Skip to content

सच्चिदानंद प्रेमी की रचनाएँ

अपन साख अब कैसे बचतो? 

अपन साख अब कैसे बचतो?
गुरू सब दिन भर फिलिम देखतन-
चेला बेच के घोड़ा सूते।
चेलिन धरम सील मेटा के-
अपराधी के हर दिन न्योते।
इज्जत, मेधा, नेह-छोह, तन
जब सभ्भे पइसे पर विकतो।
अपन साख अब कइसे बचतो?

अर्जुन के नीचे हौ अँखिया

अर्जुन के नीचे हौ अँखिया।
चेला-चुटरी अंतेबासी-
से आसरम हो गेल सूना,
छात्र धरम मरजाद मेटा के-
पीअथ दम भर भर-भर दोना;
चेला गुरू के माथा चढ़ के-
उधेड़ रहल हे अँखिया बँखिया
अर्जुन के नीचे है अँखिया।

ज्ञान मिलल सब बयस गँवाके 

ज्ञान मिलल सब बयस गँवाके।
डेग-डेग पर आग लगल हौ
दगिआयल कपड़ा सब फीके
कोई दाग छिपावे खातिर
जला रहलहे दीया घी के
तू भी झोटा दाढ़ बढ़ा के
नाचऽ जुग बल धन बल पा के
ज्ञान मिलल सब बसय गँवाके।

देखऽ आगे का होवऽ हे?

देखऽ आगे का होवऽ हे?
ढोल बजा के गुरू जी सब दिन
ज्ञान-ज्ञान के खेल रचावत
अंते वासि कल वल छल में
गुरू गोविन के माल पचावथ
गुरूजी चेला पर नित रोवथ
चेला जिंदगी भर रोवऽ हे
देखा आगे क्या क्या होवऽ हे?

लव-कुस दुन्नू चीत गिरल हथ 

लव-कुस दुन्नू चीत गिरल हथ।
बालमीक रावण पर लट्टू
कहथ भूल चतुराई,
धन-दौलत सब ज्ञान जुआनी-
देके करऽ पढ़ाई;
धक्का-मुक्की में रामे गेलन
दुन्नू अप्पन जात मिलल हथ।

आन्हर गुरू जी चेला बहिरा 

आन्हर गुरू जी चेला बहिरा।
कौशिक ब्रह्मर्षी बन कर के
अप्पन जात के झोली भरलन
राम-लखन ठाकुर होकर के
गुरू बसिष्ठ से काहे डरतन
द्रोन-बान से घायल अर्जुन
क्रूर-खेत में खोदथ गहिड़ा

अप्पन होली आझे मनतो 

अप्पन होली आझे मनतो।
दरकल दिल के जोड़ रहल ही
कर के जतन अनोखा
का कहियो अपने भईबा तो
देलक हमरा धोखा
छोड़ऽ इसब मन के मारऽ
काम राग रंग फागे मचतो

अब कइसे हम खेलूँ होली

अब कइसे हम खेलूँ होली
इधर पड़ोसिन के डाली में
खिलल बसंती फूल
रतिया फटलो धीर चुनरिया
उड़ल अबीर से मसकल चोली

आझ अबीर गुलाल उड़ा लऽ

आझ अबीर गुलाल उड़ा लऽ।
फाग-राग-उच्छाह भरल दिल
चू-चू हो गेल खाली
कहाँ छिपल हऽ प्रान प्रिये तू
दरसन दे दऽ हाली
माजर बढ़ के होलो टिकोरा
कनखी डेरा डालऽ

बीत रहल हे रात 

बीत रहल हे रात।
धीरज के कान्हा पर चढ़के
आव चमकित प्रात
धीरे धीरे कनकन होगेल पोरा आउर नेहाली,
घुच्च अंधरिया अपनो हँथवा-
सुझे न हायराम हाली।
कहिना उखड़त पाँव सिसिर के-
खुलत कमल के पात।
बीत रहलहे रात।
मनमा काँप रहल हे अइसे-
जइसे बदरा विजुरी,
घरे दुसाला नइहर पोरा
इहाँ इज्जत ला हम ठिठुरी।
नींद निगोड़ी पास न आबे-
करे दूर से घात।
बीत रहल हे रात।
पीअर घोती लाल चुनर में-
गेह गात हे रंगल।
नेह-नात से हिरदा-हिरदा
हिरनी के संग भीगंल।
मदन फूल से विंध रहल हे-
का कहूँ मन सकुचात।

का लिखियो हम गीत?

