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वो जब ये कहते हैं तुझ से ख़ता ज़रूर हुई 

वो जब ये कहते हैं तुझ से ख़ता ज़रूर हुई
मैं बे-क़सूर भी कह दूँ कि हाँ ज़रूर हुई

नज़र को ताबे-तमाशाए-हुस्ने यार[1] कहाँ
ये इस ग़रीब को तम्बीहे-बेक़सूर[2] हुई

तुफ़ैले-इश्क[3] है ‘हसरत’ ये सब मेरे नज़दीक
तेरे कमाल की शोहरत जो दूर-दूर हुई

ख़ू समझ में नहीं आती तेरे दीवानों की

ख़ू[1] समझ में नहीं आती तेरे दीवानों की
जिनको दामन की ख़बर है न गिरेबानों की

आँख वाले तेरी सूरत पे मिटे जाते हैं
शम‍अ़-महफ़िल की तरफ़ भीड़ है परवानों की

राज़े-ग़म से हमें आगाह किया ख़ूब किया
कुछ निहायत[2] ही नहीं आपके अहसानों की

आशिक़ों ही का जिगर है कि हैं ख़ुरसंदे-ज़फ़ा[3]
काफ़िरों की है ये हिम्मत न मुसलमानों की

याद फिर ताज़ा हुई हाल से तेरे ‘हसरत’
क़ैसो-फ़रहाद के भूले हुए अफ़सानों की

और भी हो गए बेगाना वो ग़फ़लत करके 

और भी हो गए बेग़ाना वो गफ़लत करके
आज़माया जो उन्हें तर्के-मुहब्बत[1] करके

दिल ने छोड़ा है न छोड़े तेरे मिलने का ख़याल
बारहा[2] देख लिया हमने मलामत[3] करके

रुह ने पाई है तकलीफ़े-जुदाई से निजात[4]
आपकी याद को सरमाया-ए-राहत[5] करके

छेड़ से अब वो ये कहते हैं कि सँभलो ‘हसरत’
सब्रो-ताबे-दिल-बीमार[6] को ग़ारत[7] करके

सियहकार थे बासफ़ा हो गए हम 

सियहकार[1] थे बासफ़ा[2] हो गए हम
तेरे इश्क़ में क्या से क्या हो गए हम

न जाना कि शौक़ और भड़केगा मेरा
वो समझे कि उससे जुदा हो गए हम

उन्हें रंज अब क्यों हुआ? हम तो ख़ुश हैं
कि मरकर शहीदे-वफ़ा हो गए हम

तेरी फ़िक्र का मुब्तला[3] हो गया दिल
मगर क़ैदे-ग़म से रिहा हो गए हम

शिकवए-ग़म तेरे हुज़ूर किया

शिकवए-ग़म[1] तेरे हुज़ूर किया
हमने बेशक बड़ा क़ुसूर किया

दर्दे-दिल को तेरी तमन्ना ने
ख़ूब सरमायाए-सरूर[2] किया

नाज़े-ख़ूबाँ[3] ने आ़शिक़ों के सिवा
आ़रिफ़ों[4] को भी नासबूर[5] किया

यह भी इक छेड़ है कि क़ुदरत ने
तुमको ख़ुद-बीं[6] हमें ग़यूर[7] किया

नूरे-अर्ज़ो-समा[8] को नाज़ है यह
कि तेरी शक्ल में ज़हूर [9] किया

आपने क्या किया कि ‘हसरत’ से-
न मिले, हुस्न का ग़रूर किया!

