हाइकु
कौन मानेगा
सबसे कठिन है
सरल होना।
प्रीति, हाँ प्रीति
दुनिया में सुख की
एक ही रीति ।
आप से मिले
तो लगा क्या मिलना
किसी और से !
ढूँढ़ता रहा
खुद को दिन रात
ढूँढ़ न पाया !
छोटा कर दे
रातों की लम्बाई भी
गहरी नींद ।
छीन ही लिया
नदी का नदीपन
प्यासे बाँधों ने ।
रिश्तों से ज्यादा
तनाव बसते है
घरों में अब !
युग-युगों से
सोए पड़े पहाड़
जागेंगे कब ?
गाँवों से लाता
शुद्ध आक्सीजन भी
वश न चला ।
भीड़ तो बढ़ी
विरल हो चले हैं
रिश्ते परंतु ।
रात होते ही
गोलबन्द हो गये
चाँद-सितारे ।
घिर गया है
विषैली लताओं से
जीवन- वृक्ष ।
बुझते हुए
पल भर को सही
लड़ी थी लौ भी ।
मैं नहीं हूँ मैं
तुम भी कहाँ तुम
सब मुखौटॆ ।
समन्दर में उतर जाते हैं
समन्दर में उतर जाते हैं जो हैं तैरने वाले
किनारे पर भी डरते हैं तमाशा देखने वाले
जो खुद को बेच देते हैं बहुत अच्छे हैं वे फिर भी
सियासत में कई हैं मुल्क तक को वेचने वाले
गये थे गाँव से लेकर कई चाहत कई सपने
कई फिक्रें लिये लौटे शहर से लौटने वाले
बुराई सोचना है काम काले दिल के लोगों का
भलाई सोचते ही हैं भलाई सोचने वाले
यकीनन झूठ की बस्ती यहाँ आबाद है लेकिन
बहुत से लोग जिन्दा हैं अभी सच बोलने वाले
कोई मगरूर है भरपूर ताकत से
कोई मगरूर है भरपूर ताकत से
कोई मजबूर है अपनी शराफत से
घटाओं ने परों को कर दिया गिला
बहुत डर कर परिंदों के बग़ावत से
मिलेगा न्याय दादा के मुकद्दमे का
ये है उम्मीद पोते को अदालत से
मुवक्किल हो गए बेघर लड़ाई में
वकीलों ने बनाए घर वकालत में
किसी ने प्यार से क्या क्या नहीं पाया
किसी ने क्या क्या नहीं खोया अदावत से
भले ही मुल्क के
भले ही मुल्क के हालात में तब्दीलियाँ कम हों
किसी सूरत गरीबों की मगर अब सिसकियाँ कम हों।
तरक्की ठीक है इसका ये मतलब तो नहीं लेकिन
धुआँ हो, चिमनियाँ हों, फूल कम हों, तितलियाँ कम हों।
फिसलते ही फिसलते आ गए नाज़ुक मुहाने तक
ज़रूरी है कि अब आगे से हमसे गल्तियाँ कम हों।
यही जो बेटियाँ हैं ये ही आख़िर कल की माँए हैं
मिलें मुश्किल से कल माँए न इतनी बेटियाँ कम हों।
दिलों को भी तो अपना काम करने का मिले मौक़ा
दिमागों ने जो पैदा की है शायद दूरियाँ कम हों।
अगर सचमुच तू दाता है कभी ऐसा भी कर ईश्वर
तेरी खैरात ज्यादा हो हमारी झोलियाँ कम हों।
बेशक छोटे हों लेकिन
बेशक छोटे हों लेकिन धरती का हिस्सा हम भी हैं
जैसे प्रभु की सारी रचना, वैसी रचना हम भी हैं।
इतना भी आसान नहीं है पढ़ना और समझ पाना
सुख की दुख की संघर्षों की पूरी गाथा हम भी हैं।
आज नहीं हो कल तुमको भी साथ हमारे चलना है
एक ज़माना तुम भी थे तो एक ज़माना हम भी हैं।
फ़न ने ही हमको दी है मर्यादा जीने मरने की
तो फिर फन के जीने मरने की मर्यादा हम भी हैं।
ईश्वर ने तो लिख रक्खा है सबके माथे पर लेकिन
अपने सुख के अपने दुख के एक विधाता हम भी हैं।
