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आलम ही और था

आलम ही और था जो शनासाइयों में था
जो दीप था निगाह की परछाइयों में था

वो बे-पनाह ख़ौफ़ जो तन्हाइयों में था
दिल की तमाम अंजुमन-आराइयों में था

इक लम्हा-ए-फ़ुसूँ ने जलाया था जो दिया
फिर उम्र भर ख़याल की रानाइयों में था

इक ख़्वाब-गूँ सी धूप थी ज़ख़्मों की आँच में
इक साए-बाँ सा दर्द की पुरवाइयों में था

दिल को भी इक जराहत-ए-दिल ने अता किया
ये हौसला के अपने तमाशाइयों में था

कटता कहाँ तवील था रातों का सिलसिला
सूरज मेरी निगाह की सच्चाइयों में था

अपनी गली में क्यूँ न किसी को वो मिल सका
जो एतमाद बादिया-पैमाइयों में था

इस अहद-ए-ख़ुद-सिपास का पूछो हो माजरा
मसरूफ़ आप अपनी पज़ीराइयों में था

उस के हुज़ूर शुक्र भी आसाँ नहीं ‘अदा’
वो जो क़रीब-ए-जाँ मेरी तन्हाइयों में था

अचानक दिल-रुबा मौसम का 

अचानक दिल-रुबा मौसम का दिल-आज़ार हो जाना
दुआ आसाँ नहीं रहना सुख़न दुश्वार हो जाना

तुम्हें देखें निगाहें और तुम को ही नहीं देखें
मोहब्बत के सभी रिश्तों का यूँ नादार हो जाना

अभी तो बे-नियाज़ी में तख़ातुब की सी ख़ुश-बू थी
हमें अच्छा लगा था दर्द का दिल-दार हो जाना

अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो
हमें आता है पत-झड़ के दिनों गुल-बार हो जाना

अभी कुछ अन-कहे अल्फ़ाज़ भी हैं कुँज-ए-मिज़गाँ में
अगर तुम इस तरफ़ आओ सबा रफ़्तार हो जाना

हवा तो हम-सफ़र ठहरी समझ में किस तरह आए
हवाओं का हमारी राह में दीवार हो जाना

अभी तो सिलसिला अपना ज़मीं से आसमाँ तक था
अभी देखा था रातों का सहर आसार हो जाना

हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है
कभी अख़बार पढ़ लेना कभी अख़बार हो जाना.

गुलों सी गुफ़्तुगू करें 

गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ
हम ऐसे लोग अब मिलें हिकायतों के दरमियाँ

लहू-लुहान उँगलियाँ हैं और चुप खड़ी हूँ मैं
गुल ओ समन की बे-पनाह चाहतों के दरमियाँ

हथेलियों की ओट ही चराग़ ले चलूँ अभी
अभी सहर का ज़िक्र है रिवायतों के दरमियाँ

जो दिल में थी निगाह सी निगाह में किरन सी थी
वो दास्ताँ उलझ गई वज़ाहतों के दरमियाँ

सहिफ़ा-ए-हयात में जहाँ जहाँ लिखी गई
लिखी गई हदीस-ए-जाँ जराहतों के दरमियाँ

कोई नगर कोई गली शजर की छाँव ही सही
ये ज़िंदगी न कट सके मुसाफ़तों के दरमियाँ

अब उस के ख़ाल-ओ-ख़द का रंग मुझ से पूछना अबस
निगाह झपक झपक गई इरादतों के दरमियाँ

सबा का हाथ थाम कर ‘अदा’ न चल सकोगी तुम
तमाम उम्र ख़्वाब ख़्वाब साअतों के दरमियाँ

हर इक दरीचा किरन किरन है 

हर इक दरीचा किरन किरन है जहाँ से गुज़रे जिधर गए हैं
हम इक दिया आरज़ू का ले कर ब-तर्ज़-ए-शम्स-ओ-क़मर गए हैं

जो मेरी पलकों से थम न पाए वो शबनमीं मेहर-बाँ उजाले
तुम्हारी आँखों में आ गए तो तमाम रस्ते निखर गए हैं

वो दूर कब था हरीम-ए-जाँ से के लफ़्ज़ ओ मानी के नाज़ उठाती
जो हर्फ़ होंटों पे आ न पाए वो बन के ख़ुश-बू बिखर गए हैं

जो दर्द ईसा-नफ़स न होता तो दिल पे क्या ऐतबार आता
कुछ और पैमाँ कुछ और पैकाँ के ज़ख़्म जितने थे भर गए हैं

ख़ज़ीने जान के लुटाने वाले दिलों में बसने की आस ले कर
सुना है कुछ लोग ऐसे गुज़रे जो घर से आए न घर गए हैं

जब इक निगाह से ख़राश आई ज़माने भर से गिला हुआ है
जो दिल दुखा है तो रंज सारे न जाने किस किस के सर गए हैं