मातम न हो क्यों भारत में बपा दुनिया से सिधारे आज तिलक 

मातम न हो क्यों भारत में बपा दुनिया से सिधारे आज तिलक[1]
बलवन्त तिलक, महराज तिलक, आज़ादों के सरताज तिलक
जब तक वो रहे, दुनिया में रहा हम सब के दिलों पर ज़ोर उनका
अब रहके बहिश्त में निज़्दे-ख़ुदा[2] हूरों पे करेंगे राज तिलक
हर हिन्दू का मज़बूत है जी, गीता की ये बात है दिल पे लिखी
आख़िर में जो ख़ुद भी कहा है यहीं फिर आएंगे महराज तिलक

इश्क़े-बुतां को जी का जंजाल कर लिया है

इश्क़े-बुताँ को जी का जंजाल कर लिया है
आख़िर में मैंने अपना क्या हाल कर लिया है

संजीदा[1] बन के बैठो अब क्यों न तुम कि पहले
अच्छी तरह से मुझको पामाल[2] कर लिया है

नादिम[3] हूँ जान देकर, आँखों को तूने ज़ालिम
रो-रो के बाद मेरे क्यों लाल कर लिया है

हाले-मजबूरिए-दिल की निगरां ठहरी है

हाले-मजबूरिए-दिल[1] की निगराँ[2] ठहरी है
देखना वह निगहे-नाज़ कहाँ ठहरी है

यार बे-नामो-निशाँ था सो उसी निस्बत से
लज़्ज़ते-इश्क़ भी बे-नामो-निशाँ ठहरी है

ख़ैर गुज़री कि न पहुँची तेरे दर तक वर्ना
आह ने आग लगा दी है जहाँ ठहरी है

दुश्मने-शौक़ कहे और तुझे सौ बार कहे
इसमें ठहरेगी न ‘हसरत’ की ज़बाँ ठहरी है

क्या किया मैंने कि इज़हारे-तमन्ना कर दिया

हुस्ने-बेपरवा को[1] ख़ुदबीन[2]ओ ख़ुदारा[3] कर दिया
क्या किया मैंने कि इज़हारे-तमन्ना[4] कर दिया

बढ़ गयीं तुम से तो मिल कर और भी बेताबियाँ
हम ये समझे थे कि अब दिल को शकेबा [5] कर दिया

पढ़ के तेरा ख़त मेरे दिल की अजब हालत हुई
इज़्तराब-ए-शौक़[6] ने इक हश्र बरपा[7] कर दिया

हम रहे याँ[8] तक तेरी ख़िदमत[9] में सरगर्मो-नियाज़[10]
तुझको आख़िर आश्ना-ए-नाज़-ए-बेजा[11] कर दिया

अब नहीं दिल को किसी सूरत, किसी पहलू क़रार[12]
इस निगाहे-नाज़[13] ने क्या सिह्र[14] ऐसा कर दिया

इश्क़ से तेरे बढ़े क्या-क्या दिलों के मर्तबे[15]
मेह्र[16] ज़र्रों[17] को किया क़तरों[18] को दरिया कर दिया

तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझको क्या मजाल
देखता था मैं कि तूने भी इशारा कर दिया

सब ग़लत कहते थे लुत्फ़े-यार को वजहे-सकून
दर्दे-दिल इसने तो ‘हसरत’ और दूना कर दिया

बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा

बाम[1] पर आने लगे वो सामना होने लगा
अब तो इज़हारे-महब्बत[2] बरमला होने लगा

वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं

वस्ल[1] की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं
आरज़ूओं[2] से फिरा करती हैं तक़दीरें[3]कहीं

बेज़बानी[4] तर्जुमाने-शौक़े-बेहद[5]हो न हो
वर्ना पेशे-यार[6] काम आती हैं तक़रीरें[7] कहीं

मिट रही हैं दिल से यादें रोज़गारे-ऐश की
अब नज़र काहे को आयेंगी ये तस्वीरें कहीं

इल्तिफ़ात-ए-यार[8] था इक ख़्वाब-ए-आग़ाज़े-वफ़ा[9]
सच हुआ करती हैं इन ख़्वाबों की ताबीरें[10] कहीं

