परिवहन निगम की बस में सांसद-विधायक सीट
परिवहन निगम की बस में यात्रा करते हुए आपने भी देखा होगा
कि एक समूची सीट के उपर दर्ज होता है यह
‘माननीय सांसद / विधायक के लिए’
इतने दिनों की यात्रा में मुझे कभी नहीं दिखाई पड़े कोई माननीय
बस में अपने लिए आरक्षित सीट पर बैठ कर यात्रा करते हुए
परिचितों ने भी नहीं देखा कभी यह अजूबा
फिर किस बाध्यता के तहत जारी है यह पाखण्ड आज तलक?
क्या यह मखौल नहीं है इस देश की जनता का
जिसे इस भ्रम के साथ जिन्दा रखा जाता है
कि हो सकता है कि कभी कोई माननीय आ ही जाए
और उन पर सनक सवार हो जाय बस यात्रा की
जबकि सबको पता है यह सच्चाई
कि आज का एक ग्राम-प्रधान भी चुनाव जीतने के बाद
लक्जरी गाडिय़ों से ही चलना पसंद करता है
फिर माननीय तो ठहरे माननीय
उनका क्या कहना
पहले आओ पहले पाओ की तर्ज पर बस में आते हैं यात्री
और इत्मीनान से बैठ जाते हैं उस सीट पर
जो माननीय के नाम दर्ज होती है
उसे पता होती है यह बात कि अगर गाहे-बगाहे आ ही गया कोई
माननीय बस में
तो उसे तत्काल ही खाली करनी पड़ेगी पड़ेगी यह सीट
लेकिन उसे यह भी पता है कि ऐसी अनहोनी संभव ही नहीं
भले ही दूध से पानी की एक-एक बूँद को अलगा दिया जाय
और चलनी में से एक भी बूँद पानी न गिरे
चलिए, एक मिनट के लिए मान ही लेते हैं
कि भूले-भटके आ ही गया अगर कोई माननीय बस में
तो एकबारगी बस में बैठा कोई भी यात्री यकीन नहीं कर पाएगा
और पूरे भरोसे के साथ उनके माननीय होने पर सन्देह करेगा
हो सकता है बस के समूचे यात्री उन्हें कोई फरेबी समझे
और उन्हें उतार दे जबरिया बस से तत्काल ही
और अगर बैठ ही गए माननीय किसी तरह अपनी सीट पर
तो पूरे रास्ते लोग उनके बचकानेपन की खिल्ली उड़ाएं
और फुसफुसाते हुए ही सही ये बाते करें आपस में
कि कैसा सांसद-विधायक है यह बेचारा
जो आज तक अपने लिए एक गाड़ी की व्यवस्था नहीं कर सका
वह अपने क्षेत्र की जनता के लिए व्यवस्था क्या ख़ाक कर पायेगा
लेकिन यह भी क्या मानना कि माननीय आएंगे
और निहायत अकेले होंगे
उनके साथ न तो कोई अंगरक्षक होगा
न ही कोई समर्थक या फ़ौज-फाटा
हो सकता है कि वे जब सदल बल आएँ तो उनके लिए पूरी बस
भी पर्याप्त न पड़े
और भीड़ इतनी हो कि उनके साथ के अति महत्वपूर्ण लोगों को
खड़े-खड़े यात्रा करनी पड़े
इसलिए इस सोच के फलीभूत न होने में ही भलाई है बस यात्रियों की
बसें केवल यात्रियों को ढोने के लिए हैं
और ध्यान रहे यह
कि माननीय यात्रा करते हुए भी यात्री नहीं होते कभी
वे सिर्फ और सिर्फ माननीय होते हैं
इसलिए वे बस में नहीं चलते कभी
यही तो करिश्मा है हमारे लोक तंत्र का
कि लोक अलग रहता है तंत्र अलग
दोनों चुनाव के वक्त बेर-केर की तरह एक जगह होते हैं महज
दिखावे के लिए
बाकी समय लोक जद्दोजहद करता है
और तन्त्र अय्याशियों में लीन रहता है
अब बस यात्रियों को ही ले लीजिये
जो कंडक्टरों और ड्राईवरों की मनमानी में
अभिशप्त होते हैं पूरे का पूरा किराया चुका कर खटारा बसों में
पसीने से लथपथ हो समय-कुसमय चलने के लिए
जबकि यह जानने के बावजूद कि
भूलकर भी नहीं करता कोई माननीय
आज के समय में बस से चलने की भूल
उनके नाम बिलावजह आरक्षित कर दी जाती है एक पूरी सीट
क्यों न माननीयों के लिए जरूरी कर दिया जाय कि
वे भी अपनी कुछ यात्राएं करें आम लोगों की तरह ही
टिकट कटाएँ अपनी जेब से
बस भरी होने पर खड़े होकर यात्रा करें
ताकें आम लोगों की तरह ही
कि कौन सी सीट खाली होने वाली है अगले मुकाम पर
और फिर उस पर बैठने की जुगत करें
बकाया रुपया मांगने पर कंडक्टर खुदरा न होने का बहाना बना कर
डकार जाए बाकी सारा रुपया
मैं मनाता हूँ
कि माननीय की इस बस यात्रा में बस एकाध बार पंक्चर जरुर हो
और घुर्र घुर्र कर के रास्ते में दो चार बार रुके जरुर
फिर धकेलना पड़े बस को तभी चले वह आगे
यात्रा करते हुए घिर आये रात और बस के सामने के बल्ब जले ही ना
माननीय को खाने पड़ें हिचकोले औरों की तरह ही
और उन्हें पता चले कि जो सड़क
उनके परिजनों ने सांसद निधि के कोटे से ठेके पर बनवाई थी
उसका नामो निशान ही नहीं कहीं अब
कि यह तो बस के बस की ही बात है
कह लीजिए बस का ही करिश्मा है
जो गड्ढों को भी अपना रास्ता बनाते हुए चलने का दु:साहस कर पा
रही है
एक कवि होने के नाते
अपने तमाम तकलीफदेह बस यात्राओं के अनुभव के आधार पर
अपनी जनता के पक्ष में लोकतन्त्र के भरोसे के लिए
इस तरह सोचने का जोखिम उठाता हूँ
यह जानते हुए भी
कि माननीयों के बारे में ऐसा सोचना भी
ताजिकिराते हिन्द की किसी न किसी दफ़ा के अंतर्गत
संगीन जुर्म की श्रेणी में जरूर आता होगा
चोरिका
माँ बताती थी हमें अक्सर यह बात कि
प्यास को महसूसने वाले ही
जानते है प्यास की महत्ता को
भूख का दंश भुगतने वाले ही
पहचानते हैं अनाज के मर्म को
बाकी तो महज लफ्फाजी करते हैं
माँ भूख-प्यास के सरगम से वाकिफ थी भलीभांति
इसलिए उसने नखलिस्तान की दुर्गम लय पर गाना सीखा था
आज भी वह शीशे के टुकड़े पर सहजता से नाचती दिख जाती थी
इस बात की परवाह किये बिना कि
लहुलुहान हो सकती है वह किसी भी क्षण
एक गृहिणी थी माँ
और इसी नाते कहा जा सकता है यह कि
उसकी अपनी कोई कमाई भी नहीं थी
दिन-रात उसके खटने को
श्रम की फेहरिस्त से सदियों पहले ही गायब किया जा चुका था
जैसे गौरैया ने बनाया अपना खोंता
और एक भी तिनका कम नहीं पड़ा कहीं
जैसे मधुमक्खियों के लिए मकरन्द
और फूलों की महक और बढ़ गयी
जैसे धूप ने पिया चुल्लू भर-भर कर पानी पूरे दिन
फिर भी धीमा नहीं पड़ा नदियों का प्रवाह
वैसे ही माँ ने चोरिका बचाया
और कहीं भी कुछ कम नहीं पड़ा
माँ गृहिणी थी
फिर भी आपद-विपद में जब-जब पड़े कमासुत पिता
तो मजबूती से साथ खड़ी नजर आयीं माँ ही हमेशा
जब भी गाढ़ा वक्त आया
काम आया माँ का चोरिका
घर ने राहत की साँसे लीं भरपूर
हमारी जिंदगी का रंग थोड़ा और गाढ़ा हुआ
मिट्टी की उर्वरता पर
हमारा भरोसा थोड़ा और पुख्ता हुआ
पड़ोसियों की सख्त जरूरतों के समय
फुहारों की तरह दिखा चोरिका
दरवाजे से कोई भूखा वापस नहीं लौटा कभी
मोहल्ले भर की बेटियों के लिए
सौगातें ले कर आया यही
फिजूलखर्ची से जद्दोजहद की महक थी इसमें
अपनी जरूरतें कमतर करने की सनक थी इसमें
औरों को भी खुशहाल देखने की बनक थी इसमें
कमाई का तनिक भी अहम नहीं था
फिर भी श्रम था यह
चोरी का रंच मात्र भी आशय नहीं था कहीं इसमें
फिर भी यह चोरिका था
जिसे माँ ने बड़े जतन से बचाया था
खस्ताहाल दिनों के लिए
मोछू नेटुआ
हरखम दरखम गोने नाझा मारे फू
परेछेत केलस कोता जेनेमेजा घाते छू
अलकम बलकम बिल कतेरा नारे कू
मेरेस नाते घोर कराते छाड़े छू
अबूझ भाषा के इस
सांप पकड़ने वाले मऩ्त्र को बुदबुदाने के बाद
एक रसम जैसे वह किरिया खाता था
माई किरिया, बाप किरिया, बेटा किरिया
बेटी किरिया, दामाद किरिया
गाँव किरिया, सीवान किरिया
डीह किरिया, डिहवार किरिया…
और तब एक सधे अन्दाज में डण्डा नचाते
घुस जाता वह घर में सांप पकड़ने
सांप से बाहर निकलने की गुहार करते हुए
मान-मनुहार करते हुए
कि निकलि आओ जहां भी छुपे बैठे हो वहां से
निकलि आओ कोने से अंतरे से
धरनि से, सरदर से, कोरो से, मलिकथम से
निकलि आओ पटनी से, डेहर से, दियरखा से
खपरा से, नरिया से
बिल से, बिलवार से
निकलि आओ जहां कहीं छुपे हुए हो
वहीं से जल्दी से जल्दी
भरे गलमुच्छों वाले मोछू नेटुआ के करतब के स्थापत्य को
हम आश्चर्य के शिल्प की तरह निहारते
कुछ ही देर में हम तब वाकई
अपने पास ही मोछू नेटुआ के डण्डा फटकारने
और सांप के फुंफकार की आवाज साथ-साथ सुनते
और तब मोछू के हथेलियों के कसाव में
अपने फन को और चौड़ा करने की नाकाम कोशिश करते
आंखें लाल-पीला करते विवश पडे सांप को पाते
जिसे ला कर रख देता वह सुरक्षित अपनी झॅपोली में
अपने वादे के मुताबिक जंगल में छोड़ने के लिए
उसी की जुबान से तमाम बातें
तभी जाने हमने साँपों के बारे में
मसलन यह कि गेहॅुवन का डॅंसा नहीं बच पाता कभी
कि अजगर तो लील लेता है हिरन तक को समूचा
कि नाग के जहर का कोई
तोड़ नहीं खोज पाया अभी तक आदमी
कि अपनी पर आ जाय तो
करैत भी कम खतरनाक नहीं होता
कि एक दोमॅुहा सांप भी होता है थुत्थुर
जो छह महीने एक तरफ से सांस लेता है
तो छह महीने दूसरी तरफ से
भारी भरकम विशेषणों से संवार कर
जितना बतलाता वह किसी सांप के बारे में
उतना ही डरावना नजर आता तब वह सांप हमें
डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों से बाहर निकल कर
सरकारी दस्तावेजों से इतर
ठेठ अपनी जिन्दगी जीते हुए
गावों की गलियों की खाक छानते हुए
जोर-जोर से आवाज लगाता मोछू नेटुआ
कोवे जैसा महक रहा है मालिक इस घर में
कोवे की इस महक को सूंघ पाता केवल मोछू नेटुआ
जिसके बारे में वह इतराते हुए बतलाता
कि जिसे साध पाते हैं
कठिनाइयों को झेलने वाले
केवल कुछ लोग ही इस दुनिया में
वही सूंघ पाते हैं कोवे की इस गंध को
कोवे की इस तथाकथित महक से घबराये घर वाले
कुछ कदम आगे बढ़ गये
मोछू नेटुआ को फौरन बुलाते फरमाते
मोछू नेटुआ तब किसी ज्योतिषी के अन्दाज में बतलाता
बहुत खतरनाक है बड़ा जहरीला
बाबूजी जान की बाजी लगा कर निकालना पड़ेगा
सौ रुपये और एक धोती से कम न लूँगा
मोल तोल के बाद आखिर मामला फिर
