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पत्तियाँ

जब तक हरी हैं, भरी हैं
हरियाली से, नमक और पानी से
तब तक है रीढ़ और शिराओं में दम
जब तक उनकी असंख्य अदिख आँखों में है
धूप और हवा से अपना अन्न-जल
जुटा लेने की ताकत
तब तक टंगी रहती हैं, तनी रहती हैं
डाल से पेड़ों का अवलम्ब बनकर

सहती हुई धूप, धूल और बारिश
रचती हुई मीठी घनी छाया
और संगीत-सी सरसराहट
जिन्हें केवल वे ही रच सकती हैं
पत्तियाँ मधुमक्खियों की तरह ही
सिरजती हैं ओस की बूंदें
रात भर टपकती चांदनियों से

जब डाल से झरती हैं
तो झरती हैं एक लय में
नृत्य करती हुई

एक ऎसी लय जिसे केवल
वे ही रच सकती हैं
एक ऎसा नृत्य जिसे केवल
वे ही कर सकती हैं!

जब वे झरती हैं डाल से
तो वे लय में झूमती इतराती नाचती हैं
यह सोचकर कि–

वे गिर नहीं रहीं
गिर नहीं रहीं

उतर रही हैं

ज़मीं पर !
ज़मीं पर !!

चीज़ें 

हर नई चीज़
पुरानी चीज़ में बदल जाती है
और धीरे-धीरे एक दिन
कबाड़ बन जाती है

हम उन्हें कबाड़ियों के हाथ बेच देते हैं
और वही चीज़ें फिर नए आमंत्रण के साथ
बाज़ार में आती हैं

हम उन्हें फिर घर ले आते हैं

इस तरह
हमारे ही घर से निष्कासित चीज़ें
हमारे घर में फिर से
जगह बनाती हैं ।

मैटरनिटी वार्ड

कराह नहीं
किलकारियों से मदहोश हैं दीवारें
चेहरों पर मायूसी का मंजर नहीं
आनंद का अतिरेक है
मौत से लड़ने की जद्दोजहद
ज़िन्दगी नज़्म बनकर उतर रही है
प्रसव-पीड़ाओं में

अभी-अभी आँख मटकाता
नर्म-नर्म हाथ-पाँव फैलाता
ज़मीं पर उतरेगा कोई बच्चा
और स्वागत में उसके
खिलखिला उठेंगे सैंकड़ों बच्चे

पूरा अस्पताल एक बार फिर
महक उठेगा अभी-अभी जन्मे
शिशु की ख़ुशबू से

मौत एक बार फिर थर्राएगी ज़िन्दगी से

प्रेम-व्रेम फालतू चीज है

सबने कहा, प्रेम-व्रेम फालतू चीज है
इस चक्कर में मत पड़ो
लाख नसीहतों के बावजूद फिसल ही गया
फिसलता ही गया
दिल का चैन खोया, रातों की नींद गंवाई
परीक्षा में अव्वल आने के मौके गंवाए
सबने कहा, गया काम से
अब किसी काम का नहीं रहा बंदा
मुझे भी लगा, गालिब की तर्ज पर
इश्क ने मुझे निकम्मा किया
वरना मैं भी आदमी था काम का

पर आप ही बताइए, क्या बुरा किया
प्रेम-व्रेम में पड़ा तो
प्रेम-कहानियाँ पढ़ी
प्रेम-कविताएँ लिखी
रेत में उसके नाम लिखे
लहरों को ललकारा
चाँद-तारों से बातें की
फूल-पत्तियों को प्यार किया
कागज पर तसवीरें उतारी
कुछ बनने के सपने संजोए
उसकी खातिर देर रात तक जागकर नोट्स बनाए
वादा निभाने के लिए परीक्षा में अव्वल नंबर लाए
करीने से बाल-दाढ़ी संवारे
पैरों के नाखून तराशे

प्रेम-व्रेम में पड़ा तो
किसी गलत संगत में नहीं पड़ा
ख़तो-किताबत के लिए कलम-दवात पकड़ा
तमंचा नहीं पकड़ा
हर वक्त उसी के ख़यालों में डूबा रहा
जुआ-शराब में नहीं डूबा
प्रेम-व्रेम में पड़ा तो
आँखों की चमक नहीं खोयी
आँसुओं का स्वाद नहीं भूला

प्रेम-व्रेम में पड़ा तो
आशिक-वाशिक ही बना, चोर-उचक्का, उठाईगिर नहीं बना
प्रेम-व्रेम में पड़ा तो ज़नाब
एक अदद इंसान बना !