जब जब भी इच्छा होती है रास रचा लेते हैं हम
अपने मन के वृंदावन के छोटे कान्हा हम भी हैं।
सफलता पाँव चूमे
सफलता पाँव चूमे गम का कोई भी न पल आए
दुआ है हर किसी की जिन्दगी में ऐसा कल आए।
ये डर पतझड़ में था अब पेड़ सूने ही न रह जाएँ
मगर कुछ रोज़ में ही फिर नए पत्ते निकल आए।
हमारे आपके खुद चाहने भर से ही क्या होगा
घटाएँ भी अगर चाहें तभी अच्छी फसल आए।
हमें बारिश ने मौका दे दिया असली परखने का
जो कच्चे रंग वाले थे वो अपने रंग बदल आए।
जहाँ जिस द्वार पर देखेंगे दाना आ ही जाएँगे
परिन्दों को भी क्या मतलब कुटी आए महल आए।
हमारा क्या हम अपनी दुश्मनी भी भूल जाएँगे
मगर उस ओर से भी दोस्ती की कुछ पहल आए।
अभी तो ताल सूखा है अभी उसमें दरारें हैं
पता क्या अगली बरसातों में उसमें भी कमल आए।
अपना मन होता है
उस पर जाने किस किसका तो बंधन होता है
अपना मन भी आखिर कब अपना मन होता है ।
तन से मन की सीमा का अनुमान नहीं लगता
तन के भीतर ही मीलों लम्बा मन होता है ।
वह भी क्या जानेगा सागर की गहराई को
जिसका उथले तट पर ही देशाटन होता है ।
अँधियारा क्या घात लगाएगा उस देहरी पर
जिस घर रोज उजालों का अभिनन्दन होता है ।
दुख की भाप उठा करती हैसुख के सागर से
ऐसा ही, ऐसा ही शायद जीवन होता है ।
हम-तुम सारे ही जिसमें किरदार निभाते हैं
पल-पल छिन-छिन उस नाटक का मंचन होता है ।
तन की आँखें तो मूरत में पत्थर देखेंगी
मन की आँखों से ईश्वर का दर्शन होता है ।
कभी सुख का समय बीता
कभी सुख का समय बीता, कभी दुख का समय गुजरा
अभी तक जैसा भी गुजरा मगर अच्छा समय गुजरा !
अभी कल ही तो बचपन था अभी कल ही जवानी थी
कहाँ लगता है इन आँखों से ही इतना समय गुजरा !
बहुत कोशिश भी की, मुट्ठी में पर कितना पकड़ पाए
हमारे सामने होकर ही यूँ सारा समय गुजरा !
झपकना पलकों का आँखों का सोना भी जरूरी है
हमेशा जागती आँखों से ही किसका समय गुजरा !
उन्हीं पेडों पे फिर से आ गए कितने नए पत्ते
उन्हीं से जैसे ही पतझार का रूठा समय गुजरा !
हमें भी उम्र की इस यात्रा के बाद लगता है
न जाने कैसे कामों में यहाँ अपना समय गुजरा !
मुश्किलों से जूझता
मुश्किलों से जूझता लड़ता रहेगा
आदमी हर हाल में ज़िन्दा रहेगा।
मंज़िलें फिर–फिर पुकारेंगी उसे ही
मंज़िलों की ओर जो बढ़ता रहेगा।
आँधियों का कारवाँ निकले तो निकले
पर दिये का भी सफर चलता रहेगा।
कल भी सब कुछ तो नहीं इतना बुरा था
और कल भी सब नहीं अच्छा रहेगा।
झूठ अपना रंग बदलेगा किसी दिन
सच मगर फिर भी खरा–सच्चा रहेगा।
देखने में झूठ का भी लग रहा है
बोलबाला अन्ततः सच का रहेगा।
आदमी को खुशी से
आदमी को खुशी से ज़ुदा देखना
ठीक होता नहीं है बुरा देखना।
पुण्य के लाभ जैसा हमेशा लगे
एक बच्चे को हँसता हुआ देखना।
रोशनी है तो है ज़िन्दगी ये जहाँ
कौन चाहेगा सूरज बुझा देखना।
सर-बुलन्दी की वो कद्र कैसे करे
जिसको भाता हो सर को झुका देखना।