बीस कम सौ पर पट जाता
मोछू नेटुआ तब फौरन अपने काम पर जुट जाता
अपने सिर पर पगड़ी बांधते
कान में जड़ी खोसते
डण्डा फटकारते… अबूझ सा मन्त्र पढ़ते
तमाम संबंधों की कसमें खाते
वह घुस जाता तब किसी एक कमरे में
और निकाल लाता सचमुच
अपने हाथों की पकड़ में सांप
अक्सर जो उसके मुताबिक
पुराना और बहुत जहरीला हुआ करता
तब सहज ही यकीन कर लिया करते थे लोग
मोछू नेटुआ की बातों और उसके इस करतब पर
घर के लोगों को पड़ती थी उस रात चैन की नींद
और ठीक उसी दिन
मोछू नेटुआ का घर भी जगमगाता
बहुत दिनों के बाद
उसका पूरा घर जी भर खाता-पीता-सोता
ठमक जाता ठिठक जाता अक्सर भीड़ देख कर वह
फिर घर की ओर जा कर बतलाता विशेषज्ञ मुद्रा में
भीड़ से बिदक कर
पास-पड़ोस में हवा खाने कहीं निकल गये नागराज
और इस तरह बढ़ जाता वह कन्नी काट कर आगे
किसी ऐसे घर की तलाष में
जहां कम से कम लोगों के बीच
अपना हुनर दिखा कर
कोई सांप पकड़ सके वह
वैसे कुछ जानकार लोग यह बतलाते
कि मोछू नेटुआ के कमाई-धमाई का जरिया है यह
और जहां तक सांप की बात है
खोसे रहता है उसे वह अपनी कमर
या धोती के पोछिटे में पहले से ही
कुछ लोग सांप पकड़ने के इस उपक्रम को
जांचने-परखने के लिए
घर के जंगलों-रोशनदानों से
ताक-झांक करने की तमाम कोशिशें करते
और फिर अपने अपने अनुभव सुनाते बतलाते
फिर भी रहस्य का एक पर्दा तना रहता
पूरी खामोशी के साथ अपनी जगह
जस का तस
कुछ लोगों का यह भी कहना था
कि सांप के बहाने घरों में घुस कर
सामानों की थाह लेता फिरता है मोछू
और फिर रात-बिरात
अपने साथियों समेत सेंध मार कर
चुरा ले जाता है सारा मालो-असबाब
एक बार जब हमने पूछा मोछू से
उसके गाम-धाम के बारे में
तब उसने बताया कि हम खानाबदोष हैं बाबूजी
पीढ़ियों से हमारे पास नहीं कोई घर
नहीं एक भी धुर जगह जमीन कहीं कोई
जहां रूक गये वहीं बसेरा
जब जग गये तभी सबेरा
हमीं हैं असली रमता जोगी बहता पानी
कभी हमारे देश् को गुलाम बनाने वाल फिरंगियों ने
हम जैसी तमाम घुमन्तू जातियों को
घोषित कर दिया था अपराधी
और तब से यह लेबेल अपने चेहरे पर लगाये
मरते हुए जीने की कोशिशों में
लगातार लगे हुए हैं हम
एक समय तो आलम यह था कि
चाहें जहां चोरी-डकैती पड़े जिला-जवार में
हम ही पकड़ लिये जाते पूरे कुनबे समेत
तब पिछउॅड़ चढा कर बांध दिया जाता था हमें खंभे में
और बेरहमी से तब तक इतना मारा पीटा जाता
जब तक बेसुध न हो जाते
बेहोश न पड़ जाते हम मार से
मालिक सही बताऊं आपको
मुझे तो लगता है कि
आज के समय में सबसे बड़ा अपराध है गरीबी
और तुलसी बाबा भी बहुत पहिलवे
केतना सही कह गये हैं मालिक
समरथ को नहीं दोष गोसाईं
और आज अपने जिस लोकतन्त्र पर
गर्व करते हम नहीं अघाते
उसी की पहरूआ अपनी यह सरकार भी
राई-रत्ती कम नहीं फिरंगियों से
बातचीत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए
जब यह कहा मैने मोछू से
तो लगा कि जैसे
उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो मैने
तब बेसाख्ता बोल पड़ा वह
हाँ मालिक यह ससुरी सरकार तो
कभी हमें आतंकवादी बताती है
तो कभी घोषित कर देती है नक्सलवादी
पता नहीं कहाँ से
ढूढ लाती है एक से एक शब्द
अपनी भाषा में
हमें तो सूझी नहीं रहा कुछ
अब आपे बताइए मालिक
कि कैसे धोये हम
अपने माथे पर जबरिया लादा गया
बेमतलब का कलंक
दिक्कत की बात तो यह कि
कभी कोई समझ ही नहीं पाया हमें
अब देखिए न आपे हमारी नियति
कि पुराने जमाने का अछूत मैं
इस जमाने का अपराधी हो गया हूँ
होता रहा हमारे साथ
हमेशा बदतर सलूक
उठती रही बराबर मन में
एक अजीब सी हूक
छेड़ने के अन्दाज में
अपनी बात रखते हुए कहा मैने
हकीकत में अपराधी तो हैं
लाखों-करोड़
बिना किसी आवाज के घोट जाने वाले
हमारे नेता और अधिकारी
तमाम अपराधों के बावजूद बने रहते हैं
नेता और अधिकारी ही जो जीवनपर्यन्त
मेरा इतना कहना था कि
तिलमिलाते हुए बोल पड़ा मोछू नेटुआ
मुहँ देखी बात नहीं
आप बिल्कुल सांचे कह रहे हैं मालिक
कभी इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखायी पड़ता
लाज-शरम तो जैसे घोल कर पी गये हैं ये
दरअसल असली विषधर हैं ये समाज के
अमिट कलंक हैं ये हमारे आज के
जिन्हें बाहर नहीं निकाल पा रहा कोई तन्त्र-मन्त्र
इन मायावियों के सामने
सारे हरवा-हथियार पड़ते जा रहे हैं बेअसर
तन्त्र-मन्त्र पड़ते जा रहे हैं बांझ
और सरकार भी तो इन्हीं के पास गिरवी होती है
अब तो खोजना ही पड़ेगा हमीं लोगों को
इनसे निपटने के लिए
जमाने के मुताबिक कोई नया ब्रह्मास्त्र
एक बात बताये मालिक
अच्छा जाने दीजिए छोड़िए
यह कह कर अचानक
चुप्पी के समन्दर में डूब गया मोछू नेटुआ
मैंने फिर बहुत कुरेदा उसे
तब हमारे बीच पसरी हुई खामोशी को
चीरते हुए बोल पड़ा वह
दरअसल अपने समय की हॅसमुख दुनिया का ही
एक उदास चेहरा हैं हम
अपनी उदासी के लिए जैसे हमेशा से अभिशप्त
अब देखिए ना कि
तरह तरह की तरकीबों से
नहीं जुटा पा रहे हम आज भी
तमाम लोगों की ही तरह दूसरे टैम का भोजन
कपड़ा लत्ता भी मुश्किलें से चढ़ पाता है तन पर
हमारे बाल-बच्चे जान नहीं पाये कि
जीवन का कोई अनुभव होता है बचपन
अपनी फांकाकशी में भटकते-फिरते हम
सोच ही नहीं पाते कोई फितूर
और होते रहते हैं लगातार दर-बदर
घूमते फिरते हैं रोज इधर उधर
यही देख समझ कर आखिर एक दिन
अपना कांवर अपनी झॅंपोली फेक-फांक कर
भाग गये हमारे दोनो बेटुए
बाहर कहीं मेहनत मजूरी करने
बाबूजी अब तो दोनो हो गये एकदमे से बहरवांसू
मोछू नेटुआ फख्र से बतलाते
चलो अच्छे से गुजर-बसर तो हो जाती है न उनकी
ठीक ही तो किया उन दोनो ने
दर-दर भटकना तो नहीं पड़ेगा उन्हें हमारी तरह
दो जून की रोटी जुटाने के लिए
और हम बूढ़ा-बूढ़ी की जिनगी ही कितनी बची है
कट ही जायेगी जैसे-तैसे
फिर मोछू की आँखों में एक चमक दिखायी पड़ी
बोल उठा वह अपने पर गर्व करते हुए जैसे
तमाम तंगहाली के बावजूद भी
मालिक हमरा एक पक्का उसूल है
आज भी जिस सांप को पकड़ते हैं हम अपने हाथों
बुलाते-बझाते हैं जिन्हें पुचकार कर
अपने सगे-संबंधियों की किरिया खा-खा कर
उन्हें छोड़ आते हैं दूर जंगल में
अपने वादे के मुताबिक
कि मालिक एक जगह कहीं सुना हमने कि
खतम होते जा रहे हैं बड़ी तेजी से सांप भी
अब तो नहीं रहे वे सांप
ना ही रहे वो सॅपधरवे
प्रश्न की शक्ल में पूछे गये
जिओ-खाओ घूमो-फिरो आजाद हो कर
जंगल की इस दुनिया में नागराजा
किसी को डॅंसने-मारने से बहुत बेहतर है
जिनगी जीने का यह सलीका
उसकी बात को बीच में ही काटते हुए बोल पड़ा मैं
जानते हो अब तो
एक मशीन ईजाद हो गयी है सांप पकड़ने की
जो बड़ी आसानी से खोज लेती है
सांपों को दूरदराज से ही
हाँ मालिक हमने भी सुना है कहीं कि
साँपों को पकड़ कर
बड़ी बेरहमी से निकाल लिया जाता है उसका जहर
सुना है कि उस जहर से बनायी जाती हैं
एक से बढ़ कर एक महॅगी दवाइयां
फिर वे अपने कहर के जहर से मार डालते हैं सांप को
महज उसकी खाल के लिए
सुना है जिससे तैयार होते हैं कारखानों में
महॅगे-महॅगे कोट
महॅगे-महॅगे बैग
बाजारों में बेचने के लिए
जैसे खूंटों से एक-एक कर गायब होते गये बैल
गायों से खाली होते गये दुआर
अपनी सख्त कवच के बावजूद
कछुए नहीं बचा पाये खुद को
और हमारे देखते-देखते गायब होते गये
दूर तक नजर रखने वाले गिद्ध
ठीक उसी तरीके से गायब होते जा रहे हैं सांप
दुनिया जहान से एक-एक कर
मेरी इस बात को पूरा करते हुए बोल पड़ा वह
देखिए ना अब तो हालत यह है कि
किसी गाँव घर से
एक अरसे से
नहीं हो रही कोई बुलाहट
और मेरी परेशानी है कि
बढ़ती ही जा रही है दिन-ब-दिन
और अब वे जंगल भी तो नहीं रहे अब
जिसमे बिना किसी डर भय के आजादी से
विचरते फिरते थे सांप अपने संगी साथियों के साथ
और जहां हम भी अपने वादे के मुताबिक
छोड़ आते थे पकड़े गये सांपोंप को
खांसते-खखारते
देह का ही अब अंग बन गये अपने दर्द से कराहते
बूढ़े हो चले मोछू नेटुआ
अब पूछते फिरते हैं एक ही सवाल
पागलपन की हद तक जा कर
गायब करते-करते सारे जीवों को वनस्पतियों को
क्या कायम रख पायेगा आदमी
धरती के अपने इस ठिकाने पर खुद को सही सलामत
कहीं से नहीं मिलता उसे कोई जवाब
कोई जहमत नहीं उठाता अब
इस मुददे पर कुछ भी सोचने की विचारने की
सब जगह दिखायी पड़ता है उसे
मरघट सा सन्नाटा
पीढ़ियों से धन्धा करते आये मोछू नेटुआ
चिन्तित है अब इस बात पर
कि बेअसर पड़ता जा रहा है सांप का जहर
और लगातार जहरीला हो़ता जा रहा है आदमी
मोछू खुद भी तस्दीक करते हैं इस बात की
कि सापों को तो आसानी से चीन्ह लेते थे हम
कि कौन गेहुवन है कौन करैत
लेकिन आदमी को आदमी की भीड़ से बीन कर
जहरीले तौर पर अलगा पाना
एकदमे से असंभव है मालिक
और सबसे दिक्कत तलब यह कि
अभी तक के सारे तन्त्र-मन्त्रों को धता बताता
कांइयां किस्म का आदमी ऊपर से कुछ और
अन्दर से कुछ और हुआ जा रहा है
अब मोछू किसका खाये किसका गाये
का ले के परदेस जाये
बदलती हुई परिस्थितियों में
उसकी समस्या अब यह है कि
लगातार जहरीली होती जा रही इस दुनिया में से
कुछ बेजहर लोगों को वह कैसे सामने लाये
कैसे इन्हें बचा कर सुरक्षित रखे छोड़े कहीं
किस तरह अपना वचन निभाये
कैसे वह अपनी चाहत का कुछ रंग जुटा कर
अपने समय की
एक सुखद तस्वीर बनाये.
