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लाज़िम है

न्याय की सबसे ऊँची कुर्सियों पर बैठते हैं
इसलिए माननीय हैं
लेकिन आलोचना से परे कब हो गये?

नीयत सही हो
तो भरोसा जीतिए
कुछ टिप्पणियों-सवालों से
क्यों डर गये?

बहुत अहम काम
आपके ज़िम्मे है, साहब!
लाज़िम है
कि हम परखते रहें
आप सुच्चे हैं या सड़ गये!

[*न्यायतंत्र की पारदर्शिता व जवाबदेही सुनिश्चित करने और नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण एवं अन्य सभी प्रतिबद्ध नागरिकों के सतत संघर्ष को समर्पित]

युगबोध

माँ कह एक कहानी*
न राजा न रानी
भूखे, बेघर, दुखी, सताए
इनकी कोई कहानी
बहती गंगा किन लोगों की
किनके औढरदानी !!

[*मैथिलीशरण गुप्त की कृति ‘यशोधरा’ के राहुल यशोधरा संवाद प्रसंग से साभार]

धोखा

स्याह रात
फैली उजियारी !!
रोटी देखी
चोखा देखा
कब का भूखा
टूट पड़ा मैं
जाने फिर कब आए मौका
सुबह से अंतड़ी ऐंठ रही थी
खुद से खुद का धोखा देखा !

ईश्वर जाने 

सुलगा कर के अपनी बीड़ी
फूँक दिये गाँव के गाँव
वही विधायक संसद की
सिगरेट चला है सुलगाने
वह जाति बहुल धन-बाहु-बली
हा ! घोर आपदा ! ईश्वर जाने !

अभी स्थगित

“कैसे हो?”
आत्मीय लहजे में कौन पूछता है अब !
कंठारूद्ध सुपरिचित यह स्वर
उस उदास झोपड़ का ही था
घोर अभावों मे भी जिसने
हँसना कभी नहीं छोड़ा था !

जिसके आंगन की मिट्टी पर
लुढ़क लुढ़क कर चलना सीखा
जिसके आश्रय में ही पलकर
कहने को हम बड़े हुए थे!

प्रति उत्तर में बोल न फूटे
हिचक हिचक कर जी भर रोया
छेड़ गया हो जैसे कोई
भीतर की सोयी कोमलता !

आओ साथी कंठ लगा लो
लोकगीत की तान सुना दो !
एकपेरिया पर दौड़ लगा लें
पोखर-पाखी-नहर-निर्जनों से
हम फिर से होड़ लगा लें !

अभी स्थगित कर दें अपने
बड़े-बड़े आयतन के सपने
मिल बैठें सारे लंगोटिये
चिर लंबित सब गप्प लड़ा लें !

मुझे चाहो तो

मुझे चाहो तो
उस कोने को चाहो
जहाँ सन्नाटा है
घुप्प अंधेरा है !

वे नजरें किसी और की होंगी
जो सराहेंगी मुझे
साक्षी रख सूरज के सातों घोड़े
तुमने न देखा तो क्या देखा
मुझमें अंतहीन सुरंग!
मेरे साथ चलती अंधेरी खाइयाँ!

मुझे दुलारो तो
उन हिस्सों को दुलारो
जो जले हुए हैं
चूमो तो उन होठों को चूमो
जो फटे हुए हैं !!

भोगूँ मैं वे दुख सभी 

भोगूँ मैं वे दुख सभी
जो भोगता कोई कहीं है
इसलिये
कि नहीं दुनिया है वैसी
जैसी होनी चाहिए !

डराएँ
वे डर मुझे
बेधे मुझे वे वेदनाएँ
और तड़पाएँ मुझे वे बेबसी
जो हैं गुँथते
रोज कितने अनुभवों में
इसलिए
कि नहीं दुनिया है वैसी
जैसी होनी चाहिए !

वे क्षोभ
वे आक्रोश
वे विद्रोह
मुझमें पले दहके
जो हैं पनपते
किसी मन में
कहीं क्षण भर के लिए भी
इसलिए
कि नहीं दुनिया है वैसी
जैसी होनी चाहिए !

सामर्थ्य भर जो लड़ रहे
लड़ते हुए जो मर गये
जो डर गये
जो अवाक हैं
लाचार हैं
जो निरीह व अनजान हैं
संग उनके मैं भी
अपनी तुच्छ ताकत जोड़ दूँ
चाहिए वैसी ही दुनिया
जैसी होनी चाहिए !