ज़िन्दगी खुशनुमा हो‚ नहीं हो‚ मगर
ख़्वाब जब देखना‚ खुशनुमा देखना।
सारी दुनिया नहीं काम आएगी जब
काम आएगा तब भी खुदा‚ देखना।
किसे मालूम‚ चेहरे कितने
किसे मालूम‚ चेहरे कितने आखिरकार रखता है
सियासतदाँ है वो‚ खुद में कई किरदार रखता है।
किसी भी साँचे में ढल जाएगा अपने ही मतलब से
नहीं उसका कोई आकार‚ हर आकार रखता है।
निहत्था देखने में है‚ बहुत उस्ताद है लेकिन
ज़ेहन में वो हमेशा ढेर सारे वार रखता है।
ज़मीं तक है नहीं पैरों के नीचे और दावा है
वो अपनी मुट्ठियों में बाँधकर संसार रखता है।
बचाने के लिए खुद को‚ डुबो सकता है दुनिया को
वो अपने साथ ही हरदम कई मझधार रखता है।
एक चादर–सी उजालों की
एक चादर-सी उजालों की तनी होगी
रात जाएगी तो खुलकर रोशनी होगी।
सिर्फ वो साबुत बचेगी ज़लज़लों में भी
जो इमारत सच की ईंटों से बनी होगी।
आज तो केवल अमावस है‚ अँधेरा है
कल इसी छत पर खुली-सी चाँदनी होगी।
जैसे भी हालात हैं हमने बनाये हैं
हमको ही जीने सूरत खोजनी होगी।
बन्द रहता है वो खुद में इस तरह अक्सर
दोस्ती होगी न उससे दुश्मनी होगी।
पत्थरों का शहर
पत्थरों का शहर‚ पत्थरों की गली
पत्थरों की यहाँ नस्ल फूली फली
आप थे आदमी‚ आप हैं आदमी
बात यह भी बहूत पत्थरों को खली
एक शीशा न बचने दिया जायेगा
गुफ़्तगू रात भर पत्थरों में चली
खिलखिलाते हुए यक ब यक बुझ गई
पत्थरों के ज़रा ज़िक्र पर ही कली
जो कि प्यासे रहे खून के‚ मौत के
एक नदिया उन्हीं पत्थरों में पली
पेड, कटे तो छाँव कटी फिर
पेड, कटे तो छाँव कटी फिर आना छूटा चिड़ियों का
आँगन आँगन रोज, फुदकना गाना छूटा चिड़ियों का
आँख जहाँ तक देख रही है चारों ओर बिछी बारूद
कैसे पाँव धरें धरती पर‚ दाना छूटा चिड़ियों का
कोई कब इल्ज़ाम लगा दे उन पर नफरत बोने का
इस डर से ही मन्दिर मस्जिद जाना छूटा चिड़ियों का
मिट्टी के घर में इक कोना चिड़ियों का भी होता था
अब पत्थर के घर से आबोदाना छूटा चिड़ियों का
टूट चुकी है इन्सानों की हिम्मत कल की आँधी से
लेकिन फिर भी आज न तिनके लाना छूटा चिड़ियों का
समय के साथ भी उसने
समय के साथ भी उसने कभी तेवर नहीं बदला
नदी ने रंग बी बदले‚ मगर सागर नहीं बदला
न जाने कैसे दिल से कोशिशें की प्यार की हमने
अभी तक शब्द “नफरत” का कोई अक्षर नहीं बदला
ज,रूरत से ज़्यादा हो‚ बुरी है कामयाबी भी
कोई विरला ही होगा जो इसे पाकर नहीं बदला
पुराने पत्थरोँ की हो गई पैदा नई फसलें
लहू की प्यास वैसी है‚ कोई पत्थर नहीं बदला
जिसे कुछ कर दिखाना है चले वो वक्त से आगे
किसी ने वक्त को उसके ही सँग चलकर नहीं बदला
पास रक्खेगी नहीं
पास रक्खेगी नहीं सब कुछ लुटायेगी नदी
शंख शीपी रेत पानी जो भी लाएगी नदी
आज है कल को कहीं यदि सूख जाएगी नदी
होठ छूने को किसी का छटपटाएगी नदी
बैठना फुरसत से दो पल पास जाकर तुम कभी
देखना अपनी कहानी खुद सुनाएगी नदी
साथ है कुछ दूर तक ही फिर सभी को छोड़कर