तेरी बेसब्री[11] है ‘हसरत’ ख़ामकारी[12] की दलील
गिरिया-ए-उश्शाक़[13] में होती हैं तासीरें[14] कहीं

भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं

भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही[1] तर्के-उल्फ़त[2] पर वो क्योंकर याद आते हैं

न छेड़ ऐ हम नशीं कैफ़ीयते-सहबा[3] के अफ़साने
शराबे-बेख़ुदी[4] के मुझको साग़र[5] याद आते हैं

रहा करते हैं क़ैद-ए-होश[6] में ऐ वाये नाकामी
वो दश्ते-ख़ुद फ़रामोशी के चक्कर याद आते हैं

नहीं आती तो याद उनकी महीनों भर नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं

हक़ीक़त खुल गई ‘हसरत’ तेरे तर्के-महब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़कर याद आते हैं

फिर भी है तुम को मसीहाई का दावा देखो

फिर भी है तुमको मसीहाई का दावा देखो
मुझको देखो मेरे मरने की तमन्ना देखो

जुर्मे-नज़्ज़ारा[1] पे कौन इतनी ख़ुशामद करता
अब भी वो रूठे हैं लो और तमाशा देखो

दो ही दिन में है न वो बात , न वो चाह, न प्यार
हम ने पहले ही ये तुम से न कहा था देखो

हम न कहते थे बनावट से है सारा ग़ुस्सा
हँस के लो फिर वो उन्होंने हमें देखा देखो

मस्ती-ए-हुस्न से अपनी भी नहीं तुम को ख़बर
क्या सुनो अर्ज़ मेरी हाल मेरा क्या देखो

घर से हर वक़्त निकल आते हो खोले हुए बाल
शाम देखो न मेरी जान सवेरा देखो

ख़ाना-ए-जाँ[2] में नुमुदार[3] है इक पैकर-ए-नूर[4]
हसरतो आओ, रुख़े-यार[5] का जल्वा देखो

सामने सबके मुनासिब नहीं हम पर ये इताब[6]
सर से ढल जाए न ग़ुस्से में दुपट्टा देखो

मर मिटे हम तो कभी याद भी तुमने न किया
अब महब्बत का न करना कभी दावा देखो

दोस्तो तर्के-महब्बत [7]की नसीहत है फ़ज़ूल
और न मानो तो दिले-यार को समझा देखो

सर कहीं बाल कहीं हाथ कहीं पाँव कहीं
उसका सोना भी है किस शान का सोना देखो

अब तो शोख़ी से वो कहते हैं सितमगर हैं जो हम
दिल किसी और से कुछ रोज़ ही बहला देखो

हवस-ए-दीद[8] मिटी है न मिटेगी ‘हसरत’
देखने के लिए चाहो उन्हें जितना देखो

है मश्क़े-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी

है मश्क़े-सुख़न[1]जारी, चक्की की मशक़्क़त[2] भी
इक तरफ़ा[3]तमाशा है हसरत की तबीयत भी

जो चाहो सज़ा दे लो तुम और भी खुल-खेलो
पर हम से क़सम ले लो की हो जो शिकायत भी

ख़ुद इश्क़ की गुस्ताख़ी सब तुझको सिखा देगी
अय हुस्न-ए-हया परवर शोख़ी भी शरारत भी

उश्शाक़[4] के दिल नाज़ुक, उस शोख़ की ख़ू[5] नाज़ुक
नाज़ुक इसी निस्बत[6] से है कारे-महब्बत[7] भी

अय शौक़ की बेबाकी वोह क्या तेरी ख़्वाहिश थी
जिसपर उन्हें ग़ुस्सा है, इनकार भी ,हैरत भी

याद हैं सारे वो ऐशे-बा-फ़राग़त के मज़े 

याद हैं सारे वो ऐशे-बा-फ़राग़त[1] के मज़े
दिल अभी भूला नहीं आग़ाज़-उल्फ़त[2] के मज़े