फिर भी किसी को याद आउं तो 

न रहूँ किसी के धन्यवाद ज्ञापन में
किसी के आत्मकथ्य
में भी मेरी पैठ न हो
किसी के सुखी दिनों में तो विस्मृत ही रहूँ
शरीक रहूँ किसी के दुखी दिनों में
तब भी उबरते दिनों पर
कृतज्ञता का बोझ बन टंगा न रहूँ

किसी को याद आ जाउं फिर भी
तो इस तरह तो आउं
कि किसी के दुखते हुए सिर पर कभी हाथ रखा था
कि किसी के साथ घंटों तब बिताए थे
कि जब उसे इसकी जरूरत थी
कि किसी की शर्ट से टूट कर गिरा बटन
उठाकर उसे सौंपा था
कि किसी जलती दोपहरी में
बोतल के खत्म हो रहे पानी से
किसी की प्यास बाँटी थी
कि किसी के लिए रोशनी की परवाह तब की थी
जब मैं खुद अंधेरा हुआ करता था !

दिवाली रात पंछी 

घोंसले दीये नहीं जलाते
कितना तो सुंदर है अमावस
गृहदाह से

यह हस्तक्षेप क्यों?

अप्रत्याशित रोशनी
रंगीनियाँ
शहर भर शोर

आँखें
सीमान्त के खाली गाँव
फेफड़े में भूकम्प

बेचारे, रात भर पंछी !

भूल सुधार

जिस कवयित्री ने अपने तमाम दिन रात
नये बिम्ब गढ़ने में लगा दिये
दुर्भाग्य कि नहीं गढ़ सकी
अपने ही ईमान को!

जिस कवि को लोगों ने झंडा थमा दिया
दबे कुचले आवाम का
बड़ा ही लालची निकला!

मैंने पढ़ी-सुनी जरूर थीं
दोनों की फुटकर कविताएँ
लेकिन खुशी है कि
खर्च नहीं हुए इनके संकलनों पर पैसे !

मैं उन संकलनों की सोच रहा हूँ
जिन पर मेरे पैसे खर्च हुए हैं
उनके रचियताओं के बारे में सोच रहा हूँ
जो बेवफा निकले अपनी ही कविताओं के!

किसी को उपहार दे दूँ
यह अक्षम्य अपराध होगा
सहेजे रखना खुद पर अत्याचार होगा

एक दिन झोले में भरकर
इन्हें बेच आउंगा
कबाड़ की दुकान पर
जो भाव मिलेगा
बिना मोल भाव स्वीकार लूँगा

डूब चुकी लागत का
जो कुछ लौट आए
वही श्रेयस्कर !

गायों को नहीं पता

गायें नहीं जानती कि
उनके लिए वेदों में क्या लिखा है
कि कितना पुराना है वह पुराण
जिसमें उनकी महिमा का बखान है
यह वेदपाठी पौराणिक ब्राह्मण जानते होंगे
मालूम होगा यह भेद प्राच्य-प्रकांड मैक्समूलर को
इसे जानने का दावा
आंबेडकर ने भी किया था : संदर्भ सहित !

गायें नहीं जानती
कि उनकी रक्षा व पालन के नाम पर
कितनी गौहंता समितियाँ व संस्थाएँ
सरकारी रजिस्टरों में दर्ज़ हैं
और कितनी लफंगों, दबंगों,
मुनाफाखोरों, अफसरों,
नेताओं के निजी रजिस्टरों में !
कि कितने हिन्दू उनके वैध वधिक हैं
और कितने ‘विधर्मियों’ के छुरों पर लगे लहू को
सरकारी जिह्वाएँ चाटती हैं !!

गायें नहीं पढ़ सकती भारत का संविधान
उन्हें नहीं पता कि इसकी
किसी अनुसूची में
किसी अनुच्छेद में
उनकी चिंता में भी कुछ लिखा गया है
यह आंबेडकर को पता था
जो गायों को पहचानते थे
इस तरह कि
वे मूक निरीह
ब्राह्मणों और शूद्रों में भेद करना नहीं जानती
वे जानते थे कि
पतित ब्राह्मणों के अहंकार के बूते
क्या ही बचाया जा सका है बेहतर
कि उनके पाखंड बचा पाएँगे गायों को !