विषम संख्याएँ
जिन्दगी की हरी-भरी जमीन पर
अपनी संरचना में भारी-भरकम
दिखायी पड़ने वाली सम संख्याएँ
किसी छोटी संख्या से ही
विभाजित हो जाती हैं प्रायः
वे बचा नहीं पातीं
शेष जैसा कुछ भी
विषम चेहरे-मोहरे वाली कुछ संख्याएँ
विभाजित करने की तमाम तरकीबों के बावजूद
बचा लेती हैं हमेशा
कुछ न कुछ शेष
वैसे इस कुछ न कुछ बचा लेने वाली संख्या को
समूल विभाजित करने के लिए
ठीक उसी शक्ल-सूरत
और वजन-वजूद वाली संख्या
ढूँढ़ लाता है कहीं से गणित
परन्तु अपने जैसे लोगों से न उलझ कर
विषम मिजाज वाली संख्याएँ
शब्दों और अंकों के इस संसार में
बचा लेती हैं
शेष की शक्ल में संभावनाएँ
अन्धकार के वर्चस्व से लड़ते-भिड़ते
बचा लेती हैं विषम-संख्याएँ
आँख भर नींद
और सुबह जैसी उम्मीद।
भभकना
रोज की तरह ही उस दिन भी
सधे हाथों ने जलायी थी लालटेन
लेकिन पता नहीं कहाँ
रह गयी थोड़ी सी चूक
कि भभक उठी लालटेन
हो सकता है कि
किरासिन तेल से
लबालब भर गयी हो लालटेन की टंकी
हो सकता है कि
बत्ती जलाने के बाद
शीशा चढ़ाने में थोड़ी देर हो गयी हो
हो सकता है कि
एक अरसे से लापरवाही बरतने के कारण
खजाने में जम गयी हो
ढेर सारी मैल
यह भी संभव है कि
टंगना उठाते समय
हाथों को सूझी हो थोड़ी-सी चुहल
और आपे से बाहर होकर
भभक उठी हो लालटेन
हो सकता है कि
जब सही-सलामत जल गयी हो लालटेन
तो अन्धेरे को रोशनी से सींचने की
हमारी अकुताहट को ही
बरदाश्त न कर पायी हो
नाजुक-सी लालटेन
और घटित हो गया
भभकने का उपक्रम
दरअसल लालटेन का भभकना
जलने और बुझने के बीच की वह प्रक्रिया है
जिसके लिए कुछ भाषाओं ने तो
शब्द तक नहीं गढ़े
फिर भी घटित हो गयी वह प्रक्रिया
जो शब्दों की मोहताज नहीं होती कभी
जो गढ़ लेती है खुद ही अपनी भाषा
जो ईजाद कर लेती है
खुद ही अपनी परिभाषा
यह वह छटपटाहट थी
जो अनुष्ठान की तरह नहीं
बल्कि एक वाकये की तरह घटित हुई
अन्धेरे के खिलाफ बिगुल बजाती हुई
रोशनी को सही रास्ते पर
चलने के लिए सचेत करती हुई
और जब लोगों ने यह मान लिया
कि भभक कर आखिरकार
बुझ ही जायेगी लालटेन
अनुमानों को गलत साबित करती हुई
फैल गयी आग
समूचे लालटेन में
चनक गया शीशा
कई हिस्सों में
वैसे विशेषज्ञ यह उपाय बताते हैं
कि भभकती लालटेन को बुझा देना ही
श्रेयस्कर होता है
और भी तमाम उपाय
किये जाते हैं इस दुनिया में
भभकना रोकने खातिर
लेकिन तमाम सावधानियों के बाद भी
किसी उपेक्षा
या किसी असावधानी से
भभक उठती है लालटेन
अपनी बोली में
अपना रोष दर्ज कराने के लिए।
ओलार
बहुत देर से जुटा है इक्कावान
इक्के पर बैठे अपने सवारियों को व्यवस्थित करने की कोशिश में
चार यात्री भारी-भरकम काया-माया वाले आगे
खुद साईस की तरह विराजमान
अपनी गद्दी पर इक्कावान
कुछ दुबले-पतले और दो-तीन मोटे-ताजे
बीच में अड़स कर बैठे कुछ बच्चे और महिलाएँ
इक्के की छाजन का ढांचा बनाने वाले लोहे के छड़ों
और इक्के का वितान रचने वाले पटरों को
अपनी मजबूत पकड़ में जकड़े हुए सब
लगातार चाबुक बरसा रहा है इक्कावान घोड़े पर
पर घोड़ा है कि अड़ा हुआ अपनी जिद पर
एक भी कदम आगे न बढ़ने की कसम खाये हुए
जबकि नधा है वह गाड़ी में जुतने के लिए ही
कुछ न कुछ जोड़-घटाव करते हुए
जैसे अपने-आप से कहता है इक्कावान
लगता है ओलार हो गयी है गाड़ी
और जब भी ऐसा होता है
इक्का पलटने का खतरा होता है
आगे का कुछ पीछे
और पीछे का कुछ आगे कर रहा है इक्कावान
पर संतुलन ही नहीं बन पा रहा किसी भी तरह इक्के का
कोई सूरत नजर नहीं आ रही एक भी डग
आगे बढ़ पाने की
यह कैसा समय है भाई
कि मोटे और मोटाते-अघाते जा रहे हैं
कमजोर पतराते जा रहे हैं दिन-ब-दिन
कुछ बैठे हुए हैं पालथी मार कर
और तमाम के कंधे पीरा रहे हैं
कुछ डूबे हैं वैभव-विलास में आकंठ
जबकि तमाम लोगों के सूखते जा रहे हैं कंठ
एक चक्का सूरज की तरह
दूसरा चक्का फिरकी जइसा
ऐसे कैसे गाड़ी चल पायेगी भइया
इसी तरह सब होता रहा अगर
तब तो दुनिया ही ओलार हो जायेगी एक दिन
जिसका मर्म बूझते-समझते हैं
इक्कावान और घोड़े ही।
माँ का घर
मैं नहीं जानता अपनी माँ की माँ का नाम
बहुत दिनों बाद जान पाया मैं यह राज
कि जिस घर में हम रहते हैं
वह दरअसल ससुराल है माँ की
जिसे अब वह अपना घर मानती है
फिर माँ का अपना घर कहाँ है
खोजबीन करने पर यह पता चला
कि मामा के जिस घर में
गर्मियों की छुटि्टयों में
करते रहते थे हम धमाचौकड़ी
वही माँ का घर हुआ करता था कभी
जहाँ और लड़कियों की तरह ही वह भी
अपने बचपन में सहज ही खेलती थी कितकित
और गिटि्टयों का खेल
जिस घर में रहते हुए ही
अक्षरों और शब्दों से परिचित हुई थी वह पहले-पहल
वही घर अब उसकी नैहर में
तब्दील हो चुका है अब
अपना जवाब खोजता हुआ मेरा सवाल
उसी मुकाम पर खड़ा था
जहाँ वह पहले था
माँ का घर एक पहेली था मेरे लिए अब भी
जब यह बताया गया कि
हमारा घर और हमारे मामा का घर
दोनो ही माँ का घर है
जबकि हमारा घर माँ की ससुराल
और मामा का घर माँ का नैहर हुआ करता था
हमारे दादा ने रटा रखा था हमें
पाँच सात पीढी तक के
उन पिता के पिताओं के नाम
जिनकी अब न तो कोई सूरत गढ़ पाता हूँ
न ही उनकी छोड़ी गयी किसी विरासत पर
किसी अहमक की तरह गर्व ही कर पाता हूँ
लेकिन किसी ने भी क्यों नहीं समझी यह जरूरत
कि कुछ इस तरह के ब्यौरे भी कहीं पर हों
जिनमें दर्ज किये जाय अब तक गायब रह गये
माताओं और माताओं के माताओं के नाम
हमने खंगाला जब कुछ अभिलेखों को
इस सिलसिले में
तो वे भी दकियानूसी नजर आये
हमारे खेतों की खसरा खतौनी
हमारे बाग बगीचे
हमारे घर दुआर
यहाँ तक कि हमारे राशन कार्डों तक पर
हर जगह दर्ज मिला
पिता और उनके पिता और उनके पिता के नाम
गया बनारस इलाहाबाद के पण्डों की पुरानी पोथियाँ भी
असहाय दिखायी पड़ी
इस मसले पर
माँ और उनकी माँ और उनकी माताओं के नाम पर
हर जगह दिखायी पड़ी
एक अजीब तरह की चुप्पी
घूंघट में लगातार अपना चेहरा छुपाये हुए
तमाम संसदों के रिकार्ड पलटने पर उजागर हुआ यह सच
कि माँ के घर के मुददे पर
बहस नहीं हुई कभी कोई संसद में
दिलचस्प बात यह कि
बेमतलब की बातों पर अक्सर हंगामा मचाने वाले सांसदों ने
एक भी दिन संसद में चूं तक नहीं की
इस अहम बात को ले कर
और बुद्विजीवी समझे जाने वाले सांसद
पता नहीं किस भय से चुप्पी साध गये
इस मुद्दे पर
और अपने आज में खोजना शुरू किया जब हमने माँ को
तब भी तकरीबन पहले जैसी दिक्कतें ही पेश आयीं
घर की मिल्कियत का कागज पिता के नाम
बैंकों के पासबुक हमारे या हमारे भाइयों या पिता के नाम
घर के बाहर टंगे हुए नामपट्ट पर भी अंकित दिखे
हम या हमारे पिता ही
हर जगह साधिकार खड़े दिखे
कहीं पर हम
या फिर कहीं पर हमारे भाई
या फिर कहीं पर हमारे पिता ही
जब हमने अपनी तालीमी सनदों पर गौर किया
जब हमने गौर किया अपने पते पर आने वाली चिटि्ठयों
तमाम तरह के निमन्त्रण पत्रों
जैसी हर जगहों पर खड़े दिखायी पड़े
हम या हमारे पिता ही
अब भले ही यह जान कर आपको अटपटा लगे
लेकिन सोलहो आने सही है यह बात कि
मेरे गाँव में नहीं जानता कोई भी मेरी माँ को
पड़ोसी भी नहीं पहचान सकता माँ को
मेरे करीबी दोस्तों तक को नहीं पता
मेरी माँ का नाम
अचरज की बात यह कि
इतना सब तलाश करते हुए भी
जाने अंजाने हम भी बढे जा रहे थे
लगातार उन्हीं राहों पर
जिन्हें बड़ी मेहनत मशक्कत से संवारा था
हमारे पिता
हमारे पिता के पिता
हमारे पिता के पिता के पिताओं ने
एक लम्बे अरसे से
खुद जब मेरी शादी हुई
मेरी पत्नी का उपनाम न जाने कब
और न जाने किस तरह बदल गया मेरे उपनाम में
भनक तक नहीं लग पायी इसकी हमें
और कुछ समय बाद मैं भी
बुलाने लगा पत्नी को
अपने बच्चे की माँ के नाम से
जैसा कि सुनता आया था मैं पिता को
बाद में मेरे बच्चों के नाम में भी धीरे से जुड़ गया
मेरा ही उपनाम
अब कविता की ही कारीगरी देखिए
जो माँ के घर जैसे मुद्दे को
कितनी सफाई से टाल देना चाहती है
कभी पहचान के नाम पर
कभी शादी ब्याह के नाम पर
तो कभी विरासत के नाम पर
न जाने कहाँ सुना मैंने एक लोकगीत
जिसमें माँ बदल जाती है
कभी नदी की धारा में
कभी पेड़ की छाया में
कभी बारिश की बूँदों मे
कभी घर की नींव में होते हुए
माँ बदल जाती है फिर माली में
बड़े जतन से परवरिश करती हुई अपने पौधों की
फिर बन जाती है वह मिट्टी
जिसमें बेखौफ उगते अठखेलियाँ करते
दिख जाते हैं पौधे
पौधों में खोजो
तो दिख जाती है पत्तियों में
डालियों में फूलों में फलों में
फिर धीमे से पहुँच जाती हमारे सपनों में
धान रोपती बनिहारिने गा रहीं हैं
कि जिस तरह अपने बियराड़ से बिलग हो कर
धान का बेहन दूसरी धूल मिट्टी में गड़ कर
लहलहाने लगता है फूलने फलने लगता है
उसी तरह गुलजार कर देती हैं अपनी विस्थापित उपस्थिति से
किसी भी घर को महिलाएँ
खुद को मिटा कर
और जहाँ तक माँ के घर की बात है
मैं हरेक से पूछता फिर रहा हूँ
अब भी अपना यह सवाल
कोई कुछ बताता नहीं
सारी दिशाएँ चुप हैं
पता नहीं किस सोच में
जब यही सवाल पूछा हमने एक बार माँ से
तो बिना किसी लागलपेट के बताया उसने कि
जहाँ पर भी रहती है वह
वही बस जाता है उसका घर
वहीं बन जाती है उसकी दुनिया
यहाँ भी किसी उधेड़बुन में लगी हुई माँ नहीं
बस हमें वह घोसला दिख रहा था
जिसकी बनावट पर मुग्ध हो रहे थे हम सभी।
राग नींद
देखा मैंने
जब भी देखा
अपने इस शहर को