वो सरापा[3] नाज़[4] था बेग़ाना-ए-रस्म-ए-जफ़ा[5]
और मुझे हासिल थे लुत्फ़े-बे-निहायत[6] के मज़े

हुस्न से अपने वो ग़ाफ़िल[7] था, मैं अपने इश्क़ से
अब कहाँ से लाऊँ वो नावाक़फ़ीयत के मज़े[8]

मेरी जानिब[9] से निगाहे शौक़ की बेताबियाँ
यार की जानिब से आग़ाज़े-शरारत[10] के मज़े

याद हैं वो हुस्नो-ओ-उल्फ़त की निराली शोख़ियाँ
इल्तमास-ए-उज़्र-ओ-तमहीद-ए-शिकायत के मज़े

सेहतें लाखों मेरी बीमारी-ए-ग़म [11] पर निसार[12]
जिस में उठ्ठे बारहा उनकी अयादत[13] के मज़े

मस्ती के फिर आ गये ज़माने

मस्ती के फिर आ गये ज़माने
आबाद हुए शराबख़ाने

हर फूल चमन में ज़र-ब-कफ़[1] है
बाँटे हैं बहार ने ख़ज़ाने

सब हँस पड़े खिलखिला के ग़ुंचे
छेड़ा जो लतीफ़ा सबा[2] ने

सरसब्ज़[3] हुआ निहाले-ग़म[4] भी
पैदा वो असर किया हवा ने

रिन्दों[5] ने पिछाड़कर पिला दी
वाइज़[6] के न चल सके बहाने

कर दूँगा मैं हर वली[7] को मयख़्वार[8]
तौफ़ीक़[9] जो दी मुझे ख़ुदा ने

हमने तो निसार[10] कर दिया दिल
अब जाने वो शोख़, या न जाने

बेग़ाना-ए-मय[11] किया है मुझको
साक़ी की निगाहे -आश्ना[12] ने

मसकन[13] है क़फ़स[14] में बुलबुलों का
वीराँ[15] पड़े हैं आशियाने

अब काहे को आएँगे वो ‘हसरत’
आग़ाज़े-जुनूँ[16] के फिर ज़माने

घिर के आख़िर आज बरसी है घटा बरसात की

घिर के आख़िर आज बरसी है घटा बरसात की
मैकदों में कब से होती थी दुआ बरसात की

मूजब-ए-सोज़-ओ- सुरूर-ओ-बायस-ए-ऐश-ओ-निशात[1]
ताज़गी बख़्श-ए-दिल-ओ-जाँ [2]है हवा बरसात की

शाम-ए-सर्मा[3] दिलरुबा[4] था, सुबह-ए-गर्मा[5] ख़ुशनुमा[6]
दिलरुबा तर, खुशनुमा तर[7] है फ़ज़ा बरसात की

गर्मी-ओ-सर्दी के मिट जाते हैं सब जिससे मर्ज़
लाल लाल एक ऐसी निकली है दवा बरसात की

सुर्ख़ पोशिश [8]पर है ज़र्द-ओ-सब्ज़[9] बूटों की बहार
क्यों न हों रंगीनियाँ तुझपर फ़िदा बरसात की

देखने वाले हुए जाते हैं पामाल-ए-हवस
देखकर छब तेरी ऐ रंगीं अदा बरसात की

चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है

चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

बा-हज़ाराँ इज़्तराब-ओ-सद हज़ाराँ इश्तियाक़[1]
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है

तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है

खेंच लेना वोह मेरा परदे का कोना दफ़तन[2]
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है

जानकार सोता तुझे वो क़स्दे पा-बोसी[3] मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कराना याद है

तुझको जब तन्हा कभी पाना तो अज़ राहे-लिहाज़
हाले दिल बातों ही बातों में जताना याद है

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो क्या तुमको भी वो कारख़ाना [4] याद है