उन्हें भरोसा था संविधान पर
और लोकतंत्र के
उत्तरोत्तर विकसित होते जाने वाले विवेक पर
कहाँ अंदाजा था उन्हें भी
कि देश के संविधान की प्रतियों की तहें लगाकर
उनके ऊपर सजाई जाएँगी सत्ता की गद्दियाँ
और माननीय न्यायालयों में संविधान की
वे प्रतियाँ रखवाई जाएँगी
जिनकी छपाई के वक्त
रोशनाई कम पड़ गयी थी !

क्या आखिरी दिनों में आंबेडकर को
इन्हीं बातों का तीव्र आभास होने लगा था ?
कहते हैं उन दिनों
उन्हें बुद्ध बेतरह ध्यान आते थे
मरने से पहले बौद्ध
और मरते हुए वे बुद्ध हो गये थे !!
यह महज संयोग नहीं था कि
समता और न्याय के लिए
उम्र भर लड़ने वाला आदमी
करुणा और संवेदना का सूत्र भी
हस्तांतरित कर गया था
(न जाने किन हाथों में !)

इतिहास बार बार दोहराता है कि
करुणा पर अपार विश्वास था
गाँधी का भी
जिन्हें गायों की ही नहीं
वधिकों की भी बराबर की फिक्र थी
जिन्हें विश्वास था कि बची रही मनुष्यता
तभी बचाया और हासिल किया जा सकेगा
कुछ भी शुभ
घोर आस्था थी उनकी उस कथा पर
जिसमें तथागत के महज़ कुछ सवालों से
काँप-काँप कर ढहने लगी थी
अंगुलीमाल की नृशंस मनोरचना !
कोई तूफान कोई भूकंप नहीं था
सिद्ध करुणा थी यह सिद्धार्थ की !

इतिहास की किताबों में शायद ही मिले
लेकिन इसी करुणा से आबद्ध प्राण तजते रहे
कलयुगी चरम पर भी
कई सज्जन साधु सन्यासी !

गायों ने तब भी करुणा का स्पर्श बहुत ही कम पाया
फिर भी बिचारियों ने सिर्फ सहना सीखा
कभी क्रोध नहीं दिखाया
छोड़कर अपवाद
बछड़ों के असुरक्षाबोध के क्षणों का!

गायों को क्या पता
कि वे सैकड़ों करोड़ों मनु संतानों की माएँ हैं
वे इतना ज़रूर जानती होंगी
कि जिनकी वे माएँ हैं
उनके हिस्से का दूध भी
उनसे छीन लिया जाता है !

गायों को नहीं पता कि
किसी अखलाक की हत्या का जिम्मेवार
उन्हें ठहराया जा चुका है
उन्हीं को बचाने के बहाने
उन्हीं की आड़ में
उन्हीं की खाल ओढ़कर
भय का दिग्विजय अभियान चलाया जा रहा है
सरेआम हत्यायें की जा रही हैं
और इस माहौल में
हत्यारों, हत्यारी सत्ता और व्यवस्था से नहीं
बल्कि उनसे तेज़ाबी घृणा
करने वालों की तादाद
बहुत बढ़ती जा रही है
कि वे बुद्धिजीवियों के प्रतिरोध
की अनिवार्य खुराक हो गयी हैं !

गायों को कैसे होगा याद कि कब
मनुष्यों ने अपनी युक्तियों से
उन्हें पालतू बना लिया था
(यह तथ्य तो बच्चों ही नहीं वयस्कों के
निबंधों से भी ग़ायब रहता है !)
गायें पहचानती हैं, तो उन खूँटों को जिनसे
वे सदियों से बंधी हुई हैं
इस चिर गुलामी से विद्रोह का तो
वे सोचती भी नहीं होंगी
वे अधिक से अधिक अच्छे व्यवहार का सोचती होंगी
स्वच्छ जल
हरे चारागाह का सोचती होंगी
थोड़े खुले माहौल का सोचती होंगी
हिन्दू-मुसलमानों के झगड़ों का उन्हें क्या पता
किन्तु सहज ही हमारी तरह वे भी
अपने जीने के अधिकार का सोचती होंगी !
लेकिन
गायों को क्या पता..!!

तुम्हारी ही आमद है 

यह परीक्षाओं का
ऊब और धूल भरा
मौसम हुआ करता था !

उदास सुबह
थकी दोपहरी
घबरायी शाम
चिंतातुर रातें
यही सब परिचित हुआ करते थे
इस मौसम के !

इसकी हवाएँ
काव्यरूढ़ि भर थीं
बिना छुए
गुज़र जाया करती थी!

