अंतर्मन
अंतर्मन एक ऐसा बंद घर
जिसके अन्दर रहती है
संघर्ष करती हुई जिजीविषा,
कुछ ना कर पाने की कसक
घुटन भरी साँसे
कसमसाते विचार और
खुद से झुझते हुए सवाल
झरोखे की झिरी से आती हुई
प्रफुल्लित रौशनी में नहाकर
आतंरिक पीड़ा तोड़ देना चाहती है
इन दबी हुई सिसकती
बेड़ियों के बंधन को।
सुलगती हुई तड़प
लावा बनकर फूटना चाहती है
बदलना चाहती है, उस
बंजर पीड़ा की धरती को,
जहाँ सिर्फ खारे पानी की
सूखती नदी है
वहाँ हर बार वह रोप देती है
आशा के कुछ बिरबे,
सिर्फ इसी आस में
कि कभी तो बंद दरवाजे के भीतर
ठंडी हवा का, ऐसा झोखा आएगा
जो साँसों में ताजगी भरकर
तड़प को खुले
आसमान में छोड़ आएगा
और अंतर्मन के घर में होंगी
झूमती मुस्कुराती हुई खुशियाँ
नए शब्दों की महकती व्यंजना
नए विचारो का आगमन
एवं कलुषित विकारो का प्रस्थान।
एक नए अंतर्मन की स्थापना
यही तो है अंतर्मन की विडम्बना।
सुलगते ख्वाब
सुलग रहे थे, ख्वाब
वक़्त की
दहलीज पर।
और
लम्हा लम्हा
बीत रहा था पल
काले धुएं के
बादल में।
सीली सी यादें
नदी बन बह गयी,
छोड़ गयी
दरख्तों को
राह में
निपट अकेला।
फिर
कभी तो चलेगी
पुरवाई
बजेगा
निर्झर संगीत,
इसी चाहत में
बीत जाती है सदियाँ
और
रह जाते है निशान
अतीत के पन्नो में।
क्यूँ
सिमटे हुए पल
मचलते है
जीवंत होने की
चाह में।
न कोई ठोर
न ठिकाना
न तारतम्य
आने वाले कल से।
फिर भी
दबी है चिंगारी
बुझी हुई राख में।
अंततः
बदल जाते है
आवरण,
पर
नहीं बदलते
कर्मठ ख्वाब,
कभी तो होगा
जीर्ण युग का अंत
और एक
नया आगाज।
व्यंजना को शब्दों से सजाऊं
तुम उदधि मै सिंधुसुता सी
गहराई में समां जाऊं
तुम साहिल में तरंगिणी सी
बहती धारा बन जाऊं
तुम अम्बर मै धरती बन
युगसंधि में खो जाऊं
तुम शशिधर मै गंगा सी
बस शिरोधार्य हो जाऊं
तुम आतप मै छाँह सी
प्रतिछाया ही बन जाऊं
तुम दीपक मै बाती बन
नूर दे आपही जल जाऊं
तुम रूह हो मेरे जिस्म की
तुम्हारी अंगरक्षी बन जाऊं
न होगा तम जीवन में कभी
चांदनी बनके खिल जाऊं
तुम धड़कन हो मेरे दिल की
स्मृति बन साँसों में बस जाऊं
मौत भी न छू सकेगी मेरे माही
हर्षित मै रूखसत हो जाऊं
न कोई गीत ,न बहर, न गजल
व्यंजना को लफ्जों से सजाऊं।
जग की जननी नारी
जग की जननी है नारी
विषम परिवेश में नहीं हारी
काली का धरा रूप, जब
संतान पे पड़ी विपदा भारी
सह लेती काटों का दर्द
पर हरा देता एक मर्द
क्यूँ रूह तक कांप जाती
अन्याय के खिलाफ
आवाज नहीं उठाती
ममता की ऐसी मूरत
पी कर दर्द हंसती सूरत
छलनी हो रहे आत्मा के तार
चित्कारता ह्रदय करे पुकार
आज नारी के अस्तित्व का सवाल
परिवर्तन के नाम उठा बबाल
वक़्त की है पुकार
नारी को भी मिले उसके अधिकार
कर्मण्यता, सहिष्णु, उदारचेता
है उसकी पहचान
स्वत्व से मिला सम्मान
जग की जननी है नारी
विषम परिवेश में नहीं हारी।
यूँ न मुझसे रूठ जाओ
यूँ न मुझसे रूठ जाओ, मेरी जाँ निकल न जाए
तेरे इश्क का जखीरा, मेरा दिल पिघल न जाए।
मेरी नज्म में गड़े है, तेरे प्यार के कसीदे
मै जुबाँ पे कैसे लाऊं, कहीं राज खुल न जाए
मेरी खिड़की से निकलता, मेरा चाँद सबसे प्यारा
न झुकाओ तुम निगाहे, कहीं रात ढल न जाए।
तेरी आबरू पे कोई, कहीं दाग लग न पाए
मै अधर को बंद कर लूं, कहीं अल निकल न जाए।
ये तो शेर जिंदगी के, मेरी साँस से जुड़े है
मेरे इश्क की कहानी, ए गजल भी कह न जाए।
ये सवाल है जहाँ से, तूने कौम क्यूँ बनायीं
ये तो जग बड़ा है जालिम, कहीं खंग चल न जाए।
भारत की पहचान है हिंदी
भारत की पहचान है हिंदी
हर दिल का सम्मान है हिंदी।
जन जन की है मोहिनी भाषा
समरसता की खान है हिंदी।
छन्दों के रस में भीगी ए
गीत गजल की शान है हिंदी।
ढल जाती भावों में ऐसे
कविता का सोपान है हिंदी।
शब्दों का अनमोल है सागर
सब कवियों की जान है हिंदी।
सात सुरों का है ए संगम
मीठा सा मधुपान है हिंदी।
क्षुधा ह्रदय की मिट जाती है
देवों का वरदान है हिंदी।
वेदों की गाथा है समाहित
संस्कृति की धनवान है हिंदी।
गौरवशाली भाषा है यह
भाषाओं का ज्ञान है हिंदी।
भारत के जो रहने वाले
उन सबका अभिमान है हिंदी।
नीम
हर मौसम में खिल जाता है नीम की ही ये माया है
राही को जो छाया देता नीम का ही वो साया है।
बिन पैसे की खान है ये तो तोहफ़ा है इक क़ुदरत का,
महिमा देखी नीम की जब से आम भी कुछ बौराया है ।
जब से नीम है घर में आया, जीने की मंशा देता,
मोल गुणों का ही होता है नीम ने ही बतलाया है।
कड़वा स्वाद नीम का लेकिन गुणकारी तेवर इसके,
हर रेशा औषध है इससे रोग भी अब घबराया है।
निंबोली का रस पीने से तन के सारे रोग मिटें,
मन मोहक छवि ऐसी जिसने लाभ बहुत पहुँचाया है
गाँव की वो गलियाँ भी छूटीं, छूटा घर का आँगन भी,
शहर में फैला देख प्रदूषण नीम भी अब मुरझाया है।