ग़ैर की नज़रों से बच कर सबकी मरज़ी के ख़िलाफ़
वो तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है

आ गया गर बस्ल की शब[5] भी कहीं ज़िक्रे-फ़िराक़[6]
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है

देखना मुझको जो बरगशता तो सौ-सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है

चोरी-चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

बावजूदे-इद्दआ-ए-इत्तिक़ा[7] ‘हसरत’ मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो ज़माना याद है

अब तो उठ सकता नहीं आँखों से बार-ए-इंतेज़ार 

अब तो उठ सकता नहीं आँखों से बार-ए-इंतज़ार
किस तरह काटे कोई लैल-ओ-नहार-ए-इंतज़ार

उन की उल्फ़त का यक़ीन हो उन के आने की उम्मीद
हों ये दोनों सूरतें तब है बहार-ए-इंतज़ार

मेरी आहें ना-रसा[1] मेरी दुआएँ ना-क़बूल
या इलाही क्या करूँ मैं शर्म-सार-ए-इंतज़ार

उन के खत की आरज़ू है उन के आमद का ख़याल
किस क़दर फैला हुआ है कारोबार-ए-इंतज़ार

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना
शेवा-ए-इश्क़[1] नहीं हुस्न को रुसवा करना

इक नज़र ही तेरी काफ़ी थी कि आई राहत-ए-जान
कुछ भी दुश्वार न था मुझ को शकेबा[2] करना

उन को यहाँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार
जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना

शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रख ले
दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना

कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है ‘हसरत’
उन से मिलकर भी न इज़हार-ए-तमन्ना करना

जज़्ब-ए-कामिल को असर अपना दिखा देना था

जज़्ब-ए-कामिल को असर अपना दिखा देना था
मेरे पहलू में उन्हें ला के बिठा देना था

कुछ तो देना था तेरे तघाफुल का जवाब
या खुदा बन के तुझे दिल से भुला देना था

तेर-ए-जाँ के सिवा किसको बनाते क़ासिद
उस सितम गर को पैग़ाम-ए-क़ज़ा देना था

दर्द मोहताज-ए-दावा हो ये सितम है या रब
जब दिया था तो कुछ इस से भी सवा देना था

वो जो बिगाड़े तो ख़फा तुम भी हुए क्यों “हसरत”
पा-ए-नकुव्वत पे सर-ए-शौक़ झुका देना था

कैसे छुपाऊँ राज़-ए-गम दीदा-ए-तर को क्या करूँ

कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म दीदा-ए-तर को क्या करूँ.
दिल की तपिश को क्या करूँ सोज़-ए-जिगर को क्या करूँ.

शोरिश-ए-आशिक़ी कहाँ और मेरी सादगी कहाँ
हुस्न को तेरे क्या कहूँ अपनी नज़र को क्या करूँ.

ग़म का न दिल में हो गुज़र, वस्ल की शब हो यूँ बसर
सब ये क़ुबूल है मगर ख़ौफ़-ए-सहर को क्या करूँ.

हाल मेरा था जब बुरा तब न हुई तुम्हें खबर
बाद मेरे हुआ असर अब मैं असर को क्या करूँ.

रोशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम

रोशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम

हैरत गुरूर-ए-हुस्न से शोख़ी से इज़तराब
दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं चलन तमाम

अल्लाह रे हुस्न-ए-यार की ख़ूबी के खु़द-ब-खु़द
रंगीनियों में डूब गया पैरहन तमाम

देखो तो हुस्न-ए-यार की जादू निगाहियाँ
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम

तोड़ कर अहद-ए-करम न-आशना हो जाइए 

तोड़ कर अहद-ए-क़रम न-आशना हो जाइए
बंदा परवर जाइए अच्छा ख़फा हो जाइए

राह में मिलिए कभी मुझ से तो अज़ारा-ए-सितम
होंठ अपने काट कर फ़ौरन जुदा हो जाइए

जी में आता है के उस शोख़-ए-तघाफुल केश से
अब न मिलिए फिर कभी और बेवफा हो जाइए

हाए रे बे-इख्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर
उस सरापा नाज़ से क्यूँ कर ख़फा हो जाइए

