हाथ
अमृता शेरगिल के लिए
वक़्त के ताबूत में सिमट नहीं पाते हैं
गर्म उसके सफ़ेद हाथ । लाल फूलों से
ढका पड़ा रहता है सिकुड़ा हुआ
उसका पूरा जिस्म एक अन्धेरे कोने में
ख़ासकर बुझी हुई आँखों के पीले
तालाब । ख़ासकर टूटे हुए स्तनों के
नीले स्तूप । लेकिन सफ़ेद उसके
गर्म हाथ ताबूत से बाहर थरथराते रहते
हैं ।
वेश्याएँ
सड़कें ख़ाली हैं।
वे करती हैं इन्तज़ार …
सड़कें, गलियाँ, बरामदे भर गए हैं,
फिर भी,
वे करती रहती हैं इन्तज़ार !
आवाज़ पहचानती हैं।
दर्द, वहशत, बीमारियाँ और
हविस उसकी — वे जानती हैं ।
सिर्फ़ नहीं उसका नाम…
उसका कोई नाम नहीं है, शायद !
तुम मुझे क्षमा करो
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।
मुस्कुराहटें मेरी विवश
किसी भी चंद्रमा के चतुर्दिक
उगा नहीं पाई आकाश-गंगा
लगातार फूल-
चंद्रमुखी!
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।
मुस्कुराहटें मेरी विकल
नहीं कर पाई तय वे पद-चिन्ह।
मेरे प्रति तुम्हारी राग-अस्थिरता,
अपराध-आकांक्षा ने
विस्मय ने-जिन्हें,
काल के सीमाहीन मरुथल पर
सजाया था अकारण, उस दिन
अनाधार।
मेरी प्रार्थनाएँ तुम्हारे लिए
नहीं बन सकीं
गान,
मुझे क्षमा करो।
मैं एक सच्चाई थी
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया।
उम्र की मखमली कालीनों पर हम साथ नहीं चले
हमने पाँवों से बहारों के कभी फूल नहीं कुचले
तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे
उगाते रहे फफोले
मैं नदी डरती रही हर रात!
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा।
वक़्त के सरगम पर हमने नए राग नहीं बोए-काटे
गीत से जीवन के सूखे हुए सरोवर नहीं पाटे
हमारी आवाज़ से चमन तो क्या
काँपी नहीं वह डाल भी, जिस पर बैठे थे कभी!
तुमने ख़ामोशी को इर्द-गिर्द लपेट लिया
मैं लिपटी हुई सोई रही।
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया
क्योंकि, मैं हरदम तुम्हारे साथ थी,
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा
क्योंकि हमारी ज़िन्दगी से बेहतर कोई संगीत न था,
(क्या है, जो हम यह संगीत कभी सुन न सके!)
मैं तुम्हारा कोई सपना नहीं थी, सच्चाई थी!
शव-यात्रा का मृत संगीत
स्मृति में महाप्राण निराला को समर्पित
समूचा नगर पेट्रोल की गन्ध में डूबा हुआ…
आग लगती है। धड़ाके से ग्लोब फट जाता है,
आग लगती है ।
कहीं कोई सायरन नहीं बजता…
मैं पेट्रोल में
आग में
ग्लोब में
अपने अकेलपन में
तुम्हारी मृत्यु के अपराध में, क़ैद हूँ । क़ैदख़ाने में
दरवाज़ा नहीं है;
दरवाज़ा इस ग्लोब में कभी नहीं था ।
आओ, पहले हम बहस करें कि क्यों नहीं था दरवाज़ा
पहले हम तय करें कि यह क़ैदख़ाना किसने बनाया
फ़ैसला करें कि दरवाज़े क्या होते हैं
इतनी ईंटें कहाँ से आईं
लोहे की सलाख़ें कौन ले आया
दीवारें धीरे-धीरे ऊपर उठती गई किस तरह ?
आवश्यक है तर्क-वितर्क
फिर, यह कि वाक्य-व्यवस्था हो, विषय हो
सिद्धान्त बनें, अपवाद गढ़े जाएँ, व्याख्याएँ, भाष्य,
फिर, निर्णय हो
कि पहले क्यों नहीं थे दरवाज़े
और, अब क्यों नहीं हैं ?
