मैं चल तो दूँ (कविता)
मैं चल तो दूँ
पर
उन सबको साथ लेकर
चलने की इच्छा का
क्या करूँ
जिन्हें चलना नहीं आता
मैं चल तो दूँ
पर अधकटी टाँग पर
चारपाई का पाया बाँधे
हमगाम
उस लड़के को छोड़
चलना इतना आसान है क्या?
या फिर
कान में तार फँसाए
अबोले, निरीह स्पर्शों को
ले जाने की
अनुमति मिल जाएगी?
मैं चल तो दूँ
पर
बगल में बैठी
महिला की गोद का बच्चा
मेरी बाँह पर सिर टेक
बस में, अभी-अभी सोया है
मैं चल तो दूँ
पर झाडू की सींकों पर
स्वेटर की बुनाई सीखने आती
पड़ोस की बच्ची
उदास हो जाएगी
और वह
ठठरी-से कंकाल पर
प्याज़ का छिलका-सा चढी़ देह वाला बूढा़
गोटी कागज़ के टुकडे़
सिगरेट की चमकीली अधपन्नियाँ
बोरे के नीचे दाबे
ठिठुराता न चुक जाए कहीं
भीष्म वृक्ष के तने पर
लिपटता-चढ़ता मेरा बेटा
अर्जुन की तरह, खिलखिलाता
कहीं बाण न तान ले
कालांतर में
टूटे चश्मे के बचे काँच से
कागज़ तलाश कर
अर्जी लिखवाने भी आना है अभी
सीमा पर मारे गए युवक के
अकेले पिता को।
तुम फिर भी कहते हो – चलूँ!
और यह जो लावारिस कुत्ता
दो रोटी मिलने के दिन से ही
छोड़ने आता है सड़क तक मुझे
फिर तो, बेचैन हो जाएगा
काँटे-से उग आए हैं
मेरी गाय की जीभ पर जो
उनका पाप लिए
कहाँ चल सकती हूँ अभी?
माँ की तुलसीमाला
पिरोनी बची है
यों छोड़ जाना
संभव नहीं मेरे लिए
और
अनुमति तो ली ही नहीं – पिता से,
दुखते घुटनों चल
घाट तक कैसे जाएँगे — वे?
मैं चल तो दूँ
पर अपनी
इस अनिच्छा का क्या करूँ
कि सूर्यास्त तक माप कर आई
जमीन की अंधी दौड़ में
नहीं जाना मुझे?
दोस्त! मेरी कविता के पन्ने
उतने – भर में फैलने दो
हाथ बढा़कर नाप लूँ जितनी,
यही, कोई दो गज़!!
घरः दस भाव चित्र
घर : दस भावचित्र
१.
ये
बया के घोंसले हैं,
नीड़ हैं
घर हैं – हमारे
जगमगाते भर दिखें
सो
टोहती हैं
केंचुओं की मिट्टियाँ
हम।
२.
आज मेरी
बाँह में
घर आ गया है
किलक कर,
रह रहे
फुटपाथ पर ही
एक
नीली छत तले।
३.
चिटखती उन लकड़ियों की
गंध की
रोटी मिले
दूर से
घर
लौटने को
हुलसता है मन बहुत।
४.
सपना था
काँच का
टूट गया झन्नाकर
घर,
किरचें हैं
आँखों में
औ’
नींद नहीं आती।
५.
जब
विवशता हो गए
सम्बंध
तो फिर
घर कहाँ,
साँस पर
लगने लगे
प्रतिबंध
तो फिर
घर कहाँ?
६.
अंतर्मन की
झील किनारे
घर रोपा था,
आँखॊं में
अवशेष लिए
फिरतीं लहरें।
७.
लहर-लहर पर
डोल रहा
पर
खेल रहा है
अपना घर,
बादल!
मत गरजो बरसो
चट्टानों से
लगता है डर।
८.
घर रचाया था
हथेली पर
किसी ने
उँगलियों से,
आँसुओं से धुल
मेहंदियाँ
धूप में
फीकी हुई।
९.
नीड़ वह
मन-मन रमा जो
नोंच कर
छितरा दिया
तुमने स्वयं।
विवश हूँ
उड़ जाऊँ बस
प्रिय! रास्ता दूजा नहीं।
१०.
साँसों की आवाजाही में
महक-सा
अपना घर
वार दिया मैंने
तुम्हारी प्राणवाही
उड़ानों पर।
मैं कुछ नहीं भूली
सब याद है मुझे
हमारे आँगन का ‘नलका’
‘खुरे’ में बैठ
मौसी का बर्तन माँजना
डिब्बे में राख रख
इक जटा-सी हाथ पकड़।
काले हाथों पर
लकडि़यों के चूल्हे की
सारी कालिख…
याद है मुझे।
जाने कितने घरों में काम करती थी ‘मौसी’
मेरे मुँह ‘बर्तनोंवाली’ सुन
‘मौसी’ का गुस्सा
गुस्से में बड़-बड़
याद है मुझे।
फिर कभी मौसी कहना
नहीं भूले हम।
आज लगता है-
मैंने उसका दिल गल-घिसाया था।
पूस माघ की ठंडी रातें
‘मौसी’ के गले हाथ
सब याद है मुझे।
स्कूल के बाहर
छाबडी-सी ले
चूरन बेचता ‘मौसी’ का पति
आधी राह छोड़ चला गया ;
तीन-तीन बेटियों का ब्याह
सब याद है मुझे।
मुझे ब्याह की असीस
“जीती रह मेरी बच्ची”
‘मौसी’ का दुपट्टा
हाथ-पोंछते हाथ
सब याद है मुझे।
बसेरा
माँ !