का लिखियो हम गीत मिसिरजी,
का लिखियो हम गीत।
छू-मन्तर हो गेलो छन में-
बरसो के बेसाहल प्रीत।
का लिखियो हम गीत।
घुच्च अन्हरिया रात अनेरा-
पहरा दीया बाती के,
देह जलाके नेह भरे से-
अप्पन मन संघाती के;
कॉच पिरितिया सिहरन ढरके-
नयना झलके मीत।
का लिखियो हम गीत।
जब देह सटौले हिरना-हिरनी
मंगल मोद मनावे,
बदरा कलि मुॅख पनसोखा बन
चूमे फगुआ गाबे;
नीम निबौरा कोख छिपावे
वर पहने उपवीत।
का लिखियो हम गीत।
अलसायल कोहवर के घूंघट
धीरे-धीरे सरके,
अंगना में जोरल गोइठा के-
अगिया, अंगिया फड़के;
सगुन उगाहे मृगनयनी तब-
समझ दरद के रीत।
का लिखियो हम गीत।

केसर आउ कुमकुमास 

केसर आउ कुमकुमास
लहके दिगन्त सखि,
गन्ध के अनंत अति
बेदना बसंत सखि।
नगर-सहर-बाग डगर छोड़ गाँव खेत में
चहकल हे आम-बौर-सेनुर संग रेत में।
दूरा दलान खलिहान फाग राग झरे,
हुलसायल बगिया बनाली अनंत सखि
गीत मधु सरगम से दूर बनरागनी
आ रहल झांझ पहन नूपुर संग फागनी
टेर रहल दूर कहीं गउँवा में बाँसुरी
अगियो न खरगल न चारा दे कागरी
रहिया निहार थकल अइलन न कंत सखि

कैसन अप्पन बात? 

कैसन अप्पन बात?
खिले के पहिले छछनल सूखल
विन पानी जलजात।
सूर्याेदय भी देख न पइलूँ
ससि के डूबल राग,
खोते में रह गेल चिरैयाँ
सुखगेल मन अनुराग।
सांत न कहिओ छोड़लक हमरा
मन के झंझावत।
चांद तो हमरो चमकल ऐसन
लेकिन दिन दू-चार,
कुमुद-कुमुदिनी विहँसल मन में
भरलक खुसी अपार।
दगध चकोरी इतरायल तब
हो गेल जब वरसात।

झुकी-झुकी खेतबा में गावऽ हे गीत सखि

झुकी-झुकी खेतबा में गावऽ हे गीत सखि,
जुड़ी-जुड़ी आवऽ हे सावन के मीत सखि
कैसन ओहार लगल फैल के डोली?
काउन रंग पंछी के भी लगे बोल?
बिसरल अँगनमा के-छछनल परनमा में
धोले को मिसरी-बढ़ावे लाप्रीत सरिव
मकई जुआन मेल-गाँव के छोरा-छोरी
मिले खिले नुके-छिपे खेले नुका चोरी
मन में उल्लास जगे-पल-पल विश्वास बढ़े
विहँसल नयनयमा में मान-हार जीत सखि-
देखऽ तनि बदरा के केतना धधयाल
मनहर रोपनी के गीत सुने आयल।
बूंद-बूंद पानी के-
थिरे-थिरे जवानी के
रिमझिम ई रहिया पर-
कीच करे धीत सखि-
सहकल जुआनी अँचरा उड़ाबे
पुरवैया टिटकारी सुनावे
बुतरूआ के
खखरइत पहरूआके
कउन बतलावे ई
नेहिया के रीत सखि
उ बुतरू बानर सन

भउजी कहलन अएलो होली

भउजी कहलन अएलो होली-
जा रधियाा के नइहर आज,
हमहूँ घी के ढिवरी बारब-
दुन्नू के हो जाए सुराज;
मनुआँ धड़फड़ायल जगले
अँखिए में हो गेलो भोर
गठरी मोटरी लादके चललूँ
मुर्गा जइसे कएलक सोर;
मत पूछऽ स्वागत में केतना
सरहज, साली, सास के बात,
पापड़ चटनी सजल कटोटी
दाल मखानी छौंकल भात;
रोटी न´ँ हल, छानल पूड़ी-
छछनावल बजका आउ साग
लेकिन जेकरा ला गेली हल-
न´्ँ ऊ आवे न´ँ् हो रात;
का कहियो छानी छप्पर तक
आँख गड़ाके गेलू हार।
अँगना के टँगना में भी न´्
पइलूँ देख सूट सलवार
सुजनी में भी न´् सजनी के
अंगिया, साड़ी आउ सौगात
गाँती-गात यही खटपट में, झपकल अँखिया हो गेल रात।
छन-मन-झन-झन छुम-छुम टन-टन
लगल रधिया के पायल राग।
भला न कइसे औतन सजनी
केकरा संगे खेलतन फाग।
ओढ़ना फेंक गलवा ही ला
उठलूँ, देखलूँ हाय रे मार?
भैंस तोड़ के भागल जा हल
ओकरे सिकुड़ के हल झंकार
सूते के फिर से नखड़ा कइलूँ
सोचलूँ किस्मत के ई खेल,
काहे ला अललूँ होली में
रधिया से जब भेंटोन मेल।
नींद निगोड़ी तनिक न आवे
सुतलूँ लगल कि भाग जगल।
लगल कि तरबा में धीरे से-
नरम हाथ कोई फेर रहल।
उढ़लूँ, हवाक के धइलूँ कह-
प्राण प्यारी! हाय! आस फिरल।
खटिया तर मट्टी कोड़इत गे
कुतिया के हल पूँछ उठल।
किस्मत के भारल नक्षत्र के
अझुरावाल हम हो परेसान,
गँवा के अपन अकल बुद्धि
नींद, चैन, पैसा आउ सान;
करवट बदल-बदल के सोचूँ
मदन महोत्सव होली फाग,
सच में अकल झुलसिए जाहे
धधकऽ हे जब काम के आग;
लगलो अबरी रधिया अएलो
चॅपते धीरे-धीरे गोड़,
न´् उठलूँ गत्ते से कहलूँ
अएलऽ भी तो करके भोर;
रधिया के भभके हम कस के
सास-ससुर के धइलूँ हाँथ
का कहियो परदे में छोड़ऽ
जे कुछ बितलो हमरा साथ।
अब समझऽ तू हम्मर हालत
आठो गरह हल प्रतिकूल।
ई रधिया के मामू घर हल
हम गेलूँ हल रहिये भूल।