शिकस्त-ए-दिल तक न बात पहुँचती मगर ‘अदा’ कह सको तो कहना
के अब के सावन धनक से आँचल के रंग सारे उतर गए हैं

ख़लिश-ए-तीर-ए-बे-पनाह गई 

ख़लिश-ए-तीर-ए-बे-पनाह गई
लीजिए उन से रस्म-ओ-राह गई

आप ही मरकज़-ए-निगाह रहे
जाने को चार-सू निगाह गई

सामने बे-नक़ाब बैठे हैं
वक़्त-ए-हुस्न-ए-मेहर-ओ-माह गई

उस ने नज़रें उठा के देख लिया
इश्क़ की जुरअत-ए-निगाह गई

इंतिहा-ए-जुनूँ मुबारक-बाद
पुर्सिश-ए-हाल गाह गाह गई

मर मिटे जल्द-बाज़ परवाने
अपनी सी शम्मा तो निबाह गई

दिल में अज़्म-ए-हरम सही लेकिन
उन के कूचे को गर ये राह गई

उजाला दे चराग़-ए-रह-गुज़र

उजाला दे चराग़-ए-रह-गुज़र आसाँ नहीं होता
हमेशा हो सितारा हम-सफ़र आसाँ नहीं होता

जो आँखों ओट है चेहरा उसी को देख कर जीना
ये सोचा था के आसाँ है मगर आसाँ नहीं होता

बड़े ताबाँ बड़े रौशन सितारे टूट जाते हैं
सहर की राह तकना ता सहर आसाँ नहीं होता

अँधेरी कासनी रातें यहीं से हो के गुज़रेंगी
जला रखना कोई दाग़-ए-जिगर आसाँ नहीं होता

किसी दर्द-आश्ना लम्हे के नक़्श-ए-पा सजा लेना
अकेले घर को कहना अपना घर आसाँ नहीं होता

जो टपके कासा-ए-दिल में तो आलम ही बदल जाए
वो इक आँसू मगर ऐ चश्म-ए-तर आसाँ नहीं होता

गुमाँ तो क्या यक़ीं भी वसवसों की ज़द में होता है
समझना संग-ए-दर को संग-ए-दर आसाँ नहीं होता

न बहलावा न समझौता जुदाई सी जुदाई है
‘अदा’ सोचो तो ख़ुश-बू का सफ़र आसाँ नहीं होता.

आख़िरी टीस आज़माने को

आख़िरी टीस आज़माने को
जी तो चाहा था मुस्कुराने को

याद इतनी भी सख़्तजाँ तो नहीं
इक घरौंदा रहा है ढहाने को

संगरेज़ों में ढल गये आँसू
लोग हँसते रहे दिखाने को

ज़ख़्म-ए-नग़्मा भी लौ तो देता है
इक दिया रह गया जलाने को

जलने वाले तो जल बुझे आख़िर
कौन देता ख़बर ज़माने को

कितने मजबूर हो गये होंगे
अनकही बात मुँह पे लाने को

खुल के हँसना तो सब को आता है
लोग तरसते रहे इक बहाने को

रेज़ा रेज़ा बिखर गया इन्साँ
दिल की वीरानियाँ जताने को

हसरतों की पनाहगाहों में
क्या ठिकाने हैं सर छुपाने को

हाथ काँटों से कर लिये ज़ख़्मी
फूल बालों में इक सजाने को

आस की बात हो कि साँस ‘अदा’
ये ख़िलौने हैं टूट जाने को

शायद अभी है राख में कोई शरार भी

शायद अभी है राख में कोई शरार भी
क्यों वर्ना इन्तज़ार भी है इज़्तिरार भी

ध्यान आ गया है मर्ग-ए-दिल-ए-नामुराद का
मिलने को मिल गया है सुकूँ भी क़रार भी

अब ढूँढने चले हो मुसाफ़िर को दोस्तो
हद्द-ए-निगाह तक न रहा जब ग़ुबार भी

हर आस्ताँ पे नासियाफ़र्सा हैं आज वो
जो कल न कर सके थे तेरा इन्तज़ार भी

इक राह रुक गई तो ठिठक क्यों गई आद
आबाद बस्तियाँ हैं पहाड़ों के पार भी

घर का रस्ता भी मिला था शायद

घर का रस्ता भी मिला था शायद
राह में संग-ए-वफ़ा था शायद

इस क़दर तेज़ हवा के झोंके
शाख़ पर फूल खिला था शायद

जिस की बातों के फ़साने लिक्खे
उस ने तो कुछ न कहा था शायद

लोग बे-मेहर न होते होंगे
वहम सा दिल को हुआ था शायद

तुझ को भूले तो दुआ तक भूले
और वही वक़्त-ए-दुआ था शायद

ख़ून-ए-दिल में तो डुबोया था क़लम
और फिर कुछ न लिक्खा था शायद

दिल का जो रंग है ये रंग-ए-‘अदा’
पहले आँखों में रचा था शायद

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