संस्कृति
एक दिन/अचानक
पान की गिलौरी मुंह में दबाए/धोती-कुरते में
मूर्तिमान हो उठी/भारतीय संस्कृति
मैंने उसे सामने से देखा
लेकिन-
लेकिन हाय!
मुझे उसकी पीठ ही दी दिखाई।
मैंने उसकी आंखों में झांकना चाहा
तो पाया कि/उसके चेहरे का रुख
उड़ते हुए हवाई जहाज की तरफ था।
आखिर-
धोती का पूरा-पूरा फायदा उठाते हुए
खुले में खड़े होकर
उसने कसकर/धार मार दी
और-
देर तलक
देखता रहा
दीवार का
भी-ग-ना…
आत्म-सम्बोधन
ओ, भले मानुष
तू भी कुछ सीख ले
जमाना कहां से कहा
जा रहा है…!
तेरा यह ऊबा हुआ/बासी चेहरा
किसी काम का नहीं
इसलिए-कुछ कर
और नहीं तो
अपना सिर ही कड़ाही में
डाल दे,
बचे-खुचे बालों को डाई कर ले
या फिर-
दो-चार विग ही खरीद डाल
वर्ना पछताएगा
टापता रह जाएगा…
घर से निकलते वक्त/जेब में तहाकर रख ले
कुछ चेहरे/रबड़ की कुछ मुस्कानें
उठ/कदम आगे बढ़ा/कुछ कर
खुद को सादतपुर से ठेलकर
मंडी हाउस तक ला
सड़े हुए दांत नाली में फेंक दे
नकली दांतों से मुस्करा
जीने का कुछ तो सलीका सीख
ओ भले मानुष!
बासठ पार का कवि
बासठ पार का कवि
एकाएक जवान हो उठा
प्राकृतिक चिकित्सा के चलते
वह आदमी से घोड़े में
बदल गया।
जवान होते ही
अपने चिड़चिड़े क्रोधी स्वभाव के विपरीत
एक जंग छेड़ते हुए
उसने खुलकर हंसना चाहा
लेकिन वह अपनी
हिनहिनाहट ही सुन पाया।
उसकी वाटिका में
बेमतलब ही
तरह-तरह के फूल खिला करते थे
उसके नाम तक वह नहीं जानता था।
बासठ पार का कवि
पड़ोसी की वाटिका के फूलों पर
कविताएं लिखता था।
उसकी जवानी के कुछ दुख-दर्द थे
जिनके कारण वह कवि हुआ
और फिर बासठ पार काभी हुआ।
यों वह प्रकृति का कवि था
लेकिन बदलते मौसम का पता
उसे तब लगा
कि जब
उसने दरवाजे पर खड़े होकर
ताड़ से दो छींक मारीं।
और कि-
जब तक उसकी नाक और आंख से
पानी चू पड़ा
कि जब/वह बीमार हो गया…
और तब अचानक
उसमें इन्सानियत जाग उठी
हालांकि/वह पहले से ही जागी हुई थी
घोड़े से फिर आदमी/में लौट आया
बासठ पार का कवि।
अब वह-
आदमी और कविता के/स्वास्थ्य को
पतला करते हुए
अपने एकान्त कमरे/में लेटा हुआ
उनींदी आंखों से
छत को निहारता रहता है
जहां/गिनी जाने के लिए
कड़ियां तक नहीं हैं
और-
देखता है झंडों का झुकना
बासठ पार का कवि!
– – – – – – –
अलविदा दोस्त! प्र…णा…म…
रेखाएं
रेखाएं-पागल हो गयी हैं
तुम्हें छूने को आतुर,
छटपटातीं, भगातीं,
बेचैन रेखाएं…
उलझ पड़तीं परस्पर और
फिर वे एक हो जातीं,
दौड़ पड़ती बावली
मासूम रेखाएं…
पगला गयी हैं सचमुच
तुम्हें छूने की धुन में।
कौन है वह, जो तड़पता
इन खरोंचों में…
रेखाएं-
पागल हो गयी हैं…
जरा देखो तो बाह
जरा देखो तो बाहर
हवा में कैसी गंध है।
जरा देखो तो बाहर
कौन सिसकता है वहां
जरा देखो तो बाहर-
हवा में किसकी तड़पन
दम तोड़ता किसका स्वर!