जीवन, और जीवन में लगातार पराजय
पराजय, और उपहास के बाद भी हम जीवित हैं ।
तुम अपराजेय थे, इसीलिए तो जीवित नहीं थे, मृत थे
मृत थे, किन्तु अमृत थे
हम तुम्हारे उत्तराधिकारी विष भी नहीं हैं ।
ज्ञान अपनी सम्पूर्णता में प्रकृतिगत छल है
सम्बल है, हम सबका एक मात्र अज्ञान ।
वह भी सम्भव नहीं है;
अबोधत्व टूट-बिखर जाता है…
आदमी हो जाता है कृतवीर्य
क्षुधा-ज्वाला में अपना ही तन खाता है ।
और, अबोधत्व सम्भव नहीं है।
अपनी कुरूपता का
विकलांगता का
विषदाह का हर आदमी है जानकार ।
हर आदमी के सामने है आदमक़द आईना,
अपने सामने वह ख़ुद है !
और, दुखी है ।
मृत है !
तुम इसीलिए अमृत थे कि तुम्हारे सम्मुख
शीशा नहीं था
अखण्डिता (अथवा सहस्रखण्डिता !) प्रकृति थी
जलवाहक मेघ थे
गंगा थी
फूल, वृक्ष, इन्द्रधनु, धूप, रूपसी सन्ध्या, वसन्त,
जूही की कलिकाएँ…
तुम्हारे सम्मुख शीशा नहीं था
स्वप्न था !
हमारी पराजय का प्रथम कारण है नैतिकता
धर्म हमारे सामूहिक अपराध की प्रथम स्वीकृति
अन्न-वस्त्र हमारे लिए प्रथम दण्ड
ज्ञान हमारा प्रथम अभाव…
और ईश्वर ?
हमारी असहायता के सिवा और क्या ?
हम पराजित हैं
अपराधी हैं
दण्डित हैं —
और, हमारे कन्धों पर तुम्हारा शव है ।
नींद में या अनिद्रा में स्तब्ध है समूचा नगर
चौराहों पर बुझे हुए लैम्प-पोस्ट
पार्कों में बिछी हुई घास पर अनगिनत लाशें
पत्थर के स्तम्भों पर ब्रोंज की मूर्तियाँ
किताब घरों पर ताले पड़ गए हैं
अदालतों की कुर्सियों पर बैठे हैं लोहे के बुत !
लोहे की लगातार बन्दिशें, लोहे की दीवारें
हर घर किसी न किसी क़ब्र का दरवाज़ा है
जो अन्दर जाने के लिए खुलता है
बाहर जाने के लिए नहीं
कभी नहीं
अब सभी लोग हमें पागल कहते हैं
कि हम कन्धों पर हो रहे हैं इतिहास
कि हम दिमाग में लादे हुए हैं
एक अर्थहीन परम्परा
भाव का उपयोगविहीन विस्तार
शब्द का व्यवसायविहीन, लाभविहीन व्यापार !
कविता का क्या होगा ?
गगन में इतने स्वर्ण-तारक तो जड़े ही हैं
वैसे भी तो उपयोगी है अन्धकार
ज्योतिपिता सविता का क्या होगा ?
रात काटने के लिए चाहिए कहीं एक पड़ाव
मांसपिण्डों का जलता हुआ अलाव
चावल के चन्द दाने
क़तरा भर मक्खन
कहवे का गर्म प्याला
कभी-कभी शराब
बीमे की पॉलिसी
दो-एक अदद बच्चे
एक बिस्तरा और नींद !
कविता का क्या होगा?
ज्योतिपिता सविता का क्या होगा ?
क्या होगा आँखों में यदि नहीं सपने,
हम आदमी हैं यों ही उम्र काट लेते हैं
तेज़ मशीनों की तेज़ धड़धड़ाहट में
हम आदमी हैं यों ही उम्र काट लेते हैं ।
बीमार बच्चों की कमज़ोर, बेमतलब तुतलाहट में
हम आदमी हैं
दूसरों की दौलत का हिसाब लिखते हैं
और डूबे रहते हैं
अपने क़र्ज़ के समुन्दर में !
दफ़्तर की टाइपिस्ट लड़कियाँ अकारण खिलखिलाती हैं
बन्द केबिन में बैठा मालिक अकारण ग़ुस्सा हो जाता है
अकारण नौकरी छोड़ देता है टेलीफ़ोन-ऑपरेटर
कारख़ाने के मज़दूर अकारण करते हैं हड़ताल
अकारण बोनस नहीं मिलता है
अकारण ट्राम उलट जाती है
अकारण जमा हो जाती है चौरस्तों पर भीड़
अकारण मैदानों में भाषण दिए जाते हैं
अकारण छपते हैं अख़बार
सेक्रेटेरियट-बिल्डिंग की छत से कूदकर
अकारण कई आदमी आत्महत्या कर लेते हैं…
कारण की खोज में हम क्यों छटपटाएँ
क्यों नहीं किसी चायख़ाने में
या सिनेमाघर में
घुसकर
गर्म चाय पीते रहें
देखते रहें गर्म औरतें ?