चिट्टी लिखलन घर से दादा

चिट्टी लिखलन घर से दादा
पूछलन कैसन कट रहलो हे
इहाँ शहर में अपन जिन्दगी?
उहाँ तो पंखा ऐसी न´ हो
ऊलर-कूलर के भी जरूरत
इहाँ दूपहर में भी न´् हो
खटिया पर सुत जाही ले के
सहिये सांझ चद्दर तकिया।
झुर-झुर बदन सर सिहरावऽ हे
पुरवईया आ सगरी रतिया।
कइलु भईया रात-रात भर
अभियो घर-घर देहथ पहरा
अभियो देवीथान के कुईया
भरऽ हो सोलह गाही गगरा
नहिये छनलो हे अभियो तक
गाँव में ताड़ी दारू दोना।
बेटी बहु के कलरब से हौव
झनकदार घर आँगन कोना।
अमियो डँगरा तर बगिया में-
लगा रहल बुतरून अमझोरा,
झूम रहल बगिया के पानी
पछिया में भी कन-कन सोरा
अभियो पगड़ी धारी बाबा
के बेटा जोड़ऽहथ रिस्ता
आपस में भईया आउ भौजी
दीदी फूआ चाची रिस्ता
अभियो राम चरितर काका
भाखऽथ लाठी के भाषा
अभियो सैयद फिदा हसन से
बड़ी लगल हो गाँव के आसा
एक्के गो कारन हौ एकर
इहाँ न घुसलन कोई नेता
तोड़ तड़ंगा आग लगावे
ओइसन बरजित नाता गोता।
अच्छा अब तू अपन सुनाबऽ
ई सब हमतो गाइयो गेलूँ
हँस गा के दिन कट रहलो हे
रात महिना बच्छर गइलूँ
अभियो छोड़ऽ मोह सहर के
आबऽ गाँव में गीत सुनाबऽ
या सहर में उधम कर के
नऽ भरल तू गाँव बसाबऽ

सान्ही कोना जब हररायल 

सान्ही कोना जब हररायल
का भीतर के हम बतलइयो
अधनधरके आज विदेसी-
तोरा से कौची का गइयो।
ओसरामें टूटल खटिया पर
बूढ़वा खाँस रहल हे,
सड़ल बड़ेरी झरल ओहारी
जर्जर बाँस बचल हे,
उजड़ल छानी माँगल खपड़ा
सूरत नास रहल हे
दुरगन्ह के मारे नाको दम
उख-विख प्रान पड़ल हे,
एकरो पर हरजाई तोरा, दरद न आवे तनियो थोड़ा
तो छाती चीर बेदर्दी अप्पन दुखड़ा तोरा का सुनइयो
अप्पन घर के लाज
तोरा से कौची हम गइयो।
जइसे तइसे ई जिनगी के, पलछिन काट रहल ही,
रिसते धउआ के पीवो ते अपने गार रहल ही,
छितरायल चिथड़ा के ऊपर मखमल साट रहल ही,
उजड़ल छानी छप्पर जइसन
रिस्ता पाट रहल ही फूटल टूटल
एतनो पर अब बोलऽ केतना – का दर से दूयो?
फूटल हँड़िया टूटल बेलना मनके हम कैसे मरमइयो?
टूटल पूता चुल्हा चाकी
अप्पन घर के लाज विदेसी तोहरा से केतना हम गइयो?
दोसरा के दुख में अब कोई आके हाँथ बँटाबे?
अन्धरायल ऊफन दरिया में अब नाव चलाबे?
अप्पन-अप्पन पड़ल हे सगरो दूसरा न गाज हे केकरो एतना बतलाबे।
ओइसन खोजऽ कहाँ से मिलतौ जे आके वे
मरलो परहौ कफन खसोटी-नोच रहल हे चोटी-बोटी
लाज धरम चौखट पर पसरल, कइसे वाहर डेग बढ़इयो?
अप्पन घर के लाज विदेसी
तोरा से कौची हम गइयो।
कइसे इनसे निपटे कैसे माथ मढ़े।