जरा देखो तो बाहर…
आखिर किसकी गुहार है हवा में।
किसके षड्यंत्र फुसफुसाते हैं,
किसकी पुकार हवा में।
जरा देखो तो बाहर-
हवा में किसका नारा है।
तुम्हारे द्वार को वह थपथपाता कौन?
तुम्हारी चेतना को है जगाता कौन?
जरा देखो तो बाहर…
उपलब्धि
एक तो अपना यह रथ ही बहुत भारी है
और फिर दलदल में धंसा हुआ पहिया!
अपने हिस्से की जमीन है ऊबड़-खाबड़,
सुविधाओं की सड़क यहां कहां, भइया!
छूटते जाते हैं दिन, मास और वर्ष
सफल होने की यहां किसे फुरसत,
तो भी हमने बहुत पाया है यहां, खोकर,
चंद तीरों का जहर, चंद फूलों की महक!
प्लास्टिक का रथ उडाये जा रही कायर
सफलता, सारथि की आड़ में छिपती-छिपाती,
बांस की इक पीपणी मुंह में लगाये
झुनझुना इक हाथ में लेकर बजाती।
और दामन में बंधे कुछ सूरमा बड़े-बड़े
चिंतक-विचारक, कवि-कथाकार, चित्रकार
गुच्छे में लटकी चाबियों से खनकते
याचक, गायक, नर्तक और पत्रकार!
अपनी उपलब्धि भी कम नहीं, दोस्तो!
बूढ़े एक बरगद की शीतल बड़ी छांव है
सोटा है, सोटी, डोरा-लोटा, लंगोटी है,
हमको तो प्यारा यही सादतपुर गांव है।
कुछ अधखिली कलियां, फूल कुछ खिले हुए
भिन्न रूप, भिन्न रंग, अलग-अलग गंध है।
प्रतिभा है, ऊर्जा है, मेहनत और कोशिश है-
सब कुछ है, जो कुछ है सबके साथ-संग है।
क्या तुम बताओगी?
कंधे पर टिका हुआ
ट्रंक मन भर का,
बिस्तर भी भारी है
पीठ पर बंधा हुआ।
सामने से आ रहा
गोरखा सैनिक एक।
पसीने से तर-ब-तर
हांफता-झपटता हुआ।
गुमखाल उतरा था
मिली न आखिरी बस
लैंस डाउन जाने का
पूछ रहा शॉर्ट कट।
नया-नया आया है,
उसे नहीं मालूम-
(दिल्ली नहीं है यह)
मंजिल तक पहुंचने का
यहां न कोई बैक डोर,
यहां न कोई शॉर्ट कट!
आओ पुल पर चलें
आओ, पुल पर चलें
वहीं से देख पाएंगे
टुनटुनिया पहाड़,
पत्थरों की संगीत-सभा,
पीछे मुड़ देखेंगे पूरा शहर एक साथ,
सामने बांदा का किला,
पुल पार ऊंचे एक टीले पर जुटे
मटमैले बच्चों से घर-
परस्पर सहारे पर टिके हुए,
धरे एक-दूसरे के कंधे पर खपरैली सिर
घाटी में झांकता हुआ गांव,
निर्वसन, श्यामा नदी केन
चुपचाप लेटी है बेखबर
आओ, पुल पर चलें।
सपेरा
वह एक सपेरा है!
रेखाएं-
उसकी पिटारी में
कुंडली मारे पड़ी हैं।
वह उन्हें उंगलियों पर नचाता है
रेखाएं उसकी गुलाम हैं
तूलिकाघात से घबराकर
रेखाएं कमर झुका देती हैं
और दौड़ता हुआ घोड़ा
सामने होता है!
सपेरा रेखाओं को पुल बनाता है।
पुल-जो झोंपड़ी से राजमहल को जोड़ता है।
फिर घोड़े पर सवार हो,
पुल पार कर,
राजमहल में जा पहुंचता है सपेरा।
रंग-रेखाएं और आकार
सब पीछे छूट जाते हैं,
अवाक, निर्जीव और निस्तेज!
सपेरा लम्बी दाढ़ी लटकये
राजदरबार में बीन बजाता है।
रेखाओं और रंगों के
करतब दिखाता है।
और-
तालियों की गड़गड़ाहट में
दम तोड़ देती है
एक और संस्कृति!
जहरिखाल को छूकर जाने वाली
लैंसडाउन से जहरिखाल को
जाने वाली ओ सड़क!