…रात काटने के लिए चाहिए कहीं भी पड़ाव
मांसपेशियों का हल्का-सा तनाव !
क्या चाहता था ‘गोएथे’ का ‘डॉक्टर फाउस्ट’
तलस्तोय की ‘अन्ना’ क्यों ट्रेन से कट गई
क्यों शेली सागर में डूब गया
क्यों स्टीफ़ेन ज्विग ने
मयकोवस्की ने
ख़ुदकुशी कर ली
क्यों पागल हो गया वान गॉख
या नज़रुल इस्लाम
या निराला ?
— हमें जानने की फ़ुर्सत नहीं है
कि हम आदमी नहीं हैं हुजूम हैं
जुलूस हैं !
और, अब पुनः वसन्त आ गया है अनजाने :
वसन्त की नदी में जल-प्लावन
ज्वार में बहता हुआ स्मरण का निर्माल्य
त्यक्त फूलों में असम्भव सुगन्धि …
और, हम इस सुगन्धि के उत्तराधिकारी हैं
वंशधर हैं
और, हमारे कन्धों पर तुम्हारा अ-मृत शव है
और, पेट्रोल की गन्ध में डूबा हुआ है समूचा नगर
और, आग लगती है
और, धड़ाके से फट जाता है ग्लोब
कविताएँ
शब्द
अर्थ
ध्वनियाँ, शीशे के टुकड़ों की तरह
बिखर जाती हैं…
मगर कहीं कोई सायरन नहीं बजता है ।
कहीं कोई अरथी नहीं सजती है
कहीं कोई शोक-गीत गूँजता नहीं है
कहीं कुछ नहीं होता !
हम कन्धों पर तुम्हारी लाश लिए चलते रहते हैं ।
चलते रहते हैं ।
और हमारे पीछे भीड़ चलती रहती है ।
भीड़ और कहकहे, और फ़िल्मी गाने, और फ़ोहश मज़ाक़
और पराजय, और अपराध, और दण्ड
और ईश्वर !
तुम्हारा प्रथम अपराध यही था कि तुम स्रष्टा थे
हमारा प्रथम अपराध यही है
कि हम तुम्हारी सृष्टि को समर्पित हैं
कि हम गर्वित हैं
कि चींटियों की क़तारें
कल्प-पुरुष की सुगन्धि नहीं पहचानती हैं
और तुम्हें कल्पतरु नहीं मानती हैं ।
इस अकाल बेला में
होश की तीसरी दहलीज़ थी वो
हाँ ! तीसरी ही तो थी,
जब तुम्हारी मुक्ति का प्रसंग
कुलबुलाया था पहली बार
मेरे भीतर
अपनी तमाम तिलमिलाहट लिए
दहकते लावे-सा
पैवस्त होता हुआ
वज़ूद की तलहट्टियों में
फिर कहाँ लाँघ पाया हूँ
कोई और दहलीज़ होश की…
सुना है,
ज़िन्दगी भर चलती ज़िन्दगी में
आती हैं
आठ दहलीज़ें होश की
तुम्हारे “मुक्ति-प्रसंग” के
उन आठ प्रसंगों की भाँति ही
सच कहूँ,
जुड़ तो गया था तुमसे
पहली दहलीज़ पर ही
अपने होश की,
जाना था जब
कि
दो बेटियों के बाद उकतायी माँ
गई थी कोबला माँगने
एक बेटे की खातिर
उग्रतारा के द्वारे…
…कैसा संयोग था वो विचित्र !
