स्वगत
कविता
सहेली की साल नहीं
जिसे मौसम के मुताबिक
माँग कर लपेट लिया जाए
कविता मेरा मन है संवेदना है
मुझसे फूटी हुई रसधारा
कविता मैं हूँ
और वह मेरी सृजनशीलता है
मेरी कोख / मेरी जिजीविषा का विस्तार
इससे अधिक सही और सच्ची
कोई बात मैं कह नहीं सकती…
रात के साए में /
रात के साए में
कुचला फन मेरा
दर्द से भींग जाता है
चर्म के छिद्रों से
तेज़ाब की गंध आती है
क्योंकि मन का जलता कोना
निःश्वास लेता है
आज पुनः रोया है मन
फैलता है एक तीख़ापन
अरसों बाद
पुनः मँडराया है
निःश्वास
जो मेरा अपना है
व्यथा
अब आग-सी लहराती है
और कभी बर्फ़ीली ठंड-सी
डंक मारती है
चुभता है जो मन में
उसे मौन सहन करती हूँ
क्योंकि वह अपना है ।
आज तुम्हारे आँगन में
आज तुम्हारे आँगन में
चाँदनी विहँसेगी, हवाएँ लरजेंगी
तुम्हारी आँखों में प्रसन्नता के आँसू होंगे
और मेरे लिए
उदास है यह शाम
हवाएँ भी चुप हैं
कमरे के हर कोने में टीस की संवेदना है
घूरती हूँ शून्य
बिखरा है सन्नाटा
सन्नाटे के सिवा और कुछ
नहीं है मेरे पास
जो कुछ कही अपना था
खो गया व्यथाओं के बीच
रह गई शेष मैं
अस्थि-चर्म-कंकाल-शव
टूटता पटरा
रोज़
एक लाश गुज़रती है
विचार
(मक्खियों की तरह)
मँडराते हैं,
उस लाश पर
दर्द होता है मुझे
मेरा ही नाश होता है
ज़िंदगी का एक दिन
और गुज़र जाता है
अंधकार गहरा
बहुत गहरा
होता जा रहा है
वेदनाओं की दम तोड़ती
लाश भी नज़र नहीं आती
गहराइयों और खाइयों पर पड़ा
पटरा
टूट रहा है, टूट रहा है…
रीता मन
मौसम कराहता है,
हवा की पोर-पोर में समाया
संक्रामक दर्द
डँसता है
मुझको
रीता मन
स्नेह की बँद
ढूँढ़ता है
जीने के लिए
मुझे लोग अच्छे लगते हैं
लेकिन यह जानती नहीं
कि कहाँ हैं अपने लोग ?
हर स्थल पर अपने
को एकाकी पाती हूँ
जिजीविषा
लहर
पुनः आओ
मेरे मन को गढ़ो
सतरंगे इंद्रधनुष-सा
अनचाहे
थाम तुम्हें
पकड़ भर लूँ
उफ़नती नदी
कई रंगों से भर
मेरे शुष्क होठों पर
तिरती है
एक ख़ुशी की लहर
ताज़गी की तलाश
मौसम
बार-बार छलता है
हर बार
नया ताना-बाना बुनता है
पिछलग्गुओं की तरह
घिसे-पिटे शब्दों से
की जाती है बातों की मरम्मत
लेकिन कब तक
बैसाखियों के सहारे रणनीति
बनाई जा सकती है
अपनी आकाँक्षाओं की बलवती
क्रीड़ा-कौतुक में शामिल
तुम जियोगी इसी तरह
तुम्हारी चेतना छलती जाएगी हर बार
तुम नयापन ढूँढ़ते हुए
पुरातत्वों में शामिल
एक शव की तरह खोजती रहोगी नयापन
इंतज़ार
नीलाकाश के
कोने का मेघ
बालकनी में खड़ी
लड़की की तरह उदास है
गर्म हवा
बादलों को तैराती है
पंख भरती तितलियाँ
नीचे उतरती हैं
ऐसे में
परिक्रमा करती पृथ्वी का
चेहरा टेढ़ा हो गया है
प्रतीक्षित हूँ
इस मापदंड को मापने
के लिए
शायद
मेरा पुनर्जन्म हो
खंड-खंड पाखंड
समय
कई टुकड़ों में विभाजित है
मन भी तो
लगातार चुप रहने से
अर्थ चुक जाता है
दोस्त !
