पाँच क्षणिकाएँ
१
वैसे तो मै अश्लील कहानी वाली पुस्तक हूँ
पर तुम जब जब मुझको छूती हो,
मै गीता हो जाता हूँ ।
२
यह दुनिया
हमीं दोने के सहारे चल रही है
मेरी ज़िन्दगी तुम्हारी दाल
साथ साथ गल रही है ।
३
हमारी आज़ादी ऐसा सपना है
जिसे हमारे बाप दादाओं ने
उचक कर देखा था,
और हम
मुड़ कर देख रहे हैँ ।
४
जिन गलियोँ मे कभी
खाटेँ कसी जाती थीँ
वहां अब आवाज़ें कसी जा रही हैं,
जिन्हे हम कोयले से रंगते थे
वे अब खुद रंग ला रही हैं।
बचपन मे जहां हम लोग
उछलते कूदते थे
सोंधी मिट्टी खाते थे
कंकड कँकड को चूमते थे
जहाँ हम लोग
एक दूसरे के आँसू पोछते थे,
अब उन्ही गलियोँ मे आते जाते
दुआ सलाम भी मुश्किल हो गया है
क्योंकि अब वे ही गलियाँ
जवान होकर
पक्की और चालू हो गईँ हैं ।
५
लोग कहते हैँ रिटायरमेन्ट के बाद
ऐसा होगा- वैसा होगा
अरे चाहे जैसा भी होगा
मुर्गी… अन्डा ही देगी,
कल्लू की दादी
डन्डा
ही देगी।
छह मुक्तक
१
छन्द बहुत होते छलछ्न्द नही होते हैँ
लोभोँ से किन्चित अनुबन्ध नही होते हैँ
कुन्ठा सन्त्रास घुटन पीर चली आओ तुम
कवि के हैँ द्वार कभी बन्द नही होते हैँ।
२
प्रीति कविता ज़िन्दगी की गर्विता रानी नही है
मूक भाषा प्रीति की, कुछ बोलती बानी नहीँ है
प्रीति कह सकते किसी उन्मुक्त सी उठती लहर को
बाँध लो जिसको तटोँ मे प्रीति वह पानी नही है।
३
धूल को अभ्यर्थना मिलती रहे
त्रास को मधु कल्पना मिलती रहे
हम स्वयँ को धन्य समझेगेँ अगर
आपकी शुभ सूचना मिलती रहे।
४
सूरदास आखोँ को कभी नही रोता
कबिरा का मनमौजी ज़हर नही बोता
कीचड़ मे खिल जायेँ लाख कमल लेकिन
कीचड़ मे तुलसी तो कभी नही होता।
५
टूट गये हैँ बटन शराफ़त के टाँक लो
कुछ कहने से पहले अपने दिल मे झाँक लो
ग़ालियाँ तो दे सकते हो तमाम शहीदों को
पहले उनके खून की कीमत तो आँक लो।
६
जो बदन की चोट से उभरे उसे कराह कहते हैँ
जो दिल की गहराइयोँ से निकले उसे आह कहते हैँ
दोस्तोँ मै आस्माँ हूँ ज़मी पे गिरता हूँ खुलेआम
जो परदे की ओट मे पनपे उसे गुनाह कहते हैँ ।
आवरण कथा
कुछ बेहिसाब नंगी सच्चाईयाँ खड़ी हैँ
किसको करेँ मना हम यह आम रास्ता है।
बाग़ी जुलूस को हम कब तक रहेँ सम्हाले
दम तोडते दिये को किसके करेँ हवाले
अस्तित्व को चुनौती हैँ दे रहे अन्धेरे
सूरज सिसक रहा है बादल तमाम घेरे
कदम कदम पे बिजली का मिल रहा समर्थन
ढहतीँ हैँ झोपड़ी ही यह बात अन्यथा है।
बलिदान के लहू से भूगोल पट गया है
इतिहास से शहीदों का नाम कट गया है
बस्तियाँ ज़लालत की आबाद हो गई हैँ
अच्छाइयाँ समय की सुकरात हो गई हैँ
हैँ बार बार सुनते फिर कोइ बुद्ध जन्मा
अनगिन दिये जले पर उजियार लापता है।
शँका सुलग रही है फिर समाधान कैसा
रक्त सने हाथोँ मे कुछ सन्धिपत्र जैसा
आश्वासनो का हल्ला हो गया गगन मे
टाकेँगे चांद तारे हर एक के क़फ़न मे
सत्ता सजा रही है बाज़ार क्रांतियोँ का
वर्तमान पुस्तक की यह आवरण कथा है।
दो छन्द
१
भाव नही भाषा नही कल्पना की आशा नही
टूटे फ़ूटे शब्द मेरे काव्य को सवाँर दो,
नित नई धारा बहे काव्य की कला की मन्जु
मेरी बाल लेखनी की गति को सुधार दो,
नये नये रस भरे क़विता कलश मे जो
मातु वीणापाणि मन्द मति को निखार दो,
गूँजे कोने कोने मे जो मुग्ध करे लोक सभी
राजुल की रसना पे जादू सा उतार दो ।
२
नव प्रेम की ज्योति जगाओ प्रभु
हियाँ रैन ठनी है सवेरो करौ,
पद छाप से छापौ गुमान सिला
पग कँटक जानि के हेरो करौ,
मृग कन्चन से सब दोसन कौ
शुचि भक्ति के बान लै घेरो करौ,
मन मेरो करौ रुचि पँचवटी
मेरे राम यहीँ पे बसेरौ करौ ।
उजाला बाँटते हैं
ज़िन्दगी भर चापलूसी के पत्ते चाटते हैं
अपनी ग़लती पर दूसरों को डाँटते हैं
यह एहसान नहीँ तो और क्या है
अंधेरे मे रहने वाले उजाला बाँटते हैं