दौड़ते-भागते-जागते देखा
दिन-रात चलती मशीनें-खटर-पटर
दिन-रात खटते मजदूर-थके-मांदे
दिन-रात की शोर से बहरी हो गयी सड़क
दिन-रात चारो तरफ बस
भागमभाग-दौड़धूप
कहीं पर नींद का नामो-निशान नहीं
कहीं पर नींद की परछाई नहीं
कहीं पर लोरी गाती कोई माँ नहीं
कहीं पर कोई सपना नहीं
उफ् कितना भयावह है यह सब कुछ
हैलोजन-नियॉन लैम्पों की रंगी हुई रोशनी में
गुम होती लोगों की रातें हैं यहाँ
गुम होती रातों में खोती हुई नींद है यहाँ
गुम होती नींद में खोते हुए सपने हैं यहाँ
और यह आकाश-तारों की लड़ियों से सजा हुआ
दुग्ध-धवल आकाशगंगा में तना हुआ
खोता जा रहा है समूचा
मानवी चकाचौंध के बाहुपाश में
नींद की वजह से कभी कुम्भकर्ण की उपाधि से नवाजा गया मैं
अब खुद को पाता हूँ जागता आकर्ण
जब कभी पलक झपकती है
गाने लगता है मोबाइल- ‘राग कर्कश’ में,
जब कभी अलसाती हैं हमारी आखों
घर सन्नद्ध हो जाता है टी.वी. चैनल पर आने वाले
अपने प्रिय धारावाहिक को देखने के लिए
जब कभी आखों में झलकती है नींद की लालिमा
होने लगता है बेमतलब का हंगामा मेरे घर के सामने
और एक बार उचटी हुई नींद की लड़ी जोड़ने की
कोशिश में जब भी जुटता हूँ
रात बेतरह थक चुकी होती है
कि इसी समय
चौकाने वाली खबरों के साथ आ धमकता है अखबार
मित्रों-परिचितों-अपरिचितों की कॉलबेल बजने लगती है
सूरज आ जाता है अपने सात घोड़ों वाले रथ के साथ
बड़ी तेजी से-ठीक अपने समय पर
और मैं चल पड़ता हूँ
अपने काम पर-दौड़ते-भागते
अपने जगने के समय में कोई कटौती नहीं कर पाता
कविताई करने में भी नहीं करता समझौता
बाजार का अपना हिस्सा है हमारे जागृति-समय में
घर-बार, दोस्तों-मित्रों का अलग दावा है हमारे समय में
रोजी-रोजगार का कारोबारी समय तो तय ही है
कोई भी कटौती जब करनी होती है
कर लेता हूँ अपनी नींद वाले समय से
और अब हालत यह है कि
सब कुछ होते हुए मेरे पास नहीं है मुट्ठी भर नींद
वह लम्हा नहीं मिल पाता
जब ले सकूं सुकून भरी नींद
अपने सितार पर मैं ‘राग नींद’ बजाना चाहता हूँ।
लेकिन अजीब तरीके से बजने लगता है कभी- ‘राग जागृति’
तो कभी बजने लगता है – ‘राग भागमभाग’
तो कभी बजने लगता है – ‘राग चिन्ता’
और इस तरह के कई और राग
जिनके नाम तक नहीं सुने संगीत के मशहूर उस्तादों ने भी
किस्सागो बताते हैं
‘राग नींद’ बजाने वाले बचे हैं कुछ लोग
अपनी फाकामस्ती के बावजूद
वे सड़क किनारे धूल वाले बिस्तर पर
आसन साध कर जुट जाते हैं रियाज में
गाने लगते हैं ‘राग खर्राटा’
इस ‘राग नींद’ को साध लेते हैं रिक्शावाले सहज ही
अपने रिक्शे पर पड़े-पड़े-मुड़ी-गोड़ समेटे
या फिर उन मजूरों के आखों बजता दिख जायेगा ‘राग नींद’
जो पसीने के अपने कवच-कुण्डल के साथ
दिख जाते हैं मेहनत के रंगमंच पर
‘राग नींद’ बजाते हुए पहुँच जाते हैं वे मजूर
‘नींद-उत्सव’ के राग में
सुधी स्रोता भी भांप नहीं पाते
सड़कों के डिवाइडरों, रेलवे प्लेटफार्मों
चौराहे के पार्कों और चबूतरों तक को
बदल डालते हैं वे मंच में
तेज रफ्तार वाहनों की कानफोड़ू आवाजें
महफिलों में छोड़े जाने वाले पटाखे
मौसम की उमस
या आस-पास भिनभिनाते-काटते माखी-मच्छर
नहीं तोड़ पाते उनका ध्यान
‘नींद-उत्सव’ को खास रंग देने में
जुटे हैं वे तल्लीनता से
वातानुकूलित कमरों
गद्देदार बिस्तरों
सुमधुर संगीत और
तरह-तरह की सुख-सुविधाओं के बीच भी
उचट जाती है नींद
बारम्बार
मैं नींद को धमकाता हूँ
नींद को खरीदना चाहता हूँ बाजार से
किसी भी कीमत वाले रिचार्ज कूपन का भुगतान कर
पाना चाहता हूँ ‘स्लीपिंग वैल्यू’
हो सके तो किसी से उधार ही लेना चाहता हूँ नींद
लेकिन किसी भी जुगत से
नहीं मिल पा रही नींद
नींद की कई तरह की गोलियों
नींद के आजमाए हुए जोग
नींद के सिद्ध तन्त्र-मन्त्र
नींद की तमाम कसरतों-कवायदों के बावजूद
कहीं भी पता नहीं नींद का
नींद की अहेर में जुटा हुआ मैं
बार-बार क्यों रह जा रहा असफल
नहीं लांघ पा रहा नींद की देहरी
बचपन के गाँव में एक हकीमजी बताया करते थे
और आज का हमारा चिकित्साशास्त्र भी तसदीक करता है इस बात की
अच्छी सेहत के लिए जरूरी होती है पुरकश नींद
सफल होने के लिए जरूरी होते हैं सपने
लेकिन अब तो यहाँ न नींद है, न ही सपने
हमारे शहर को लग गयी है किसी की नजर
कोई वैद्य-हकीम आकर बचा ले हमारे शहर को
किसी भी कीमत के एवज में
नींद से आदमी के पुरातन रिश्ते में
किस वजह से पड़ती जा रही है दरार
आदमी-आदमी के बीच
अब क्यों नहीं रहा वह ऐतबार
जब कोई सफर करते हम
बगलगीर से बेतक्कलुफी से बता कर
आराम से सो जाते थे
‘भाइर्स्साब …….. इलाहाबाद जंक्शन आने पर
जरा जगा दीजिएगा हमको’
अँधेरे में डूबे बिना
चकाचौंध भरे उजाले से
अन्धेरे में आ कर
तत्काल ही नहीं समझा जा सकता
अन्धेरे को ठीक से
तब शर्तिया तौर पर चौंधिया जायेंगी आँखें
और नहीं दिखायी पड़ेगा
बिल्कुल नजदीक तक का
अन्धेरे में कुछ भी
अन्धेरे को देखने के लिए
पहले अन्धेरे के अनुकूल बनानी पड़ती हैं आँखें
अन्धेरे को समझने के लिए
होना पड़ता है पहले पूरी तरह अन्धेरे का
अन्धेरे को जानने के लिए
अन्धेरे के साथ ही पड़ता है जीना
अन्धेरे को नहीं देखा जा सकता
अन्धेरे में डूबे बिना
हाशिया
जब से आबाद हुई यह दुनिया
और लिखाई की शक्ल में
जब से होने लगी अक्षरों की बूँदाबादी
हाशिये की जमीन तैयार हुई
तभी से हमारे बीच
अब यह जानबूझ कर हुआ
या बस यूँ ही
छूट गयी जगह हाशिये वाली
कहा नहीं जा सकता इस बारे में
कुछ भी भरोसे से
लेकिन जिस तरह छूट जाता है हमसे
हमेशा कुछ-न-कुछ जाने अंजाने
जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
कुछ-न-कुछ किसी बहाने
पहले-पहल छूटा होगा हाशिया भी
दुनिया के पहले लेखक से
कुछ इसी तरह की
भूल गलती वाले प्रयोग से
अब ऐसा सायास हुआ हो या अनायास
हाशिये की वर्तनी के साथ ही
अक्षर पन्ना तभी लगा होगा इतना दीप्त
सुघड़ दिखा होगा अपनी पहलौठी में भी
उतना ही वह
जितना आज भी खिला-खिला दिखता है
अक्षरों वाली पंक्तियों के साथ
भरेपूरेपन में हाशियाँ
हाशिये में भरापूरापन
कुछ इसी तरह तो
बनता आया है छन्द जीवन का
कुछ इसी तरह तो
लयबद्व चलती आ रही है प्रकृति
न जाने कब से
कभी कभी होते हुए भी
हम नहीं होते उस जगह पर
कभी-कभी न होते हुए भी
हमारे होने की खुशबू से
तरबतर होती हैं जगहें
और अक्सर अपने ही समानान्तर
बनाते चलते हैं हम हाशिया
जिसे देख नहीं पाते
अपनी नजरों के झरोखे से
एक सभ्यता द्वारा छोड़े गये हाशिये को
किसी जमाने में सजा-संवार देती है
कोई दूसरी सभ्यता
लेकिन कहीं-कहीं तो
प्रतीक्षारत बैठे बदस्तूर आज भी
दिख जाते हैं हाशिये
किसी कूँची किसी रंग या फिर
किसी हाथ की उम्मीद में
कई परीक्षाओं में मैंने खुद पढा यह दिशा निर्देश
कृपया पर्याप्त हाशियाँ छोड़ कर ही लिखें
बहुत बाद में जान पाया था यह राज
कि हाशिये ही सुरक्षित रखते थे
हमारे प्राप्तांकों को
परीक्षकों के हाथों से छीनकर
कॉपियाँ जाँचे जाने के वक्त
और इस तरह हमारे कामयाब होने में
अहम भूमिका रहती आयी है हाशिये की
जैसे कि आज भी किसी न किसी रूप में
हुआ करती है
हमसे भूल गयी बातों
चूक गये विचारों
और छूट गये शब्दों को
सही समय पर सही जगह दिलाने में
अक्सर काम आता है
यह हाशियाँ आज भी
हाशिये को दरकिनार कर
दरअसल जब भी लिखे गये शब्द
भरी गयीं पंक्तियाँ
किसी हड़बड़ी में जब भी
बाइण्डिंग के बाद
लड़खड़ा गयी पन्ने की शक्ल
अपठनीय हो गयी
वाक्यों की सूरत।
पानी का रंग
गौर से देखा एक दिन
तो पाया कि
पानी का भी एक रंग हुआ करता है
अलग बात है यह कि
नहीं मिल पाया इस रंग को आज तक
कोई मुनासिब नाम
अपनी बेनामी में भी जैसे जी लेते हैं तमाम लोग
आँखों से ओझल रह कर भी अपने मौसम में
जैसे खिल उठते हैं तमाम फूल
गुमनाम रह कर भी
जैसे अपना वजूद बनाये रखते हैं तमाम जीव
पानी भी अपने समस्त तरल गुणों के साथ
बहता आ रहा है अलमस्त
निरन्तर इस दुनिया में
हरियाली की जोत जलाते हुए
जीवन की फुलवारी में लुकाछिपी खेलते हुए
अनोखा रंग है पानी का
सुख में सुख की तरह उल्लसित होते हुए
दुःख में दुःख के विषाद से गुजरते हुए
कहीं कोई अलगा नहीं पाता
पानी से रंग को
रंग से पानी को
कोई छननी छान नहीं पाती
कोई सूप फटक नहीं पाता
और अगर ओसाने की कोशिश की किसी ने
तो खुद ही भीग गया वह आपादमस्तक
क्योंकि पानी का अपना पक्का रंग हुआ करता है
इसलिए रंग छुड़ाने की सारी प्रविधियाँ भी
पड़ गयीं इसके सामने बेकार
किसी कारणवश
अगर जम कर बन गया बर्फ
या फिर किसी तपिश से उड़ गया
भाप बन कर हवा में
तब भी बदरंग नहीं पड़ा
बचा रहा हमेशा एक रंग
प्यास के संग-संग
अगर देखना हो पानी का रंग
तो चले जाओ
किसी बहती हुई नदी से बात करने
अगर पहचानना हो इसे
तो किसी मजदूर के पसीने में
पहचानने की कोशिश करो
तब भी अगर कामयाबी न मिल पाये
तो शरद की किसी अलसायी सुबह
पत्तियों से बात करती ओस की बूँदों को
ध्यान से सुनो
अगरचे बेनाम से इस पनीले रंग को
इसकी सारी रंगीनियत के साथ
बचाये रखना चाहते हो
तो बचा लो
अपनी आखों में थोड़ा-सा पानी
जहाँ से फूटते आये हैं
रंगों के तमाम सोते।
अपनी छत
जब बहुत छोटा था मैं
तब बनवाई गई यह छत
जैसे जैसे बड़ा हुआ मैं
बढा मेरा कद
नीची पड़ती गई छत
इतनी नीची कि
कमर झुका कर चलने पर भी
ठेक जाता कहीं न कहीं सिर
वैसे कहते हैं कि