खुद समन्दर में किसी दिन डूब जाएगी नदी
हमने वर्षों विष पिलाकर आजमाया है जिसे
अब हमें भी विष पिलाकर आजमाएगी नदी
नाउमीदी में भी गुल
नाउमीदी में भी गुल अक्सर खिले उम्मीद के
जिसने चाहे, रास्ते उसको मिले उम्मीद के।
जोड़ने वाली कोई क़ाबिल नज़र ही चाहिए
हर तरफ बिखरे पड़े हैं सिलसिले उम्मीद के।
फिर नई उम्मीद ही आकर सहारा दे गई
रास्ते में पाँव जब-जब भी हिले उम्मीद के।
दौलतों से, किस्मतों से जो नहीं जीते गए
जीत लाएँगे पसीने, वो किले उम्मीद के।
कौन कहता है सफर में हम अकेले रह गए
साथ हैं अब भी हमारे, क़ाफ़िले उम्मीद के।
हादसों की बात पर
हादसों की बात पर अल्फाज़ गूँगे हो गए
मुल्क में अब हर तरफ हालात ऐसे हो गए।
ठीक है, हमको नहीं मंज़िल मिली तो क्या हुआ
इस बहाने ही सही, कुछ तो तज़ुरबे हो गए।
पाठशाला प्रेम की कोई नहीं खोली गई
नफ़रतों के, हर शहर, घर-घर मदरसे हो गए।
जब बहुत दिन तक नहीं कोई खब़र आई-गई
आप हमसे, आपसे हम बेखब़र-से हो गए।
ढेर-सी अच्छाइयों का ज़िक्र तक आया नहीं
इक बुराई के, शहर में खूब चर्चे हो गए।
रोशनी अब भी नहीं बिल्कुल मरी है, मानिए
बस हुआ ये है धुँधलके और गहरे हो गए।
आँखों में सपने रहे
आँखों में सपने रहे, परवाज़ से रिश्ता रहा
मैंने चाहा और मैं हर हाल में ज़िन्दा रहा।
कुछ सचाई हो किसी में बात यह भी कम नहीं
झूठ के बाजार में कोई कहाँ सच्चा रहा।
क्या सही है क्या गलत, ये वक्त़ ही खुद तय करे
जो मुझे वाजिब लगा, मैं बस वही करता रहा।
ज़िन्दगी की पाठशाला में यहाँ पर उम्र भर
वृद्ध होकर भी हमेशा आदमी बच्चा रहा।
मील का पत्थर बना कोई खड़ा ही रह गया
और कोई रास्तों पर दूर तक चलता रहा।
आदमी की कब
आदमी की कब मुकम्मल ज़िन्दगी देखी गई
कुछ न कुछ हर शख्स में अक्सर कमी देखी गई।
उनसे खुशियाँ गैर की बर्दाश्त होतीं किस तरह
जिनसे अपनी ही नहीं कोई खुशी देखी गई।
दूसरों के क़त्ल पर भी नम नहीं आँखें हुईं
अपने ज़ख्मों पर मगर उनमें नदी देखी गई।
मन्दिरों में, मस्जिदों में अन्तत: वह एक थी
हर तरफ, हर रंग में जो रोशनी देखी गई।
जाँ-निसारी ही अकेली एक पैमाइश रही
दोस्ती में कब भला नेकी-बदी देखी गई।
कौन जाने इस शहर को
कौन जाने इस शहर को क्या हुआ है दोस्तो
अजनबी-सा हर कोई चेहरा हुआ है दोस्तो।
मज़हबों ने बेच दी है मन्दिरों की आत्मा
मस्जिदों की रूह का सौदा हुआ है दोस्तो।
कौन मानेगा यहाँ पर भी इबादतगाह थी
ज़र्रा-ज़र्रा इस क़दर सहमा हुआ है दोस्तो।
कुछ दरिन्दे और वहशी लोग रहते हैं यहाँ
आप सबको भ्रम शरीफों का हुआ है दोस्तो।
ज़िन्दगी आने से भी कतराएगी बरसों-बरस
हर गली में मौत का जलसा हुआ है दोस्तो।
हर कोई झूठी तसल्ली दे रहा है इन दिनों
ये शहर रूठा हुआ बच्चा हुआ है दोस्तो।
ज़िन्दगी फिर भी रहेगी ज़िन्दगी, हारेगी मौत
पहले भी मंज़र यही देखा हुआ है दोस्तो।
याद आए तो आँख भर आए
