आदिवासी (1)
आकाश के तारों की स्तिथि से चलती हैं
उनके दिमाग की सुईयां
पेड के फलने फूलने से बदलते हैं
उनके मौसम, महीने और बरस
उनके पास नही है छपा कैलेन्डर
मुर्गे की बांग से टूटती है उनकी नींद
और जंगल की जगार से होती है सुबह
अजान की जरूरत नहीं उनके खुदा को
अपने देवता को भी कर दिया उन्होंने
गांव के गुनिया के हवाले
वही कर देता है सबकी और से खुश उसे
और कुछ खास चढावा भी नही मांगते
आदिवासियों के देवता और गुनिया
दौनों समझते हैं अपने बिरादरों की
हैसियत और आर्थिक स्तिथि
वे जमीदार नही हैं जो चुका सकें भारी लगान
उनके पास नही हैं सोने चांदी के छत्र
आदिवासियों को ईश्वर और उसके एजेंटों की
कोई खास जरूरत भी नही है
वे खुद मालिक हैं अपने सुख दुख के
वे तो सभ्यता की संगत मे हो गये
थोडे से धार्मिक
अभी भी उनके राम मायावी नही हैं
सिर्फ पुरूष ष्रेष्ठ हैं
जैसे गांधी और मार्क्स हैं हमारे लिये
आदिवासी (2)
वे नहीं जानते कौन है
उन आदिम गीतों के रचयिता
जिसे गुनगुना रहे हैं बचपन से
उन्हें नहीं पता कौन है
उन धुनों का आदि निर्माता
जिसे बजा रहे हैं भरी जवानी से
उन्होंने नही सीखा
गीतों से लय ताल बद्ध नृत्य
श्यामक डाबर सरीखे किसी चर्चित
गुरू की नृत्यशाला से
इन्होंने केवल देखा भर है
अपनी बुजुर्ग पीढियों को
इन्हीं गीतों और धुनों को
यूं ही झूम झूम कर
नाच नाच कर गाते बजाते
पता नहीं वेद पुराणों और
उपनिशदों की तरह
कितने पुराने हैं ये गीत
ये धुन और ये नृत्य
इन्होंने कभी खोदनी भी नही चाही
अपनी संस्कृति के इतिहास की कब्र
इनकी परम्परा भी यही है
कि जितना दिया पुरानी पीढी ने
और जितना लिया नई पीढी ने
कबीर की कोरी चदरिया की तरह
उतना ही जस का तस सौंप देना है
आने वाली पीढियों को सुरक्षित संरक्षित
आदिवासी (3)
अंटार्कटिका की आदिम बर्फ पिघलने मे
इनका कोई हाथ नहीं
न ही ये शरीक हैं उन बदमाशियों मे
जिनकी वजह से छेद हुआ है
आकाश की बेशकीमती ओजोन परत मे
इन्होंने नहीं उजाडा हरा भरा जंगल
इन्होंने गदली नहीं होने दी
जंगल से बहती नदियों की अमृत धार
इन्होंने नही मारे शेर भालू बाघ तेंदुए
इन्होंने नही किया ऐसा कोई कुकर्म
जिससे खतरे मे पडे यह धरती
और इस धरती का जीवन
जब कभी भी लिखा जायेगा
सुंदर धरती उजाडने वाले
खूंखार राक्षशों का इतिहास
इस आदि भूमि से
एक भी आदमी का नाम नही होगा
इतिहास की उस काली किताब मे
आदिवासी (4) /
दुनिया की कई गंभीर बीमारियां
यहीं के वासिन्दों को हैं
फिर भी किसी पी जी आई या एम्स तक
नहीं पहुंच पाता यहां का मरीज
इनके बीमार बच्चे
गुनिया की झाड फूंक के बीच
चुपचाप आंख मीच लेते हैं
मां की गोद मे लेटे लेटे
इन्हें नही मालूम कि देश की राजधानी मे
एक बडा मंत्रालय है इन्हीं के नाम पर
इन्हें नही मालूम कि संसद और विधान सभा मे
बहुत सी सीटें हैं इन्हीं के लिये आरक्षित
ये नही जानते कि
इन्हीं के लिये चल रही हैं
केन्द्र और प्रदेश की महत्वाकांक्षी
शत करोडी परियोजनाएं
इन्हें खबर नहीं कि इनके नाम पर
बैंकों ने बांटे हैं
लाखों करोडों के कर्ज सस्ते ब्याज पर
इन्हें नही मालूम कि बीते साल
राष्ट्र्पति महोदय की मुहर पा गया
सूचना का अधिकार कानून
इन्हें नहीं मालूम कहां मिलता है
सफेद कागज का वह टुकडा
जिस पर खडी हैं
आदिवासी विकास की सैकडों योजनाओं की
