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फ़ुज़ैल जाफ़री की रचनाएँ

चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए

चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
ख़ुदा हाफ़िज़ कहा बोसा लिया घर से निकल आए

ये सच है हम को भी खोने पड़े कुछ ख़्वाब कुछ रिश्ते
ख़ुशी इस की है लेकिन हल्क़ा-ए-शर से निकल आए

अगर सब सोने वाले मर्द औरत पाक तीनत थे
तो इतने जानवर किस तरह बिस्तर से निकल आए

दिखाई दे न दे लेकिन हक़ीक़त फिर हक़ीक़त है
अँधेरे रौशनी बन कर समंदर से निकल आए

चुप रहे देख के इन आँखों के तेवर आशिक़

चुप रहे देख के इन आँखों के तेवर आशिक़
वरना क्या कुछ न उठा सकते थे महशर आशिक

देखें अब कौन से रस्ते पे ज़माना जाए
कूचा कूचा हैं परी-ज़ाद तो घर घर आशिक़

दम-ब-ख़ुद ज़हरा-जबीनों को ताका करता है
है हमारी ही तरह राह का पत्थर आशिक़

वो भी इंसान है किस किस को नवाज़ेगा ‘फ़ुज़ैल’
फूल सी जान के पीछे हैं बहŸार आशिक़़

है इबारत जो ग़म-ए-दिल से वो वहशत भी न थी

है इबारत जो ग़म-ए-दिल से वो वहशत भी न थी
सच है शायद की हमें उस से मोहब्बत भी न थी

ज़िंदगी और पुर-असरार हुई जाती है
इश्क़ का साथ न होता तो शिकायत भी न थी

तुझ से छुट कर न कभी प्यार किसी से करते
दिल के बहलाने की लेकिल कोई सूरत भी न थी

घोर-अँधेरों में ख़ुद अपने को सदा दे लेते
राह चलते हुए लोगों में ये जुरअत भी न थी

ज़िद में दुनिया की बहार हाल मिला करते थे
वरना हम दोनों में ऐसी कोई उल्फ़त भी न थी

मर मिटे लोग सर-ए-रह-गुज़र-ए-इश्क़ ‘फ़ुज़ैल’
अपने हिस्से में ये छोटी सी सआदत भी न थी

हर सम्त लहू रंग घटा छाई सी क्यूँ है

हर सम्त लहू रंग घटा छाई सी क्यूँ है
दुनिया मेरी आँखों में सिमट आई सी क्यूँ है

क्या मिस्ल-ए-चराग़-ए-शब-ए-आख़िर है जवानी
शिर्यानी में इक ताज़ा तवानाई सी क्यूँ है

दर आई है क्यूँ कमरे में दरियाओं की ख़ुश्बू
टूटी हुई दीवारों पे ललचाई सी क्यूँ हैं

मैं और मेरी ज़ात अगर एक ही शय हैं
फिर बरसों से दोनों में सफ़-आराई सी क्यूँ है

ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज कभी देख सके भी

ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज कभी देख सके भी
काग़ज़ की ये दीवार किसी तरह गिरे भी

किस दर्द से रौशन है सियह ख़ाना-ए-हस्ती
सूरज नज़र आता है हमें रात गए भी

वो हम की ग़ुरूर-ए-सफ़-ए-आदा-शिकनी थे
आख़िर सर-ए-बाज़ार हुए ख़्वार बिके भी

बहती हैं रग ओ पय में दो आबे की हवाएँ
इक और समंदर है समंदर से परे भी

अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अँधेरा है वो घर में
जलते नहीं मासूम गुनाहों के दिए भी