जो वो नज़र-बा-सरे लुत्फ़ आम हो जाये 

जो वो नज़र-बा-सरे लुत्फ़ आम हो जाये
अजब नहीं कि हमारा भी काम हो जाये

रहीं-ए-यास रहे, पहले आरजू कब तक
कभी तो आपका दरबार आम हो जाये

सुना है बार सरे बख्शीश है आज पीर मुगां
हमें भी काश अता कोई जाम हो जाए

तेरे करम पे है मोकुफ कामरानी-ए-शौक
ये ना तमामे इलाही तमाम हो जाये

सितम के बाद करम है जफा के बाद अता
हमें है बस जो यही इल्तजाम हो जाये

अता हो सोज वो या रब जुनूने हसरत को
कि जिससे पुख्ता यह सौदा-ए-खाम हो जाये

चेहराए-यार से नक़ाब उठा

चेहराए-यार से नक़ाब उठा
दिल से इक शोरे-इज़्तराब[1] उठा

रात पीरे-मुगाँ[2] की महफ़िल से
जो उठा मस्त उठा ख़राब उठा

हम थे बेबाक और वह महजूब[3]
शब, ग़रज़, लुत्फ़ बे-हिसाब उठा अपार

मस्ते-सहबाए-शौक़[4] है ’हसरत’
हमनशीं[5] सागरे-शराब उठा

सब्र मुश्किल है, ज़ब्त है दुशवार

सब्र मुश्किल है, ज़ब्त है दुशवार
दिले-वहशी है और जुनूने-बहार

लुत्फ़ कर लुत्फ़, ऐ सरापा[1] नाज़ !
तुझपे रंगीनी-ए-बहार निसार

रुह आज़ाद है ख़याल आज़ाद
जिस्मे-’हसरत’ की क़ैद है बेकार

सब हैं तेरी अंजुमन में बेहोश

सब हैं तेरी अंजुमन[1] में बेहोश
नज़्ज़ाराए-हुस्न का किसे होश

बेहोश किया है सबको तूने
अब जिसको ख़ुदाए-होश दे होश

हो जाऊँ निसारे-हैरते-इश्क़[2]
ऐ दानिश[3]-ओ-ऐ-करार-ओ-ऐ होश !

हम अरसाए-हश्र[4] में भी ’हसरत’
पहचान गए उन्हें ज़हे होश

बदल-ए-लज़्ज़ते-आज़ार कहाँ से लाऊँ

बदल-ए-लज़्ज़ते-आज़ार कहाँ से लाऊँ
अब तुझे ऐ सितमे-यार कहाँ से लाऊँ

है वहाँ शाने-तगाफ़ुल[1] को जफ़ा[2] से भी गुरेज़[3]
इल्तफ़ाते-निगहे-यार[4] कहाँ से लाऊँ

शेर मेरे भी हैं पुरदर्द वलेकिन ’हसरत’
’मीर’ का शेवाए-गुफ़्तार[5] कहाँ से लाऊँ

मय-ओ-मीना से यारियाँ न गईं 

मय-ओ-मीना[1] से यारियाँ न गईं
मेरी परहेज़गारियाँ न गईं

मर के भी ख़ाके-राहे-यार हुए
अपनी उल्फ़त-शुआरियाँ[2] न गईं

अश्कबारी से सोज़े-दिल[3] न मिटा
आह की शोलाबारियाँ [4]न गईं

हुस्न की दिलफ़रेबियाँ[5] न घटीं
इश्क़ की ताज़ाकारियाँ न गईं

सबने छोड़ा तुझे, मगर ’हसरत’
दर्द की ग़मगुसारियाँ[6] न गईं

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