बहुरंगी बहुमंजिली भव्य इमारतें
आदिवासी (5)
(बचेगा आदिवासी ही)
सदियों,सहस्त्राब्दियों से नहीं
वह बचता आया है
लाखों करोडो सालों से
वह लगातार बचता आया है
मानव नियंत्रित हिरोशिमा नागाशाकी
और ग्यारह नौ जैसी महाघाती त्रासदियों से
सुनामी तो अभी हाल फिलहाल की बात है
आदिवासी समूहों का बाल बांका नही कर पायी
सुनामी से भी सौ सौ गुणी भयावह प्राकृतिक आपदाएं
मनुष्यता का इतिहास गवाह है
कई कई बार उजडी हैं
इन्द्रप्रस्थ और दिल्ली जैसी कई महानगरी
मोहन जोदडो की महान सभ्यता भी
समा गई थी मौत के आगोश मे
बे अवरोध पलक झपकते
हमारी धरती के गर्भ मे छिपे हैं
न जाने कितने महानगरों के अस्थि कलश
मोहन जोदडो की तरह
समुद्र की तलहटी मे खोजने पर
मिल सकते हैं दर्जनों द्वारकाओं और
कितने ही राम सेतुओं के खंडहर अवशेष
दुनिया भर मे तमाम अनुसंधानों के बावजूद
अभी तक नहीं मिली किसी देश मे
किसी आदिवासी गांव की कब्र
इतिहास या विज्ञान को
ऐसी कोई लोककथा भी नही है
जिसमे जिक्र हो
आदिवासी सभ्यता के क्षणिक अंत का
फिर भी हम अज्ञानता वश
अक्सर उन्हें कहते हैं पिछडा और अज्ञानी
जब कि चिर काल से असली ज्ञान
उन्हीं के पास है संरक्षित सुरक्षित
उसी ज्ञान के सहारे खींचकर लाये हैं वे
अपनी सभ्यता और संस्कृति की आदिम गाडी
हम भी यदि सीखना चाहते हैं जीने के असल गुर
गुरू बनाना होगा आदिवासियों को ही
उन्ही के चरण कमल मे बैठकर सीखना होगा
प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण संतुलन का
वह आईंस्टीनी समीकरण
जिससे साबुत रह सकती है हमारी धरती
जिससे जीवित रक सकती है हमारी प्रजाति
जिससे जीवित रक सकती है समग्र वनस्पति
जिससे जीवित रक सकती है सभ्यता संस्कृति
अब हमे थोडा सुस्त कर देना चाहिये
भौतिक प्रगति और विकास का राग दरबारी
और ठीक से समझ लेना चाहिये
आदिवासियों का आदिम अर्थशास्त्र
अपना लेनी चाहियें
आदिवासियों की तमाम अच्छी आदतें
और बंद कर देना चाहिये
आदिवासियों को मुख्य धारा मे लाने का मृत्यू राग
मुझे तो पूरा यकीन है दोस्तों
बदलना पडेगा
हमें ही अपना रास्ता एक दिन
और यदि अपनी जिद से
चलते रहे इसी आत्मघाती पथ पर
तो वह दिन बहुत दूर नही जब
इस धरती पर एक बार फिर
बचेगा आदिवासी ही
सिर्फ आदिवासी ही बचेंगे
कालान्तर , दिग दिगांतर तक
यात्रा (1)
यह जरूरी नहीं
कि घुमक्कडी के लिये
हर रोज चलें
दस बीस मील जंगल बीहड
कहीं संयत चित बैठकर भी
हो सकती हैं अर्थपूर्ण यात्राएं
हमारा अंतश भी तो
वन जंगल से कम बीहड नही
यात्रा (2)
यात्रा मे कभी कभी
ऐसे दोराहे भी आते हैं जहां से
नाक की सीध
कोई रास्ता नहीं जाता
यात्रा चाहे कितनी भी कठिन हो
कोई न कोई रास्ता
खुला अवश्य रहता है यात्रा में
प्रकृति (1)
उस विराट दश्य की कल्पना से ही
रोमांचित हो जाता है रोम रोम
जिसे साक्षात देखा होगा कभी
हमारे पुरखों की कई पीढियों ने
संगम की पवित्र भूमि पर
गंगा जमुना के साथ सरपट दौडती
सरस्वती नदी को साक्षात देखना
विहंगम दृश्य रहा होगा धरती का
हम सौभाग्यशाली रहे कि बचपन में
देख पाये साफ शफ्फाक गंगा और
नहाने लायक मैली होती यमुना
दिल्ली मथुरा और आगरा शहर मे
अब किसी काम लायक नही रही यमुना
हम भी कसूरवार हैं इस महा पाप के
कौरव सभा के चुप्पी साधे बूढों की तरह
निर्लज्जता से देखते रहे यमुना का बलात्कार