‘साड्डा चिड़ियाँ दा चम्बा…’
किसी दिन चबा गए
श्वान, मार्जार और हिंस्र भूखे पशु
[एक-एक कर
पाँखें पसारी थीं न जिस दिन
उससे भी पहले
तिनके जोड़ने सिखाए थे तुमने]
फिर
एक नीड़…
लंबी उडा़न…
इधर उजड़ गया घोंसला,
जो किसी नींव गडे़ घर की
छत पर बनाया था,
तिनके जोड़ने का अभ्यासी मन
नदी किनारे, डालें पसारे
किसी वृक्ष पर
जोड़ने लगा तिनके
जुड़ने लगा नीड़,
आकाश में…
हवा में…
लहरों में…
एक दिन
शून्य में लय हो गया
उड़ गया
उजड़ गया
डूब गया,
तिनका-तिनका था
छितरा गया,
बस!!
उड़ जाना है अब।
चिड़िया! चल उड़…
तुम्हारे वरद-हस्त
मेरे पिता!
एक दिन
झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,
पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।
देखी थी छटपटाहट
सुने थे आर्त्तनाद,
फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,
साथ-साथ
तुम्हें धधकते
किसी अनजान ज्वाल में
झुलसते
मुरझाते,
नहीं समझी
बुझे घावों में
झुलसता
तुम्हारा अन्तर्मन
आज लगा…
बुझी आग भी
सुलगती
सुलगती है
सुलगती रहती है।
माँ!
वे मधुवांछी
अभिलाषी जन
रोप गए
ईखों की पौधें,
पूरा घिरा
प्राणतल मेरा।
अभ्यासों से
पुनर्जन्म पा-पा
मिट जातीं
ईखों की अजस्र
मृदुधारा को
लपटें
निःशेष करातीं।
माँ
माँ
तुम्हारी लोरी नहीं सुनी मैंने,
कभी गाई होगी
याद नहीं
फिर भी जाने कैसे
मेरे कंठ से
तुम झरती हो।
तुम्हारी बंद आँखों के सपने
क्या रहे होंगे
नहीं पता
किंतु मैं
खुली आँखों
उन्हें देखती हूँ।
मेरा मस्तक
सूँघा अवश्य होगा तुमने
मेरी माँ!
ध्यान नहीं पड़ता
परंतु
मेरे रोम-रोम से
तुम्हारी कस्तूरी फूटती है।
तुम्हारा ममत्व
भरा होगा लबालब
मोह से,
मेरी जीवनासक्ति
यही बताती है।
और
माँ!
तुमने कई बार
छुपा-छुपी में
ढूंढ निकाला होगा मुझे
पर मुझे
सदा की
तुम्हारी छुपा-छुपी
बहुत रुलाती है;
बहुत-बहुत रुलाती है;
माँSSS!!!
आमा [नेपाली अनुवाद] वैद्यनाथ उपाध्याय
आमा!
तिम्रो लोरी सुनिन गैले
कहिल्ये गाएऊ होला
संझना छैन
तैपनि
था छैन कसरी
मेरी कंठवाट
तिमी झर्दछयौ।
तिम्रा बंद आँखों का सपना हरू
के थिए होला
थाहा छैन
तर भ
खुलै आँखाले तिनीह रूलाई देख्दछु।
मेरे मस्तक
सुंध्या होला अवश्यै तिमीले
मेरी आमा!
नज़र आऊदेन
परंतु
मेरो नशा नशाबाट
तिम्रो कस्तुरी फुट्दछ।
तिम्रो ममत्व
भरिए को होला लबालब
मोहले
मेरो जीवनासक्ति
यही भम्दृछ।
अनि
आमा।
तिमीले कयौं पटक
लुकलुकीमा
खोजेर निकाल्यौ होला मलाई
तर मलाई
सँधैंकोतिम्रो लुकालुकी
धेरै रूवाऊँछ
धैरै धेरै रूवाऊँछ
आमाऽऽऽ!
