौसम का मिजाज़ 

जब से भू मंडल नहीं रहा भौगोलिक
चढ़ गया है भूमंडलीकरण का बुखार
जब से ग़ायब होना शुरू हुई उदारता
फैला प्लेग की तरह
उदारतावाद
जब से उजड़ गए गाँवों, कस्बों और शहरों के खुले मैदानों के बाज़ार
घर-घर में घुस गया नकाबपोश
बाज़ारवाद

यह अकारण नहीं कि तभी से प्रकृति ने भी
ताक पर रखकर अपने नियम-धरम
बदल दिए हैं अपने आचार-विचार

अब यही देखिए कि पता ही नहीं लगता
कि खुश या नाराज़ हैं ये बझल
जो शेयर दलालों के उछाले गए सेंसेक्स की तरह
बरसे हैं मूसलाधार इस साल

जैसे कोई अकूत धनवान
इस तरह मारे अपनी दौलत की मार
कि भूखे भिखारियों को किसी एक दिन
जबरदस्ती ठूँस ठूँसकर तब तक खिलाए सारे पकवान
जब तक वे खा-खाकर मर न जाएं

जैसे कोई जलवाद केवल अपने अभ्यास के लिए
बेवजह मातहतों पर तब तक बरसाए
कोड़े पर कोड़े लगातार
जब तक स्वयं थक-हारकर सो न जाए

दूसरी तरफ देखिए यह दृश्य
कि ऐसी बरसात में, नशे में झूमतीं,
अपनी ही खुमारी में खड़ी हैं अविचलित
ऊँची-नीची पहाड़ियों
स्थित-प्रज्ञों की तरह अपने ही दंभ में खड़े हैं
ऊँचे-ऊँचे उठते मकान

और दुख से भी ज़्यादा दुख में
डूबी हुईं है सारी की सारी निचली बस्तियाँ
बह गए जिनके सारे छान-छप्पर-घर-बार
इन्हें ही मरना है, हव से, पानी से, आग से
बदलते हुए मौसम के मिजाज़ से
कभी प्यास से, कभी डूबकर
कभी गैस से
कभी आग से।

बैलगाड़ी

बैलगाड़ी
एक दिन औंधे मुँह गिरेंगे
हवा में धुएँ की लकीर से उड़ते
मारक क्षमता के दंभ में फूले
सारे के सारे वायुयान

एक दिन अपने ही भार से डूबेंगे
अनाप-शनाप माल-असबाब से लदे फँसे
सारे के सारे समुद्री जहाज़

एक दिन अपनी ही चमक-दमक की
रफ्तार में परेशान सारे के सारे वाहनों के लिए
पृथ्वी पर जगह नहीं रह जायेगी

तब न जाने क्यों लगता है मुझे
अपनी स्वाभाविक गति से चलती हुई
पूरी विनम्रता से
सभ्यता के सारे पाप ढोती हुई
कहीं न कहीं
एक बैलगाड़ी ज़रूर नज़र आयेगी

सैकड़ों तेज रफ्तार वाहनों के बीच
जब कभी वह महानगरों की भीड़ में भी
अकेली अलमस्त चाल से चलती दिख जाती है
तो लगता है घर बचा हुआ है

लगता है एक वही तो है
हमारी गतियों का स्वास्तिक चिह्न
लगता है एक वही है जिस पर बैठा हुआ है
हमारी सभ्यता का आखिरी मनुष्य
एक वही तो है जिसे खींच रहे हैं
मनुष्यता

बैलगाड़ी

बैलगाड़ी
एक दिन औंधे मुँह गिरेंगे
हवा में धुएँ की लकीर से उड़ते
मारक क्षमता के दंभ में फूले
सारे के सारे वायुयान

एक दिन अपने ही भार से डूबेंगे
अनाप-शनाप माल-असबाब से लदे फँसे
सारे के सारे समुद्री जहाज़

एक दिन अपनी ही चमक-दमक की
रफ्तार में परेशान सारे के सारे वाहनों के लिए
पृथ्वी पर जगह नहीं रह जायेगी

तब न जाने क्यों लगता है मुझे
अपनी स्वाभाविक गति से चलती हुई
पूरी विनम्रता से
सभ्यता के सारे पाप ढोती हुई
कहीं न कहीं
एक बैलगाड़ी ज़रूर नज़र आयेगी

सैकड़ों तेज रफ्तार वाहनों के बीच
जब कभी वह महानगरों की भीड़ में भी
अकेली अलमस्त चाल से चलती दिख जाती है
तो लगता है घर बचा हुआ है