मैं उजड़ा शहर था तपता था दश्त के मानिंद

मैं उजड़ा शहर था तपता था दश्त के मानिंद
तेरा वजूद की सैराब कर गया मुझ को

हर आदमी में थे चार आदमी पिन्हाँ
किसी को ढूँढने निकला कोई मिला मुझ को

है मेरे दर्द को दर-कार गोश्त की ख़ुश्बू
बहुत नहीं तेरी यादों का सिलसिला मुझ को

तेरे बदन में मेरे ख़्वाब मुस्कुराते हैं
दिखा कभी मेरे ख़्वाबों का आईना मुझ को

नौमीद करे दिल का न मंज़िल का पता दे

नौमीद करे दिल का न मंज़िल का पता दे
ऐ रह-गुज़र-ए-इश्क़ तेरे क्या हैं इरादे

हर रात गुज़रता है कोई दिल की गली से
ओढ़े हुए यादों के पुर-असरार लिबादे

बन जाता हूँ सर-ता-ब-क़दम दस्त-ए-तमन्ना
ढल जाते हैं अश्कों में मगर शौक़ इरादे

उस चश्म-ए-फ़ुसूँ-गीर में नज़र आती है अक्सर
इक आतिश ख़ामोश की जो दिल को जला दे

आज़ुर्दा-ए-उल्फ़त को ग़म-ए-ज़िंदगी जैसे
तपते हुए जंगल में कोई आग लगा दे

यादों के मह ओ महर तमन्नाओं के बादल
क्या कफछ न वो सौग़ात सर-ए-दश्त-ए-वफ़ा दे

याद आती है उस हुस्न की यूँ ‘जाफ़री’ जैसे
तन्हाई के ग़ारों से कोई ख़ुद को सदा दे

पत्तों को दरख़्तों से जुदा होने न देगी

पत्तों को दरख़्तों से जुदा होने न देगी
ये ज़ुल्म तो सावन में हवा होने न देगी

अंदाज़ा करो ख़ुद कभी उस से बिगड़ कर
ताक़त है बदन में तो ख़फ़ा होने न देगी

हर लम्हा नई मेज़ नए खानों की ख़ुश्बू
दुनिया मुझे पाबंद-ए-वफ़ा होने न देगी

रिश्ता जिगर का ख़ून-ए-जिगर से नहीं रहा

रिश्ता जिगर का ख़ून-ए-जिगर से नहीं रहा
मौसम तवाफ़-ए-कूचा-ओ-दर का नहीं रहा

दिल यूँ तो गाह गाह सुलगता है आज भी
मंज़र मगर वो रक़्स-ए-शरर का नहीं रहा

मजबूर हो के झुकने लगा है यहाँ वहाँ
ये सर भी तेरे ख़ाक ब-सर का नहीं रहा

घर का तो ख़ैर ज़िक्र ही क्या है के ज़ेहन में
नक़्शाभी इस भरे पुरे घर का नहीं रहा

बाँधा किसी ने रख़्त-ए-सफ़र इस तरह कि अब
दिल को ‘फ़ुज़ैल’ शौक़ सफ़र का नहीं रहा

रूख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही

रूख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही
टोपियाँ रंग बदलती हैं मगर सर हैं वही

जिन के अज्दाद की मोहरें दर ओ दीवार पे हैं
क्या सितम है कि भरे शहर में बे-घर हैं वही

फूल ही फूल थे ख़्वाबों में सर-ए-वादी-ए-शब
सुब्ह-दम राहों में जलते हुए पत्थर हैं वही

नाव कागज़ की चली काठ के घोड़े दौड़े
शोबदा-बाज़ी के सच पूछो तो दफ़्तर हैं वही

बिक गए पिछले दिनों साबह-ए-आलम कितने
हम फ़क़ीरों के मगर ‘जाफ़री’ तेवर हैं वही

सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम

सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
ज़मीर को थपथपा के आख़िर सुला दिया और ख़ुश रहे हम

रिदा-ए-गिरिया पे ता-क़यामत निसार होते रहेंगे दरिया
सबील-ए-ख़ून-ए-जिगर से ना-दार साहिलों को भिगो चले हम

सफ़र था जब रौशनी की जानिब तो फिर मआल-ए-सफ़र का क्या ग़म
चराग़ की तरह सारी शब शान से जले सुब्ह बुझ गए हम

‘फ़ुज़ैल’ शाएर मुदीर नक़्क़ाद सब ब-ज़ाहिर थे हम ही लेकिन
हमारे अंदर था और इक शख़्स जिस से पैहम लड़ा किए हम

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