वज्रपात
अपने घर का शिखर
गिरा है
कुनबे का आँगन है
सूना
साँझा अब कुछ
रहा ही नहीं
दाता तेरी दया माँगतीं।
किसके पास बैठ
रोएँगे
दिल के दुखडे़ कह
सोएँगे
कहाँ रखेंगे बोरी-बिस्तर
आँखें, आँसू भरे जागतीं
बेटी कौन दुलारेगा अब
बच्चों को चुमकारेगा अब
किससे जाकर गले मिलेंगे
निपट अकेला स्वयं भागतीं।
युद्ध
युद्ध
तुम्हारे युद्ध
धर्म, भाषा व क्षेत्र के
आकांक्षा, प्रभुत्व, लालसा
अधिकारों की त्राहि-त्राहि।
युद्धःबच्चे और माँ
निर्मल जल के
बर्फ हुए आतंकी मुख पर
कुंठाओं की भूरी भूसी
लिपटा कर, जो
गर्म रक्त मटिया देते हैं
वे, मेरे आने वाले कल के कलरव पर
घात लगाए बैठे हैं सब।
वर्तमान की वह पगडंडी
जो इस देहरी तक आती थी
धुर लाशों से अटी पडी़ है,
ओसारे में
मृत देहों पर घात लगाए
हिंसक कुत्तों की भी भारी
भीड़ लगी है।
मैं पृथ्वी का
आनेवाला कल सम्हालती
डटी हुई हूँ
नहीं गिरूँगी…
नहीं गिरूँगी….
पर इस अँधियारे में
ठोकर से बचने की भागदौड़ में
चौबारे पर जाकर
बच्चों को लाना है,
इन थोथे औ’ तुच्छ अहंकारी सर्पों के
फन की विषबाधा का भी
भय
तैर रहा है….।
कोई रोटी के कुछ टुकडे़
छितरा समझे
श्वासों को उसने
प्राणों का दान दिया है
और वहीं दूजा बैठा है
घात लगाए
महिलाओं, बच्चों की देहों को बटोरने
बेच सकेगा शायद जिन्हें
किसी सरहद पर
और खरीदेगा
बदले में
हत्याओं की खुली छूट, वह।
एक ओर विधवाएँ
कौरवदल की होंगी
एक ओर द्रौपदी
पुत्रहीना
सुलोचना
मंदोदरी रहेंगी……..।
किंतु आज तो
कृष्ण नहीं हैं
नहीं वाल्मीकि तापस हैं,
मै वसुंधरा के भविष्य को
गर्भ लिए
बस, काँप रही हूँ
यहीं छिपी हूँ
विस्फोटों की भीषण थर्राहट से विचलित,
भीत, जर्जरित देह उठाए।
त्रासद, व्याकुल बालपने की
उत्कंठा औ’ नेह-लालसा
कुंठा बनकर
हिटलर या लादेन जनेगी
और रचेगी
ऐसी कोई खोह
कि जिसमें
हथियारों के युद्धक साथी को लेकर
छिप
जाने कितना रक्त पिएगी।
असुरक्षित बचपन
मत दो
मेरे बच्चों को,
उन्हें फूल भाते हैं
लेने दो
खिलने दो
रहने दो मिट्टी को उज्ज्वल
पाने दो सुगंध प्राणों को।
जाओ, कृष्ण कहीं से लाओ
यहाँ उत्तरा तड़प रही है!!
वाल्मीकि!
सीता के गर्भ
भविष्य पल रहा!!
रोटी कब तक पेट बाँचती
सत्ता के संकेत कुटिल हैं
ध्वनियों का संसार विकट
विपदा ने घर देख लिए हैं
नींवों पर आपद आई
वंशी रोते-रोते सोई
पुस्तक लगे हथौड़ों-सी
उलझन के तख़्तों पर जैसे
पढ़े पहाड़े – कील ठुँकें,
दरवाजे बड़-बड़ करते हैं
सीढ़ी धड़-धड़ बजती है
रोटी अभी सवारी पर चढ़
धरती अंबर घूमेगी
दुविधाओं के हाथों में बल नहीं बचा
सुविधाएँ मनुहार-मनौवत भिजवाएँ।
रोटी कब तक पेट बाँचती?
नागयज्ञ
जो हमारी
धड़कनों की
गति समझने में
रहे असफल
उन्हें क्या ज्ञात है –
स्फोट में ही
प्राण अपने
जागते हैं।
दहकते चोले बसंती
हैं नहीं वैराग्य-भर को,
तक्षकों के प्राण लेने को लपकती
ये भभकती
अग्नि की झर-झर शिखाएँ हैं,
हमारी देह-मन में
दहकती हैं
श्वास पीकर
और भी फुंकारती हैं।
अब कपालों का करेंगे
खूब मोचन
वेदियाँ हुँकारती हैं।
ति-रंगा
संधि की
पावन धवल रेखा
हमारी शांति का
उद्घोष करती
पर नहीं क्या ज्ञात तुमको
चक्र भी तो
पूर्वजों से
थातियों में ही मिला है,
शीश पर अंगार धरकर
आँख में है स्वप्न
धरती की फसल के,
हाथ में
हलधर सम्हाले
चक्र
हरियाली धरा की खोजते हैं,
और है यह चक्र भी वह
ले जिसे अभिमन्यु
जूझा था समर में,
है यही वह चक्र जिसने
क्रूरता के रूप कुत्सित
कंस या शिशुपाल की
ग्रीवा गिराई।
हम सदा से
इन ति-रंगों में
सजाए चक्र
हो निर्वैर
लड़ते हैं – अहिंसक,
और सारे शोक, पीडा़ को हराते
लौह-स्तम्भों पर
समर के
गीत लिखते,
जय-विजय के
लेख खोदें ;
हम
अ-शोकों के
पुरोधा हैं।
जीवन
जीवन तो
यों
स्वप्न नहीं है
आँख मुँदी औ’ खुली
चुक गया।
यह तपते अंगारों पर
नंगे पाँवों
हँस-हँस चलने
बार-बार
प्रतिपल जलने का
नट-नर्तन है।
समय
समय
बरसात के पानी में मिल
मटिया गया
किसी गढ्ढे में,
दिन-रात
जम गए काँच पर
धुँध बनकर
उंगलियों ने नाम
लिखे होंगे बहुत
कभी रेत पर
काँच पर कभी।
वह
एक बच्चा
ओढ़ता है – अँधियारा
पहनता है – उजियारा
उसकी हस्तरेखाओं में
भविष्य नहीं
है केवल राख
राष्ट्रीय जूठन की,
हड्डियों में हिमाद्रि का गौरव नहीं
ठिठुरन है,
अटे खलिहानों का गर्व नहीं
लालसा है
मुट्ठीभर दाने छिपा भागने की,
मानसून नहाने का चाव नहीं
खीझ है
सूखी ओट न मिलने की,
कहीं न जानेवाली
अपनी यात्रा में
चुराकर भागना है उसे
चप्पलें, रेलगाड़ी से।
वह बच्चा
मेरा है – मेरा अपना
मेरी माटी का जाया
नन्हा………..
