एक मोअ’म्मा है समझने का
एक मोअ’म्मा[1] है समझने का ना समझाने का
ज़िन्दगी काहे को है ख़्वाब है दीवाने का
ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तेरे दीवाने का
एक गोशा[2] है यह दुनिया इसी वीराने का
मुख़्तसर[3] क़िस्सा-ए-ग़म यह है कि दिल रखता हूँ
राज़-ए-कौनैन ख़ुलासा है इस अफ़साने का
तुमने देखा है कभी घर को बदलते हुए रंग
आओ देखो ना तमाशा मेरे ग़मख़ाने का
दिल से पोंछीं तो हैं आँखों में लहू की बूंदें
सिलसिला शीशे से मिलता तो है पैमाने का
हमने छानी हैं बहुत दैर-ओ-हरम[4] की गलियाँ
कहीं पाया न ठिकाना तेरे दीवाने का
हर नफ़स[5] उमरे-गुज़िश्ता[6] की है मय्यत[7] फ़ानी
ज़िन्दगी नाम है मर मर के जिये जाने का
चंद मक़्ते
किसी के ग़म की कहानी है जिन्दगी-ए-‘फ़ानी’।
ज़माना एक फ़साना है, मेरे नालों का।।
ख़ाके-‘फ़ानी’ की क़सम है, तुझे ऎ दस्ते-जुनूँ!
किससे सीखा तेरे ज़र्रों ने बयाबाँ होना?
चमन से रुख़सते ‘फ़ानी’ क़रीब है शायद।
कुछ अब की बूए-कफ़न दामने-बहार में है।।
किसकी कश्ती तहे-गरदाबे-फ़ना जा पहुँची?
यकबयक शोर जो ‘फ़ानी’ लबे-साहिल से उठा।।
आज रोज़े-विसाल ‘फ़ानी’ है।
मौत से हो रहे हैं नाज़ो-नियाज़।।
कुछ अशआर
कश्मीर में हर हसीन सूरत ‘फ़ानी’।
मिट्टी में मिली हुई नज़र आती है॥
फूलों की नज़र-नवाज़ रंगत देखी,
मख़लूक़ कि दिल-गुदाज़ हालत देखी,
कु़दरत का करिश्मा नज़र आया कश्मीर,
दोज़ख़ में समोई हुई जन्नत देखी॥
दैर में हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरे ही ग़म में गुज़रेगी॥
हाँ नाखू़ने-ग़म कमी न करना।
डरता हूँ कि ज़ख़्मेदिल न भर जाये॥
ग़ैरत हो तो ग़म की जुस्तजू कर।
हिम्मत हो तो बेक़रार हो जा॥
चुन लिया तेरी मुहब्बत ने मुझे।
और दुनिया हाथ मलकर रह गई॥
हूँ असीरे-फ़रेबे-आज़ादी[1]।
पर है और मश्क़े-हीलये-परवाज़[2]
इश्क है परतवे-हुस्ने-महबूब[3]।
आप अपनी ही तमन्ना क्या खू़ब॥
अब लब पै वोह हंगामये-फ़रियाद नहीं है।
अल्लाह रे तेरी याद कि कुछ याद नहीं है॥
हमको मरना भी मयस्सर नहीं जीने के बग़ैर।
मौत ने उम्रे-दो रोज़ा का बहाना चाहा॥
बिजलियाँ शाख़े-नशेमन पै बिछी जाती है।
क्या नशेमन से कोई सोख्ता-सामाँ[4] निकला?
‘फ़ानी’ की ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी यारब।
मौत और ज़िन्दगी में कुछ फ़र्क़ चाहिए था॥
कुछ और अशआर
आ गई है तेरे बीमार के मुँह पर रौनक़।
जान क्या जिस्म से निकली, कोई अरमाँ निकला॥
रस्मेख़ुद्दारी से गो वाक़िफ़ न थी दुनिया-ए-इश्क़।
फिर भी अपना ज़ख़्मेदिल शरमिन्द-ए-मरहम न था॥
मज़ाक़े-तल्ख़पसन्दी न पूछ, उस दिल का–
बगै़र मर्ग जिसे ज़ीस्त का मज़ा न मिला॥
मेरी हयात है महरूमे-मुद्दआ़-ए-हयात।
वो रहगुज़र हूँ जिसे कोई नक़्शेपा न मिला॥
चंद शेर
देख ‘फ़ानी’ वोह तेरी तदबीर की मैयत[1] न हो।
इक जनाज़ा[2] जा रहा है दोश पर[3] तक़दीर के।।
या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं ‘फ़ानी’।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर[4] को क्या कहिए।।
हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।
तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।
एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।
है कि ‘फ़ानी’ नहीं है क्या कहिए।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।
हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।
बहला न दिल, न तीरगीये-शामे-ग़म गई।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।
वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।
याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।
तामीरे-आशियाँ की हविस का है नाम बर्क़।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।
अपनी तो सारी उम्र ही ‘फ़ानी’ गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।
‘फ़ानी’को या जुनूँ है या तेरी आरज़ू है।
कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।
नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।
आया है बादे-मुद्दत बिछुड़े हुए मिले हैं।
दिल से लिपट-लिपट कर ग़म बार-बार रोया?
नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीज़े-ग़म की।
क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।
ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।
महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।
गो हस्ती थी ख़्वाबे-परीशाँ नींद कुछ ऎसी गहरी थी।
चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।
फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।
या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा– “कहिए”।
तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?
