बहुत बेज़ार थे हम ज़िंदगी से
बहुत बेज़ार थे हम ज़िंदगी से
”मुहब्बत हो गयी है शायरी से “
किसी दिन धूप को मुट्ठी में लेकर
करूँगा मैं ठिठोली तीरगी से
घुटा जाता हैं दम कुदरत का देखो
हमारी खुदपरस्ती, बेहिसी से
उदासी ओढकर सोओगे कब तक
नहीं होते खफा यूँ ज़िंदगी से
चले इस आस में हम सूये सहरा
मिले राहत वहीं पर तश्नगी से
दिखा दे यार मेरे मुस्कराकर
घुटा जाता है दम संजीदगी से
हम अपनी मौत को ठुकरा चुके है
हमारा कौल था कुछ ज़िंदगी से
अज़ाबे ज़िंदगी हैरत ज़दा है
बुझी है आग पलकों की नमी से
उदासी का सबब उनसे जो पूछा
हिलाया सर बड़ी ही सादगी से
बता दे चाँद को औकात उसकी
निकल कर सामने आ तीरगी से
जरूरत पर यकीनन लेखनी अंगार लिखती है
जरूरत पर यकीनन लेखनी अंगार लिखती है
नहीं तो ये मुहब्बत के मधुर अशआर लिखती है
जो अपनी जान देकर भी हमें महफूज़ रखते हैं
ये उन जाबांज वीरों के लिए आभार लिखती है
मुहब्बत करने वालों से है इसका कुछ अलग रिश्ता
कभी इकरार लिखती है कभी इनकार लिखती है
अगर हो जाए कोई अपना ही इस देश का दुश्मन
बिना संकोच के ये उस को भी गद्दार लिखती है
लड़ाते हैं हमें मजहब के ठेकेदार अपनों से,
दिलों को जोड़ने के वास्ते ये प्यार लिखती है
ये मेरी लेखनी ही है मैं जिसके साथ जीता हूँ
यही तो है जो मेरे मन के सब उद्गार लिखती है
मुश्किलों से लड़ इन्हें आसां बनाना चाहता हूँ
मुश्किलों से लड़ इन्हें आसां बनाना चाहता हूँ
कर्म कर के ही मैं अपना लक्ष्य पाना चाहता हूँ
ज़िंदगी दे ज़ख्म पर यूँ जख्म, मैं फिर भी हँसूंगा
आजमाइश की हदें मैं आजमाना चाहता हूँ
क्यूँ करूँ मैं फिक्र कोई आइना क्या बोलता है
फैसला अपना मैं दुनियाँ को सुनाना चाहता हूँ
देख ली दुनिया बहुत अब देख ले दुनिया मुझे भी
मौत को भी ज़िंदगी के गुर सिखाना चाहता हूँ
क्या हुआ गर साथ मेरे हमसफ़र कोई नहीं है
मैं अकेले कारवाँ बनकर दिखाना चाहता हूँ
मैं जिऊंगा ज़िंदगी खुद्दार रहकर ज़िंदगी भर
जह्र पीकर भी मैं शिव सा मुस्कराना चाहता हूँ
हर हंसी अशआर ने जिसके, मुझे पहचान दी है
उस ग़ज़ल को ज़िंदगी भर गुनगुनाना चाहता हूँ
है मुन्तजिर नहीं ये किसी के बखान की
है मुन्तजिर नहीं ये किसी के बखान की
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की
होने लगा है मुझको गुमां कहता हूँ ग़ज़ल
मैं धूल भी नहीं हूँ अभी इस जुबान की
ढूँढा किये हम ज़िन्दगी को झुक के ख़ाक में
यूँ मिल गयी है शक्ल कमर को कमान की
धिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से
आँखें झुकी रही हैं सदा बेइमान की
खाते रहे जो छीन कर औरों की रोटियाँ
होने लगी है फ़िक्र उन्हें अब किसान की
हर लहर सागर की साहिल तक पहुँच पाती नहीं
हर लहर सागर की साहिल तक पहुँच पाती नहीं
हो भले नाबूद लेकिन लौट कर जाती नहीं
मिल गयी मंजिल उसे जिसने सफर पूरा किया
मंजिले मक़सूद चलकर खुद कभी आती नहीं
देख कर चेहरा, पलट देते हैं अब वो आइना
मौसमे फुरकत उन्हें सूरत कोई भाती नहीं
ज़िंदगी तो कर्म-फल के दायरों में है बंधी
गम, खुशी सब में बराबर बाँट वो पाती नहीं
इस जहां के बाद भी है इक जहां, जा कर जहाँ
इल्म होता है कोई शै साथ दे पाती नहीं
चलो हम आज इक दूजे में कुछ ऐसे सिमट जाएँ
चलो हम आज इक दूजे में कुछ ऐसे सिमट जाएँ
हम अपनी रंजिशों, शिकवाए ख्वारी से भी नट जाएँ
मेरी ख्वाहिश नहीं है वो अना की जंग में हारें
मगर दिल चाहता है आके वो मुझसे लिपट जाएँ
हमारी ज़िंदगी में तो मुसलसल जंग है जारी