यह……..।
चलते-चलते
गली
बस्ती
मुहल्ले
सारा शहर
सारा देश
सो गया।
तहखाने से उठकर
दो पाँव
घूमते हैं-
गली
बस्ती
बाज़ार
अटारी
चौबारा
दालान
चबूतरा
चौपाल
सड़क
कमरे
पहाड़
हाट
जंगल।
भटकते हैं-
हरियाली
पानी
फूल
चहल-पहल
विश्रांति
जाने क्या-क्या खोजते।
दो पावों के ऊपर
सारी देह गायब है,
उजाले में
बाहर नहीं आ सकते।
बस
दो यायावरी पाँव
भटकते हैं इसीलिए
अंधेरे में
अकेले।
आधी फसल
हमारे पेड़ों से
कच्चे आम
बटोर ले जाता है
अद्धे वाला ठेकेदार
और तकते रह जाते हैं – हम
पके आमों की
तीखी महक
याद करते हुए…….बस।
जितने छोड़ता है हमारे लिए
उनमें आती नहीं सुगंध – ,
अधकचे टूटे
यही है फल।
इस सुगंधहीन
आधी फसल से
भरता नहीं
मेरा जी
और
नंगे हो गए हैं
मेरे पेड़ भी……..।
नकली तारों की पुच्छलें
वह घूमता है
अपनी जेबों में
उपाधियाँ लिए
और कहता है मुझसे
हाँका लगाऊँ मैं।
खरीदारों के बडे़ बाज़ार में
औने-पौने कुछ नहीं बिकता
सिवाय ईमान के।
छपे हुए प्रशस्ति-पत्रों पर
हस्ताक्षर-सा टुच्चा
व्यक्तित्व मेरा
टोकरी से हवा में उड़
चिपक जाए
नकली तारों की पुच्छलें बन
इस तरह
कि धो न पाएँ
आंधियाँ, तूफान, बरखा
उससे पहले
फाड़ देने चाहिएँ
पत्र, न्यौते और
सूची-पत्र
सब।
नाम
जीव, जगत के संबंधों में
आडे़ नहीं नाम आते हैं
कर्म
कर्म के कर्मफलों में
आडे़ नहीं नाम आते हैं
आडे़ नहीं मुकुट आते हैं
प्रेम
प्रेम के संबंधों में
आडे़ नहीं नाम आते हैं
हमने रच झूठे, संसारी
मायावी
छिछले
छूँछे
बचकाने बहकावे कितने
यह झुठलाया
आडे़ समय हमारे अपने
किए हुए
काम आते हैं
छल, छद्मों
आगे पीछे
कितने सुंदर
कितने भावन
शब्द लगाएँ
नहीं काम के
शब्दों का क्या
बहुत अधूरे
बहुत निरर्थक होते हैं ये
अच्छा-बुरा दुःख-सुख पूरा
नहीं कहेंगे
बाहर-बाहर के दिखलावे हैं ये सब तो
अंतर्मन में तो केवल
पदचापें जातीं, मौन
किसी की।
हिम पिघला है
कुत्सित लांछन के
आतप का
हिम
पिघला है
पिघला है
संगीत
फगुनिया रंग तरसता,
पिघले
अश्रु-कोर
चक्षु के
छलनाओं के बोल,
दंभ के
क्लांत अंक में।
भुज-बंधों की
शांत किलोलें
आरोहण
मन के मंत्रों का
भभका जाता
प्रबल गगन में,
व्योम के
श्रवण-छोर पर।
उद्वेलित मन
सागर-सा
उर्वर आँचल पर
पिघला है
नत-नयन
निमंत्रण
सलिल-राग-नव भर
अंतर में।
चक्रवात में
खंड
शिला के,
सतत घुटन से
प्राणों का
निष्क्रमण
कायकी हिम-वसनों से,
अविरल, अविकल
मधु-तरंग की
उच्छ्वासों का
सतत निरंतर शोर
ओर न छोर
भ्रांत के
भँवर-जाल को तोड़
नदी में
हिम पिघला है।
स्वप्न के बुनकर
स्वप्न के बुनकर!