तुम्हारी ही आमद है
कि अब यह फागुन है !!

बढ़ती जाए मेरी अलोकप्रियता 

मुझे चाहने वाले बहुत कम हों
इज़ाफा होता रहे दुश्मनों में मेरे
यही उचित अनुपात है।
बढ़ता जाए मेरा प्यार इस दुनिया से
इसे सुंदर बनाने वाले अवयवों से
विचारों से
प्रयासों से
जीवन से
प्रकृति से
निरंतर खोजे जा रहे सच से
बढ़ती जाए मेरी अलोकप्रियता !

तुम्हारे लिए

तुम्हारे लिए मिथिला का पान होना चाहता हूँ
आवारगी मे लातिनी अमेरिका
अनुशासन में जापान होना चाहता हूँ !

तंगहाल है
ख़तरे में है
डरा हुआ पिट्ठू गुलाम नहीं
ऐसा ही स्वाभिमान
ऐसी ही पहचान होना चाहता हूँ
मैं हो चि मिन्ह का वियतनाम होना चाहता हूँ ।

मेरी प्रगति को दुनियावी मानकों से मत मापना
इस होड़ में मैं शामिल नहीं
हासिल हो जीवन का कुछ
तो यही हो
मैं भूटान होना चाहता हूँ ।

अभावों में रहते हुए भी इसी ने हमें पाला है
हर जगह, हर समय, हर परिस्थिति में जूझता
मैं हाशिये का हिन्दुस्तान होना चाहता हूँ ।

यह सपनों का शहर है
और पंख नोच लिए गये हैं हमारे
बावज़ूद, किसी दूर गंतव्य के लिए
मैं तुम्हारी उड़ान होना चाहता हूँ !

उग आए मेरी चारो तरफ इजराइल कई फिर भी
फलिस्तीन मैं मेरी जान होना चाहता हूँ !

दोस्त कहकर जो मिला

दोस्त कहकर जो मिला
सबने ठगा
सबने छला

तुम मिले
दिल से लगाया
दोस्त कहकर बात की
डर गया
मैं हिल गया
रात भर सोया नहीं !!

ज्ञान को गुरू गुंडई से मुक्त करिये

ज्ञान को गुरू गुंडई से मुक्त करिये
गुरूजी बाहर निकलिए हमसे मिलिए !

बंद कमरे में किये जाते हैं सारे फैसले
बंद कमरे में हमारी तय होती जिंदगी
घुट रहा दम हवा दीजै धूप दीजै
खिड़कियों को खुली रखें सभी देखें
यह सब अकेले आप की जायदाद है क्या ?
इसमें हम सब का भी हिस्सा तय करिए।

जानता हूँ मृत्यु मेरी विश्वविद्यालय के प्रांगण
सूचनापट्ट थाम होगी
अब मेरी गुस्ताख़ियों पर दंड धरिए
पर गुरूजी बाद मेरे यह तमाशा बंद करिए।

××××××××××××××××××××

व्यर्थ मैं था हो चला भावुक गुरूजी
हूँ नहीं कमजोर कायर तोड़ देंगे
या दया हो आपकी तो छोड़ देंगे।

थूकता हूँ आपके हर दंभ पर मैं
आपके अपडेट और स्तंभ पर मैं
आपकी बेइमानियों और क्रूरता पर
आपके देवत्व महती शूरता पर।

बिना बदले यह व्यवस्था चैन मुझको कहाँ कहिए
लड़ूँगा लड़ता रहूँगा आइए अब मुझसे भिड़िए
है भलाई आपकी भी छुपी इसमें
छोड़िए यह खुराफाती मत अकड़िए।

ज्ञान को गुरू गुंडई से मुक्त करिये
गुरूजी बाहर निकलिए हमसे मिलिए !

सुपौल से छीन लिए गये

छोटी लाइन की सुस्त रेलगाड़ी से
अल सुबह ही जो सुदूर सुपौल से
सहरसा जंक्शन पहुँचे हैं
उन्हें मालूम हो कि
उनकी रेलगाड़ी
अगली सुबह आठ-साढ़े आठ से पहले
नहीं खुलने वाली !

अपनी तरफ से एक पैसा ढिलाई नहीं
कि पूरा दिन पूरी रात काट लेंगे जंक्शन पर !