अपनी धरती का आसमान भी
कभी बहुत करीब हुआ करता था
इतना करीब
कि धान कूटती एक स्त्री के मूसल का सिरा
लड़ गया तब के धरती के आसमान से
और एक गर्जन तर्जन के साथ
चला गया आसमान असीम ऊँचाइयों में
अपनी तमाम आकाशगंगाओं
तमाम सूरज चाँद सितारों
और पृथिवी को समेटे हुए
बदलते जमाने में
आदमी के मुताबिक तो होनी ही चाहिए उसकी छत
जिसके तले उठा कर चल सके वह अपना माथा
और सोच सके अपने आसमान के बारे में
एक छोटी सी बात
परिचय की गुनगुनी धूप में जब हम
बेरोकटोक उठने बैठने लगे
जब बेतकल्लुफी हमारी
इस कदर बढ़ गई
कि कभी एक दूसरे को परेशान करने में
किसी संकोच के शिकार नहीं हुए हम
कि जब हम तुम तुम हम
धीरे-धीरे उस पुरानी कहानी के पंछी बनते चले गए
जिसमें रच बस गई एक दूसरे की जान
तब भी हमने बहुत मुश्किल पाया
तुमसे कहते हुए
यह अपनी छोटी सी बात कि… …
यही तो मुश्किल थी अपनी
कि लंबी भूमिकाएँ बाँधने के बाद भी
नहीं कर पाते तब हम वह बात
जो मन में होती थी बहुत साफ-साफ
तमाम बातों तमाम मुलाकातों के बावजूद
हम नहीं कर पाए इजहार अपनी चाहतों का
न जाने कितनी बार जुबाँ पर आते आते
फिसल गए वे मीठे से अल्फाज
जिसे कहने के लिए आतुर थे हम न जाने कब से
न जाने कितने एसएमएस में
घुमा फिरा कर किसी और अंदाज में
लिखा हमने अपनी बात
जिसे नहीं पढ़ पाया कोई भी तुम्हारे सिवाय
लेकिन सीधे-सीधे कहने से
साफगोई से बचता रहा मैं
और गलत नहीं हूँ तो शायद तुम भी
सदियों से प्यार की बातें
कहने वाले कहलवाने वाले
सुनने वाले सुनाने वाले हम
आखिर क्यों हिचकते हैं प्यार जतलाने से
जबकि इधर-उधर की बातें करते
कहते-सुनते हम तनिक नहीं हिचकते
चुटकियों में कर डालते हैं डाँटने-फटकारने वाला
खुरदुरा सा काम
छंदों की रूढ़ि पर यकीन न करते हुए भी
संस्कारों से सतत लड़ते भिड़ते हुए भी
कहाँ मुक्त हो पाते हैं हम इनसे पूरी तरह से
कि मन में रची बसी
एक प्यारी सी बात को
साझा नहीं कर पा रहा मैं तुमसे
तुम नहीं कर पा रही हमसे
महज एक छोटी सी बात पर
तमाम किंतु-परंतु को सोचते
अपने आप के डर से लड़ते-भिड़ते
और अपने अब तक के
सारे संकोचों को दरकिनार करते
आखिर जब मैंने कह ही डाली तुमसे
अपने मन की बात
तो तुमने भी हामी भरी
कि बात के एक झंकार से
झंकृत हो गया तुम्हारा तन तुम्हारा मन
और पता चली यह बात भी कि
तुम भी कहना चाहती थी
बिल्कुल यही बात एक अरसे से मुझसे
सुनना चाहती थी बिल्कुल यही बात मुझसे
सारे किंतुओं-परंतुओं को दरकिनार कर
मच जाती है मन में एक अजीब सी हलचल
झूमने लगती है अपनी मस्ती में
देह वृक्ष की सारी टहनियाँ
थिरक उठता है पत्ता-पत्ता अपने सोच का
खयालों से भर जाता है
मेरा समूचा नभ-थल-जल
चाहतों का अंदाज जतलाते
परवाहों को अपनी बेपरवाही से झुठलाते
जब तुम्हारे स्वर का झरना बहता है उन्मुक्त
मेरे परिचय की धरती पर
कल-कल छल-छल
कुछ और
धीरे धीरे शामिल हो गई हो तुम
मेरी जिंदगी में कुछ इस तरह
कि मेरी जिंदगी कुछ और जिंदगी हो गई है
तुम्हारे हाथों की फीकी चाय में
कुछ और ही मिठास आ गई है
तुम्हारे छूने भर से
भात कुछ और भात
और रोटियाँ कुछ और रोटियाँ हो गई हैं
जब से आई हो मेरे जीवन में तुम
मेरे दिन कुछ और दिन हो गए हैं
मेरी रातें कुछ और सपनीली
मेरा लिखना कुछ और लिखना
मेरा दिखना कुछ और दिखना
मेरी बातें कुछ और बातें हो गई हैं
एक तुम्हारे होने भर से
कितना भर गया है मुझमें
तुम्हारा यह कुछ और
कि मेरी ऋतुएँ कुछ और ऋतुएँ हो चली हैं
मैं खुद कुछ और मैं हो चला हूँ
मेरी आवारगी कुछ और आवारगी हो चली है
मेरा मुस्कुराना कुछ और मुस्कुराना हो चला है
जो कुछ था पहले मुझमें मैं
छीजता जा रहा है धीरे धीरे वह
अब तो मैं कुछ और मैं हुआ जा रहा हूँ
तुम्हारी दुनिया में मैं कुछ और खोया जा रहा हूँ
मेरा विश्वास कुछ और विश्वास
मेरा घर लौटना कुछ और लौटना हुआ जा रहा है
तुम्हारे होने भर से
यह हरियाली कुछ और हरी-भरी हो गई है
दिशाएँ कुछ और दिशाएँ लगने लगी हैं
आसमान कुछ और आसमान हो गया है
रंग कुछ और चटकार होने लगे हैं
जुड़ने लगे हैं मेरे
बादलों में कुछ और बादल
बारिश में कुछ और फुहारें
उम्मीद में कुछ और उम्मीद
और नींद में कुछ और नींद
जब कभी
नहीं होते हो तुम मेरे पास
मेरी उदासी कुछ और गाढ़ी हो जाती है
मेरा अकेलापन कुछ और सघन हो जाता है
मेरी बेचैनी मुझे कुछ और बेचैन कर जाती है
मेरा सूनापन कुछ और गहरा जाता है
मेरी जिंदगी कैसे ला दिया है तुमने
मेरी जिंदगी में यह दौर
कि मैं जो था पहले कुछ और ही
अपने हर पहलू में
होता जा रहा हूँ दिन ब दिन
कुछ और… कुछ और… कुछ और…
देखो न…
मेरी पत्तियों में भरने लगी है
अब टहाटह हरियाली
और मेरी हर शाखों पर अब पल-प्रतिपल
सजने लगे हैं हुलास के बौर
कितने शून्य
एक अरब में कुल कितने शून्य होते हैं
एक उदासी में कितने
कितने एक बेवशी में
आभा से दमकते
एक जैसे रूप रंग आकार वाले
शून्य सारे
इनका भी एक आसमान
और अपनी रातों में चमकते ये सितारे
किए उजियारे
गिनो… …ठीक से गिनो
क्योंकि गणना में छूटा हुआ एक भी शून्य
संख्या की सारी संरचना को ही ध्वस्त कर सकता है
अमूमन इकाई से करनी होगी शुरुआत
फिर दहाई और सैकड़ा की तंग गलियों से गुजरना होगा
तभी… …तभी संभव होगा
कि बहके बिना पहुँच लिया जाय सही ठिकाने तक
हमारे सूरज चाँद
और इस पृथिवी तक के बारे में
शून्य वाली कहानी ही कही सुनी दोहराई जाती है
यहाँ तक कि ब्रह्मांड के अवतरित होने की ऋचा भी
इसी उद्गम से फूटती है
अगर कागज पर रेखा खींचो गोलाई में
तो उभर आएगा पूरे का पूरा शून्य
और अगर हाथ में ले लो
तो एक समूची गेंद
उछलने कूदने दौड़ने भागने के लिए हरदम तैयार
नाक नक्श में इतनी सादगी
कि पहचानने में कोई गलतफहमी नहीं हो सकती
दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी व्यक्ति को
और जीवन में इतना जरूरी
कि वर्णमालाएँ तक शून्य बिना अधूरी
आदि न अंत
जैसे जीवन की साधना में जुटा हुआ वसंत
एक आश्वासन कि
इससे कम जिंदगी में और क्या हो सकता है भला
एक भरोसा
कि इसके बिना पूरी नहीं हो सकती
दुनिया की कोई भी गिनती
कहीं पर एक गोलाई भर उत्कीर्ण कर के देखो
इस आकृति में समा जाएगा सूरज अपने सौरमंडल समेत
इसमें अँट जाएगी धरती
अपनी हरियाली को लिए दिए
तब भी यकीन नहीं हो रहा अगर
तो किसी शून्य के भीतर
कुछ बिंदुओं को तरतीबवार रख दो
बन जाएगा जीता जागता चेहरा
या ठीक तुम्हारा ही प्रतिबिंब
या फिर संभव है
कि एक चक्के में तब्दील हो जाए यह
अपनी धुरी पर लगातार नाचते हुए
दुनिया की गाड़ी खींचते हुए
दरअसल
मील के जिस पत्थर पर
शून्य किलोमीटर के ठीक ऊपर
टँका होता है जिस शहर का नाम
ठीक वहीं आबाद होती है उसकी बस्ती
वहीं होती है चहल पहल
स्मृतियों की आवाजाही
प्रायः वहीं दिखाई देती है
हो सके तो गिनो
गिन कर बताओ सच्ची सच्ची
कि एक मनुष्य में कुल कितने शून्य होते हैं
कि कितने शून्यों से भरा होता है एक अंतराल
चुप्पी
चुप्पी
एक मानचित्र है
जिसे बॉटा जा सकता है
मनमाने तरीके से
लकीर खींच कर
चुप्पी
एक गोताखोर की गहरी डुबकी है
उफनते समुद्र में
जिसके बारे में नहीं बता सकता
किनारे खड़ा कोई व्यक्ति
कि अचानक कहाँ से
निकल पड़ेगा गोताखोर
चुप्पी
किसी डायरी का कोरा पन्ना है
जिस पर मन की स्याही से
की जा सकती है
किसिम किसिम की चित्रकारी
सहमति असहमति के बीच की
एक महीन आवाज है चुप्पी
लेकिन साथ ही
निर्बल का एक अचूक और अबोला
हथियार भी है चुप्पी
जिसमें मन ही मन
गरियाता है
लतियाता है
वह किसी भी दबंग को
हींक भर
चाँद
बेटे की जिद पर एक दिन
हमने तय किया यह
कि चाँद को चुपके से कैद कर लेंगे
उसके लिए और एक दिन आँगन में
बाल्टी भरे पानी में
चाँद निहार रहा था जब अपना चेहरा
हमने कैद कर लिया आखिर उसे
अपने लाड़ले के लिए
अब आसमान में चाँद नहीं था
या यूँ कहिए
कि चाँद आसमान में नहीं था
नहीं था वह कहीं भी
किसी भी आँख में
किसी भी बात में
एक चाँद के बिना
कितना सूना हो जाता है पृथ्वी का आँगन
हमने सोचा ही नहीं था
कि एक चाँद के बिना
कितना बेरुखा हो जाता है आसमान का मन
कि एक चाँद के न होने पर
लड़खड़ा सकती है अपनी यह पृथिवी भी
सचमुच इतनी शिद्दत से हमने यह
सोचा तक नहीं था
आरे पारे नदिया किनारे वाले चाँद को
बुलाने वाले अंदाज में दिखा कर
माँ तब खिला देती थी
अपने बच्चों को
कुछ अधिक कौर
अब चाँद के बिना लोरी की मिठास
नहीं मिला पाती थीं माताएँ
बेटों को खिलाने वाले कौर में
चाँद से रात भर लुकाछिपी खेलने वाले बादल
अब हताश निराश हो कर
चाँद की याद में
बहाए जा रहे थे आँसू
चाँद को बेपनाह चाहने वाले तारे
गुमसुम दिखाई पड़े
अपने चाँद वाली खुशबू के लिए
एक चित्रकार जिसने तय किया था
आसमान में खिले चाँद को देखते हुए
अपना चित्र बनाने के बारे में
चाँद को नदारद देख मायूस था
अपने ब्रश पेंट्स और कैनवास समेत
शायर परेशान थे
अपनी शायरी से अचानक चाँद को गायब देख कर
बदरंग शायरी की आँखों में झलक रहा था साफ साफ
अपने चाँद का बेसब्री से इंतजार
और एक कली
जिसके मन में उमगती उम्मीदें थीं
अनखिली ही रह गई
चँदीली किरणों के स्पर्श के बिना
ईद के चाँद की बेसब्री में डूबे मन
दूज के चाँद को तलाशती आँखें
चौथ के चाँद को खोजती मुहब्बत
पूनम के चाँद के इंतजार में बैठी समुद्र की लहरें
अठखेलियों के लिए आकुल व्याकुल
