Skip to content

मनचंदा बानी की रचनाएँ

 

ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था

ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था
क़ाइल ही तिरी बात का अन्दर से नहीं था

हर आंख कहीं दूर के मंज़र पे लगी थी
बेदार [1]कोई अपने बराबर से नहीं था

क्यों हाथ है ख़ाली कि हमारा कोई रिश्ता
जंगल से नहीं था कि समंदर से नहीं था

अब उसके लिये किस क़दर आसान था सब कुछ
वाक़िफ़[2]वो मगर सअई-ए-मुक़र्रर[3]से नहीं था

मौसम को बदलती हुई इक मौजे-हवा[4] थी
मायूस मैं

आज फिर रोने को जी हो जैसे

आज फिर रोने को जी हो जैसे
फिर कोई आस बंधी हो जैसे

शह्र में फिरता हूं तन्हा-तन्हा
आशना[1] एक वही हो जैसे

हर ज़माने की सदा-ए-मातूब [2]
मेरे सीने से उठी हो जैसे

ख़ुश हुए तर्के-वफ़ा[3] कर के हम
अब मुक़द्दर में यही हो जैसे

इस तरह शब गये टूटी है उमीद
कोई दीवार गिरी हो जैसे

यास[4] आलूद[5] है एक-एक घड़ी
ज़र्द[6] फूलों की लड़ी हो जैसे

मैं हूं और वादा-ए-फ़र्दा[7] तेरा
और इक उम्र पड़ी हो जैसे

बेकशिश [8] है वो निगाहे-सद्लुत्फ़[9]
इक महब्बत की कमी हो जैसे

क्या अजब लम्हा-ए-ग़म गुज़रा है
उम्र इक बीत गयी हो जैसे

‘बानी’ अभी मंज़र से नहीं था

क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या

क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या
हवा बंधी थी यहाँ पीठ पर संभलते क्या

फिर उसके हाथों हमें अपना क़त्ल भी था क़ुबूल
कि आ चुके थे क़रीब इतने बच निकलते क्या

यही समझ के वहां से मैं हो लिया रुख़सत
वो साथ चलते मगर दूर तक तो चलते क्या

तमाम शह्र था इक मोम का अजायबघर
चढ़ा जो दिन तो ये मंज़र न फिर पिघलते क्या

वो आसमां थे कि आँखें समेटतीं कैसे
वो ख़ाब थे कि मिरी ज़िन्दगी में ढलते क्या

निबाहने की उसे भी थी आरज़ू तो बहुत
हवा ही तेज़ थी इतनी चराग़ जलते क्या

उठे और उठ के उसे जा सुनाया दुख अपना
कि सारी रात पड़े करवटें बदलते क्या

न आबरू-ए-तअल्लुक़ ही जब रही ‘बानी’
बगैर बात किये हम वहां से टलते क्या

हरी सुनहरी, ख़ाक उड़ाने वाला मैं

हरी सुनहरी, ख़ाक उड़ाने वाला मैं ।
शफ़क[1] शजर[2] तसवीर बनाने वाला मैं ।

ख़ला के सारे रंग समेटने वाली शाम
शब की मिज़ह[3] पर ख़्वाब सजाने वाला मैं ।

फ़ज़ा[4] का पहला फूल खिलाने वाली सुब्‍ह
हवा के सुर में गीत मिलाने वाला मैं ।

बाहर भीतर फ़स्ल उगाने वाला तू
तेरे ख़ज़ाने सदा लुटाने वाला मैं ।

छतों पे बारिश, दूर पहाड़ी, हल्की धूप
भीगने वाला, पंख़ सुखाने वाला मैं ।

चार दिशाएँ जब आपस में घुल मिल जाएँ
सन्नाटॆ को दुआ बनाने वाला मैं ।

घने बनों में, शंख बजाने वाला तू
तेरी तरफ़ घर छोड़ के आने वाला मैं ।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.