है बेहतर भूल हमको आप खुद ही पीछे हट जाएँ
अलग हों रास्ते तो क्या है मंजिल एक ही सबकी
नहीं होता ये मुमकिन हम उसूलों से उलट जाएँ
चलें हम प्रेम और सौहार्द के रस्ते पे गर मिल के
तो झगडे बीच के खुद ही सलीके से निपट जाएँ
हमें तो चाह कर भी आप पर गुस्सा नहीं आता
कहीं गुस्से में जो खुद आप वादे से पलट जाएँ
भरोसा है हमें इक दूसरे पर ये तो अच्छा है
गुमां इतना न हो इसका कि हम दुनिया से कट जाएँ
हमें भी ढाई आखर का अगर संज्ञान हो जाए
हमें भी ढाई आखर का अगर संज्ञान हो जाए
वही गीता भी हो जाए वही कुरआन हो जाए
मजाज़ी औ हक़ीक़ी का अगर मीज़ान हो जाए
मेरा इज़हार यारों मीर का दीवान हो जाए
जला कर ख़ाक करना, कब्ल उसके ये दुआ देना
कि मेरा जिस्म सारा खुद ब खुद लोबान हो जाए
खुदा को भूलने वालों तुम्हारा हस्र क्या होगा
खुदा तुमसे अगर मुह मोड ले, अनजान हो जाए
सभी घर मंदिर-ओ-मस्जिद में खुद तब्दील हो जाएँ
अगर इंसानियत इंसान की पहचान हो जाए
परिंदे मगरिबी आबो हवा के “शेष” शैदा हैं
कहीं ऐसा न हो अपना चमन वीरान हो जाए
यूँ तो मैं हँसता रहा सबसे गले मिलता रहा
यूँ तो मैं हँसता रहा सबसे गले मिलता रहा
पर हकीकत को मेरा चेहरा बयां करता रहा
लाख कर लीं कोशिशें मंजिल नहीं मिलती मुझे
दूसरों के वास्ते मैं रास्ता बनता रहा
मैं रहा ग़मगीन वो भी चुप रहा गम में मेरे
खामुशी ही खामुशी थी रास्ता कटता रहा
मिल गया हमदर्द कोई अश्क थे जो कैदे चश्म
कर के मैं आज़ाद उनको हाले दिल कहता रहा
जो तेरे अपने हैं उनके वास्ते रो कर तो देख
मैं तो रोकर ही मजे से सारे गम सहता रहा
जो कभी मुख्तार थी अब वो सवाली हो गयी
जो कभी मुख्तार थी अब वो सवाली हो गयी
ज़िंदगी मेरी लगे मुफलिस की थाली हो गयी
भून डाला था बहू को, क्या करेगा अब बता
देख तेरी लाडली फूलों की डाली हो गयी
देख उनको जुल्फदोश, इन बादलों को क्या हुआ
कायनात उनकी घनी छाया से काली हो गयी
बाद बरसों देख मुझको मुस्कराए तो लगा
नौकरी पर जैसे मेरी फिर बहाली हो गयी
क्या पता था ऐसा भी होता है ताबे इश्क में
रेत जो पैरों तले उजली थी, काली हो गयी
अगर तुमने मुझे रस्ते से भटकाया नहीं होता
अगर तुमने मुझे रस्ते से भटकाया नहीं होता
तो मैंने मंजिले मक़सूद को पाया नहीं होता
किसी की मुफलिसी पर रूह गर कोसे तो समझाना
हर इक इंसान की किस्मत में सरमाया नहीं होता
अगर मैं जानता डरते हो मुस्तकबिल से तुम मेरे
तो मीठे बोल से धोखा कभी खाया नहीं होता
तुम्हारा कल हमारे आज में पैबस्त ही रहता
तो मेरा आज मुझको इस तरह भाया नहीं होता
झुका था आसमां, बढ़ कर ज़मीं गर बांह फैलाती
धुंधलका दरमियां उनके कभी छाया नहीं होता
वक़्त से अच्छा कोई मरहम नहीं
वक़्त से अच्छा कोई मरहम नहीं
आंसुओं जैसा कोई हमदम नहीं
क्या जरूरी है मुनव्वर हम भी हों
रोशनी सूरज की सर पे कम नहीं
लूट कर हमको हँसे मुह फेर जो
वो हमारा कायदे आज़म नहीं
सेंक मत रोटी सियासत दान अब
तू हमी से है कि तुझसे हम नहीं
शान्ति तो हो पर न हो शमसान सी
चेहरों पर अब हो खुशी , मातम नहीं
मौत से मुँह छिपाने से क्या फायदा
मौत से मुह छिपाने से क्या फायदा
ज़िंदगी को रुलाने से क्या फायदा
एक भी बात उसकी न भाई तुम्हे
अब कसीदे सुनाने से क्या फायदा
ज़िंदगी जो इबारत नहीं बन सकी
उसको उन्वां बनाने से क्या फायदा
जब अदा दिल जलाने की आती न हो
तो मुहब्बत जताने से क्या फायदा
तेरी महफ़िल से तौबा की औ चल दिया
अब ग़ज़ल गुनगुनाने से क्या फायदा
जब गुलिस्तां से भौंरे नदारद हुए
गुल पे पहरे बिठाने से क्या फायदा