सब जिद कर रहे थे
अपने अपने चाँद की
अब अँधेरी रात भी अपनी रौनक खातिर
ढूँढ़ रही थी चाँद को
परछाइयों वाली रात
मुमकिन ही नहीं थी चाँद के बिना
रात को घुटन हो रही थी
अपने निचाट अँधेरेपन से
तालाब पोखर के पानी का
जादुई अंदाज में
सुनहले चँदोवे में बदलना
थम गया था अब
डगने की लय
डूबने की ताल
चमकने की मौसिकी
सब पड़ गए थे बेसुरे
ठिठुरती हुई रात हो
या पसीने में भीगी रात
कभी बहुत देर से आकर
तो कभी बहुत पहले से जा कर
तो कभी बहुत पहले से जग कर
दुनिया की हरदम निगरानी करने वाला
चौकीदार चाँद
पता नहीं कहाँ चला गया
अपनी छड़ी समेत
परेशान लोग दुहराते
अक्सर इस लब्ज को बार बार
चौकड़िया भरने वाला चाँद
हमेशा खिला खिला रहने वाला चाँद
बच्चों का अपना प्यारा
घुघुआ मामा चाँद
न जाने किस गुफा में खो गया
छिप गया न जाने किस खोह में
या चला गया वह
किसी और ग्रह से मिलने जुलने
अखबारों की सुर्खियाँ बन गई यह खबर
वैज्ञानिकों ने व्यक्त की अपनी चिंताएँ
विशेषज्ञों ने दिए अपने अपने विश्लेषणों
ज्योतिषियों ने की अजीबोगरीब गणनाएँ
गली नुक्कड़ के लोगों ने जताई आशंकाएँ
इन रातों में हमने देखा
कैद में कसमसाते चाँद को
उसकी सारी आभा
उसकी सारी हँसी
गायब थी एक सिरे से
मरियल पड़ गए चाँद को देखकर
एक दिन बेटे ने भी
कुबुल किया अपना गुनाह
हमने भी महसूस किया
मासूम से बच्चों का
चाँद के लिए मचलना
इधर बंद था
अब बेटे ने चाँद की रिहाई की जिद की
और हमने खुला छोड़ दिया चाँद को
आसमान में चाँद फिर अपने घर था
दुनिया में अब फिर सबका अपना
नया पुराना स्वर था
निरभ्र आसमान की कोरी स्लेट पर
चाँद एक अमिट अक्षर था
चाबी
बंद मत हो जाना किसी ताले की तरह
लटक मत जना कभी किसी कुंडी से जकड़ कर
क्योंकि सुरक्षित नहीं होता कभी कुछ भी
इस दुनिया में
क्योंकि समय किसी खरगोश की तरह
कुलाँचें भरता चला जाता है
दूर… …बहुत दूर
क्योंकि ओस की बूँद सब छोड़ छाड़ कर
चल पड़ती है धूप के साथ एक हो कर
होना तो
एक चाबी की तरह होना
खोलना
बंद पड़े दिलो दिमाग को
चले जाना किसी भी सफर पर
लोगों के साथ सहज ही
घूम आना
मेज, खूँटी, जेब, झोले, पर्स, रूमाल
या फिर आँचल के खूँट के प्रदेश से
तुम जब कभी अलोत होओ
लोग याद करें तुम्हें शिद्दत से
खोजें पागलों की तरह तुम्हें
हर जगह हर ठिकाने पर
जरूरत बन जाओ इस तरह
कि लोग रखें तुम्हें सहेज कर
और जब कभी तुम गुम हो जाओ
लोग परेशान हो जाय बेइंतहा
तुम्हारी याद में
लोगों को तैयार करानी पड़े
ठीक तुम्हारे ही जैसी शक्लोसूरत
ठीक तुम्हारे ही जैसी काया
जिंदगी
हर पल जीने का
दोहराव भर नहीं है जिंदगी
पारदर्शी साँसों की
मौलिक कविता है
अनूठी यह
जीवन की एक जरूरी कविता
दुनिया की तमाम भाषाओं
दुनिया की तमाम बोलियों से इतर
हर भाषा और बोली में
प्रेम की
अपनी खुद की
एक अलग भाषा और बोली हुआ करती है
प्रेम के शब्दों के परंपरागत अर्थ
खोजे जाय अगर शब्दकोश में
तो मायने सुलझने की जगह
और उलझ सकते हैं
क्यों कि
इसका अपना
बिल्कुल अपना शब्दकोश है
निराले अंदाज वाला
अनदेखा
अनलिखा
मसलन
जब मेरी वह कहती है
नहीं चाहती मैं तुम्हें
तो दरअसल यह उसका
हमको और अधिक चाहना होता है
और जब मेरी वह कहती है
तुम्हें कुछ भी नहीं मालूम
कि तुम्हारे प्यार के लिए
मैं मर रही हूँ कितना
तो वास्तव में
यह उसका जीना होता है
भरपूर उछाह के साथ जीना
अपनी प्यार वाली दुनिया में
जब वह हमसे झगड़ती है बात बात पर
यह उसका और अधिक प्यार जताने का तरीका होता है
इसे और अधिक साफ करते हुए कहती है वह
जिससे प्यार करता है आदमी
उसी से तो झगड़ सकता है ना वह
राह चलते लोगों से कौन झगड़ता है भला
उसका यह कहना कितना ठीक है कितना बेठीक
इसके पचड़े में न पड़ कर मैं खुद
उसके खुले बालों में अपनी उँगलियाँ लहराते हुए
होठों को सीटी की शक्ल में ले जाकर
कोई रोमांटिक गीत गाते हुए
जब कहता हूँ मैं
कुछ भी अच्छा नहीं लगता अब मुझे
तो इसका मतलब यह होता है
कि प्यार में सब कुछ
यहाँ तक कि दुनिया की एक एक चीज
बेहद खूबसूरत लगने लगी है हमें
प्यार के इन बेहतरीन पलों में
प्यार की खुरदरी सी राह पर चलते हुए
किसी नौसिखिया की तरह
डगमगाते रहते हैं हमारे कदम
और तमाम बाधाओं से डरते भी रहते हैं हम
जबकि हकीकत में होता यह है
कि अपने भरपूर हौंसले से
प्यार करते हुए एक दूसरे को
चल रहे होते हैं हम
बढ रहे होते हैं हम
प्रतिपल
आगे… …और आगे
पूरी निडरता के साथ
जीवन के कण कण में
रहता हुआ
बहता हुआ
सतत जीवन की
अनवरत कहानी कहता हुआ प्यार
कहाँ कभी रीता
कहाँ कभी बीता
यह तो
जीवन के लिए
और जीवन की ही एक जरूरी कविता
अगर अनुवाद करना हो किसी को
हमारी सीधी सादी इन पंक्तियों का
तो कविता के गुणी के तरह का ही
हुनरमंद होना पड़ेगा उसे
जिसमें शब्दों को नहीं उतारा जाता
उनके परंपरागत शब्दकोशीय अर्थों वाले
कार्बनीय लहजे में
बल्कि जहाँ देनी पड़ती है
अक्षर दर अक्षर
शब्द दर शब्द
पंक्ति दर पंक्ति के बीच की
खाली जगहों के
भावों को भी तरजीह
तालमेल
सफेद पड़ा रहा जब तक पन्ना
कभी उलटा पुलटा नहीं गया
किसी जिज्ञासा के लिए
जैसे ही काले अक्षरों ने डेरा जमाया
पन्ने की दुनिया हो गई गुलजार
मिला पन्ने को नया क्षितिज
पाई पन्ने ने खुद की आवाज
फिर उलटा पुलटा उसे
न जाने कितनी अँगुलियों ने
कितनी कितनी बार
याददाश्त के लिए लगाया गया
ठीक उसी के पास निशान
या फिर कभी कभार
किनारे को मोड़ कर ही
स्मृति को रख लिया गया ताजा
यह तालमेल का जादू था
रंगीन बना दिया जिसने
रंगहीन को भी
दशमलव
शब्दों की जातीय परंपरा से बाहर रहने वाले
अक्षरों के धर्मलोक में भी तो नहीं आते तुम
तुम्हारा वैसा कोई रूप भी तो नहीं
जिसे देखा करते हैं लोग खयालों में
किसी के सपनों में भी दखल देते
नहीं देखा किसी ने तुम्हें
फिर इस दुनिया में
कैसे बना ली तुमने
ठसक भरी अपनी यह जगह
चलने फिरने या फिर मुँह चिढ़ाने जैसी भंगिमा वाली मात्राओं
परीवा के चाँद जैसे दिखने वाले चंद्रबिंदु
हवा में बेलौस उड़ते धूल कणों जैसे अनुस्वार
या फिर चित्रों जैसी काया वाले शब्दों के बैसाखी की
कोई दरकार नहीं तुम्हें
तुम्हें तुम्हारे रूप में लिखना बेहद आसान है
दुनिया में कहीं भी पहचाना जा सकता है तुम्हें
बिना किसी दिक्कत के
लिपि की सरहद नहीं रोक पाती तुम्हारी धमक
बदल जाती हैं परिभाषाएँ तुम्हारे होने भर से
अंक बदल जाते हैं रुपये पैसे में
चेहरे को निखार देते हो अपनी मौजूदगी से
तुम्हारे होने से ताकत बढ़ जाती है वाम की
बना देते हो तुम सत्ता को भी बौना
हमें नहीं मालूम
किसने खोजा तुम्हें किस जमाने में
लेकिन जिसने भी पहचाना होगा तुम्हें
करीबी रिश्ता कोई जरूर रहा होगा उससे तुम्हारा
अंकों के समूह में
बस एक बार ही आ कर
नया मतलब नई पहचान दे जाते हो उसे
हरदम के लिए
तुम्हारी जगह नहीं बदल पाता
कोई जोड़ घटाव
सुई की नोक जैसी काया भी
हो सकती है अहम
अहसास कराया तुमने ही यह दुनिया को
तुम मिट्टी की तरह ही
अपरिहार्य
अनिवार्य हो दुनिया के लिए
दशमलव
नुख्ता
वह कोई फूल नहीं
जो आकृष्ट कर सके
किसी को अपने मोहक रंग
और नशीली महक से
वह कोई काँटा भी नहीं
जिसकी चुभन से एकबारगी
झनझना जाय मन मस्तिष्क
फिर भी
वह है तो है
वह कोई तस्वीर नहीं
जो सहज ही लुभा ले किसी को
अपनी छटा से
न ही कोई निशान
जिससे जान लिया जाय
कि जोड़ना है अथवा घटाना है
फिर भी वह है तो है
वह है अपना आकार खुद सिरजता
भीमकाय आकारों के जमाने में
सिर उठा कर जीता हुआ
एक नुख्ता भर
जिसके न होने पर
खुदा भी तब्दील हो जाता है
जुदा में
पत्थर
कितना जीवंत बन गया है
बातूनी हाथों में आ कर
बेजान सा यह पत्थर
सुनते आए हैं कि
संगत का असर होता है
अब तक सारी सर्दी-गर्मी सहता आया था
अब तक जैसे तैसे रहता आया था
अब तक सब खरी खोटी सुनता आया था
अब तक हरदम चुप चुप घुटता आया था
आज ही तो हथ-पत्थरी मशविरे की
चर्चा सुनाई पड़ी थी
आज ही तो पत्थर के जमीन से उठने
और चलने की पहली आहट सुनाई पडी थी
और फिर टूट ही गया
चमकते दमकते
अपनी जगह पर एक अरसे से शान से खड़े
शीशे का गुरूर
वह जो दिखता था अपनी अकड़न में
एक ही जगह पर खड़ा
अपनी ही जिद पर अड़ा सदियों से
हो गया पल में चकनाचूर
पेनड्राइव समय
चौदह बरस के किशोर ने एक दिन
उमर में तीन गुने बड़े अपने चाचा से पूछा
क्या होता है पेनड्राइव
रोज रंग बदलती दुनिया में
एक पेचीदा सवाल था उनके लिए यह
इसलिए समाधान के लिए अपने विश्वसनीय
यानी मेरे पास आए वे निःसंकोच
शब्दकोश में इकट्ठा नहीं मिला कहीं यह शब्द
अगर कुछ झलक दिखी
तो टुकडे़-टुकड़े में
कहीं पर ‘पेन’ तो कहीं पर ‘ड्राइव’
और इन अंग्रेजी शब्दों का तर्जुमा
अगर हमारी हिंदी में किया जाय
तो अलग-अलग हिज्जे
और रेघा कर बोलने वाली आदत की वजह से
लगभग एक जैसे उच्चारण वाले ‘पेन’ के
मोटे तौर पर दो अर्थ निकलते हैं
एक जगह यह कलम
तो दूसरी जगह यह दर्द हो जाता है
अपने परंपरागत एकल अभिप्राय के साथ
‘ड्राइव’ दिखाई पड़ रहा था
अपने समय को हाँकते हुए
अध्यायों की दूरियाँ
कुछ कम करते हुए
कलम का दर्द से रिश्ता है क्या कोई
जब यह पूछा मैंने बाबा बाल्मीकि से
तो बाबा ने तसदीक की यह बात कि
आहत क्रौंच की व्याकुलता
एक दिन फूट पड़ी बरबस ही उनके भावों में
जिसे अब कुछ लोग ‘आदि छंद’ बताते हैं
और हमारे ही एक निकट संबंधी
क्या नाम है उनका ?