इयार तनिक तू दिल में झाकऽ

इयार तनिक तू दिल में झाकऽ।
झॉकऽ बन के मीत।
जब पछिया ऑचल उड़वाए
प्रीति रीत छल जाए,
दुनियॉ हल्ला कर चिल्लाए
मनुआ तब घबड़ाए,
मार-काट दिन रात मचे जग-
सब होबे विपरीतं
तनिक तू दिल में झांकऽ
झॉकऽ बन के मीत।
गरम झकोरा उड़े अबीर मन
दिन टिटकारी मारे
कउआ मोर पपीहा बोली
कोयल कंठ उचारे
साधू सन्यासी मन डोले
उठ मरम संगीत,
तभी तू दिल में झांकऽ
झॉकऽ बन के मीत।
हिरना-हिरनी नगर सहर के
गलियन दौड़ लगाबे,
नइकी दुलहिनयॉ डेवढ़ी पर
आते भीड़ जुटाबे।
कोहवर में टटके टनके जब
टनक उठे तब शीत।
तू दिलवर बन के झॉकऽ
झॉकऽ बनके मीत।

आवऽ ही जी आवऽ जी

आवऽ ही जी आवऽ जी
कुछ गीत प्रीत के गावे तो दऽ।
ऐसन कउन बनल हे बतिया
हँसी खुसी में बीतल रतिया,
असली-नकली भुला के प्यारे
दम मारऽ दम फुला के छतिया
कौन मरऽ है मरऽा ऐसन-
तनि ओकरे वुलावेउऽ
ई बाग बगैचा झूम रहल हे,
कलियन के भँवरन चूम रहल हे,
ई ताल घाट सर नदी चहल
बहकरल धारा भी मचल रहल
बोलूँऽ कइसे ई सब के हम
छोड़ा के बोलऽ कहाँ रहम हम
इनखा से मिलई अरबही
फिर उनखा बात बतवही
कि सबसे दुखड़ा गाबेदऽ
ई काल एहि ई मोर निसा
आँगड़ाई लेले उठल उषा
लल छाँही आँखिया करे अनार
दसो दिसा कसलक अतिसार
नगर-गाँव में फौजखड़ी
सीमा से लौटल खाड़ी-खड़ी
जैसन करनी ओइसन भरनी
बस एतने अभी बतलावे दऽ
एतने झुकही जेतना सकबऽ
रीढ़ न टूटे ध्यान रखऽ

नया वर्ष है आया

नया वर्ष है आया भाई
नया वर्ष है आया,
नई-नई ले अभिलाषाएं,
ह्रदय- सुमन मुस्काया!
कल की बातें हुई पुरानी-
बीती रजनी काली,
उदय श्रिंग से फूट रही है
ऊषा की नवलाली;
कण-कण पर है नई उमंगें-
मन मानस लहराया!
सूखे तरुओं पर नव पल्लव-
की छाई अरुणाई,
गीत विहग के खुले पंख में
जागी नव तरुनाई ;
नए वर्ष में नए हर्ष का-
उत्सव साज सजाया!
दुःख की घटा न घेरे छन भर-
सुखद केतु नित फहरे,
चंदा को छूने को ललकें-
मन-अम्बुधि की लहरें;
आशा की किरणों से दृग में
नव प्रकाश है छाया।
नया वर्ष है आया भाई
नया वर्ष है आया।

आशा 

अलग नहीं मानो तुम मुझको,
मेरे स्वर में बात तुम्हारी।
नयन-नयन की ज्योति बनेगी,
मेरे ही मन की चिंगारी।
जो भी पीड़ा जहाँ जागती,
मेरा ही अंतर रोता है।
छन भर तुमसे खो जाएँ तो,
मेरा मन सब कुछ खोता है।
हास–रुदन जो भी है जग में,
मुझमे उसका रूप निहारो।
दुखियों की सब पीर समेटे,
आऊंगा मैं तनिक पुकारो।
मैं तो हूँ बस वही की जिसमें,
रूप तुम्हारा झाँक रहा है।
मेरे मन का सजग चितेरा,
चित्र तुम्हारा आँक रहा है।
दुनिया की आँखे है निर्मम,
देख नहीं इसको हैं पाती ।
भौतिकता की घन-छाया में,
जगने से भी है सकुचाती।
रोज सुबह जब ऊषा आती,
रूप धरा का सज जाता है।
फूल-फूल पर थिरक- थिरक कर,
मेरा ही मन मुस्काता है।
रजनी में जब किरण सिमटकर,
अन्तरिक्ष में खो जाती है।
चंदा के होठो से जब भी,
प्रकृति सुधा-रस बरसाती है।
मैं ही हूँ जो उन्हें देखकर,
सब को मन का गीत सुनाता।
उखड़ रही आशा को जगकर,
जगने का संबल दे जाता।
मेरी सात्विक वाणी खुलकर,
भूतल की पहचान बनेगी।
सत्य–व्रती जीवन के पथ पर,
आशा-बल-अभिमान बनेगी।

खुद तो मैली की न चुनरिया

क्यों बैठी नाराज प्रिये तू-
खुद तो मैली की न चुनरिया!

मैं अपने घर में थी रहती,
जाने क्या तू बाहर कहती?
प्रीत-रीत से अनजानी मैं-
मन-ही-मन सब बाधा सहती!