तुम्हारे
पोरवों के स्पर्श से
कुछ फूल उभरे थे
गलीचे पर
रँगीली डोरियों से,
आर जाती
पार जाती
रेशमी कोमल सजीली
चाहतों के,
वे बसे थे जो
तुम्हारी पलक पीछे
सूक्ष्मधर्मी
हो उठे साकार
इक-इक कर
सुनहले।
सज गए वे फूल
धरती के हृदय पर
एक दिन
ले रंग अपने
ढाँपते सब खुरदुरे
संस्पर्श उसके
आवरण-सा ओढ़
ओढ़े ओढ़नी
सिमटी ढकी-सी थी
धरा भी,
जानती थी
फूल ये
अपने नहीं है।
आषाढ़!
जंगल पूरा
उग आया है
बरसों-बरस
तपी
माटी पर
और मरुत् में
भीगा-भीगा
गीलापन है
सजी सलोनी
मही हुमड़कर
छाया के आँचल
ढकती है
और
हरित-हृद्
पलकों की पाँखों पर
प्रतिपल
कण-कण का विस्तार…..
विविध-विध
माप रहा है।
गंध गिलहरी
गलबहियाँ
गुल्मों को डाले।
रागानल
रागानल
दृग्-परिसर में
भर-भर उमड़ा है,
उखड़ गई
संशय की शूलें
प्रबल वेग से,
शुष्क-तृणों-तल पसरा
हरित-क्रांति का अंकुर
प्राण मधुर
औ’ हास
मधुपूरित
घन-दल-तल।
ऊष्मित मारुत
उमड़ पड़ा है
उमड़े हैं संवेग
वेग से
दीप्त झंझा के।
झोंपड़ में
टप-टप
बरसा है
रागानल
घन बनकर
मुक्ता।
अभिनंदन
अ-काल की
शीतल जलधारा का।
पुलक
छिटकी पड़तीं
उमड़ बदलियाँ
अंबर के आँगन में
ज्यों नचती हों
स्वर्ग-सुघर की
कामिनियाँ
कानन में।
टप-टप टपतीं
टपक रहीं
बूँदें
शोभित – चमकीली
छन-छन करतीं
छनकर आतीं
पत्तों से
आँचल में।
तरु-तल में
भीगे-भीगे से
चहक रहे
रज-बालू
पीते
सौंधापन आपस का
पुलकित मन-पागल में।
ढका
मेघ ने
नभ को पूरा,
दिनकर की
निष्प्रभ
प्रभुता है।
उजलापन
छाया से मिलकर
पुलकित होता
कुछ धुमिल
बूँदों की फिसलन
बहका जाती
कोमल मृदु-छवि
निरख मुदित-दृग्
तड़ित तकें बादल में।
पुरुष सूक्त
१.
श्यामवर्णी बादलों के
वर्तुलों में
झिलमिलाती धूप
फैली थी जहाँ
गाल पर
उन बादलों के स्पर्श
महके जा रहे।
२.
चेतना ने
ठहर
तलुवों से सुघर पद
छू लिए,
आँख में
विश्रांति का
आलोक – आकर
सो गया।
३.
साँझ नंगे पाँव
उतरी थी लजाती
सूर्य का आलोक अरुणिम
बस
तनिक-सा
छू गया।
४.
राग का रवि
शिखर पर जब
चमकता है
मूर्ति, छाया
मिल परस्पर
देर उतनी
एक लगते।
५.
थाम नौका ने
कलाई
लीं पकड़
हाथ से
पतवार दो
कैसे छुटें
और लहरों पर लहर में
खो गए
दोनों सहारे
ताकते ही रह गए
तटबंध सारे।
प्रीत के वट-वृक्ष
फूल बरसे थे नहीं
औ’ भीड़ ने मंगल न गाए
ढोलकों की थाप
मेहंदी या महावर
हार, गजरे, चूड़ियाँ
सिंदूर, कुमकुम
था कहीं कुछ भी नहीं,
कुछ छूटने का भय नहीं।
गगन ने मोती दिए थे
लहलहाती ओढ़नी दी थी धरा ने
और माटी ने महावर पाँव में भर-भर दिया था
सूर्य-किरणें अग्निसाक्षी हो गई थीं
नाद अनहद गूँजता
अंतःकरण में सर्वदा निःशेष।
दूब ने परिणय किया वट-वृक्ष से
बँध-बँध स्वयं ही,
आप वट ने बढ़, भुजाओं से उसे
लिपटा लिया था।
घिर हवा के ताप में, जल, दूब सूखी ;
प्रीत के वट-वृक्ष!
अब तुम क्या करोगे?