दैर में या हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।
चंद और शेर
अब करम है तो यह मिला है मुझे।
कि मुझी पर तेरा करम न हुआ।।
गुल में वो अब नहीं है जो आलम था खार का।
अल्लाह क्या हुआ वो ज़माना बहार का॥
उसको भूले हुए तो हो ‘फ़ानी’।
क्या करोगे अगर वोह याद आया॥
बा-खबर है वोह सबकी हालत से।
लाओ हम पूछ लें न हाल अपना॥
फुटकर शेर
निगाहें ढूँढ़ती हैं दोस्तों को और नहीं पाती।
नज़र उठती है जब जिस दोस्त पर पड़ती है दुश्मन पर॥
न इब्तदा की ख़बर है न इन्तहा मालूम।
रहा यह वहम कि हम हैं, सो वोह भी क्या मालूम?
यह ज़िन्दगी की है रूदादे-मुख़्तसिर[2] ‘फ़ानी’!
वजूदे-दर्दे-मुसल्लिम,[3] इलाज ना मालूम॥
किस ज़ाम में है ऐ रहरवेग़म![4] धोके में न आना मंज़िल के।
यह राह बहुत कुछ छानी है, इस राह में मंज़िल कोई नहीं॥
कुछ फुटकर शेर
फ़रेबे-जल्वा और कितना मुकम्मिल ऐ मुआ़ज़ल्लाह।
बड़ी मुश्किल से दिल को बज़्मे-आलम से उठा पाया॥
हाय क्या दिन है कि नक़्शे-सजदा है और सर नहीं।
याद है वोह दिन कि सर था और वबालेदोश[2] था।
घर खै़र से तक़दीर ने वीराना बनाया।
सामाने-जुनू[3] मुझ से फ़राहम [4]न हुआ था॥
बालींपै [5] जब तुम आये तो आई वोह मौत भी।
जिस मौत के लिए मुझे जीना ज़रूर था॥
थी उनके सामने भी वही शाने-इज़्तराब[6]।
दिल को भी अपनी वज़अ़पै कितना ग़रूर था।
कुछ और फुटकर शेर
क्या-क्या गिले न थे कि इधर देखते नहीं।
देखा तो कोई देखनेवाला नहीं रहा।।
एक आलम को देखता हूँ मैं।
यह तेरा ध्यान है मुजस्सिम क्या॥
फ़ुरसते-रंजेअसीरी दी न इन धड़कों ने हाय।
अब छुरी सैयाद ने ली, अब क़फ़स का दर खुला॥
मंज़िले-इश्क़ पै तनहा पहुँचे कोई तमन्ना साथ न थी।
थक-थक कर इस राह में आख़िर इक-इक साथी छूट गया॥
माल-ए-सोज़-ए-ग़म हाए
माल-ए-सोज़-ए-ग़म हाए! निहानी देखते जाओ
भड़क उठी है शम्मा-ए-ज़िंदगानी देखते जाओ
चले भी आओ वो है क़ब्र-ए-फ़नि देखते जाओ
तुम अपने मरने वाले की निशानी देखते जाओ
अभी क्या है किसी दिन ख़ूँ रुलायेगा ये ख़ामोशी
ज़ुबान-ए-हाल कि जद्द-ओ-बयानी देखते जाओ
ग़रूर-ए-हुस्न का सदक़ा कोई जाता है दुनिया से
किसी की ख़ाक में मिलती जवानी देखते जाओ
उधर मूँह फेर कर क्या ज़िबाह करते हो, इधर देखो!
मेरी गर्दन पे ख़ंजर की रवनी देखते जाओ
बहार-ए-ज़िन्दगी का लुत्फ़ देखा है और देखोगे
किसी का ऐश मर्ग-ए-नागहानी देखते जाओ
सुने जाते न थे तुम से मेरे दिन रात के शिकवे
कफ़न सरकाओ मेरी बे-ज़ुबानी देखते जाओ
वो उठा शोर-ए-माताम आख़री दीदार-ए-मय्यत पर
अब उठा चाहते हैं नाश-ए-फ़नि देखते जाओ
कारवाँ गुज़रा किया हम रहगुज़र देखा किये
करवाँ गुज़रा किया हम रहगुज़र[1] देखा किये
हर क़दम पर नक़्श-ए-पा-ए- राहबर[2] देखा किये
यास जब छाई उम्मीदें हाथ मल कर रह गईं
दिल की नब्ज़ें छुट गयीं और चारागर[3] देखा किये
रुख़[4] मेरी जानिब[5] निगाह-ए-लुत्फ़[6] दुश्मन की तरफ़
यूँ उधर देखा किये गोया[7] इधर देखा किये
दर्द-मंदाने-वफ़ा की हाये रे मजबूरियाँ
दर्दे-दिल देखा न जाता था मगर देखा किये
तू कहाँ थी ऐ अज़ल[8] ! ऐ नामुरादों की मुराद !
मरने वाले राह तेरी उम्र भर देखा किये
जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूरlllll
जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर
इस आपकी ज़मीं से अलग, आस्माँ से दूर
शायद मैं दरख़ुर-ए-निगह-ए-गर्म भी नहीं
बिजली तड़प रही है मेरे आशियाँ से दूर
आँखें चुराके आपने अफ़साना कर दिया
जो हाल था ज़बाँ से क़रीब और बयाँ से दूर
ता अर्ज़-ए-शौक़ में न रहे बन्दगी की लाग
इक सज्दा चाहता हूँ तेरी आस्तां से दूर
है मना राह-ए-इश्क़ में दैर-ओ-हरम का होश
यानि कहाँ से पास है मन्ज़िल, कहाँ से दूर