याद आए तो आँख भर आए
किन ज़मानों से हम गुज़र आए।
पाँव में दम ज़रा रहे बाकी
क्या पता कैसा कल सफर आए।
उसने चढ़ ली है ऐसी ऊँचाई
गैर मुमकिन है वो उतर आए।
सबके चेहरे पे कुछ खुशी आये
आए कैसे भी वो, मगर आए।
हमने पहले न कम सुनी खब़रें
जो भी आनी हो अब खब़र आए।
आसमां भी उदास रहता है
सोचता है ज़मीन पर आए।
बनाए घर गरीबों के
बनाए घर गरीबों के, अमीरों के
बहुत कम घर बने हैं राजगीरों के।
उन्हें अपने-पराये से भी क्या मतलब
सभी घर, घर हुआ करते फ़कीरों के।
कोई अच्छी लिखी किस्मत बुरी कोई
अजब अन्दाज़ होते हैं लकीरों के।
नहीं पहचान जिस्मों के बिना सम्भव
बहुत एहसान रूहों पर शरीरों के।
कहीं पर भी बुराई हो, न बख्श़ेंगे
कभी मज़हब नहीं होते कबीरों के।
वो शहर था, वो कोई
वो शहर था, वो कोई जंगल न था
रास्ता फिर भी कहीं समतल न था।
सिर्फ कहने भर को थी पदयात्रा
क़ाफ़िले में एक भी पैदल न था।
पाँव रखते भी सियासत में कहाँ
किस जगह कीचड़ न था, दलदल न था।
मज़हबों से ज़ख्म पहले भी मिले
दिल मगर इतना कभी घायल न था।
आसमां का साया भी छोटा लगा
एक माँ का जिसके सर आँचल न था।
कभी इसकी तरफदारी
कभी इसकी तरफदारी, कभी उसकी नमकख्व़ारी
इसे ही आज कहते हैं ज़माने की समझदारी।
जला देगी घरों को, खाक कर डालेगी जिस्मों का
कहीं देखे न कोई फेंककर मज़हब की चिनगारी।
जो खोजोगे तो पाओगे कि हर कोई है काला-दिल
जो पूछोगे, बताएगा वो खुद को ही सदाचारी।
अलग तो हैं मगर दोनों ही सच हैं इस ज़माने के
कहीं पर जश्न होता है, कहीं होती है बमबारी।
करोड़ों हाथ खाली हैं, उन्हें कुछ काम तो दे दो
थमा देगी नहीं तो ड्रग्स या पिस्तौल, बेकारी।
नहीं अब तक थके जो तुम तो कैसे हम ही थक जाएँ
तुम्हारे जुल्म भी जारी, हमारी जंग भी जारी।
अपना सुख, अपनी चुभन
अपना सुख, अपनी चुभन कब तक चले
ख़ुद में ही रहना मगन कब तक चले।
जुल़्म पर हम चुप हैं, चुप हैं आप भी
देखना है ये चलन कब तक चले।
कोशिशें तो खत्म करने की हुईं
अब रही क़िस्मत वतन कब तक चले।
वो मरा था भूख से या रोग से
देखिए इस पर `सदन’ कब तक चले।
जिस्म से चादर अगर छोटी है तो
जिस्म ढँकने का जतन कब तक चले।
जिनकी आँखों में बसी हों मंज़िलें
उनके पाँवों में थकन कब तक चले।
प्यार, नफ़रत या गिला
प्यार, नफ़रत या गिला है, जानते हैं
आपकी नीयत में क्या है, जानते हैं।
अपनी तो कोशिश है सच ज़िन्दा रहे, बस
सच बयाँ करना सज़ा है, जानते हैं।
जुर्म से डरिए कि उसकी है सज़ा भी
सब किताबों में लिखा है, जानते हैं।
क़ायदों का इस क़दर पाबन्द है वो
जुल़्म़ भी बाक़ायदा है, जानते हैं।
जिसकी आँखों में कमी है रोशनी की
वह हमारा रहनुमा है, जानते हैं।
फिर भी हमको प्यार है इस जिन्दगी से
कहने को ये बुलबुला है, जानते हैं।
प्यास से जो खुद़ तड़प कर
प्यास से जो खुद़ तड़प कर मर चुकी है
वह नदी तो है मगर सूखी नदी है।
तोड़कर फिर से समन्दर की हिदायत
