ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समंदर कर दे
ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समंदर कर दे
या छलकती हुई आँखों को भी पत्थर कर दे
तुझ को देखा नहीं महसूस किया है मैं ने
आ किसी दिन मिरे एहसास को पैकर कर दे
क़ैद होने से रहीं नींद की चंचल परियाँ
चाहे जितना भी ग़िलाफों को मोअत्तर कर दे
दिल लुभाते हुए ख़्वाबों से कहीं बेहतर है
एक आँसू कि जो आँखों को मुनव्वर कर दे
और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मिरे पैरों के बराबर कर दे
ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं
ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं
जो उम्मीद से कम होते हैं
आगे आगे चलता है रस्ता
पीछे पीछे हम होते हैं
राग का वक़्त निकल जाता है
जब तक सुर क़ाएम होते हैं
बाहर की ख़ुश्की पे न जाओ
पत्थर अंदर नम होते हैं
मिलने कोई नहीं आता जब
अपने आप में हम होते हैं
चेहरों की तो भीड़ है लेकिन
सही सलामत कम होते हैं
नज़्में ग़ज़लें ख़त अफ़साने
उस के नाम रक़म होते हैं
दिल के षेल्फ़ में ‘शाहिद’ कितनी
यादों के अल्बम होते हैं
इक सब्ज़ रंग बाग़ दिया गया मुझे
इक सब्ज़ रंग बाग़ दिया गया मुझे
फिर ख़ुश्क रास्तों पे चलाया गया मुझे
तय हो चुके थे आख़िरी साँसों के मरहले
जब मुज़दा-ए-हयात सुनाया गया मुझे
पहले तो छीन ली मिरी आँखों की रौशनी
फिर आईने के सामने लाया गया मुझे
रक्खे थे उस ने सारे स्विच अपने हाथ में
बे-वक़्त ही जलाया बुझाया गया मुझे
चारों तरफ बिछी हैं अँधेरों की चादरें
शायद अभी फ़ुज़ूल जगाया गया मुझे
निकले हुए थे ढूँढने ख़ूँखार जानवर
काँटों की झाड़ियों में छुपाया गया मुझे
इक लम्हा मुस्कुराने की क़ीमत न पूछिए
बे-इख़्तियार पहले रूलाया गया मुझे
ख़ौफ से अब यूँ ने अपने घर का दरवाज़ा लगा
ख़ौफ से अब यूँ ने अपने घर का दरवाज़ा लगा
तेज़ हैं कितनी हवाएँ इस का अंदाज़ा लगा
ख़ुश्क था मौसम मगर बरसी घटा जब याद की
दिल का मुरझाया हुआ ग़ुंचा तर ओ ताज़ा लगा
रौशनी सी कर गई क़ुर्बत किसी के जिस्म की
रूह में खुलता हुआ मशरिक़ का दरवाज़ा लगा
ये अँधेरी रात बे-नाम-ओ-निशां कर जाएगी
अपने चेहरे पर सुनहरी धूप का ग़ाज़ा लगा
ज़ेहन पर जिस दम तिरा एहसास ग़ालिब आ गया
दूर तक बिखरा हुआ लफ़्जों का शीराज़ा लगा
हम-ख़याल ओ हम-नवा भी तुझ को मिल ही जाँएगे
रात के तन्हा मुसाफ़िर कोई आवाज़ा लगा
मजमा मिरे हिसार में सैलानियों का है
मजमा मिरे हिसार में सैलानियों का है
जंगल हूँ मेरा फ़र्ज़ निगह-बानियों का है
क़तरे गुरेज़ करने लगे रौशनाई के
क़िस्सा किसी के ख़ून की अरज़ानियों का है
ख़ुश-रंग पैरहन से बदन तो चमक उठे
लेकिन सवाल रूह की ताबानियों का है
रोने से और लुत्फ़ वफ़ाओं का बढ़ गया
सब ज़ाइक़ा फलों में नए पानियों का है
सौ बस्तियाँ उजाड़िए दिल को न तोड़िए
ये संग-ए-मोहतरम कई पेशानियों का है
महफ़ूज रह सकेंगे सफ़ीने कहाँ तलक
मौजों में बंद ओ बस्त ही तुग़्यानियों का है
होती हैं दस्तयाब बड़ी मुष्किलों के बाद
‘शाहिद’ हयात नाम जिन आसानियों का है
मीनारों से ऊपर निकला दीवारों से पार हुआ
मीनारों से ऊपर निकला दीवारों से पार हुआ
हद्द-ए-फ़लक छूने की धुन में इक ज़र्रा कोहसार हुआ
चश्म-ए-बसीरत राह की मिशअल अज़्म-ए-जवाँ पतवार हुआ
साहिल साहिल जश्न-ए-तरब है एक मुसाफिर पार हुआ
दिल के जज़्बे सामने आए ख़ुशबू ख़्वाब धुआँ बन कर
जितनी दिल-कश सोच थी उस की वैसा ही इज़हार हुआ
उभरे एहसासात के सूरज यादों के महताब खुले
ग़ज़लों का दीवान सुहाने मौसम का अख़बार हुआ
जंगल पर्बत नदियाँ झरने याद रहेंगे बरसों तक
इस बस्ती में हुस्न है जितना पांबद-ए-अशआर हुआ
न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले
न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले
तमाम शहहर को शफ़्फ़ाक देखने वाले
गिरफ़्त का कोई पहलू नज़र नहीं आता
मलूल हैं मिरे औसाफ़ देखने वाले
सिवाए राख कोई चीज़ भी न हाथ आई
कि हम थे वरसा-ए-असलाफ देखने वाले
हमेशा बंद ही रखते हैं ज़ाहिरी आँखें
ये तीरगी में बहुत साफ़ देखने वाले
मोहब्बतों का कोई तज-रबा नहीं रखते
हर एक साँस का इसराफ़ देखने वाले
अब उस के बाद ही मंज़र है संग-बारी का
सँभल के बारिश-ए-अल्ताफ़ देखने वाले
गँवाए बैठै हैं आँखों की रौशनी ‘शाहिद’
जहाँ-पनाह का इंसाफ़ देखने वाले