प्रेम-व्रेम में नहीं पड़ता
तो आप ही बताइए, क्या गारंटी थी
आज जो हूँ, वही बनता ?

क्या हुआ जो

जब जागने का वक्त होता है
नींद आती है
हवादार ताजी सुबह बिस्तर के इर्दगिर्द
चहलकदमी करती है
सूरज खिड़की के भीतर कूदकर
तीखी किरणें चुभोता है
आँखों में अनिंद्रा की किरचें
कचमचाती हैं
घड़ी हड़बड़ करती भागती है
पाँवों में आलस लिपटा होता है
हरी-हरी घास पर डोलती ओस-बूँदों को
चूमने की हसरत पाँवों की
रोज बासी हो जाती है
चिड़ियों की चहचहाहट, फूलों की मस्ती
रोज छूट जाती है
रात-भर आवारा सपने सींग लड़ाते हैं
स्मृतियाँ पूरी रात करती हैं युद्धाभ्यास
मेरे अवचेतन के मैदान में
कि दिन में शिकार न हो मेरी आत्मा
इस महानगर की

कल अल्लसुबह जागूँगा पक्का
सोचकर रोज रात बिस्तर पर पड़ता हूँ
पर शायद सोने की रस्म-अदायगी पूरी नहीं हो पाती
दिन-भर की थकान से ज्यादा
दिल से रिस-रिसकर
आत्मा के कटोरे में जमा हुई ऊब
नींद निथरने नहीं देती
सारी नसीहतें धरी की धरी रह जाती हैं
साल-दर-साल निकल जाने पर भी
जिंदगी के सिलबट्टे पर
दुनियादारी का मसाला पीस नहीं पाता

सुबह-शाम सैर करने की तमीज अगर
आ भी जाए तो क्या गारंटी
नींद दौड़ी चली आए
नींद की गोली से नींद नहीं आती
चंद घंटों की बेहोशी आती है
बेहोशी में सपने नहीं आते
स्मृतियाँ नहीं आतीं
शुक्र है, मैं बेहोशी का शिकार नहीं हुआ
क्या हुआ जो
जब जागने का वक्त होता है
नींद आती है !

इन दिनो

इत्मिनान और सुख की
एक झीनी चादर है बदन पर
चेहरे पर उल्लास नहीं है
जीवन में एक नया संसार है
पर नया कुछ खास नहीं है
शहर-दर-शहर बदला
पर घर का अहसास नहीं है
अंदर जो एक चिनगारी हुआ करती थी
वो बुझ-सी गई है इन दिनों

खुद से बगावत पर आमदा हूँ
पर अंदर वो आग नहीं है
घर-दफ्तर के इस दूधिया आडंबर में
सबकुछ है, पर आँगन की
चौपालों की बात नहीं है

बेसाख्ता याद आ रहे हैं
फाकामस्ती के दिन इन दिनों
बाहर बसंत तारी है
भीतर पतझड़ से गुजर रहा हूँ इन दिनों

गाँव के कुँए का मीठा

चिठ्ठियाँ

चिठ्ठियाँ
बचपन में चिट्ठी का मतलब
स्कूल में हिंदी की परीक्षा में
पिता या मित्र को पत्र लिखना भर था
चंद अंकों का हर बार पूछा जाने वाला सवाल
आदरणीय पिताजी से शुरू होकर अंत में
सादर चरण-स्पर्श पर समाप्त हो जाता हमारा उत्तर
कागज की दाहिनी तरफ दिनांक और स्थान लिखकर
मुफ्त में दो अंक झटक लेने का अभ्यास मात्र