मैं तो थी निर्दोष सारिका-
नोंक-झोंक कुछ सीख न पाया,
मुझे बुलाकर किया अचानक
जादू तेरी झुकी नजरिया!

कहाँ-कहाँ क्या चले फसाने?
टूटे दिल के लाख बहाने;
पनघट पर के भी परिरम्भन
लगते है सब अब बेगाने!

मैं खुश थी अपनी गुदरी में-
लेकिन तुमको ठीक न भाया;
चोल रंग में चोली रंग दी
बनी तभी से प्राण-पियरिया!

घर की मटकी-क्षीर न भावे,
छाछ दिखा के नाच नचावे ;
गोप-गोपियों के पहरे में-
कौन कन्हैया को समझावे?

महलों के ऐश्वर्य न भाते-
राज मार्ग भी बंद हुआ है!
खिंच रही रह-रह अंतर को-
मरघट की एकांत डगरिया!
उसी क्षितिज पर यौवन पलता-
जिस पर सूरज कभी न ढलता,
जहाँ प्रीति-घनसार अहनिर्श-
नयनों में चुपचाप पिघलता!

किसे कहूँ सूने प्राणों में-
विरहानल अविराम धधकता!
मन की चंचल चिड़ियाँ भागी-
बीत चली बदनाम उमरिया!

धीरे-धीरे दर्द ह्रदय का-
करता है संस्पर्श मलय का,
प्रेमिल-छण का दृश्य बिहँसता-
अंकित है जो विरह-प्रणय का!

पाप-पुण्य सबका है लेखा-
सब कुछ मन से सदा परेखा!
मिला न ऐसा कोई जग में–
जिसकी हो बेदाग चदरिया!!

थके प्रणय के गीत

लूट गयी कौड़ी कीमत में,
मानव मन की प्रीत!
थके प्रणय के गीत!
नंगे पन का नृत्य अनोखा-
क्या मथुरा क्या काशी,
रति-पति-क्रीड़ा धरम कोट में
रचा रहे सन्यासी;
होली ईद दिवाली ऐसे-
पर्व हुए भय-भीत!
कुल मर्यादा गयी रसातल-
तरी बही मनमानी,
तामस-तप से तमस कुंड को
धधकाए वो ज्ञानी ;
कहाँ कौन किसको समझाए-
सभी हुए विपरीत!
घर-परिजन सब रिश्ते-नाते
दग्ध दाघ की धार,
तनवंगी हो गए गाँव के-
धर्म नीति औ प्यार ;
राजनीति की राहें समतल-
क्या दुश्मन क्या मीत!
जागो युवा मातु-भूमि के
क्या सपने में खोए,
चौर द्वार से घुसकर कोई
अपनी मूँछ न धोए ;
खुशियाँ गाँव नगर में छाए-
गूंजे मन संगीत!
लूट न जाए कौड़ी में ही
मानव मन की प्रीत!
थके प्रणय के गीत!

मीत तभी तुम दिल में आना 

मीत! तभी तुम दिल में आना,
लेकर आना गीत!
बहके पछिया आँचल सरके
प्रीति-रीति बिक जाए,
जग कोलाहल पर इठलाए
मुकुलित मन घबराए;
हिंसा प्रतिदिन पर प्रतिहिंसा
बंद न्याय उदगीत!
सखे तब दिल में आना
लेकर धीरज गीत!
दाघ कठिन मधुवन झुलसाए
झरे टिकोरी डाली,
काक-चील-वक-चातक के सुर
बोले कोयल काली ;
पंथ-पथिक परिजन मन डोले
साधे प्रलय संगीत!
सखे तब दिल में आना
लेकर मधुमय गीत!
देह सटाए हिरना-हिरनी-
कातर दृष्टि डाले,
अलस वधु निज कोहबर घर में
पड़े द्वंद्व के पाले ;
मधु-ऋतु दहके ताप चढ़े सिर
धधके दह-दह शीत!
सखे तब दिल में आना
लेकर शीतल गीत!

बोलो वन्दे मातरम् 

वन्दे मातरम्-वन्दे मातरम्-
वन्दे मातरम्-वन्दे मातरम्!

भरत भूमि की नारी सच्ची
बोलो वन्दे मातरम्।
वन्दे मातरम्-वन्दे मातरम्-
वन्दे मातरम्-वन्दे मातरम्!

समरांगन से चली लेखनी-
चुपके-छुपके तेरे पास,
प्रणय-पंथ का पत्र न समझो
ज्वालामय है यह उच्छ्वास;

कैसे तुम्हे बताऊँ कैसे-
कटता है दिन,कटती रात?
मन में जगती याद तुम्हारी
दृग में जग का झंझावात
बोलो वन्दे मातरम्!
सीमा पर नित चौकस रहता-
मस्ती में जगता यह राग,
धूल चाटते दीखता सम्मुख-
शत्रु-सैन्य का सुख सौभाग्य ;

यहाँ न मन में कोई चिन्ता-
माँ की केवल रहती याद,
यही लक्ष्य की शीघ्र मिटायें
मातृभूमि-भूमि का गहन विषाद!
बोलो वन्दे मातरम्!

