दश्त की प्यास किसी तौर बुझाई जाती
दश्त की प्यास किसी तौर बुझाई जाती
कोई तस्वीर ही पानी की दिखाई जाती
एक दरिया चला आया है मिरे साथ इसे
रोकने के लिए दीवार उठाई जाती
हम नए नक्श बनाने का हुनर जानते हैं
ऐसा होता तो नई शक्ल बनाई जाती
अब ये आँसू हैं कि रूकते ही नहीं हैं हम से
दिल की आवाज़ ही पहले न सुनाई जाती
सिर्फ़ आज़ार उठाने की हमें आदत है
हम पे साया नहीं दीवार गिराई जाती
हमारा ख़्वाब अगर ख़्वाब की ख़बर रक्खे
हमारा ख़्वाब अगर ख़्वाब की ख़बर रक्खे
तो ये चराग़ भी महताब की ख़बर रक्खे
उठा न पाएगी आसूदगी थकन का बोझ
सफ़र की गर्द ही आसाब की ख़बर रक्खे
तमाम शहर गिरफ़्तार है अज़िय्यत में
किस कहूँ मिरे अहबाब की ख़बर रक्खे
नहीं है फ़िक्र अगर शहर की मकानों को
तो कोई दश्त ही सैलाब की ख़बर रक्खे
इश्क़ था और अक़ीदत से मिला करते थे
इश्क़ था और अक़ीदत से मिला करते थे
पहले हम लोग मोहब्बत से मिला करते थे
रोज़ ही साए बुलाते थे हमें अपनी तरफ
रोज़ हम धूप की शिद्दत से मिला करते थे
सिर्फ़ रस्ता ही नहीं देख के ख़ुश होता था
कुछ अपनी फ़िक्र न अपना ख़याल करता हूँ
कुछ अपनी फ़िक्र न अपना ख़याल करता हूँ
तो क्या ये कम है तिरी देख-भाल करता हूँ
मिरी जगह पे कोई और हो तो चीख़ उट्ठे
मैं अपने आप से इतने सवाल करता हूँ
अगर मलाल किसी को नहीं मिरा न सही
मैं ख़ुद भी कौन सा अपना मलाल करता हूँ
ये चाँद और सितारे रफ़ीक़ हैं मेरे
मैं राज़ इन से बयाँ अपना हाल करता हूँ
तुम्हारी याद भी आती है अब मुझे कम कम
तुम्हारा ज़िक्र भी अब ख़ाल-ख़ाल करता हूँ
मुझ में ख़ुशबू बसी उसी की है
मुझ में ख़ुशबू बसी उसी की है
जैसे ये ज़िंदगी उसी की है
वो कहीं आस-पास है मौजूद
हू-ब-हू ये हँसी उसी की है
ख़ुद में अपना दुखा रहा हूँ दिल
इस में लेकिन ख़ुशी उसी की है
यानी कोई कमी नहीं मुझ में
यानी मुझ में कमी उसी की है
क्या मिरे ख़्वाब भी नहीं मिरे
क्या मिरी नींद भी उसी की है
नींद आती है मगर ख़्वाब नहीं आते हैं
नींद आती है मगर ख़्वाब नहीं आते हैं
मुझ से मिलने मिरे एहबाब नहीं आते हैं
शहर की भीड़ से ख़ुद को तो बचा लाता हूँ
गो सलामत मिरे आसाब नहीं आते हैं
तिश्नगी दश्त की दरिया को डुबो दे न कहीं
इस लिए दश्त में सैलाब नहीं आते हैं
डूबते वक़्त समंदर में मिरे हाथ लगे
वो जवाहिर जो सर-ए-आब नहीं आते हैं
या उन्हें आती नहीं बज़्म-ए-सुख़न आराई
या हमें बज़्म के आदाब नहीं आते हैं
हम-नशीं देख मकाफात-ए-अमल है दुनिया
काम कुछ भी यहाँ असबाब नहीं आते हैं
फूल खिलते हैं तालाब में तारा होता
फूल खिलते हैं तालाब में तारा होता
कोई मंज़र तो मिरी आँख में प्यारा होता
हम पलट आए मसाफ़त को मुकम्मल कर के
और भी चलते अगर साथ तुम्हारा होता
हम मोहब्बत को समंदर की तरह जानते हैं
कूद ही जाते अगर कोई किनारा होता
एक ना-काम मोहब्बत की हमें काफ़ी है
हम दोबारा भी अगर करते ख़सारा होता
कितनी लहरें हमें सीने से लगाने आतीं
कोई कंकर ही अगर झील में मारा होता
साथ रोने न सही गीत सुनाने आते
साथ रोने न सही गीत सुनाने आते
तुम मुसीबत में मिरा हाथ बटाने आते
उम्र भर जाग के आँखों की हिफ़ाज़त की है
जाने कब लोग मिरे ख़्वाब चुराने आते
खींच लाई है तिर दश्त की वहशत वर्ना
कितने दरिया ही मिरी प्यास बुझाने आते
साथ तो ख़ैर निभाना तुम्हें आता ही नहीं
कम से कम राह में दीवार उठाने आते
ख़ौफ़ आता है बयाबाँ की तरफ जाने से
वर्ना कितने ही मिरे हाथ ख़जाने आते
सिर्फ़ बच्चे ही नहीं शोर मचाने आते
सिर्फ़ बच्चे ही नहीं शोर मचाने आते
सैर करने यहाँ बीमार भी आ जाते हैं
दिल भी हो जाता है ख़ुश अपना तमाशा कर के
और निभाने हमें किरदार भी आ जाते हैं
किस क़दर दुख है तुम्हें दिल के उजड़ जाने का
इश्क़ में काम तो घर-बार भी आ जाते हैं
हम भी आ जाते हैं बाज़ार में आँखें ले कर
शाम होते ही ख़रीदार भी आ जाते हैं
थकन का बोझ बदन से उतारते हैं हम
थकन का बोझ बदन से उतारते हैं हम
ये शाम और कहीं पर गुज़ारते हैं हम
क़दम ज़मीन पर रक्खे हमें ज़माना हुआ
सो आसमान से ख़ुद को उतारते हैं हम
हमारी रूह का हिस्सा हमारे आँसू हैं
इन्हें भी शौक़-ए-अज़ीयत पे वारते हैं हम
हमारी आँख से नींदें उड़ाने लगता है
जिस भी ख़्वाब समझ कर पुकारते हैं हम
हम अपने जिस्म की पोशाक को बदलते हैं
नया अब और कोई रूप धारते हैं हम
जख़्म इस जख़्म पे तहरीर किया जाएगा
जख़्म इस जख़्म पे तहरीर किया जाएगा
क्या दोबारा मुझे दिल-गीर किया जाएगा
उस की आँखों में खड़ा देख रहा हूँ ख़ुद को
कौन से पल मुझे तस्ख़ीर किया जाएगा
मेरी आँखों में कई ख़्वाब अधूरे हैं अभी
क्या मुकम्मल इन्हें ताबीर किया जाएगा
मुझ को बेकार में हैरत ने पकड़ रक्खा है
शहर तो दश्त में तामीर किया जाएगा
तू ने देखा न कहीं मुझ को नज़र आया है
ऐसा मंज़र जिसे तस्वीर किया जाएगा