गर्मी की छुट्टियों में हॉस्टल से घर आते वक्त
हमें चिट्ठियों से बतियाने की सूझी एकबारगी
सुंदर लिखावटों में पहली-पहली बार हमने संजोए पते
फोन-नंबर कौन कहे, पिनकोड याद रखना भी तब मुश्किल
न्यू ईयर के ग्रीटिंग कार्डों से बढ़ते हुए
पोस्टकार्डों, लिफाफों, अंतरदेशियों का
शुरू हुआ जो सिलसिला
चढ़ा परवान हमारे पहले-पहले प्यार का हरकारा बन

मां-बाबूजी या दोस्तों के ख़तों के
इंतजार से ज्यादा गाढ़ा होता गया प्रेम-पत्रों का इंतजार
यह इंतजार इतना मादक कि
हम रोज बाट जोहते डाकिए की
दुनिया में प्रेमिका के बाद वही लगता सबसे प्यारा

मैं ठीक हूँ से शुरू होकर
आशा है आप सब सकुशल होंगे पर
खत्म हो जाती चिठ्ठियों से शुरू होकर
बीस-बीस पन्नों तक में न समाने वाले प्रेम-पत्रों तक
चिठ्ठियों ने बना ली हमारे जीवन में
सबसे अहम, सबसे आत्मीय जगह
जितनी बेसब्री से इंतजार रहता चिठ्ठियों के आने का
उससे कहीं अधिक जतन और प्यार से संजोकर
हम रखते चिठ्ठियाँ
अपने घर, अपने कमरे में सबसे सुरक्षित,
सबसे गोपनीय जगह उनके लिए ढूँढ़ निकालते
बाकी ख़तों को बार-बार पढ़ें न पढ़ें
प्रेम-पत्रों को छिप-छिपकर बार-बार, कई-कई बार पढ़ते

हमारे जवां होते प्यार की गवाह बनती ये चिठ्ठियाँ
पहुँची वहाँ-वहाँ, जहाँ-जहाँ हम पहुँचे भविष्य की तलाश में
नगर-नगर, डगर-डगर भटके हम
और नगर-नगर, डगर-डगर हमें ढूँढ़ती आईं चिठ्ठियाँ
बदलते पतों के संग-संग दर्ज होती गईं उनमें
दरकते घर की दरारें, बहनों के ब्याह की चिंताएँ
और अभी-अभी बियायी गाय की खुशखबरी भी
संघर्ष की तपिश में कुम्हलाते सपनीले हर्फ़
जिंदगी का ककहरा कहने लगे
सिर्फ हिम्मत न हारने की दुहाई नहीं,
विद्रोह का बिगुल भी बनीं चिठ्ठियाँ

इंदिरा-नेहरू के पत्र ही ऐतिहासिक नहीं केवल
हम बाप-बेटे के संवाद भी नायाब इन चिठ्ठियों में
जिसमें बीस बरस के बेटे ने लिखा पचास पार के पिता को-
आप तनिक भी बूढ़े नहीं हुए हैं
अस्सी पार का आदमी भी शून्य से उठकर
चूम सकता है ऊँचाइयाँ

आज जब बरसों बाद उलट-पुलट रहा हूँ इन चिठ्ठियों को
मानो, छू रहा हूँ जादू की पोटली कोई
गुजरा वक्त लौट आया है
खर्च हो गई जिंदगी लौट आई है
भूले-बिसरे चेहरे लौट आए हैं
बाहें बरबस फैल गई हैं
गला भर आया है
ऐसा लग रहा, ये पोटली ही मेरे जीवन की असली कमाई
इसे संभालना मुझे आखिरी दम तक
इनमें बंद मेरे जीवन के क्षण जितने दुर्लभ
दुर्लभ उतनी ही इन हर्फ़ों की खुशबू