लगता है एक वही तो है
हमारी गतियों का स्वास्तिक चिह्न
लगता है एक वही है जिस पर बैठा हुआ है
हमारी सभ्यता का आखिरी मनुष्य
एक वही तो है जिसे खींच रहे हैं
मनुष्यता के पुराने भरोसेमंद साथी
दो बैल।

के पुराने भरोसेमंद साथी
दो बैल।

मनुष्य

मनुष्य
दिखते रहने के लिए मनुष्य
हम काटते रहते हैं अपने नाखून
छँटवाकर बनाते-सँवारते रहते हैं बाल
दाढ़ी रोज न सही तो एक दिन छोड़कर
बनाते ही रहते हैं

जो रखते हैं लम्बे बाल और
बढ़ाये रहते हैं दाढ़ी वे भी उन्हें
काट छाँट कर ऐसे रखते हैं जैसे वे
इसी तरह दिख सकते हैं सुथरे-साफ

मनुष्य दिखते भर रहने के लिए हम
करते हैं न जाने क्या-क्या उपाय
मसलन हम बिना इस्तरी किये कपड़ों में
घर से बाहर पैर तक नहीं निकालते
जूते-चप्पलों पर पालिश करवाना
कभी नहीं भूलते
ग़मी पर भी याद आती है हमें
मौके के मुआफिक पोषाक
अब किसी आवाज़ पर
दौड़ नहीं पड़ते अचानक नंगे पाँव
कमरों में आराम से बैठे-बैठे
देखते रहते हैं नरसंहार
और याद नही आता हमें अपनी मुसीबत का
वह दिन जब हम भूल गये थे
बनाना दाढ़ी
भूल गये थे खाना-पीना
भूल गये थे साफ-सुथरी पोषाक
भूल गये थे समय दिन तारीख
भूल जाते हैं हम कि बस उतने से समय में
हम हो गये थे कितने मनुष्य।

मेधा पाटकर

करुणा और मनुष्यता की ज़मीन के

जिस टुकड़े पर तुम आज़ भी अपने पांव जमाए

खड़ी हुई हो अविचलित

वह तो कब का डूब में आ चुका है

मेधा पाटकर

रंगे सियारों की प्रचलित पुरानी कहानी में

कभी न कभी पकड़ा जरूर जाता था

रंगा सियार

पर अब बदली हुई पटकथा में

उसी की होती है जीत

उसी का होता है जय-जयकार

मेधा पाटकर

तुम अंततः जिसे बचाना चाहती हो

जीवन दे कर भी जिसे ज़िंदा रखना चाहती हो

तुम भी तो जानती हो कि वह न्याय

कब का दोमुंही भाषा की बलि चढ़ चुका है

मेधा पाटकर

हमने देखे हैं जश्न मनाते अपराधी चेहरे

देखा है नरसंहारी चेहरों को अपनी क्रूरता पर

गर्व से खिलखिलाते

पर हार के कगार पर

एक और लड़ाई लड़ने की उम्मीद में

बुद्ध की तरह शांत भाव से मुस्कुराते हुए

सिर्फ़ तुम्हें देखा है

मेधा पाटकर

तुम्हारे तप का मज़ाक उड़ाने वाले

आदमखोर चेहरों से अश्लीलता की बू आती है

तुम देखना उन्हें तो नर्मदा भी

कभी माफ़ नहीं करेगी

मेधा पाटकर

ऐसी भी जिद क्या

अपने बारे में भी सोचो

अधेड़ हो चुकी हो बहुत धूप सही

अब जाओ किसी वातानुकूलित कमरे की

किसी ऊंची-सी कुर्सी पर बैठ कर आराम करो

मेधा पाटकर

सारी दुनिया को वैश्विक गांव बनाने की फ़िराक में

बड़ी-बड़ी कंपनियां

तुम्हें शो-केस में सजाकर रखने के लिए

कबसे मुंह बाये बैठी हैं तुम्हारे इंतज़ार में

कुछ उनकी भी सुनो

मेधा पाटकर

खोखले साबित हुए हमारे सारे शब्द

झूठी निकलीं हमारी सारी प्रतिबद्धताएं

तमाशबीनों की तरह हम दूर खड़े-खड़े

गाते रहे दुनिया बदलने के

नकली गीत

तुम्हें छोड़कर

हम सबके सिर झुके हुए हैं

मेधा पाटकर ।

 

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