काँटे
लाल चुनर
काँटों में उलझी
लहुलुहान हुई
पवन झकोरें – झाँसे देकर
इतराकर फिर
लौट गया।
आलोक
आज तुम
आलोक बन
फिर जगमगाए
और
भूला गीत बन
फिर याद आए।
दूरियों के तट
आँसुओं को गीत में ढाला सदा
पीर को अविराम ही पाला सदा
प्रीत के सेतुक रचे
कुछ पास आने के लिए
दूरियों के तट बसे
मन को
निकट ढाला सदा।
मौक्तिक
तुम्हारे मन के
एक कोने में
बाँध दिया था
आँचल
कुछ मोती लपेट कर
मैंने,
तुम एक-एक कर
तोड़ते रहे बँधाई,
मुक्ति की चाह में
तुमने खोल दिया बंधन
उलट दिया दामन
और लो!
सारे मोती
बिखर गए
टप-टप-टप-टप॥
कीकर
बीनती हूँ
कंकरी
औ’ बीनती हूँ
झाड़ियाँ बस
नाम ले तूफान का
तुम यह समझते।
थी कँटीली शाख
मेरे हाथ में जब,
एक तीखी
नोंक
उंगली में
गड़ी थी,
चुहचुहाती
बूँद कोई
फिसलती थी
पोर पर
तब
होंठ धर
तुम पी गए थे।
कोई आश्वासन
नहीं था
प्रेम भी
वह
क्या रहा होगा
नहीं मैं जानती हूँ
था भला
मन को लगा
बस!
और कुछ भी
क्या कहूँ मैं।
फिर
न जाने कब
चुभन औ’ घाव खाई
सुगबुगातीं
हाथ की
वे दो हथेली
खोल मैंने
सामने कीं
“चूम लो
अच्छा लगेगा”
तुम चूम बैठे
घाव थे
सब अनदिखे वे
खोल कर
जो
सामने
मैंने किए थे
और तेरे
चुम्बनों से
तृप्त
हाथों की हथेली
भींच ली थीं।
क्या पता था
एक दिन
तुम भी कहोगे
अनदिखे सब घाव
झूठी गाथ हैं
औ’
कंटकों को बीनने की
वृत्ति लेकर
दोषती
तूफान को हूँ।
आज
आ-रोपित किया है
पेड़ कीकर का
मेरे
मन-मरुस्थल में
जब तुम्हीं ने,
क्या भला –
अब चूम
चुभती लाल बूँदें
हर सकोगे
पोर की
पीड़ा हमारी?
बबुर
[अनुवाद – वैद्यनाथ उपाध्याय]
चुंदछु कंकरी
अनि चुंदछु
झाडीहरू बस
नाम लिएर तूफ़ान को
तिमी यही संझन्छौ।
थिए काँडे हाँगा
मेरो हातमा जब
एउटा टीखॊ चुच्चो
औंला मा
गाडिए को थियो
रसिलो
कुनै थोपा
चुहुंथो
दुई औंला को बीचमा
तब
ओंठले
तिमीले चुसेका थियो।
कुनै आश्वासन
थिएन
प्रेम पनि
त्यो के घियो होला
हैन म जान्दछु
राम्रो थियो
मनलाई लाग्यो
बस।
अरू केहीपनि
के भनूँ म।
फेरि
थाह छैन कहिल्ये
बिझ्नु अनि आघात लाग्नु
लगबगाऊँदो
हात का
ती दुई हत्केला
खोलेर मैले
अधि बढाएँ
चुम राम्रो लाग्ने छ
तिमीले चुम्यौ
घाउ थिए
सबै नदेखिने ती
उघारेर
जुन
अगाडी सारेंथे मैले
अनि तिम्रा
चुम्बन ले
तृप्त
हात का हत्केला
ताने की थिएँ।
के थाह थियो
एक दिन
तिमी पनि भन्ने छौ
नदेखिएका जम्मै घाउ
झूठा गान हुन
अनि
काँडाहरू चुनने
वृत्ति लिएर
दोष्दछु
तुफानलाई।
आज
आरोपित गरेकी छु
रूख बबुर को
मेरो
मन मरूस्थलमा
जब तीमीले नै।
के राम्रो-
अब चुम
बिझ्ने रता थोपाहरू
हरन सक्छौ
औंला बीच को
पीड़ा मेरो?