खंडित मन
प्रश्नचिह्न खड़े करता है
आदेशों के खोखलेपन को
कब तक नकारा जाए
इस तरह
ऊबते हुए टूटना है हमेशा-हमेशा
मंज़िल,
मंज़िल सच नहीं है
मंज़िल है ही नहीं
मंज़िल ही अंत है शायद
दोस्त तुझे क्या बताऊँ
अब तक ऊब हो चुकी है खोखलेपन से
संबंधों के निचले हिस्से भी खोखले हैं
जहाँ क्रमशः घिसती जा रही हूँ मैं
व्यूह
शब्दों का व्यूह
बहुत उलझा हुआ है
मौसम कई रंगों में लिपटा है
स्मृतियों पर धुँध घिरी है
परदे सरकते हैं
जीवन के
दृष्टियाँ काले परदों से
टकराकर लौटती हैं
आसपास का वातावरण अब गीला है
नन्ही बूँदें मन के कोनों में बसी हैं
काले परदे के आगे
कुछ नहीं सूझता
आँखें भर आई हैं
वातावरण का गीलापन
एक फ़रेब है
फ़ुरसत में
जब कभी
फ़ुरसत में होता है आसमान,
उसके नीले विस्तार में
डूब जाते हैं
मेरी परिधि और बिंदु के
सभी अर्थ ।
क्षितिज तट पर
औंधी पड़ी दिशाओं में
बिजली की कौंध
मरियल जिजीविषा-सी लहराती है ।
इच्छाओं की मेघगर्जना
आशाओं की चकमकी चमक
के साथ गूँजती रहती है ।
तब मन की घाटियों में
वर्षों से दुबका पड़ा सन्नाटा
खाली बरतनों की तरह
थर्राता है ।
जब कभी फ़ुरसत में होती हूँ मैं
मेरा आसमान मुझको रौंदता है
बंजर उदास मिट्टी के ढूह की तरह
सारे अहसास
हो जाते हैं व्यर्थ ।
ज़िंदगी
अख़बारों की दुनिया में
महंगी साड़ियों के सस्ते इश्तहार हैं ।
शो-केसों में मिठाइयों और चूड़ियों की भरमार है ।
प्रभु, तुम्हारी महिमा अपरम्पार है
कि घरेलू बजट को बुखार है ।
तीज और करमा
अग्रिम और कर्ज़
एक फ़र्ज़ ।
इनका समीकरण
ख़ुशियों का बंध्याकरण ।
त्योहारों के मेले में
उत्साह अकेला है,
ज़िंदगी एक ठेला है ।
सार्थक एक लम्हा
आज
जीना बहुत कठिन है।
लड़ना भी मुश्किल अपने-आप से ।
इच्छाएँ छलनी हो जाती हैं
और तनाव के ताबूत में बंद ।
वैसे,
इस पसरते शहर में
कैक्टस के ढेर सारे पौधे
उग आए हैं
जंगल-झाड़ की तरह ।
इन वक्रताओं से घिरी मैं
जब देखती हूँ तुम्हें,
उग जाता है
कैक्टस के बीच एक गुलाब
और
ज़िंदगी का वह लम्हा
सार्थक हो जाता है ।
क्रंदन
ज़हर का स्वाद
चखा है तुमने?
उतना विषैला नहीं होता
जितनी विषैली होती हैं बातें,
कि जैसे
काली रातों से उजली होती हैं
सूनी रातें ।
पिरामिडी खंडहर में
राजसिंहासन की खोज
एक भूल है
और सूखी झील में
लोटती मछलियों को
जाल में समेटना भी क्या खेल है ?
दंभी दिन
पराजित होकर ढलता है
हर शाम को
और शाम
अँधेरी हवाओं की ओट में
सिसकती है
तो दूर तलक दिशाओं में
प्रतिध्वनित होती है
अल्हड़ चाँदनी की चीख़ ।
और मुझमें एक रुदन
शुरू हो जाता है ।
ज़िंदगी का हिसाब
हे सखी,
अँगारों पर पाँव धर कर
फफोले फूँकती हुई
चितकबरे काले अहसासों
से घिरी हूँ ।
मगर अब
चरमराई जूतियाँ उतार कर
नंगे पाँव
खुले मैदान में दौड़ना चाहती हूँ ।
हे सखी,
मौसम जब ख़ुशनुमा होता है
अब भी बज उठते हैं
सलोने गीत,
कच्ची उम्र की टहनियाँ
मंजरित हो जाती हैं।
यथार्थ की घेराबंदी मापते हैं पाँव ।
हे सखी,
कब तक चौराहों पर
खड़ी जोड़ती रहूँ
ज़िंदगी का हिसाब?
उम्र
चुकी हुई साँसों का
ब्याज माँगती है ।
आमंत्रण
आओ, हम फिर शुरू करें
आजादी का गीत
कि खुले कण्ठ से स्वरों को सांचा दें
कि हमारी आकांक्षाएं
पेड़ों के तले
मगर पिंजरे में कैद
पंछी बन गयी हैं
आकाश के उन्मुक्त फैलाव से
उनके रिश्ते कट गये हैं
आओ हम फिर शुरू करें
आजादी का गीत
कि हमारी चोंच पर पहरा है
बहेलिए के जाल का
आओ हम बंधक पंखों को झटक कर
मोर की तरह नाचें
अपने कोटरों से बाहर आएं
डर के पंजों से मुक्त होकर गाएं
दुख-सुख को मिलजुल कर बांटें
दमघोंटू धुआं काटें
आओ हम फिर शुरू करें
आजादी का गीत!
आग का अक्षर
अकसर हम धूप में
चढ़ा लेते हैं रंगीन चश्मे
और धरती रेत हो जाती है
पिघलते सूरज का उमगना
नहीं देख पाते
सच और झूठ के बीच झूलते
धूपछांही परदे
पुरानी इमारत के झाड़-फानूस की तरह
बदरंग लगते हैं
और इधर हमारी जंग शुरू हो जाती है
जब कोई औरत
संवेदना के टूटे-तार जोड़ती
अपनी पेबन्द-सी
जिन्दगी की किताब
पलट देती है
तब मैं दुख के पन्नों पर अंकित
अक्षरों में शामिल
एक अक्षर बन जाती हूं
आग का अक्षर!