रणभेरी के तुमुल घोष में-
जगता है सरहद का गीत,
बढ़ने दे हम नहीं शत्रु को-
कार्य यही वस परम पुनीत,

तू तो मेरे प्राण-प्राण में-
कभी न तुझको सकता भूल,
दृढ़ संकल्प है वाणी तेरी-
दुश्मन होगा ही निर्भूल ;
बोलो वन्दे मातरम्!
छल वल से मै नहीं हटूँगा-
डटा रहूँगा सीने तान,
रण में पीठ न दिखला सकता-
भरत-भूमि का अभय जबान ;

मांग सजाकर निज सखियों में-
चमकोगी पढ़कर अखबार,
दन-दन-दन-दन जब गोलों से
हमला होगा सरहद पार;
बोलो वन्दे मातरम्!
याद करेंगे दूध छठी का
तोपें जब उगलेगी आग,
अरि-शोणित से भर-भर खप्पड़
रणचंडी फुकरेगी झाग ;

बना कलेबा क्रूर काल का-
लौटूँगा घर रखना आस,
स्वागत में बाँहों की माला
ले आऊंगा तेरे पास ;
बोलो वन्दे मातरम्!

किम्बा दूर विजय-श्री होगी
तो लौटेगा शून्य-शरीर,
चमक उठेगी जिससे निश्चय
भावी भारत की तश्वीर ;

विहँस बताना विजय गर्भ से
करके उन्नत श्वर्निम भाल,
उऋण हुए माता के ऋण से
भारत माँ के सच्चे लाल;
बोलो वन्दे मातरम्!
स्वर्गारोहण चिता सजाकर
गर्वित दृग से दे सम्मान,
हटा तिरंगा मुझे सुलाना
वन्दे मातरम् का कर गान ;

वन्दे मातरम्-वन्दे मातरम्-
वन्दे मातरम्-वन्दे मातरम्!

सौगंध तुम्हे समरांगन की
यही निवेदन सौ-सौ बार
श्राद्ध करो तो करना ऐसा
जैसा भारत का त्योहार!
बोलो वन्दे मातरम्!

वन्दे मातरम्-वन्दे मातरम्-
वन्दे मातरम्-वन्दे मातरम्!

यह भारत की रीत 

सोंधी माटी में उपजी है
निर्मल पावन प्रीत,
यही मातृभूमि की गीता-
मधुर प्रणय के गीत!
आहार पोखर ताल तलैया,
झूमे वर्धा झूमे गैया,
तन का थिरकन,मन का सरगम-
घर घर गूंजे ता-ता थैया ;
ह्रदय-ह्रदय में उत्सव जागे-
भूलें विगत अतीत!
यही प्रणय की रीत!
नये टिकोरे डाली- डाली,
बांस झूम कर देते ताली,
पकी रहर में धंसती जाती-
नवल शशक की पांत निराली ;
आपस में हिल मिल कर नाचे-
जन मन की मधु प्रीत!
यही प्रणय की रीत!
कृषक- कंठ नव-गीत जगाए,
घर में गैया भोर रम्भाए,
शुक-पिक,पी-खग हियरा वेधे-
चंचल नयना भर-भर आए,
नई फसल में रहे तरंगित-
जीवन का संगीत ;
यही प्रणय की रीत!

महुए की गंध

भौरों के पंख खुले थिरकी सुगंध!
आ रही भीनी सी महुए की गंध!
धानी रंग गेहुओं की-
झूम रही बाली,
रक्त प्रभा फूल संग-
झूमे वनाली;
संयम के मुखर हुए आज निर्बन्ध!
आ रही भीनी सी महुए की गंध!
मस्ती में कोयल ने-
छेड़ी जो तान,
गूंज गए पंचम में,
खेत-खलियान ;
नगर-डगर आँगन-घर सब हैं स्वछंद!
आ रही भीनी सी महुए की गंध!
दर्पण सी दमक रही-
मुखड़े की लाली,
ऊमर त्योहार बनी-
पर्व कृष्ण-काली;
लूट लिए मधुपों ने यौवन-मरंद!
आ रही भीनी सी महुए की गंध!

मधुर आग जल गई

मधुर आग जल गई!
वासना अतृप्त बैठ-
जिंदगी को छल गई!
बस गए महल प्रदिप्त-
अदिप्त देख झोपड़ी,
लुटे प्रसन्न मौन मन-
गंध पा सिसक पड़ी ;
पूर्णिमा वसंत की-
आस मौन वर्तिका-
होलिका में जल गई!
मधुर आग जल गई!
न स्वाद मोद दे सकीं
हरी अनेक सब्जियाँ,
न सिद्ध हो सकीं भला कि
सूक्ष्म-स्थूल रोटियाँ;
कलह देख भाग्य पर-
अपर्व सानुराग मौन-
क्षुधा अमूर्त टल गई!
मधुर आग जल गई!
विलख रहे हैं बाल-वृन्द
झाल-ढोल-मंजिरा,
उमंग राग-रंग है-
निशा-दिवा है बेसुरा ;
दरिद्रता निकल गई!
पीर सुपाषाणवत-
उमर विक्षुब्ध ढल गई!
मधुर आग जल गई!