(उफ! अभी से ही स्मृतिभ्रंष होता जा रहा क्यों इस कदर)
जिनकी गोद में पला-बढ़ा
भूलता जा रहा हूँ उनका ही नाम
हाँ याद आया – सुमित्रा नंदन पंत
जो न जाने किस बात से व्यथित हो कर
बुदबुदा रहे थे एक दिन
लगातार यह छंद
‘वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान’
और जब मैंने अपने अबोधपने में पूछा उनसे
इन पंक्तियों का मतलब
तो पहले तो टालमटोल करते रहे
फिर मेरे बालसुलभ जिद पर बताया उन्होंने कि
जिस दिन थामोगे कलम
उसी दिन समझ पाओगे
सही-सही मतलब मेरी पंक्ति का
जिंदगी किसी बनी-बनाई लीक पर नहीं चलती
मगर तमाम अवरोधों से गुजर कर
तमाम राहों पर भटक कर भी
गुँथ जाती है जैसे सहज ही किसी कविता में
बहक जाता हूँ मैं भी अक्सर बातों के प्रवाह में
सही करने की सनक में करता जाता हूँ गलतियाँ
अब यहीं पर देखिए इसका उदाहरण
कि पेनड्राइव की गली से भटकते-बहकते
कहाँ से कहाँ पहुँच गया मैं
बहरहाल आते हैं अपनी बातों पर
जैसाकि अक्सर होता है
दो अलग-अलग शब्द जब भी मिलते हैं एक जगह
सुनाने लगते हैं अपनी-अपनी एक-दूसरे को
लिपट जाते हैं भावावेश में परस्पर इस तरह कि
अलग-अलग अभिप्राय वाले उनके अर्थ
खो जाते हैं अतल गहराइयों में कहीं
और उभर आता है क्षितिज पर
एक नया नवेला अर्थ
निकाल लाता है जो अपने लिए
एक निहायत ही ठेठ मतलब
अनुभव की इसी पुरानी दुनिया
शब्द के इसी अनुभवी जमीन से
तकनीकी शब्दकोश में भी
मिल पाने की कोई संभावना नहीं
क्योंकि बिल्कुल टटका था यह शब्द
अभी तो इसका अँखफोर भी नहीं हुआ था
और नाजुक इतना कि
ज्यादा छूने-छाने पर
गिधरोई होने का खतरा था
इसी वजह से नहीं रखा जा सकता था इसे
तुरत-फुरत ही
दुनिया के किसी शब्दकोश में
और ‘इनसाइक्लोपीडिया’
जो सनक की हद तक जा कर
बटोरता फिरता था तमाम तरह के शब्दों
और तमाम तरह की जानकारियों को
जगह-जगह से चुन कर
दूर-बहुत दूर निकल गया था कहीं
शब्दों और शब्दों के हरसंभव
अर्थ को जानने की तलाश में
सारी उपलब्धियाँ हासिल करने के बाद भी
कहने के लिए विवश था
इसी दुनिया का एक मशहूर वैज्ञानिक यह बात कि
वह तो एक कदम भी नहीं रख पाया समुंदर में
किनारे के शंख-सीपियों ने लुभाया कुछ ऐसा कि
उन्हें ही बटोरने के फेर में रह गया जीवन भर
तो विद्वानों की लंबी फेहरिस्त वाले इस शहर में
अदना से कवि की भला क्या बिसात
अक्षर और शब्द की दुनिया में ही
हरदम खोया रहने वाला
कहाँ से जान पाता
‘पेनड्राइव’ के बारे में
चूँकि मैं भी अनजान था पेनड्राइव से
इसीलिए बदलता रहा लगातार पैंतरा
बहकता-भरमता रहा इधर-उधर
बहरहाल बताया मैंने अपने एक विशेषज्ञ मित्र से
जब अपनी परेशानी कि
क्या होता है ‘पेनड्राइव’
तो सहज तरीके से बताया उसने कि
बिल्कुल नई-नवेली तकनीक है यह
अँगुली के पोर बराबर का यंत्र
जिसे रखा जा सकता है
फ्लापी और सी.डी. की वंश-परंपरा में
और एक हद तक माना जा सकता है इसे
कंप्यूटर का ही एक संबंधी
अपनी बात विस्तार से समझाते हुए बताया उसने कि
समाहित हो सकती है इसमें
सैकड़ों गायकों के जीवन भर की तपस्या
छिपा सकता है जो आसानी से
हजारों लेखकों के उम्र भर का लेखन
अपनी खामोशी में चित्रित रख सकता है जो
तमाम चित्रकारों का चित्रमय जीवन
हिफाजत से रख सकता है यह
सफेदपोशों की सारी कारगुजारियाँ
जिसमें हत्यारे बेफिक्र होकर
चिह्नित कर सकते हैं वे सारे नाम
जिनकी मौत का खाका
खींचा गया होता है वहाँ कूटशब्दों में
जो ऐरी-गैरी सारी जानकारियाँ
इकट्ठा रख सकता है अपने पेट में
कुछ इस तरह कि
डकार भी न आए
डकार की बात पर याद आई यह परेशानी कि
तमाम संसाधनों, नई तकनीकों
और इलाज के नए तरीकों के बावजूद
आजकल नहीं मिट पा रही मेरी भूख
ऐसा लगता है कि बदल गया हूँ मैं
अपने ही मुल्क के उन एक-तिहाई लोगों की शक्ल में
जिन्हें मय्यसर नहीं होता
दूसरे वक्त का खाना
अपनी फाकाकशी में फिर भी
दोहराते चलते हैं जो इन पंक्तियों को सहज ही
‘आज खाइ काल्ह को झक्खै
ताकौ गोरख संग न रक्खै’
यह इत्तफाक नहीं था कि ठीक इसी समय
दुनिया के एक बड़े और लोकतांत्रिक देश का
साढ़े तीन हाथ कद वाला मगरूर राष्ट्रपति
दुनिया में अनाज की बढ़ती कीमतों का ठीकरा
हमारे पड़ोसी और हमारे ऊपर
बेशर्मी से फोड़ रहा था
जबकि एक सर्वेक्षण में इसी समय
उजागर हुई थी यह बात कि
उसी राष्ट्रपति के राष्ट्र-राज में
लोग हर रोज फेंक देते हैं
तकरीबन तीस करोड़ लोगों के एक वक्त का खाना
और वह मगरूर राष्ट्रपति
अपने गले में माला की तरह
लटका कर चलता है पेनड्राइव
ठीक इसी समय
हाँ बिल्कुल इसी समय
हमारे देश के बदहाल किसान
रोज-ब-रोज लटक जा रहे हैं
मौत के फंदे से
खुद पेनड्राइव बनकर
और तमाम विशेषज्ञ-देशी, विदेशी
जुटे हैं अभी भी इस गुत्थी का खुलासा करने में
कि किस तरह ‘पेनड्राइव’ में तब्दील होते जा रहे हैं रोज-ब-रोज
हमारे देश के किसान
माफ करिएगा
अपनी तो आदत बन गई है कुछ इस तरह की
कि घर से सुबह ही निकलता हूँ अखबार पढ़ने
और पड़ जाता हूँ नून-लकड़ी के चक्कर में
नजरें बचा कर चलने के बावजूद
किसी न किसी तरह पकड़ ही लेता है धवलकेशी कर्जदार
तगादा करता है वह रोज की तरह
कर्ज चुकता करो
कर्ज चुकता करो
बेबाक करो मेरा खाता
फिर वह जबरन निकाल लेता है
मेरी जेब के पैसे सूद के एवज में
और प्रतिरोध के लिए सोचता हूँ जिस क्षण
अदृश्य हो जाता है तभी वह
किसी मायावी की तरह
इन्हीं घटनाक्रमों के अंतराल में
आ धमकता है चमकता-चहकता सूर्य
ठीक बीच आसमान में
और अपने कुर्ते की बाँह से
चेहरे और गर्दन के पसीने पोंछता लौट आता हूँ घर
बिल्कुल खाली हाथ
कहता हूँ बीवी से सुनो
आज पढ़ा है मैने अखबार में
‘काली चाय’ फायदेमंद होती है सेहत के लिए
और जहाँ तक बच्चों की बात है
माड़ से ज्यादा पौष्टिक
भला और क्या हो सकता है दुनिया में उनके लिए
पूरा घर कुछ नहीं कहता
एक अजीब सा सन्नाटा पसरता जा रहा है चारों ओर
हर दिशा घिरती चली जा रही है धुंध से
सिमटती जा रही है देखने की क्षमता
कहीं से प्रतिरोध का कोई स्वर
फूटता नहीं दिखाई पड़ता
लगता है कि मैं
गुनहगार हूँ अपने ही बीवी-बच्चों का
उनसे नजरें नहीं मिला पाता मैं
हालाँकि जानते-बूझते हैं वे बखूबी मेरी सारी बातें
मेरी हर चतुराइयाँ
कुछ न बोलकर वे सब कुछ कह डालते हैं
व्यक्त कर देते हैं मेरे सामने अपना ‘मौन विरोध’
जिसे हम प्रायः ‘मौन स्वीकृति’ मान लेने का ढोंग
रच लेते हैं
देखिए! फिर वही गड़बड़ी
माफ करिएगा पुनः एक बार
पड़ गई है खराब आदत
कहना – बताना चाहता था आपसे कुछ
और बहक गया नून-लकड़ी के चक्कर में
कविता सुनते-सुनते
कहीं ऊब तो नहीं गए
ऐसी बात है तो रुकिए
मनबहलाव के लिए
कुछ विज्ञापनों का इंतजाम करता हूँ
और फिर ब्रेक के बाद नए अंदाज में
आपके सामने पेश होगी कविता
लेकिन यह तो भूल ही गया कि
कवि अच्छी कविता तो लिख सकता है
मगर एक विज्ञापन जुटा पाना
कवि के बस की बात नहीं
और विज्ञापन में तो
कत्तई तब्दील नहीं हो सकता कवि
वह तो ‘प्रोफेशनल्स’ के बस की ही बात है
जिनकी जेबों में भरा होता है – ‘पेनड्राइव’
बातचीत के क्रम में न चाहते हुए भी
एक बार फिर बहक गया मैं
विचारों के हिलोर में
मुझे लगा ऐसा कि
वैसे भी उदरस्थ किया है पेनड्राइव ने
पहले भी बहुत कुछ
नेस्तनाबूद होते गए
न जाने कितनी पत्तियों, फूलों और फलों वाले पेड़
न जाने किस दिशा में खोती गई
पक्षियों की सुरमयी अनुगूँज
तरह-तरह की युक्तियों से
एक-एक तिनका जुटा कर
घोंसला बनाने का उपक्रम
तिरोहित होता गया धीरे-धीरे वह कोलाज
जिसे जितनी बार देखा
उतनी बार सूझा एक नया बिंब
उतनी बार दिखा एक नया अर्थ
अंत की घोषणा में दिलचस्पी रखने वाले
महत्वाकांक्षी लोगों की कहीं यह साजिश तो नहीं
कविता को खत्म करने की
क्योंकि हमने और हमारे पुरखों ने
लिखीं तमाम कविताएँ इन दरख्तों के तले ही
न जाने कितने कवियों की कविताओं का पाठ हुआ यहीं
और दुनिया की अधिकतर
कहानी-कविताओं की तो
बात ही पूरी नहीं होती थी
दरख्तों, फूलों और पक्षियों बिना
किसी के आबाद होने के पीछे
छुपी होती हैं कितनी बरबादियाँ
यह सवाल ही नहीं उठा कभी
सत्ता के दिलो-दिमाग में
और कभी किसी ने अगर हिमाकत की इस तरह की
तो प्रश्नाकुल आवाजों को
नक्कारखाने वाली तूती की आवाज में
बखूबी बदल देते थे सत्ताधीश
क्यों कि हर आवाज एक संभावना होती है
और हर आवाज का
कोई न कोई मायने हुआ करता है
इसलिए आवाज ही निशाने पर होती है शिकारियों के
लेकिन आवाज का क्या ठिकाना
किस पल बदल ले अपना रूप
किस पल बदल ले अपना रंग
और समय तालियों के साथ करने लगे उसका स्वागत
बहरहाल जब हम उलझे हुए थे
बातों-विचारों और आवाजों की दुनिया में
ठीक उसी समय अपनी आवाज के साथ
कविता में पैठ बनाई पेनड्राइव ने
