साँध्य-गीत
टूट गई
धूप की नसैनी
तुलसी के तले
दिया धर कर
एक थकन सो
गई पसर कर
दीपक की ज्योति
लगी छैनी
आँगन में
धूप-गन्ध बोकर
बिखरी
चौपाइयाँ सँजोकर
मुँडरी से उड़ी
कनक-डैनी
सन्नाटा बढ़ गया
दिन बौना रात की पहाड़ी पर
चढ़ गया
ओर-छोर सन्नाटा बढ़ गया
तस्वीरें डूब गईं जलवंशी
जाग गया घर का आँगन दंशी
अन्धियारा आँखों में तिनके-सा
पड़ गया
सन्नाटा बढ़ गया ।
जंगल में रात
चाँदी की चोंच
थके पंखों के बीच दिए
पड़कुलिया झील सो गई
जंगल में रात हो गई
शंखमुखी देह मोड़कर
ठिगनी-सी छाँह के तले
आवाज़ें बाँधते हुए
चोर पाँव धुँधलके चले
डूबी-अनडूबी हँसुली
कितनी स्याही बिलो गई
जंगल में रात हो गई ।
सावनी उजास
हाथों में फूल ले कपास के
स्वर झूले सावनी उजास के
पागल-सी चल पड़ी हवाएँ
मन्द कभी तेज़
झूल रही दूर तक दिशाएँ
यादों की चाँदनी सहेज
झीनी बौछार में नहाए
फिर नंगे खेत
सरिता के आस-पास के
स्वर झूमे सावनी उजास के ।
अन्धकार का बबूल
आस-पास झर गया
गुड़हल का फूल
बींध गया देह
अन्धकार का बबूल
एक भीड़ सन्नाटा
गन्धहीन मन
पानी का डूबा-सा
लग रहा बदन
आँखों में कसक रही
धूल सिर्फ़ धूल ।
गीत की सरन
लहरों से सीख लिए
सारे ठनगन !
ओरी ! ओ ! नागरी दुल्हन
कलियों की उर्वशी हँसी
तेरे हर अंग में बसी
फैलाती गन्ध की शिकन
दीप-शिखा देह सोनई
अन्धियारा चीरती गई
तेरे अनुभाव की किरण
आँखों में छन्द आँजकर
रसवन्ती देह माँजकर
जा बैठी गीत की सरन
किसे आना था ?
मान जा रे मन !
हठीले मान जा
तोड़ दे चट्टान-सी ज़िद
छोड़ दे बचपन
किसे आना था ?
हवा आने का
भुलावा दे गई
गीत गाने का
बुलावा दे गई
देख छायाहीन अब तक
दरपनी आँगन
किसे आना था ?
अब नदीपन कहाँ ?
सागर के लिए
खिंच गए हैं
दो तिहाई हाशिए
अब न उन पाँवों रही वह
लहर संजीवन
किसे आना था ?