उदबोधन

बाँध उमर की फैली चादर
चलो कहीं अब और मदारी!
जग के हलचल कोलाहल में
दुनिया कहती है मुझे भिखारी!
डगर-डगर में भारी जमघट,
जिगर-जिगर में है घबराहट,
बात यहाँ की बड़ी निराली-
घर-घर दिखता जैसे मरघट!
अब तो बूढी हुई बनरिया,
ले चल बांधे नेह गठरिया,
जहाँ तमाशा बने न मेरे-
ढलते जीवन की लाचारी!
डमरू तेरा आज न सक्षम,
मुरली में भी रहा नहीं दम,
किस बूते पर फिर अजमाएँ-
वीणा के तारों पर पंचम!
झोली भी है फटी पुरानी,
मित्रों की भी आना-कानी ;
देती कुछ भी कभी न दुनिया
कहती लेकिन मुझे भिखारी!
प्रणय-गीत चंचल अधरों पर,
नृत्य-निरत भौरें पलकों पर,
सूने दिल की मुग्ध मयूरी-
थिरक रही श्यामल अलकों पर!
जाने आज हुआ क्यों आना,
तेरा यह संगीत सुनाना,
आकुल-व्याकुल अंतर तर में-
कैसी तेरी छवि है न्यारी!

किस को कैसे पीर दिखाऊँ

किसको कैसे पीर दिखाऊँ?
अंतरमन में घाव बहुत हैं,
अनचाहत के भाव बहुत हैं ;
दूर-दृष्टि पर घना अँधेरा-
कैसे जग को मर्म बताऊँ?
आंधी-ओला डेरा डाले,
हुआ बसेरा तमस हवाले,
तारे सभी तिरोहित नभ में-
आगे कैसे पाँव बढ़ाऊँ?
अपने भी जब छोड़ चले हैं,
रिश्ते नाते तोड़ चले हैं,
करुणा-ममता मोड़ चले हैं-
किससे फिर अब प्रीत लगाऊँ?
अपनों का साहस है छूटा,
मन का भी विश्वास है टूटा,
जग की इस होड़ा-होड़ी में-
किसकी छवि फिर ह्रदय बसाऊँ?
यही इश्वर की कठिन परीक्षा,
पूर्ण न होती मानवी इच्छा,
हुई नहीं भव-भाव समीक्षा-
किसका फिर कैसे यश गाऊँ?
किसको कैसे पीर दिखाऊँ?

कुछ गीत प्रीत के गा तो लूँ 

अब ऐसी भी क्या बात हुई,
थोड़ी सी हँसी थोड़ी सी खुसी-
यह बीत नहीं तो रात गई ;
बस थोडा सा ठहर अभी,
कुछ गीत प्रीत के गा तो लूँ!

ये बाग-बगीचे झूम रहे,
कलिओं को भौंरे चूम रहे,
ये ताल- घाट-सर-नदी-तरी,
बहकी धाराएँ मचल पड़ीं,
बतला कैसे इनको छोडूँ?
इनसे कैसे अब मुह मोडूँ?
इन्होने सब मिल प्राण दिए-
अमृत त्यागे हर गरल पिए,
इनसे मिल लूँ उनसे मिल लूँ-
बस थोडा सा ठहर अभी,
कहकर इनको जो नहीं कही-
मै आता हूँ जी आता हूँ-
कुछ गीत प्रणय का गा तो लूँ!

यह काल रात्रि यह मोह निशा,
अंगड़ाई लेती उठी उषा,
अरुणाभ नयन से प्रात भोर,
कर सभी दिशाएँ उठी शोर,
वाल-वृद्ध चले उठे सरोष,
हन्ता पर प्रतिहन्ता नहीं दोष,
है आज उद्वेलित घर-प्रांगन-
नगर-डगर सभी समर आंगन ;
भरा पाप- घट नहीं अब शेष,
देकर अरि-दल को यह सन्देश-
मै आता हूँ फिर आता हूँ
बस थोडा सा ठहर अभी-
कुछ ताप ह्रदय का घटे कहीं-
कुछ गीत प्रीत का गा तो लूँ?

ये बाढ़-ताड़ घेराबंदी,
अपने विस्तार की चौहदी,
हिमगिरि के परम उतुंग शिखर,
विन्ध्य नाग तल घाटी गहवर,

बहका-बहका ना पाक चलन,
गोली-बारी पर मौन सदन,
चहकी-सिसकी जल-थल सेना,
घुसकर चुपके से सह देना,
बतला दूँ उनको किया वही-
नापाक पाप कुछ कटे सही-
यह बीत नहीं तो रात गई-
बस थोड़ा सा ठहर अभी
मै आता हूँ फिर आता हूँ
कुछ गीत प्रीत का गा तो लूँ?