छाँह में झुलसे जले
एक साया
तमतमाया
बोलता
लो तप जरा
और हम
पेड़ों तले भी
छाँह में
झुलसे जले –
साथ सोए स्वप्न को
पल-पल झिंझोड़ा,
देखा उनींदी आँख से
औ’ सकपकाए।
बाँह धर कर
स्वप्न ने
कुछ पास खींचा,
आँख का
अंजन नहीं हूँ
स्वप्न हूँ
मत आँख खोलो।
कल्पदर्शी चक्षु का
अविराम नर्तन
तरलता के बीच
पल-पल
थिरकता है
और छाया को
तपन के
ताड़नों से
हेरता है।
कल के नाम
हरियाली दूब पर
दो पल
बैठे रहे उस दिन
मुखर पन्ने
ढीले पाँव
थकी चप्पलें
दृश्य से अदृश्य – छुअन
एक चुप्पी-वाचाल
निसर्ग के गदबदाए रंग
धुली धूप
बिलछती हवा
मौन संवाद करते
अंबर ऋतंभरा।
बीच का
खिलता अन्धकार (ऊपर से नीचे)
खग कलरव (नीचे से ऊपर)
पानी का मचलता गीलापन (परस्पर)
जुड़ाव भरता रहा
अंतःसाक्षी – सा, अभिषेक का।
अगली ही प्रस्तुति का
कोई अक्षत-क्षत
कोई अक्षत-रोली
मुकुट और नूपुर के बीच की
मेखला के
पाँच कुमकुमी रेशमबंध
सहलाएगी
रूप, रस, गन्ध,
स्पर्श और शब्द,
पंच-तंत्र में, पंचाश्रम में
अधिष्ठित होंगे।
पंच-पोर पर
गिन सकते हो
खोल हथेली
भूल किसी दिन
कभी गए तो……..।
‘भाषा’के नवम्बर-दिसम्बर २००७ से साभार
भोली को नाममा
[नेपाली अनुवाद – वैद्यनाथ उपाध्याय]
हरियो दूबो मा
दुई पल
बसि रह्यौं त्यो दिन
मुखर पनहरू
ढीला पाउ
थाकेका चप्पलहरू
दृश्य देकि अदृश्य-छुवाई
एक सुनसान-वाचाल
निसर्ग को खजमजिए को रंग
नुहाए को धाम
बुझ्ने हावा
मौन संवाद गर्दे
अंबर ऋतंभरा।
बीच को
फ़क्रिदों अँध्यारो [माथिबाट तल]
खग कलरव [तलबाट माथि]
पानी को सचल गीलोपना [आपसमा]
संलग्नआ भदैं रह्यो
अंत साक्षी-जस्तै अभिषेक को।
अधिल्लो प्रस्तुतिको
कुनै अक्षत-रोचन
मुकुट र नूपुर को बीच को
मेखला को
पाँच केसरिया रेशमीबाँध।
सुमसुम्याउनेछ
रूप, रस, गंध,
स्पर्श र शब्द
पंच-तंत्रमा, पंचाश्रयमा
अधिष्टित हुनेछ।
पाँच औंलामा
गन्न सक्छौ
खोलेर हत्केला
कुनै दिन
भूल्यौ भने….।
नमक का तूफान
नमक का तूफ़ान
आया एक दिन
उस रात आधी
और हम
जगते रहे……….
जगते रहे……….
जगते रहे……….
चलते रहे……….
चलते रहे……….
चलते रहे……….
बहते रहे………
बहते रहे………
बहते रहे………
तुम याद आए
बहुत आए
खूब आए।
नमक का तूफ़ान
आया एक दिन
थी रात आधी
पास में कोई नहीं था,
एक तिनका
छूटने का भय बड़ा था
और हम
बहते रहे……..
बहते रहे……..
बहते रहे……..
तुम याद आए
बहुत आए
खूब आए।
नमक का तूफ़ान
आया एक दिन
था घोर काला
काश! यह ऐसे न होता
काश! यह वैसे न होता
कान में जिह्वा
धँसी-सी
तरण-वैतरणी कथा का
सर्ग कोई
कह सुनाती
और हम
सुनते रहे……..
सुनते रहे……..
सुनते रहे……..
तुम याद आए
बहुत आए
खुब आए।
नमक का तूफ़ान
आया एक दिन
घनघोर राती
कब, कहाँ भटके
फिरे सब ओर
साथी संग ले
और…….एकाकी,
छूटते सब
गह चले जो
हाथ खींचेंगे
कभी भर आँख देखा
और हम
तकते रहे…….
तकते रहे…….
तकते रहे…….
तुम याद आए
बहुत आए
खुब आए।
नमक का तूफ़ान
आया आज
मन के सिंधु में
और हम
पीते रहे…….
पीते रहे…….
पीते रहे…….
तुम याद आए
बहुत आए
खुब आए।
और साथी!
प्यास से हम
कुलबुलाए…….
कुलबुलाए…….
होंठ खुद ही बुदबुदाए
नमक का तूफ़ान
पीने से
कहाँ, कब
प्यास बुझती,
घूँट मीठे
पान करने की
तृषा है
और हम
सुनते रहे…….
सुनते रहे…….
सुनते रहे…….
तुम याद आए
बहुत आए
खुब आए।
और आए
नमक का तूफान……..
देवयानियाँ कहाँ कभी कच से मिल पाई…?
देवयानियाँ कहाँ कभी कच से मिल पाई….