हमारे बहकाव में हस्तक्षेप किया जब मित्र ने
तो झेंपते हुए पूछा मैंने
क्या कीमत होगी पेनड्राइव की
‘हजार रुपये मात्र’
बताया उसने बिना किसी लाग-लपेट के
मैंने आदतन हिसाब लगाया
एक परिवार का पंद्रह दिनों का खाना-पीना
एक मजदूर के बीस दिनों की मजदूरी
एक बच्चे की पढ़ाई की साल भर की फीस
गुल्लकों में पेट काट-काट कर
जतन से बटोरी गई रेजगारी
माना कि अपने समय की बेहतरीन तकनीक का नमूना है पेनड्राइव
कई परिष्कृत सोचों का नायाब उदाहरण है यह
और जहाँ तक जरूरत की बात है
दूसरे तकनीकी खोजों की तरह ही
शामिल हो जाएगा यह भी
एक दिन हमारी दिनचर्या में
चुपके से इस तरह कि
हमें आभास तक नहीं हो पाएगा इसकी महिमा का
मगर जिस तरह हमें अपनी धरती से जोड़े रखने में
भूमिका निभाता आया है
परदे के पीछे रह कर काम करने वाला गुरुत्व
जिस तरह ओझल रहते हुए भी
मौजूद होता है बिंदु के समान ही सही
कहीं न कहीं एक केंद्र
अपनी गोलाई के बीच घिरा हुआ खामोश
ठीक वैसे ही पेनड्राइव की रौनक के पीछे
जुड़ी है कहीं न कहीं
हमारी तमाम भूखी-प्यासी रातें
इस एक सफलता में ढक गई हैं
हमारी हजार असफलताएँ चुप्पी साध कर
विचार के किन गलियारों से होते हुए
पहुँचा है इस मुकाम तक
किन हाथों ने ढाला है इसे पारस-पत्थर की शक्ल में
किस गीतकार ने बनाई है यह सरगम अद्भुत सी
इन सब के बारे में तो अब
पेनड्राइव को भी कुछ याद नहीं रहा
बहरहाल अपने अजीब से समय का
मुहावरा बनने की तैयारी में
जोर-शोर से जुटा है पेनड्राइव
इस अजीब से समय में
दुख के तमाम धागों के बीच
उलझ कर रह गया है
सुख का आभास देने वाला
एक महीन सा धागा
जो पूरी बुनावट में एक अजीब सी डिजाइन बना रहा है
इसे देखते ही पतिंगों सा डिग जाता है मन
मोल-तोल करने लगता हूँ मैं मोहाविष्ट होकर
फिर बदहाली के बावजूद खरीद लेता हूँ
टूटे हुए एक दाम पर
खुश होकर लाता हूँ चादर घर पर
जिसे कभी रख दिया था कबीर ने जस का तस
आतुर होकर दिखाता हूँ
घर वालों को
पड़ोसियों को
परिचितों को
कितनी सुंदर-सी डिजाइन
लेकिन यह क्या
कहीं पता नहीं चल पा रहा डिजाइन का
घर तक आते ही उड़ गया रंग
मद्धिम पड़ गई चमक चादर की
क्या बुनावट में भी होती है बनावट
सहज ही कौंध जाता है यह सवाल
नायाब तकनीक वाले पेनड्राइव समय में भी
दुख के धागे एक-एक कर
चिपकने लगे चेहरे पर
सब हैरान-परेशान कुछ अचंभित-विस्मित
इसी समय पीठ पर धौल जमाते हुए बोला मेरा मित्र
जानते नहीं ‘यूज एंड थ्रो’ का जमाना है यह
और जिस भरोसे की रट लगाए रखते हो तुम
वह बीते जमाने की टर्मिनोलॉजी है
अब पेनड्राइव को ही लो
होता यह है कि जिस समय हमें जरूरत होती है
किसी अहम जानकारी की
दगा दे जाता है कमांड
खुलने से मना कर देता है पेनड्राइव
अनसुना कर देता है सारा मान-मनुहार
क्योंकि उसकी मर्जी इस समय आराम फरमाने की है
और हम कुछ नहीं कर पाते
हाथ मलने के सिवाय
काम न करने के अपने फैसले पर
जब अड़ा हुआ था पेनड्राइव
उस वक्त भी बिना थके बिना थमे
दुनिया की तमाम जगहों की
तरह-तरह की घड़ियों में
टिक-टिक की अपनी जानी-पहचानी पदचाप के साथ
अलमस्त चाल में अपनी राह
चलता चला जा रहा था समय
रेलवे की घड़ी में भी वही समय
जगाए हुए था अपनी अलख
जहाँ बारह के बाद तेरह का घंटा बजता है
और यह सिलसिला
फिर तेईस तक लगातार चलता है
हमारी घड़ी बारह बजाने के बाद
फिर एक पर अटक जाती है
चाहे जितनी मशक्कत कर ली जाए
वह नहीं बजा पाती
तेरह…, पंद्रह…, इक्कीस या तेईस
कोई समझाता है इसके लिए एक सहज युक्ति
जब दिन के एक बजे उसे तेरह मानो
जब तीन बजे तब उसे पंद्रह समझो
यह क्या गोलमाल है
झल्लाहट में कहता हूँ मैं
भलेमानुष! एक को एक की पहचान के साथ
तीन को तीन की शान के साथ
क्यों नहीं जीने देते
क्यों खिलवाड़ कर रहे हो
तीन…, पाँच…, सात… के वजूद से
जीने भी नहीं देते इनको चैन से
और एक भला कैसे बदल सकता है तेरह में
तीन कैसे ढल सकता है पंद्रह में
मेरी समझ से परे है यह गणित
लोग कहते हैं कि कवियों की गणित कमजोर होती है प्रायः
और आज के पेनड्राइव समय में
गणित और तिकड़म पर पूरा कब्जा है राजनीति का
तभी तो अबूझ लगते समीकरण
हल हो जाते हैं यहाँ पलक झपकते
तभी तो धरी की धरी रह जाती है सारी गणनाएँ
और जोड़-तोड़ वाला निकाल लेता है
किसी न किसी तरह मनमाफिक उत्तर
इसी समय समाधान की तलाश में पास आए
अपने जरूरतमंद मित्र को बताया मैंने
पेनड्राइव के बारे में
और उसने बताया उमर में तीन गुने छोटे
अपने भतीजे को यह सब जब
व्यंग्य से मुसकुराया वह यह कहते हुए
चचा जान! इतना परेशान होने की
भला क्या जरूरत थी आपको
मैंने तो आपका इम्तहान लेने के लिए
पूछा था यह सवाल
जिसका जवाब मुझे
पहले से ही मालूम है।
संकल्प
कई बार जेब कटी
कई बार जहरखुरानी का शिकार हुआ
कई बार ऐन मौके पर गाड़ी छूट गई
कई बार नींद में डूबा कुछ ऐसा
कि काफी पीछे छूट गया अपना ठिकाना
कई बार जानलेवा दुर्घटनाएँ घटीं
कई बार चोट खाया
हड्डी पसली तक टूटी
कई बार बीच धार में ही पलट गई नाव
कई बार ऐसा लगा
कि अब खतम हो गया सब कुछ अपना
टूट गया जीवन का सब सपना
कई बार दंगाइयों की चपेट में आया
कई बार माखौल उड़ाया गया
जब भी देश छोड़ा अपना बना प्रवासी
जब भी देश छोड़ा अपना छाई अजब उदासी
कई बार रोका गया
कई बार टोका गया
कर्इ्र बार हिलने डुलने तक की की गई मनाही
फिर भी…
बढता ही रहा अपना ये कारवाँ
थमी नहीं कहीं भी अपनी आवाजाही
कई बार लगा
कि खतम हो गए सारे विकल्प
तब भी…
तब भी नहीं टूटा
चलते रहने का अपना संकल्प
आँसू
साथ रहते हैं
किसी के न पूछने वाले दिनों में भी
हाथ मे हाथ लिए रहते हैं
ढालान चलने वाले क्षणों में भी
बेजोड़ दोस्त है इसलिए
ढुलक ही आतें हैं पास
पृथ्वी की नदियों
खारे समुद्रों से
निचोड़ कर आकाशगंगा
वक़्त के किसी भी कोने
किसी भी ताखे पर
शिद्दत से
कुछ कह रहे होतें हैं
ज़िन्दगी के सियाह पन्ने पर
गालों से फुसफुसाकर
हो रही है कुछ
राज की बात
कहीं कोई सुन न ले
अकेले कहीं नहीं
पिता की
अकेली कोई तस्वीर नहीं
जिसमे सिर्फ़ वही हों
एक सुनसान-सी जगह में रहते थे पिता
जहाँ जुगाड़ने होते थे दिन और रात
मेरे और मेरे भाई बहनों के लिए
हमने कभी नही पूंछा
कहाँ से आते हैं सवाल
कैसे दिए जाते हैं जवाब
पिता से लम्बे दिनों के बाद मिलने की ख़ुशी में
भूल जाते थे हम
कहीं कुछ होता है अकेला भी
आज चुहानी में नहीं हैं तो सिर्फ़ पिता
पिछले दो तीन सालों से नहीं आए किसी भी दिन
जिसमे झोला खोलकर निकालें
जो कुछ ख़रीदा था हमारे लिए
सूरज की तरह जलते अकेले नहीं थे पिता
बहुत क़रीब बहुत दूर
घर पर होते थे पिता
अजीब सी उलझन है
कि इतने सालों बाद भी
अकेले कहीं नहीं
किसी में हमारे साथ खिलखिलाते
किसी में माँ से बतियाते
किसी में दोस्तों से हाथ मिलाते
अकेली ऐसी कोई तस्वीर नहीं
जिस पर चढ़ा सकें
हम फूलमालाएँ
लेखा-जोखा
जब मैं अकेला होता हूँ
वे कहतें हैं
किसी काम का नहीं
जब किसी काफ़िले के साथ होता हूँ
वे देखते हैं मेरी जगह
आगे से पहला दूसरा तीसरा
या कभी पीछे अन्त में
एक मोड़ पर
थकान मिटानें
रूकता हूँ जब
काफ़िला बढ़ जाता है
हाथ झटककर
मुझे चुपचाप छोड़कर
अकेले होने पर
लगाता हूँ हिसाब
काफ़िले से कितना आगे
या फिर कितना पीछे
खड़ा हूँ मैं
धरती के भरोसे के लिए
जब सब अपने-अपने चाम के भीतर
ख़ून मास और हड्डी हो रहे थे
कवि सुना रहे थे दूसरों को
अपनी कविताएँ
जब सब अपनी छतें बचाने के लिए
कर रहे हैं भाग-दौड़
कवि लिख रहे हैं
आकाश तले कविताएँ
रास्ते जब हो गए हैं असुरक्षित
किसी सफ़र से
वापस लौटकर आना
बीज से अंकुर फूटने जैसा है
ऐसे समय में कवि की रचनाएँ
आ-जा रही हैं
सही ठिकानों पर
तोड़कर सीमाएँ
जब भरोसेमन्द नहीं रहे सम्बन्ध
कवि काग़ज़ के लिफ़ाफ़े पर
स्याही से अपना पता लिखकर
ज़्यादा विश्वास जतलाता है
एक दूसरे से जूझ रहे हैं
जब सब
प्रतियोगी संसार में
कवि लिख रहे हैं
प्रेम कविताएँ
धरती के भरोसे के लिए
पता नहीं
रंगों के भूगोल में
डूबे थे कई रंग
काग़ज़ पर
दिख रहे थे
वे ख़ूबसूरत
लेकिन ……
अता पता नहीं था
तो केवल
उँगलियों का
ब्रश का
पानी का
धरती का लिहाफ़
जलकर शान्त हो रही है चिता
बियावान हो रहा है श्मशान
लौट रहें हैं परिजन
फिर
बिछी हुई न देह है
न बिस्तर
कुछ फूल मिल गए हैं गंगा से
विष को आवृत्त किए
फैला है कटोरे-सा
शिव का नीला कण्ठ
झर रहा विलाप
धीरे-धीरे
रुदन
शोक
स्मृतियों से
एकान्त पथ पर
दुम दबाए जा रहे हैं
चबाए आहट
कुछ भी नहीं अब
न चिता
न आग
न शव
न परिजन
और न विलाप
शब्दों के सुर बदलते हैं
क्या ऐसे ही
धीरे-धीरे
जब हम बोलना सीख जाते हैं
या धरती का लिहाफ़ ही
बच जाता है
महज़