बेटियाँ
हैरान हूँ यह सोचकर
कहाँ से आती हैं बार-बार
कविता में बेटियाँ
बाजे बजाकर
देवताओं के साक्ष्य में
सबसे ऊँचे जंगलों
सबसे लम्बी नदियों के पार
छोड़ा था उन्हें
अचरज में हूँ
इस धरती से दूर
दूसरे उपग्रहों पर चलीं गई वे बेटियाँ
किन कक्षाओं में
घूमती रहती है आस-पास
नये-नये भाव वृत्त बनाती
घेरे रहती हैं
कैसे जान लेती हैं-
बारिश न होने पर
बारिश न होने पर
लगता है
पेड़ शर्मिंदा हैं
बेचारी जड़ें
मीलों पानी भरने जाती हैं
खाली घड़े लिए लौट आती हैं
बारिश न होने पर
लगता है पक्षी संकट में हैं
सुबह होते ही
गीत बीनने निकले थे
शाम ढले कँकड़ बटोर लाए हैं
बारिश न होने पर
कवि परेशान है
न काग़ज़ की कश्ती है
न माँझी की नाव है
सावन आतंकित है
बारहमासा बाग़ी है
बारिश न होने पर
धरती कलंकित है
सारी फ़सल खाकर भी
भूखी की भू
चिड़िया
आज बीसवीं बार
बेदख़ल किया
उन काली कर्कश चिड़ियों को
न कुल न शील
साथ लिए चलती हैं
मनहूस बीहड़
मरघट का मातमी शोर
चमगादड़ों की बस्तियों से
खदेड़ी हुई रफ्यूजिनें
जब भी आती हैं
अतिवृष्टि-अनावृष्टि
या प्राकृतिक आपदाओं का
भय लेकर आती हैं
आज बीसवीं बार
जब उनके घोंसले गिराए
वे आस-पास
चोंच भरा गारा उठाए
विलाप करती रहीं
पँख पटकती दीवारों से
बूँद की तरह
थरथरा रही हूँ
पारदर्शी अर्द्रता को
छू भर देती हैं
रँगों में इँद्रधनुष बनाते हुए
कैसे समझ लेती हैं
पीड़ा में छटपटा रही हूँ
शब्दों में उतरने के लिए
याद भर आती हैं बस।
शब्द पखेरू हो जाते हैं
नहीं जानते कैसे
लौट आती हैं बेटियाँ
प्रवासी चिढ़ियों की तरह
मन की मौन झीलों में
किस पुकार पर जाना ही होता है इन्हें
फिर कौन बुला लेता है
ऊँचे पहाड़, घने जँगल, गहरी नदियाँ
सब लाँघकर आ जाती हैं बेटियाँ
सावन की तीज पर
शब्दों के गीत बनाती
हवाओं का झूला
कोई नहीं आया
जिन्होंने रचा वे ब्रह्माजी
न जाने किस चौकी पर
बने दारोगा
सोये रहे लम्बी ताने
नहीं आए कहीं से भी
अखबारों के सँवाददाता
कैमरामैन
बुलडोज़र चले, उजड़ती रहीं
नाजायज़ बस्तियाँ
एक कवि था जिसे
मिट्टी, पँख और बीटों की बीच
आशियानों का भ्रम
ज़िन्दा रखना था
क्लूटी चिड़िता में देखनी थी
चिल-चिल धूप में
तगारी उठाए
मज़दूर औरत की थकान
सुनना था चीख़-पुकार
एक औरत का
घर के लिए चीख़-पुकार
प्रसव की पीडा अपने जायों के लिए
पूरे ब्रह्माण्ड में
सिर्फ एक ओट।
इक्कीसवीं बार
चिड़िया आई तो
आने दिया
कुछ देर पहले
बेटी ने फ़ोन पर कहा था
क्या करूँ माँ,
इस बेगाने देश में
घर बनाना आसान नहीं
बारिश होने पर
बारिश होने पर लगता है
सूखी जीभ पर
बताशा घुलने लगा है
लगता है घर का पत्थरपन
धीरे-धीरे पसीज रहा है
जैसे अचानक
डबडबाने लगी हों
ईंट लोहा और सीमेंट
बारिश होने पर लगता है
दरवाज़ों पर वंदंनवार हैं
ताकों में दीपक देहरी पर रंगोली है
लगता है कोई शिखरों के आर-पार
इँद्रधनुष बुन रहा है
बरसों बाद
अपना कोई गले मिल रहा है
रुलाई से अवरुद्ध है कँठ
बारिश होने पर लगता है
मिट्टी सोकर उठ रही है
धीरे-धीरे
कोई नवजात
सपने में हँस रहा है
खी है
दंश
कौन गाड़ गया है
देवदार के तने में
कुल्हाड़ी
पसलियों में चुभ रहा है
एक पैना दाँत
कौन चलाता रहा है
अँधेरे में छिपकर
घर की नीवों कुदाली
हड्डियों में
घुल रहा है अब के
बरसात का पानी
रात गये
दरवाज़े तक आ-आकर
लौट जाती है एक सनसनाती हुई नदी
बालू तट की तरह
पसीजा रहता है तन
पसलियों में दाँत
फूट रहा ऐ बीज की तरह
टोहने लगा है
अपनी रेशा-रेशा जड़ों से त्वचा के रोम-रोम
मिट्टी हो रही है देह
अशुभ कहा जाता है
दीवारों में पीपल का उगना।
।
तैयारी
कुछ दिन बाकी हैं
अभी आओ पास बैठो
जाने से पहले बता दूँ तुम्हें
मेरे न होने पर
तुम सब को कैसे रहना है
स बड़े बक्से में
पड़े हैं सबके गरम कपड़े
स्वैटर,मोज़े, गुलबन्द
हो सकता है
सरदी उतरने से पहले
चल दूँ मैं
मेरे चले जाने पर
बहुत लोग आएँगे घर में
उन सब के बिस्तर
वहीं होंगे अरगनी पर
हर किसी को मत देना
अपने बिस्तर।
उस आले से
उठा लिया है मैंने
अपना सारा सामाह
काजल कँघी सिंदूर
चाहो तो वहाँ रख लेना
अपनी पोथियाँ
या मेरा फ़ोटू
खाली जगह अच्छी नहीं लगगी
मकड़ियाँ जाले बुन लेती हैँ
तुम सबको फुर्सत कहाँ होगी
दफ्तर और स्कूलों से
ये डिब्बे भर रख जाती हूँ
बड़ियाँ हैं पापड़ हैं
सुखा रखें हैं पिछली गर्मियों में
ढँग से बरतो तो
चल निकलेंगे
साल दो साल
यह जो सँदूक है काला
इसे चाहो तो ठहर कर खोलना
सोना-रूपा के लिये
काढ़ी थीं कुछ ओढ़नियाँ
उन सूने लब्दे दिनों में
जब पेट में गोपू था
वैद जी कहते थे
विस्तर पर रहना बहू
प्रसव कुछ टेढ़ा है
लगता है अब यही महीना
तुम्हारे सँग हूँ
कुछ और लकड़ियाँ डल वालो
कुछ तो बक्त लगेगा सूखने में
फिर घर भर में लोग रहेंगे
सब साथी-सँगी सगे संबंधी
अब रोने-धोने में
कैसे कलपोगे
कौन फूँकेगा
गीली लकड़ियों से चूल्हा
अकेले रहना होगा
तुम्हें ही सब करना होगा
रोटी-पानी सभी कुछ
आओ
पास बैठो
ऐसे जैसे
बैठोगे तब
जब मैं उठ जाँऊँगी।