विचित्र ही तो था
कि
पुत्र-कामना ले गई थी माँ को
तुम्हारे पड़ोस में
तुम्हारी ही “नीलकाय उग्रतारा” के द्वारे
और
जुड़ा मैं तुमसे
तुम्हें जानने से भी पहले
तुम्हें समझने से भी पूर्व
वो दूसरी दहलीज़ थी
जब होश की उन अनगिन बेचैन रातों में
सोता था मैं
सोचता हुआ अक्सर
“सुबह होगी और यह शहर
मेरा दोस्त हो जाएगा”
कहाँ जानता था
वर्षों पहले कह गए थे तुम
ठीक यही बात
अपनी किसी सुलगती कविता में
…और जब जाना,
आ गिरा उछल कर सहसा ही
तीसरी दहलीज़ पर
फिर कभी न उठने के लिए
इस “अकालबेला में”
खुद की “आडिट रिपोर्ट” सहेजे
तुम्हारे प्रसंगों में
अपनी मुक्ति ढूँढ़ता फिरता
कहाँ लाँघ पाऊँगा मैं
कोई और दहलीज़
अब होश की…
ऋतु शृंगार में खण्डित नायिकाएँ
अलकनन्दा दास गुप्त के लिए
एक
जिनके पास अपने व्यक्ति अथवा अपनी इच्छाओं का कोई अतीत नहीं होता, वे ही लोग किसी न किसी भविष्य के चमत्कार, एवं कर्म-फल के नियतिवादी सिद्धान्त में आस्था रखते हैं। आस्था रखने के लिए अलकनन्दा, मेरे पास और कोई भविष्य नहीं है। केवल वर्तमान है। अतीत से भी अधिक प्रामाणिक और विवेक-निर्देशित है मेरा यह वर्तमान। स्वस्थ किंवा अस्वस्थ किन्हीं भी कारणों से तुम हम लोगों का भविष्य बनना चाहती हो — किन्तु, यह सम्भव नहीं है इच्छा-अनिच्छा से, कारण-अकारण से तुम्हें वर्तमान ही बने रहना होगा, अगर तुम अतीत बनने से असहमति देना चाहोगी ।
स्थान, काल और पात्र की नियति नहीं होकर भी, इनकी संगति यही है । तुम्हारी सुन्दरता और वासनाएँ, मेरी वासनाएँ और कविता, हम लोगों की कविता और व्यवहार-पद्धतियाँ इसी एक वर्तमान संगति के नियम से चलती हैं। हेनरी मिलर ने इसी को समुद्र के अनन्त अन्धकार में तैरते हुए मृत शरीर का संगीत कहा है। यह मृत अमरत्व वर्तमान में, सामुद्रिक अन्धकार में तैरते हुए ही प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी भविष्य-तिथि की काल्पनिक संहति में नहीं ।
मेरी कविता और मेरी वासनाएँ मेरे लिए क्रमशः प्रथम और अन्तिम वर्तमान हैं। तुम इनमें, अर्थात् इनमें किसी एक में शामिल हो सकती हो हम लोगों के साथ-इन्हें अपने और — अथवा हम लोगों के भविष्य में शामिल नहीं कर सकतीं। ऐसा करना वर्तमान को ग़लत करना होगा।
दो
ऋतु-शृंगार में नायिकाएँ तिलक-कामोद वसन नहीं पहनें केवल पहनें
अपनी पारदर्शी त्वचा
उपगुप्त कुमारगिरि अजातशत्रु के आगमन-उपरान्त
उतारकर त्वचा-कवच अस्थि-आयुध
कामप्रद निर्मोक — नृत्य में फलवती हों नायिकाएँ
देह-चक्रव्यूह से बाहर आएँ मोह-स्खलित
खण्डित हों —
दशाश्वमेध के एकान्त में अधडूबी सीढ़ियों से नीचे गंगाजल में पाँव
फैलाए हुए हम लोगों ने यही निर्णय लिया था
तीसरे ब्रह्माण्ड में बन्द
चन्द्रमा वीनस और मंगल नक्षत्रों की भविष्य-गणना करके
एक साक्षर ऋतु के गर्भपिण्ड से दूसरी
ध्वनि मुक्त ऋतु की गर्भशिला पर स्थापित करने के लिए
इच्छाएँ
सप्त शून्यों की नीली गोलाइयों में