हर लहर तट की तरफ को चल पड़ी है।
असलहा, बेरोज़गारी और व्हिस्की
ये विरासत नौजवानों को मिली है।
जो नज़र की ज़द में है वो सच है, लेकिन
एक दुनिया इस नज़र के बाद भी है।
जुल़्म की हद पर भी बस ख़मोश रहना
ये कोई जीना नहीं, ये खुद़कुशी है।
एक चादर-सी उजालों
एक चादर-सी उजालों की तनी होगी
रात जाएगी तो खुलकर रोशनी होगी।
सिर्फ वो साबुत बचेगी ज़लज़लों में भी
जो इमारत सच की इंर्टों से बनी होगी।
आज तो केवल अमावस है, अँधेरा है
कल इसी छत पर खुली-सी चाँदनी होगी।
जैसे भी हालात हैं हमने बनाये हैं
हमको ही जीने की सूरत खोजनी होगी।
बन्द रहता है वो ख़ुद में इस तरह अक्सर
दोस्ती होगी न उससे दुश्मनी होगी।
ख्व़ाब छीने, याद भी सारी
ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली
वक़्त ने हमसे हमारी हर कहानी छीन ली।
पर्वतों से आ गई यूँ तो नदी मैदान में
पर उसी मैदान ने सारी रवानी छीन ली।
दौलतों ने आदमी से रूह उसकी छीनकर
आदमी से आदमी की ही निशानी छीन ली।
देखते ही देखते बेरोज़गारी ने यहाँ
नौजवानों से समूची नौजवानी छीन ली।
इस तरह से दोस्ती सबसे निभाई उम्र ने
पहले तो बचपन चुराया फिर जवानी छीन ली।
बहुत मुश्किल है कहना
बहुत मुश्किल है कहना क्या सही है क्या गल़त यारो
है अब तो झूठ की भी, सच की जैसी शख्स़ियत यारो।
दरिन्दों को भी पहचाने तो पहचाने कोई कैसे
नज़र आती है चेहरे पर बड़ी मासूमियत यारो।
जिधर देखो उधर मिल जायेंगे अख़बार नफ़रत के
बहुत दिन से मोहब्बत का न देखा एक ख़त यारो।
वहाँ हर पेड़ काँटेदार ज़हरीला ही उगता है
सियासत की ज़मीं मे है न जाने क्या सिफ़त यारो।
तुम्हारे पास दौलत की ज़मीं का एक टुकड़ा है
हमारे पास है ख्व़ाबों की पूरी सल्तनत यारो।
किसे मालूम, चेहरे कितने
किसे मालूम, चेहरे कितने आख़िरकार रखता है
सियासतदाँ है वो, खुद़ में कई किरदार रखता है।
किसी भी साँचे में ढल जाएगा अपने ही मतलब से
नहीं उसका कोई आकार, हर आकार रखता है।
निहत्था देखने में है, बहुत उस्ताद है लेकिन
जेहऩ में वो हमेशा ढेर सारे वार रखता है।
ज़मीं तक है नहीं पैरों के नीचे और दावा है
वो अपनी मुट्ठियों में बाँधकर संसार रखता है ।
बचाने के लिए ख़ुद को, डुबो सकता है दुनिया को
वो अपने साथ ही हरदम कई मँझधार रखता है।
कुछ बहुत आसान
कुछ बहुत आसान, कुछ दुश्वार दिन
रोज़ लाता है नए किरदार दिन।
आज अख़बारों में कितना खूऩ है
कल सड़क पर था बहुत खूँख़्व़ार दिन।
पाप हो या जुल़्म हो हर एक की
हद का आता ही है आख़िरकार दिन।
रात ने निगला उसे हर शाम को
भोर में जन्मा मगर हर बार दिन।
दोस्ती है तो रहे वह उम्र भर
दुश्मनी हो तो चले दो-चार दिन।
पिंजरें में कैद पंछी
पिंजरें में कैद पंछी कितनी उड़ान लाते
अपने परों में कैसे वो आसमान लाते।
काग़ज़ पे लिखने भर से खुशहालियाँ जो आतीं
अपनी ग़ज़ल में हम भी हँसता सिवान लाते।