चुपचाप एक पवित्र नदी को
गंदे नाले मे तब्दील होने दिया हम ने
हम ने चिंता नही की आगामी पीढियों की
जिन्हें गंगा भी नहीं मिलेगी साफ शफ्फाक
क्या आने वाले समय मे हमारी सभ्यताएं
नालों के किनारे ही जन्मेंगी पनपेंगी
मुझे भी यह प्रश्न परेशान करता है अक्सर
कि नाले की कोख मे पली आगामी पीढियां
फक्र करेंगी अपने पूर्वजों की किन महानताओं पर
अपने समय का इतिहास लिखते समय
कैसे कह पायेंगे हमारे वंशज
मेरा भारत महान
प्रकृति (2)
जिस तेज गति से
ऊंचे और ऊंचे हो रहे हैं
बर्फ के पहाड
जिस तेज गति से
गहरे और गहरे हो रहे हैं
पानी के कूए
वह दिन दूर नहीं दिखता
जब आम आदमी को
एक गिलास पानी के लिये
या तो चढना पडेगा एवरेस्ट
या उतरना पडेगा पाताल लोक मे
पानी की खोज मे लम्बी यात्राओं के दौरान
सूखा गला तर करने के लिये
आसपास की धरती के बांझ वक्ष मे
औस की बूंद जितना भी पानी नही होगा एक दिन
ऐसे त्रासद समय मे
कितना बदरंग होगा जीवन
चुल्लू भर पानी के लिये
जान से हाथ धोना पड सकता है हमें
ऐसे त्रासद समय मे
बक्खाली का समुद्र तट
दूर दूर तक फैली
बेतरतीब रेत के विस्तार सा विराट
एक अजीब सा उदास उजाड पसरा है
बक्खाली के समुद्र तट पर
लहरों मे वैसी उच्छ्ष्रंखलता नहीं है
जैसी दिखती है पश्चिम के तटों पर
यहां के पेडों की हरियाली भी
उतनी उददात नही जैसी दिखती है
केरल और गोवा के तटीय इलाकों में
अपने तमाम अभावों के बावजूद
चुम्बक सा खींचता है हमे
बक्खाली का समुद्र तट
यहां के सूरज की गरमाहट
यहां के शांत पानी की ठंडक
यहां के रेत और परिवेश की सादगी
सब कुछ अदभुत है अनूठा है
बक्खाली के समुद्र तट तक
बाजार के पैर नही पहुंचे अभी
यहां के प्राकृतिक सौंदर्य पर
बडे लोगों का कब्जा नहीं हुआ
दो तीन चाय की दुकानों के सामने बिछी
प्लास्टिक की चंद कुर्सी मेज और छतरियों के सिवा
सब कुछ प्राकृतिक है यहां की आबोहवा में
बक्खाली का बंगाल
अभी भी ताजा है
टैगोर की कविताओं सा
कलकत्ता की भीडभाड से दूर
बंग भूमि के इस सुदूर प्रदेश में
इस सदी मे भी कायम रहनी चाहिये
टैगोर की कविताओं जैसी प्रकृति की
आदिम गंध,ताजगी और शाश्वत उजास
जंगल मे कटहल
वन विभाग रेस्ट हाउस के एक कोने में
बरसों से सीधा तना खडा है
कटहल का यह फूला फला पेड
यह सिर्फ एक पेड मात्र नही है परिसर का
जिस पर चिडियों के कई घोसलों के साथ
लटक रहे हैं ढेर सारे कटहल
वन कर्मियों की नजर मे
बेश कीमती है कटहल का यह
आम साधारण सा दिखता पेड
कंटीले कटहलों से लदा यह पेड
आम और अमरूद के पेडों से भी प्रिय है
रेस्ट हाउस के वन कर्मियों को
आये दिन होने वाले आला अधिकारियों
और खास मेहमानों के औचक आगमन पर
इसी पेड की ताजा कटहल बचाती है
रेंजर साहब की नाक और
बाकी वन कर्मियों की नौकरी
इस बीहड मे सब्जियों के अभाव में
जब तब रात बिरात रेस्ट हाउस का कुक
फटाफट एक कटहल तोडकर पका लेता है
कटहल की मसालेदार स्वादिष्ट सब्जी
अक्सर रायते और स्वीट डिश मे भी
कटहल ही होता है प्रमुख तत्व
और कटहल के पकौडे तो
सुबह के नाश्ते मे भी काम आते हैं
और शाम की रस रंजन महफिल मे भी
समयाभाव के दिनों मे भले ही उपेक्षित रहें
परिसर के बाकी फलों फूलों वाले पेड
कटहल के पेड की फिर भी खास टहल
करता है रेस्ट हाउस का फोरेस्ट गार्ड
यह भी एक संयोग है कि इस बियाबान मे