आरोपित करने के लिए समत्रिबाहु त्रिकोण प्रत्येक कोण में डूबी हुई
एक सर्पजिह्वा एक सर्पमुख
प्रत्येक कोण में ऋतु-चक्रित एक अष्टधातु सर्पविवर
और यह समस्त ज्यामिति-चेष्टाएँ
प्रजापति-यज्ञ में स्वेच्छा भस्मित सती-वर्तमान का शव-शरीर
84 टुकड़ों में
वैष्णवी आदि शस्त्र से खण्डित करने के लिए
…यहाँ कटकर गिरे थे ग्लोब के अर्द्ध-स्तन गोलार्द्ध
यहाँ गिरा था सती का स्कन्ध-ग्रीव
वर्तमान यहीं गिरा था ।
योनि-कामाख्या
तीन
अलका कँचन मौलश्री जगमोहन कल्याणी राजकमल कितने सुन्दर थे ।
काल्पनिक संज्ञावाचक ये नाम
प्रथम-पुरुष में अथवा प्रथम-स्त्री में सम्बोधन के लिए
हम लोगों ने
इन्हीं नामों से कर लेना चाहा था ऋतु-शृंगार
मार्क्विस साद के वीनस-मन्दिर में
अष्टधातु सर्प विवरों की स्वप्न-सम्भव स्थापना एक ऋतु से
दूसरी ऋतु
एक त्रिकोण से दूसरे त्रिकोण में जाते हुए
गंगाजल ने काट डाले किन्तु हम लोगों के पाँव नीली गोलाइयों की
घाटी में डूब गए
हमारे नक्षत्र हमारे इन्द्रधनुषी गाँव
अब काल-परिधि से टूट कर बाहर आ गया है सम्पूर्ण वर्तमान
ग्लोब के अर्द्ध-स्तनों में अन्धकार है
ब्रह्म-कुण्डलिनी से
बुद्धि-सहस्रार की ओर धावित शत-सहस्र शिरासर्प मूर्च्छित हैं
समर्पित हो चुकी हैं सुविधा तन्त्रों के प्रति
रहस्य सिद्धियाँ
तीसरे मस्तिष्क में कहीं नहीं जाज्वल्य है कौस्तुभ-मणि
मात्र शारीरिक व्यवसाय रह गया है
ऋतु-शृंगार
खण्डित नायिकाएँ धारण करती हैं नील वसन चन्दन अनुलेपन
रक्तकुसुम मालाएँ मात्र आत्म-रक्षा के लिए
चार
शारीरिक अस्तित्व-रक्षा के असत्य से तीसरे ब्रह्माण्ड तीसरे मस्तिष्क का
असम्भव
कितना अधिक आवश्यक है
मेरे लिए क्यों स्वीकार करेंगे नाटक ओथेलो-विक्रमोर्वशीय
वेणी संहार के पात्र-उपपात्र
जब तुम अलकनन्दा तुम भी जब यह ऋतु-संहार अपने दैहिक
सत्यों के विलयन में नहीं उपनयन में
स्वीकारती हो सहज सहर्ष
ऋतु-शृंगार
अस्थियान पर आरूढ़ अस्थि शास्त्रों से आक्रमणकारी उस
महाइन्द्र के स्वार्थ स्वागत के लिए
ऋतु-शृंगार
पाँच
हम लोगों के पितामह ने समय यापन के लिए सुविधाप्रद गढ़े थे
कई शब्द मूल्यों के आस्था के कर्मों के
व्यवस्था के
भीष्म जनमेजय नहीं शान्तनु पंच-पाण्डव धृतराष्ट्र ये हमारे पितामह
हमारे पिता थे अभिमन्यु पितामह परीक्षित
किन्तु
हम लोगों ने अपने पाँवों के नीचे मृत गंगाजल बने हुए
मूल्यों की आस्था और कर्मों की
व्यवस्था
शब्दों को अस्वीकार किया
अपनी कविता और अपनी वासनाओं के कारण हम लोगों ने तुम से
कहा अन्ततः शब्दों स्थितियों घटनाओं वस्तुओं और
स्थानिक स्वथविर काल पात्रों से नहीं
इनकी अन्तःसलिला
रहस्यवती योनि-कामाख्या सती वर्तमान ब्रह्म-कुण्डलिनी से
हम लोगों का शक्ति-शव साधकों का अवतार
लेता है —
शब्द
सर्वप्रथम और सर्वान्तक वह
शब्दलिंग
हमारे अस्तित्व का कारण और हमारे जीवन की धारणा
वही है वही होता है
प्रत्येक सृष्टि के मन्वन्तर में
शून्य के स्वर में
हम लोग अतएव शब्द नहीं गढ़ते हैं इसके विपरीत शब्दों को