सुपौल के हिस्से से चुरा लिए गए
ऐसे दिनों-रातों का
अक्सर ही साक्षी बनता है
सहरसा जंक्शन

इसे मालूम है कि
ऐसे कितने ही सुपौल हैं
जिनके हिस्से के
दिनों-रातों को छीन कर ही
पटरी पर रह पाता है पंजाब !
मुम्बई की कर पाती है मस्ती !
और दौड़ती रह पाती है दिल्ली !
सहरसा तो महज पूर्वाभ्यास है !!

सुपौल को नहीं जानते हैं लोग

बताता हूँ, जिला सुपौल का हूँ
तो पूछते हैं लोग : यह बिहार में कहाँ है?
कोसी-कछार कहने या
मधेपुरा का पड़ोसी कहने से खुलती है
इसकी पहचान !

क्या सुपौल की अपनी कोई पहचान नहीं है?

क्या सुपौल की मिट्टी पैदा न कर सकी
कोई झमटगर गाछ?
कोसी बहा ले गयी उसे या
उखाड़ कर उड़ा ले गयी मधेपुरा की गर्म हवा?

क्या सुपौल की मिट्टी कभी चढ़ी नहीं चाक पर?
गढ़ा न गया कोई बेजोड़ शिल्प या
हमने ही उपेक्षा की शिल्प और शिल्पकार की?

सुपौल को यह क्या होता जा रहा है !

कोसी काटती ही जा रही है किनारे की जमीन
उगने लगी हैं
कई किसिम की जहरीली घासें यहाँ
पनपने लगे हैं
छोटे-छोटे गढ़ मठ*
चेतना तो कभी थी ही नहीं
अब विस्मृति भी फैलती जा रही है

सोचता हूँ ; सुपौल को जानने लगेंगे लोग
जब यह कोसी या मधेपुरा हो जाएगा
लेकिन तब यह बताते हुए कि
जिला सुपौल का हूँ
आँखें कोसी हो जाया करेंगी
और चेहरा मधेपुरा !!

[*साभार मुक्तिबोध की कविता से लिए गए शब्द।]

डर 

निरमलिया जाग गे
देख, तेरा दूल्हा आया है
देख तो, क्या-क्या सनेस लाया है!

काकी बोली-
हमहूँ तो सोच रही थी
भोरे-भोरे कौआ क्यों कुचर रहा था
भनसाघर[1] के चार[2] पर

भानस[3] बनाने
जतन से जुट जाएगी बड़की भौजी
छोटकी तो खाली गप्पे हाँकेगी
दूल्हा भी चुटकी लेने में कम माहिर नहीं
ही…ही… कर निपोड़ेगा
पान के दाग़वाली बत्तीसी

दूरे से छुपकर सुनेगी निरमलिया
कुछ समझेगी
कुछ कपार के उपरे से बह जाएगा

निरमलिया के लिए
कौतूहल का विषय है दूल्हे की मूँछ
घी लगाकर चमकाता होगा!
सखियाँ कहती हैं बड़भाग तेरे
सोलहवाँ बसंत भी न देखा
ब्याही गई!

निरमलिया के दिमाग़ में
बहुत कुछ चलता रहेगा
सखियों की बातें याद कर रोमांच हो आएगा
भौजियों की चुहल से लजाएगी भी…

…रात गए लेकिन
उसका कलेजा धकधकाने लगेगा
टाँग में जैसे लक़वा मार जाएगा
लाख कोशिशों के बावजूद
उस घर की ओर उठता नहीं रहेगा
जिसमें उसका दूल्हा पलंग पर पलथा मारे
करियाई कड़ी मूँछ पर हाथ फेर रहा होगा!!

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें रसोईघर
  2. ऊपर जायें फूस की छत
  3. ऊपर जायें भोजन

दायरा 

काकी
मसुआई[1] क्यों हो?
उठो, चढ़ाओ अदहन[2]
गमकेगा गरमा भात
पोठी[3] का झोर![4]

हौ कक्का
उघिए छिट्टा-छिट्टा धान
दोसरो सीजन में
साध सकते हैं समसान
करिया मेघ चमकने लगा है
बुनकने लगा तो
खूबे नुकसान हो जाएगा

ददा हौ
खाली खैनी लटाके फाँकिएगा।
कि ठेको[5] सरिआइएगा।
पसेरी-पसेरी धान भगिनमानो[6] में देना है
लो, दादी के अलगे ताल
हुक्का गुड़गुड़ाना छोड़के क्या बड़बड़ाने लगी है

हौ गोसाईं!
कैसे लगेगा पार
बेटा के कपार पर
दूगो नन्हकिरबी[7] ब्याहने को
दूगो नन्हकिरबा की पढ़ौनी
जमा बारह पेट के लिए
हाँड़ी भी चढ़नी है साल भर
मरुँआ, गहुँम और गरमा[8] की
डेढ़-दो बीघा उपज से
क्या-क्या होगा!!