हथियार की ज़रूरत बिल्कुल नहीं थी भाई
मज़हब की बात करते, गीता कुरान लाते।
तन्हा ज़बान को तो लत झूठ की लगी थी
फिर रहनुमा कहाँ से सच की ज़बान लाते।
पहले ही सुन चुके हैं आँसू के खूब किस्से
अब तो कहीं से ख़ुशियों की दास्तान लाते।
औरत है एक कतरा
औरत है एक कतरा, औरत ही ख़ुद नदी है
देखो तो जिस्म, सोचो तो कायनात-सी है।
संगम दिखाई देता है उसमें गम़-खुशी का
आँखों में है समन्दर, होठों पे इक हँसी है।
ताकत वो बख्श़ती है ताकत को तोड़ सकती
सीता है इस ज़मीं की, जन्नत की उर्वशी है।
आदम की एक पीढ़ी फिर खाक हो गई है
दुनिया में जब भी कोई औरत कहीं जली है।
मर्दों के हाथ औरत बाज़ार हो रही है
औरत का ग़म नहीं ये मर्दों की त्रासदी है।
देह के रहते ज़माने की
देह के रहते ज़माने की कई बीमारियाँ भी हैं
आदमी होने की लेकिन हममें कुछ खुद्दारियाँ भी हैं।
कोई भी खुद्दार अपनी रूह का सौदा नहीं करता
और करता है तो इसमें उसकी कुछ लाचारियाँ भी हैं।
चाहतें जीने की छोड़ी जायेंगी हरगिज नहीं हमसे
जिन्दगी में यूँ कि ढेरों ढेर-सी दुश्वारियाँ भी हैं।
इस शहर से ज़िदगी को छीन सकता है नहीं कोई
मौत है इसमें अगर तो जन्म की तैयारियाँ भी हैं।
कोई झोंका फिर अलावों में तपिश भर जाएगा भाई
राख तो है राख के भीतर मगर चिन्गारियाँ भी हैं।
मन स्वयं को दूसरों पर होम कर दे
मन स्वयं को दूसरों पर होम कर दे
माँ हमारी भावना तू व्योम कर दे !
ज्योति है तू ज्योत्सना का वास तुझमें
फिर अमावस से विलग तम तोम कर दे !
कुछ नहीं, कुछ भी नहीं तुझसे असम्भव
तू अगर चाहे गरल को सोम कर दे !
तू सनातन स्नेहमयि माँ, चिर तृषित हम
नेहपूरित देह का हर रोम कर दे !
धन्य हो जाए सृजन की पूत वीणा
माँ कृपा कर तू स्वरों को ओम कर दे !
ऊब चले हैं (हाइकु)
1
ऊब चले हैं
वर्षा की प्रतीक्षा में
पेड़-पौधे भी।
2
पीने लगा है
धरती का भी पानी
प्यासा सूरज ।
3
निकली नहीं
कंजूस बादलों से
एक भी बूँद ।
4
तरस गये
पहचान को खुद
सावन-भादौं ।
5
कहो तो सही
मन प्राणों से तुम
वक्त सुनेगा ।
6
मुँह चिढ़ाए
लम्बे-चौड़े पुल को
सूखती नदी ।
7
चिनगारियाँ
फैल गईं नभ में
चाँद निश्चिंत ।
8
धूल ढँकेगी
पत्तों की हरीतिमा
कितने दिन ?
9
है कोई रात
जिसका अभी तक
न हुआ प्रात ।
10
कड़ी धूप में
मशाल लिये खड़ा
तन्हा पलाश ।
11
ठीक वैसा ही
सरहद पार भी
हर्ष-विषाद ।
12
वर्षा ने बुने
शीशे की खिड़की पे
बूँदों के तार ।
13
मर जाएँगे
हरियाली मरी तो
हम सब भी ।
-0-
मन करता है
मन करता है, किसी रात में
चुपके से उड़ जाऊँ,
आसमान की सैर करूँ फिर
तारों के घर जाऊ
देखूँ कितना बड़ा गाँव है
कितनी खेती-बारी,
माटी-धूल वहाँ भी है कुछ
या केवल चिनगारी।
चंदा के सँग क्या रिश्ता है
सूरज से क्या नाता
भूले-भटके भी कोई क्यों
नहीं धरा पर आता।
चाँदी जैसी चमक दमक, फिर
क्यों इतना शरमाते,
रात-रात भर जागा करते
सुबह कहाँ सो जाते?