जैसे दादी की संदूक में अब भी सुरक्षित दादा की चिठ्ठियाँ
मैं भी बचाऊंगा इन चिठ्ठियों को वक्त की मार से
एसएमएस-ईमेल, फेसबुक-ट्वीटर के इस मायावी दौर में
सब एक-दूसरे के टच में, पर इन चिठ्ठियों के स्पर्श से
महसूस हो रहा कुछ अलग ही रोमांच, अलग ही अपनापा

की-बोर्ड पर नाचने की आदी हो गई ऊंगलियों की ही नहीं,
टूट रही यांत्रिक जड़ता जीवन की भी।

जल
प्यास बन अटका पड़ा है कंठ में
पर फिल्ट

चतुर्भुज स्थान

आइए बाबू
स्वागत है आपका मुजफ्फरपुर के
इस लालबत्ती इलाके में

चुनिए इनमें से बेहिचक
जिस किसी को भी चुन सकते हैं आप
किसी को कर्ज में डूबा बाप बेच गया
किसी को पति किसी को प्रेमी किसी को चाचा
सब की सब माल एकदम चोखा है बाबू

भूख, गरीबी, जलालात, दंगा, फसाद, बलात्कार
यहां हर चीज की शिकार लड़कियां
मिल जाएंगी आपको

सीवान से सीतामढ़ी तक
सोनागाछी से नेपाल तक
कहीं का भी माल चुन सकते हैं आप

अहं, घबराइए नहीं, चुनिए चुनिए
दाम की फिक्र मत कीजिए
कम बेसी तो हो ही जाएगा
और फिर आप तो हमारे नए ग्राहक हैं

अरे ना ना… शरमाइए नहीं
यहां दस बरस के लौंडे से लेकर
अस्सी बरस के बुड्ढे भी आते हैं
आप तो नाहक डर रहे हैं, एकदम डरिए मत
यहां संतरी से लेकर मंतरी तक सब आते हैं

आइए आपको एकदम आपके लायक
एकदम टटका माल दिखाता हूं

ये देखिए, हफ्ता भर पहले ही आई है
बेच गया है नौकरी का झांसा देकर कोई साला

ये देख रहे हैं न 3 गुणा 4 की घुप्प कोठरी
इसे टार्चर चैंबर कहते हैं
लात-घूसों से जो नहीं मानती साली
उसे इसी टार्चर चैंबर में रखा जाता है
भूखे-प्यासे चार-पांच दिनों तक
कभी-कभी तो चार पांच एक साथ

ऐ उट्ठ ! साहब को सलाम कर
और ये देखिए, उससे भी कमसुन कम उम्र
इसकी तो माहवारी भी नहीं फूटी अभी…

क्या कीजिएगा बाबू
गोश्त का धंधा ही कुछ ऐसा है
औरत का हो या खस्सी-मुर्गे का
जैसे गोश्त बढ़ाने के लिए
मुर्गे-बकरियों को खिलाया जाता है
वैसे हम भी खिलाते हैं इन्हें बेनाट्रेडिन
एकदम मरियल आयी थी लेकिन
देखिए महीने भर में ही दनदनाकर जवान हो गई है साली

बाबू मैं तो कहता हूं
आप इसे ही आजमाइए
वैसे आप तो शादीशुदा नहीं लगते
और हों, तो भी क्या फर्क पड़ता है
एकदम निश्चिंत रहिए
आपके बीवी-बच्चों को एकदम पता नहीं चलेगा

अरे नीति-वीति की बात छोड़िए
जाइए खेलिए खाइए
वैसे अब तो इस धंधे को भी काम का दर्जा दिए जाने का हल्ला है

अरे बाप रे बाप, बहुते देर हो गया
जाइए जल्दी निबटाइए, औरो ग्राहक है
और हां, पुलिसुया वर्दी देख के
एकदम चौंकिएगा मत
कमबख्त ङप्ता वसूलने आ जाया करती है

लौटते बखत भी एकदम घबड़ाइएगा मत
यहां एकदम अंधेरा ही अंधेरा रहता है
हमेशा चारों तरफ
पता नहीं कौन सिरफिरा
हमारा नाम रख दिया है
उजाला नगर

 

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