धन्य हैं वे पहाड़-
जिनके सीने पर
मूंग दलती जा रही हो तुम,
फिर भी, मुस्कुराते जो
तुम्हारे इन घुमावों पर।
और नगर से बाहर
कोई एक किलोमीटर दूर
सेंट मेरी गिरजाघर
प्रतीक्षा में खड़ा कब से
तुम्हें कुछ भी नहीं मालूम।
अब तो बुढ़ा गया है, बेचारा!
सठिया गया है कभी का
तुम तो पहले ही कन्नी काट गयीं,
चट्टानी बाधा को जीभ दिखा
पर्वतों की ओट ले
कहां-कहां से गुजर गयीं,
और यह मूढ़ गिरजाघर
समय के ज्ञान से अनजान
शून्य में है ताकता रहता बराबर।
आंख में अब भी फुदकती
चाह चिड़िया-सी।
एक ओर पर्वत हैं पेड़ों से लदे हुए
इस तरफ खाइयां और घाटियां हैं
आदिवासी लड़कियां हैं नृत्य को तैयार
या हरियालियां झुकी हैं
एक-दूजी की कमर में हाथ डाले
और केशों में सजाये फूल
टह-टह लाल!
घाटी के उस पार
भरा-पूरा परिवार!
बूढ़े, बच्चे, जवान
सटे बैठे हैं भीमकाय डायनासोर।
गरदनें जमीन से टिकी हैं,
या एक-दूसरे की पीठ से चिपकाये हैं
कहां से आ गए थे
किस युग की संतान हैं?
…और उस कमरे पर बिखरे हुए
सिगरेट के पैकेट, माचिस की डिब्बियां
और बच्चों के खिलौने!
यही तो है जहरिखाल!
उधर गोलार्ध में
बीस में से उन्नीस बचे देवदार
मिलेट्री ग्रीन वर्दी में
खड़े तैनात।
(कालेज के माली ने इन्हें रोपा था चालीस बरस पहले)
ओ, लैंस डाउन से
जहरिखाल को गुजरने वाली सड़क!
सुन रही तुम भी हमारी बात?
वाचस् और अभय
बताते चल रहे हैं साथ
गेरुआ पट्टी के नीचे
सफेदी के वे दो पैच-
यही डिग्री कालेज है
और वह-हमारा घर है।
कालेज से बायीं ओर
ऊपर को उठा हुआ
जीवन-धारा आश्रम है।
(ईसाई मिशनरी का हेडक्वार्टर)
कुछ और बायी तरफ
वह टूटती-सी सफेद लकीर
बाजार है उस बस्ती का
और जहरिखाल
होकर गुजरने वाली सड़क,
तुम्हारे दायें-बायें
ऊपर-नीचे, इधर-उधर
बिखरे हुए जो घर,
दो हजार आबादी की बस्ती-
यही है जहरिखाल?
सुनो
व्यर्थ मगजपच्ची करते हो यार!
नाहक सिर खपाते हो नक्शे में
वहां कहां ढूंढ़ पाओगे उसे
मिलेगी भी, तो बस, एक
दुबली-पतली मुड़वल-सी लकीर,
इतने बड़े नक्शे में नगण्य-सी
हां, चश्मा लगाओगे तो
लकीर कुछ और साफ हो जायेगी।
सुनो,
तुमने पढ़ी है नागार्जुन और
केदार की कविताएं?
वहीं मिलेगी तुम्हें केन नदी
यहीं मिलेगी तुम्हें केन!
व्यर्थ मगजपच्ची करते हो नक्शे में
नाहक ही आंखें गड़ाये हो कागज पर…
देखते ही रहो
चुप रहो, बोलो मत
बस, देखते ही रहो-
पाषाणी धरती के कठोर बिस्तर पर
निर्विकार, निष्कुंठ लेटी है केन नदी,
घाटी में मेला लगा है शिलाओं का
नदी-धाट पर पड़ी धूमिल नौकाओं को
मन में उतार लो, चुपचाप!
पत्थर पर खींच दो
न मिट सकने वाली आड़ी-तिरछी रेखाएं।
वसन्त का घाटी में धंस आना
खेतों में सरसों का फूलना
और केन के उस पार
ऊंचे कगार पर
उचककर घाटी में देखते हुए गांव को
देखते रहो चुपचाप!
बोलो मत,
बस देखते ही रहो…