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें नमी की वज़ह से नरम हो जाने की स्थिति, यहाँ अन्यमनस्कता के सन्दर्भ में
  2. ऊपर जायें चावल पकाने के लिए उबलता हुआ जल
  3. ऊपर जायें एक प्रकार की छोटी मछली
  4. ऊपर जायें सब्ज़ी का रस या झोर
  5. ऊपर जायें अन्न के भंडारन के लिए बाँस का बेलनाकार पात्र
  6. ऊपर जायें मामा के गाँव में सादर बसाए गए भांजे और उनकी संततियाँ
  7. ऊपर जायें बेटी या लड़की
  8. ऊपर जायें धान की एक अत्यन्त साधारण किस्म

एम्बुलेंस का ड्राइवर

ज़िन्दगी जूझ रही होती है मौत से
वह जूझ रहा होता है सड़क, ट्रैफिक, रफ़्तार और
सबसे ज्यादा ख़ुद से
स्टेयरिंग, गेयर, ब्रेक से जुड़ी
उसकी हर एक गतिविधि से
जुड़ी होती है
किसी की जिन्दगी की रफ़्तार
उसने देखा है
हवा सूँघने वाली कई देहों को
लाशों में बदलते हुए

घर पर- उसे खाना नहीं रूचता
बीबी से अच्छी तरह बतिया नहीं पाता
बच्चों को मन भर दुलार नहीं पाता
रातों को-
साँसे ज़ोर से चलने लगती हैं
छाती तेजी से उठने गिरने लगती है
पत्नी घबराकर जागती है
पति को झकझोरती है
साठ..अस्सी..नब्बे..तेज़..तेज़..तेज़..और तेज़.. !

अकाल में क्रान्ति

रोते चूल्हे को
ढाँढ़स बँधाती कानी कुतिया
वहीं सो गयी है ।
चक्की की उदासी
बढ़ती जा रही है..

देखो तो- बाबा नागार्जुन
दाढ़ी सहलाते
गुनते मार्क्स को
कवित्त बना रहे हैं
या महीने भर की रासन की लिस्ट ?

अकाल में दूब भी जल जाती है साहब
हम आदमी हैं
माचिस क्या खोजते हो
अपने तो पेट में आग है
बस थोड़ा गेहूँ चाहिए
जो सड़ रहा है जगता सेठ के गोदाम में
मुखिया जी की हवेली
सरपंच के मकान में
जब बीबी बच्चे बिलबिला रहे हों भूख से
तो क्या पाप क्या पुण्य

..रे उट्ठ..आज चुल्हा जलेगा !!

चक्की घिस्स
चूल्हा खुश्श
कुतिया फुर्र
होठों पे मुस्की बाबा चुप्प ।

एक कविता उदासी की

बचपन में दादी
सुनाती थी एक कहानी
सफ़ेद घोड़ी पर चढ़कर
एक राजकुमार आता था
और अपनी प्रिय राजकुमारी को
ब्याह कर ले जाता था राजमहल

उस उदास लगने वाले
घर के सामने से
लेकिन भूल से भी
कोई राजकुमार नहीं गुजरता
ऐसा नहीं है कि
इस घर की राजकुमारियों में कोई कमी है
सिवाय इसके कि
इस घर से लक्ष्मी रहती है उदास
घर की राजकुमारियों की तरह
जिनके सपनों में भी नहीं होता
सफ़ेद घोड़ी वाला राजकुमार

सपने भी तब आते हैं
जब तकिये के नीचे नगद हो !

समझौता

दर्द सुलगता है
चोटिल मन की भट्टी में
टहकता है जैसे किसी ने दाग दिया हो तपे लोहे से

तब बंद कमरे में ख़ुद ही बनाता हूँ मरहम
दिखाता हूँ ख़ुद को सब्जबाग
फिर दरवाज़ा खोलकर मैं नहीं
मेरा हमशक्ल निकलता है
और परोसता है ख़ुद को ऐसे
जैसे दुनिया का सबसे ख़ुशनसीब हो

कवि हूँ
दर्द से हारूँगा नहीं
उसे भटका दूँगा शब्दों के जंगल में ।

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