एक हम ही तुम्हारे रहेंगे सदा
‘शेष’ को आजमाने से क्या फायदा
हवा जो आ रही नम आज कुछ जादा ही भाती है
हवा जो आ रही नम आज कुछ जादा ही भाती है
किसी की आँख का सारा समंदर सोंख आती है
वो जब आकाश को परवाज़ क़े काबिल नहीं पाती
तो चिड़िया खुद ब खुद पिंजरे में आकर बैठ जाती है
हमारे दर्द को कोई समझ ले है ये नामुमकिन
कोई भी आँख छाले रूह क़े कब देख पाती है
तपिश चाहत में हो औ सोज हो ज़ज्बात में पैहम
तो जिद की बर्फ धीरे धीरे आखिर गल ही जाती है
खुदा तू ही बता किस नाम से तुझको पुकारूं मैं
तेरे बन्दों को समझाने में मुश्किल पेश आती है
जुगनुओं की रोशनी से तीरगी घटती नहीं
जुगनुओं की रोशनी से तीरगी घटती नहीं
चाँद हो पूनम का चाहे पौ मगर फटती नहीं
ज़िंदगी में गम नहीं तो ज़िंदगी का क्या मजा
सिर्फ खुशियों के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं
जैसी मुश्किल पेश आये कोशिशें वैसी करो
आसमां पर फूंकने से बदलियाँ छंटती नहीं
गर मिजाज़ अपना रखें नम दूसरों के वास्ते
शख्सियत अपनी किसी भी आँख से हटती नहीं
झूठ के बल पर कोई चेहरा बगावत क्या करे
आईने की सादगी से झूठ की पटती नहीं
सांप इतने आस्तीं में पल गए
सांप इतने आस्तीं में पल गए
हम बशर से जैसे हो संदल गए
प्यास ऐसी दी समंदर ने हमें
लब हमारे खुश्क होकर जल गए
इश्क नेमत है, क़ज़ा है या भरम ?
फैसले कितने इसी पर टल गए
बेअसर होती गयी हर बद्दुआ
हम दुआ देने कि बाज़ी चल गए
हो गए बर्बाद हम तो क्या हुआ
नाअहल भाई भतीजे पल गए
ख्वाब आँखों में जब बसते हैं
ख्वाब आँखों में जब बसते हैं
आँसू भी हंसने लगते हैं
जिंदा रहने की कोशिश में
हम जाने कितना मरते हैं
दुनिया रहने क़े नाकाबिल
फिर भी तजने से डरते हैं
फ़र्ज़ निभाना कितना मुश्किल
इक दूजे का मुह तकते हैं
उसने तो इंसान बनाया
हिन्दू मुस्लिम हम बनते हैं
मिट्टी क़े घर होते जिनके
उनके घर ईश्वर बसते हैं
हम उनके सेहन-ए-गुलशन में कभी सोया नहीं करते
हम उनके सेहन-ए-गुलशन में कभी सोया नहीं करते
अना को हम मुहब्बत के लिए खोया नहीं करते
रहाइश तो उन्ही के साथ होती रात दिन लेकिन
समंदर साहिलों में जिन्दगी बोया नहीं करते
रहे हैं आज तक हम आइनादारों की बस्ती में
छुपा के दोस्तों से आँख हम धोया नहीं करते
चले जाओ अग़र तुम भी, नहीं हैरानगी होगी
कराओ तुम हमें चुप, सोच के रोया नहीं करते
नहीं मुमकिन हमारे ख्वाब कोई छीन ले हमसे
कि आँखें मूद कर हम बेखबर सोया नहीं करते
यूँ रोते नही शामो–सहर, सब्र तो करो
यूँ रोते नही शामो–सहर, सब्र तो करो
कहती है अभी राहगुज़र सब्र तो करो
छालों के कई दाग दिये खैरख्वाह ने
चमकेंगे यही दाग़ मगर सब्र तो करो
देता है कड़ी धूप वही बख्शता कभी
ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव बशर, सब्र तो करो
मंज़िल के लिये शहर में घूमो न दरबदर
आयेगी वो ज़ीने से उतर सब्र तो करो
आयी न वफ़ा रास हबीबों को गर तेरी
हमराह हैं खुर्शीदो-क़मर सब्र तो करो
गए मौसम सरीका आज अपना प्यार लगता है
गए मौसम सरीका आज अपना प्यार लगता है
पड़ोसी की वसीयत सा मेरा घर बार लगता है
कहाँ से लायें हम जज्बों में वो रूहानियत कल की
कि अपने में हमें कोई छुपा अय्यार लगता है
जिसे देखो उसी की आँख रोई सी लगे हर दम
कमाना और खाना भी कोई व्यापार लगता है
हमारी बेहिसी से दम घुटा जाता है कुदरत का
न जाने क्या हुआ सूरज हमें बीमार लगता है
सचाई को बयाँ करने का दम ख़म है बचा किसमे
हमें नारद की बीना का भी ढीला तार लगता है