मौसम गीतों का तब आता

जब पड़ती है मार तपन की-
मौसम गीतों का तब आता ;
स्वर दादुर-पिक- मोर-पपीहा-
के कंठों में सधकर छाता,
तपन पुष्प-कलि वह अभिलाषा
जो वृंत पर खड़ी मुरझाई ;
तपन कंटकाकीर्ण क्रोड़ में
मादकता रंगीन लुटाई ;
तपन वाग बीच बीथिका में
पटल पनस रसाल की डाली-
पर बैठी मधु मादक पीती-
कूक न पाई कोयल काली
तपन कीच में जल को छल कर-
सुन्दर-गन्धित फूल खिलाता,
तपन पाटली के सुकंठ से
थकित पथिक को गीत सुनाता;
तपन कोलाहल बाली संसद-
की गलियारों में जब छाता
सध,देश के जन-मानस को-
नारा बन धोखा दे जाता ;
तपन द्वेषागार है बनता
जब नेता की जीत ना होती
तपन विरोधी रोष बढ़ाता
लाल किले पर हों जब मोदी
तपन अमेरिका के बराक को
स्वागत करना है सिखलाता,
वीजा पर खंजर डाले-को
घर लाकर मेहमान बनाता,
तपन कुढाता भावुक मन को
प्रेमी का दर होता खाली,
तपन खिझाता तब कवियों को
जब श्रोता नहीं देते ताली।
तपन उडाता नींद प्रिया की
अनचाही सौतन का कन्धा,
तपन गलाता देह प्रिय की
अनचाहे गोरस का धंधा।
तपन तपस्वी के दिल धंसकर-
आदिकवि का गीत उठाता,
तपन मदन-क्रीड़ा-पीड़ा में-
क्रौंच-बेध की क्रांति जगाता;
तपन ताड़का नारी हन्ता-
को पुरुषोतम राम बनाता,
तपन कल्पना दसकंधर की
कनक नगर में राख उड़ाता।
खर-श्रृंगाल-श्वान मुख ऊपर
कर, अनहद के राग उठाते,
तपन अपावन सुर-असुरों को
रस-बस कर नित भय उपजाते;
तपन ह्रदय की वो चिनगारी
जिसके द्वेषाधीन है दुनिया,
तपन तोड़ मर्यादा-संयम
धुनता जैसे रूआ धुनिया;
तपन प्रेमाधीन जगत के-
प्राणों में बसकर गाता है,
स्वर दादुर पिक मोर पपीहा
के कंठों मे सध छाता है।

नाविक, अड़ो न अपनी ताव में

नाविक! अड़ो न अपनी ताव में,
मुझको भी तो ले लो अपनी
खुलने वाली नाव में ;

जगह तनिक मैं यार न लूँगा,
तन का क्या मन भार न दूंगा ;
जो कहोगे वह सब सहूंगा ;
बन्धु,नहीं अब यहाँ रहूँगा ;

मेला तो घनघोर यहाँ है,
भीड़-भाड़ अति शोर यहाँ है,
पर मै तो कुछ बेच न पाया-
घूम-घाम दिन ब्यर्थ गवायाँ-
मोल-तोल में शाम हो गई-
मिला न कुछ भी भाव में।

पास रहा जो बचा न पाया,
गुण-अवगुण कुछ काम न आया ;
वाट-घाट तक फेरी डाली,
बिका,दाम भी हाथ न आया ;
ले लेना कुछ उतराई जो-
बचा सका कर चतुराई जो-
सच कहता जो कुछ है तन-धन-
नहीं मुझे कुछ है ले जाना-
नदी पार उस गाँव में।

ठाट-हाट भी उखड़ा-उखड़ा,
बाट-बाट जन-गण है उमड़ा,
बिखरा पसरा सबका असरा,
आस-पास परिजन का नखरा,
चला समेटे खाट मदाड़ी-
भालू-वनरी- ठाट मदाड़ी-
मांझी! सब आते ही होंगे-
ढोंगी-पंडित सिद्ध अनाड़ी ;
हुई देर तो भीड़ बढ़ेगी-
मांझी!
तरणी गली पुरानी भी है
बांध न आफत पाँव में।

स्वागतम्-सुस्वागतम्

स्वागतम्-सुस्वागतम्।
बसंत का है आगमन,

भरी धरा भरा गगन,
बसन्त का है आगमन,
बिखर गई घनी तमा,
पसर गई हरीतिमा,
धरा नवल श्रृंगार ले,
मनोज के गले मिले,
कलि खिली खिले सुमन,
बसंत का है आगमन।
हेमवंत सुपग हिले,
फाग राग गले मिले,
मदन-सर संधान से,
कुमारियों के मन चले,
उलझ रहे भरे सु-मन,
बसंत का है आगमन।
चलो उसे श्रृंगार दें,
प्यार भी अपार दें,
झुलस रहे मृदुल बदन,
सुलग रहे मन ही मन,
खिले चमन खुले भवन
बसन्त का है आगमन।

शुक्र धार हाथ ले,
काम शास्त्र साथ ले,
नगर-डगर गली वाग;
कूक उठी फाग राग,
पड़े कान मदन राग,
यमन-रमण-नगन-तगन
बसंत का है आगमन।

Leave a Reply

Your email address will not be published.