उस एक महाशब्द में करते हैं समाहित
अतीत और भविष्य के
स्थान कालपात्रों को सती की योनि-कामाख्या में
तिरोहित करना है
हम लोगों का एक मात्र धर्म
पितामह पिता क्षमा करें महाभारत-विजय का अनासक्ति योग
हमारे लिए निरर्थक है
निरर्थक है हमारे लिए आत्मरक्षात्मक
ऋतु-शृंगार की खण्डित 84 टुकड़ों में विभाजित
नायिकाएँ…
नींद में भटकता हुआ आदमी
नींद की एकान्त सड़कों पर भागते हुए आवारा सपने ।
सेकेण्ड-शो से लौटती हुई बीमार टैक्सियाँ,
भोथरी छुरी जैसी चीख़ें
बेहोश औरत की ठहरी हुई आँखों की तरह रात ।
बिजली के लगातार खम्भे पीछा करते हैं;
साए बहुत दूर छूट जाते हैं
साए टूट जाते हैं ।
मैं अकेला हूँ ।
मैं टैक्सियों में अकारण खिलखिलाता हूँ,
मैं चुपचाप फुटपाथ पर अन्धेरे में अकारण खड़ा हूँ ।
भोथरी छुरी जैसी चीख़ें
और आँधी में टूटते हुए खुले दरवाज़ों की तरह ठहाके
एक साथ
मेरे कलेजे से उभरते हैं
मैं अन्धेरे में हूँ और चुपचाप हूँ ।
सतमी के चाँद की नोक मेरी पीठ में धँस जाती है ।
मेरे लहू से भीग जाते हैं टैक्सियों के आरामदेह गद्दे
फुटपाथ पर रेंगते रहते हैं सुर्ख़-सुर्ख़ दाग़ ।
किसी भी ऊँचे मकान की खिड़की से
नींद में बोझिल-बोझिल पलकें
नहीं झाँकती हैं ।
किसी हरे पौधे की कोमल, नन्हीं शाखें,
शाखें और फूल,
फूल और सुगन्धियाँ
मेरी आत्मा में नहीं फैलती हैं ।
टैक्सी में भी हूँ और फुटपाथ पर खड़ा भी हूँ।
मैं
सोए हुए शहर की नस-नस में
किसी मासूम बच्चे की तरह, जिसकी माँ खो गई है,
भटकता रहता हूँ;
(मेरी नई आज़ादी और मेरी नई मुसीबतें… उफ़ !)
चीख़ और ठहाके
एक साथ मेरे कलेजे से उभरते हैं।
रात्रिदग्ध एकालाप
एक
बारूद के कोहरे में डूब गए हैं पहाड़,
नदी, मकान, शहर के शहर ।
बीवी से छिपाकर बैंक में पैसे डालने
का मतलब नहीं रह गया है
अब ।
दो
मुझे चुप रहकर इन्तज़ार करना
चाहिए । मुझे इन्तज़ार करते हुए चुप
रहना चाहिए। मुझे चुप रहते हुए,
इन्तज़ार करते हुए, रहना चाहिए । (किसलिए ?)
तीन
तुम लोगों से छुटकारा नहीं चाहता
हूँ। ग़ुलामी में भी इतनी स्वाधीनता
तो मैंने प्राप्त कर ली है, कि किसी
को ग़ुलाम कह सकता हूँ ।
चार
उसके लम्बे पत्र में ईमानदारी का
सवाल हर तीसरे शब्द के बाद । हर
तीसरे शब्द के बाद ईमानदारी
का सवाल अठारह पुराणों में ।
पाँच
मैं टेबुल पर घूमते हुए ग्लोब में उस
शहर को ढूँढ़ने लगा, जहाँ कोई
पुरुष और कोई स्त्री एक-दूसरे की पीठ
से लगकर रोए नहीं हों ।
छह
मेरी क़मीज़ के अन्दर अपना बायाँ
हाथ डालकर, वह बूढ़ी औरत एक
अरसे से अपनी लिपिस्टिक की खोई
हुई डिबिया तलाश रही है ।
ऑडिट रिपोर्ट
सात हज़ार बरसों में एक आदमी ने बनाए
हैं साढ़े तीन सौ करोड़ परिवार । परिवारों
की रक्षा के लिए मकान । मकानों
की रक्षा के लिए दीवारें । सात हज़ार
बरसों में एक आदमी ने बनाई हैं साढ़े
तीन सौ करोड़ दीवारें ।
समाजशास्त्र
पचास नम्बर की
तीसरी बोतल ने
सिजदा
करते हुए कहा —
चलो, डॉक्टर एन० से
समाजशास्त्र
पढ़ने चलते हैं ।