(नेपाल में राजकुल और नरेश के हत्याकांड पर)
अनुराग को
राजवंश की
मुद्रा ने
जब-जब दुत्कारा
किसी महाभारत के कथा-सूत्र
उस दिन से
उलझ गए थे।
किन्हीं पीढ़ियों से
चलते आए
राणाओं के विवाद ने
कुछ पोथी-पत्रों ने
दशा, ग्रहों, लेखों ने
सारा रस-संसार
आत्मिक स्नेह भाव निश्छल
झुठलाया।
किन्तु
सलिल की शीतलधारा
भेद
फूटती है गिरि ऊँचे
सारे प्रस्तर पाषाणों को चीर
वेग से
कल-कल करती
और, नहीं तो
ढा देती पर्वत की नोकें।
ऐसे ही हिम की गोदी में
रहनेवाले
शिव का तांडव
दाक्षा के
उन्मत्त प्रेम के लिए
हुआ था
उसी हिमालय के
आँगन में
राजवंश के ऊँचे गुंबद
भालों-से
आगे बढ़ आए,
ऊँचा राज-समाज
हुआ सन्नद्ध
कुचलने
चिर कांक्षा, अनुभूति, मनोभव।
एक बार फिर
कामदेव की हत्या ने
हिंसा भड़काई।
रक्त लथपथ पिता गिरे
रानी माँ लुढ़की
बहनें, बांधव-जन तड़पे
नाते टूटे,
चीखें उभरीं;
और फैलकर रक्त
राग के रंगों में
इकरस हो आया।
देवासुर संग्रामों में भी
देवयानियाँ
कहाँ कभी
कच से
मिल पाईं?
दर्प-सर्प के फूत्कार में
एकाकी हतभाग्य लिए
दहना होता है…….!!
एकाकी
हतभाग्य लिए
दहना होता है…….!!
आती हूँ अब पास तुम्हारे
आती हूँ अब पास तुम्हारे
[तेलुगु लोकगीत पर आधारित]
चंदा मेरे!
मिले राह में थे हम दोनों
जागा था
पलकों से पलकें मिलते ही
मन में अनुराग।
डरी हुई थी मैं
डरते तुम भी, सहमे थे,
घरवालों के भय के मारे
दूर यहाँ बरगद के नीचे
दोनों ने आ लिया सहारा
और तुम्हारे बाहुपाश का स्पर्श
मुझे कस कर बाँधे था,
तभी लगे हम दोनों रोने
पोखर-भर बरसे थे आँसू
इतना जल भर गया कि उस दिन
धान उग गया,
चावल के दानों से
अक्षत लेकर हमने ब्याह रचाया,
किंतु नहीं विधि को भाया वह
मिलन हमारा
पानी में गिर गई छिपकली
तभी कहीं से
अशुभ, अमंगल ने
दोनों को अलग कर दिया
मुझसे छीना तुमको
तुमसे जीवन छीना,
प्राण! तुम्हीं आधार रहे जब नहीं साथ में
कैसे अब जी पाऊँ मैं निष्प्राण अकेली,
आती हूँ अब पास
तुम्हारे प्रेमपाश में
फिर-फिर बँधने
काया का यह पिंजरा तजकर।
कविता सतत अधूरापन
कविता सतत अधूरापन
कविता……..!
सतत अधूरापन है
पहले से दूजे को सौंपा
आप नया कुछ और रचो भी
कविता नहीं
पूर्ण होती है।
कितने साथी छोड़ किनारे
वह अनवरत
बहा करती है
कितने मृत कंकाल उठाए
वह अर्थी बनकर
चलती है
सभी निरर्थक संवादों को
संवेगों से ही
धोती है
कविता नहीं
पूर्ण होती है।
पीर के कुछ बीज
पीर के कुछ बीज
जिस दिन बो दिए
अंतःकरण में
थी उसी दिन से प्रतीक्षा
एक दिन अंकुर उगेंगे,
अंकुरित होंगे
कभी इस रूप में ये
क्या पता था
गीत, कविता, छंद बनकर।
चीर पृथ्वी के हृदय को
फूट पड़ते हैं
कभी भी ये
किसी भी पल
कहीं भी
और मेंड़ों की लकीरें
खींचता है, मन हमारा।
एक निश्चित क्रम नहीं तो
सूख कर ये, झर पड़ेंगे
इसलिए
हर छंद की जड़ में
बहुत आँसू भरे हैं
लहलहाता देखने को।
चाहती हूँ – ये
किसी का
ताप हर लें
तपन हर लें
छाँह दें
विश्राम दें
दें गंध अपनी
और ऊँचे उठ
सभी ये।
पतझर-१
नहीं सुनहले पंखों की
चिड़िया
गाती है
नहीं गिलहरी
हाथ उठाए
अब आती है
कोयल की
अमराई सारी
सूख गई
छाँह उंगलियाँ थाम
नहीं अब
चल पाती है।
पतझर-२
कितने पत्र भेज
बुलवाते
हम
पतझर की आँधी में
पैरों कौन
रौंद देता है
लिखा हुआ
प्रति-प्रति अक्षर।
प्रतीक्षा
क्यारियाँ ये
क्या करें उपवास अब,
बीज वाले,
बादलों को जोहते।
क्या करें उपवास अब,
बीज वाले,
बादलों को जोहते।
सपने
सपने……..?
क्या होते हैं – सपने?
सपने……..?
क्यों रोते हैं – सपने?
सपने……..?
बस सोते में अपने?
सपने……..?
जागो, खोते सपने?
अदहन
मन अदहन-सा खौले
जब,
तब
आँच हटाओ
वरना
ढक्कन फूटेंगे।