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ASAD BANDAYUNI.jpg

मुझे भी वहशत-ए-सहरा पुकार मैं भी हूँ 

मुझे भी वहशत-ए-सहरा पुकार मैं भी हूँ
तेरे विसाल का उम्मीद-वार मैं भी हूँ

परिंद क्यूँ मेरी शाख़ों से ख़ौफ़ खाते हैं
के इक दरख़्त हूँ और साया-दार मैं भी हूँ

मुझे भी हुक्म मिले जान से गुज़रने का
मैं इंतिज़ार में हूँ शह-सवार मैं भी हूँ

बहुत से नेज़े यहाँ ख़ुद मेरी तलाश में हैं
ये दश्त जिस में बरा-ए-शिकार मैं भी हूँ

हवा चले तो लरज़ती है मेरी लौ कितनी
मैं इक चराग़ हूँ और बे-क़रार मैं भी हूँ

पोशीदा क्यूं है तूर पे जलवा दिखा के देख

पोशीदा क्यूं है तूर पे जलवा दिखा के देख
ऐ दोस्त मेरी ताब-ए-नज़र आज़मा के देख

फूलों की ताज़गी ही नहीं देखने की चीज़
कांटों की सिम्त भी तो निगाहें उठा के देख

लेता नहीं किसी का पस-ए-मर्ग कोई नाम
दुनिया को देखना है तो दुनिया से जा के देख

दिल में हमारे दर्द ज़माने का है निहां
पैवस्त दिल में सैकड़ों पैकां जफ़ा के देख

जो बादा-ख़्वार-ए-ग़म हैं उन्हें भी कभी कभी
साक़ी शराब-ए-हुस्न के साग़र पिला के देख

बन जाएगा कभी न कभी दर्द ही दवा
असद के दिल में दर्द की शिद्दत बढ़ा के देख

रोशनी में किस क़दर दीवार ओ दर अच्छे लगे 

रोशनी में किस क़दर दीवार ओ दर अच्छे लगे
शहर के सारे मकां सारे खण्डर अच्छे लगे

पहले पहले मैं भी था अमन ओ अमां का मोतरिफ़
और फिर ऐसा हुआ नेज़ों पे सर अच्छे लगे

जब तलक आजा़द थे हर इक मसाफ़त थी वबाल
जब पड़ी ज़ंजीर पैरों में सफर अच्छे लगे

दाएरा दर दाएरा पानी का रक़्स जावेदां
आँख की पुतली को दरया के भंवर अच्छे लगे

कैसे कैसे मरहले सर तेरी ख़ातिर से किए
कैसे कैसे लोग तेरे नाम पर अच्छे लगे

सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं 

सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
अजीब लोग हैं दीवाने होना चाहते हैं

न जाने किस लिए ख़ुशियों से भर चुके हैं दिल
मकान अब ये अज़ा-ख़ाने होना चाहते हैं

वो बस्तियाँ के जहाँ फूल हैं दरीचों में
इसी नवाह में वीराने होना चाहते हैं

तकल्लुफ़ात की नज़मों का सिलसिला है सिवा
तअल्लुक़ात अब अफ़साने होना चाहते हैं

जुनूँ का ज़ोम भी रखते हैं अपने ज़ेहन में हम
पड़े जो वक़्त तो फ़रज़ाने होना चाहते हैं

शाख़ से फूल से क्या उस का पता पूछती है 

शाख़ से फूल से क्या उस का पता पूछती है
या फिर इस दश्त में कुछ और हवा पूछती है

मैं तो ज़ख़्मों को ख़ुदा से भी छुपाना चाहूँ
किस लिए हाल मेरा ख़ल्क़-ए-ख़ुदा पूछती है

चश्म-ए-इंकार में इक़रार भी हो सकता था
छेड़ने को मुझे फिर मेरी अना पूछती है

तेज़ आँधी को न फ़ुर्सत है न ये शौक़-ए-फ़ुज़ूल
हाल ग़ुँचों का मोहब्बत से सबा पूछती है

किसी सहरा से गुज़रता है कोई नाक़ा-सवार
और मिज़ाज उस का हवा सब से जुदा पूछती है

सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ 

सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ
तेरा फ़साना तुझी को सुनाता रहता हूँ

मैं अपने आप से शर्मिंदा हूँ न दुनिया से
जो दिल में आता है होंटों पे लाता रहता हूँ

पुराने घर की शिकस्ता छतों से उकता कर
नए मकान का नक़्शा बनाता रहता हूँ

मेरे वजूद में आबाद हैं कई जंगल
जहाँ मैं हू की सदाएँ लगाता रहता हूँ

मेरे ख़ुदा यही मसरूफ़ियत बहुत है मुझे
तेरे चराग़ जलाता बुझाता रहता हूँ

अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है

अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है
जमाव दोनों महाज़ों पे लश्करों का है

किसी ख़याल किसी ख़्वाब के सिवा क्या हैं
वो बस्तियाँ के जहाँ सिलसिला घरों का है

उफ़ुक़ पे जाने ये क्या शय तुलू होती है
समाँ अजीब पुर-असरार पैकरों का है

ये शहर छोड़ के जाना भी मारका होगा
अजीब रब्त इमारत से पत्थरों का है

वो एक फूल जो बहता है सतह-ए-दरिया पर
उसे ख़बर है के क्या दुख शनावरों का है

उतर गया है वो दरिया जो था चढ़ाव पर
बस अब जमाव किनारों पे पत्थरों का है

अजब दिन थे के इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था

अजब दिन थे के इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था
कभी हासिल हमें ख़स-ख़ाना ओ बरफ़ाब रहता था

उभरना डूबना अब कश्तियों का हम कहाँ देखें
वो दरिया क्या हुआ जिस में सदा गिर्दाब रहता था

वो सूरज सो गया है बर्फ़-ज़ारों में कहीं जा कर
धड़कता रात दिन जिस से दिल-ए-बे-ताब रहता था

जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
हमारी सब किताबों में इक ऐसा बाब रहता था

सुहाने मौसमों में उस की तुग़यानी क़यामत थी
जो दरिया गरमियों की धूप में पायाब रहता था

वो एक नाम जो दरिया भी है किनारा भी 

वो एक नाम जो दरिया भी है किनारा भी
रहा है उस से बहुत राबता हमारा भी

चमन वही के जहाँ पर लबों के फूल खिलें
बदन वही के जहाँ रात हो गवारा भी

हमें भी लम्ह-ए-रुख़्सत से हौल आता है
जुदा हुआ है कोई मेहर-बाँ हमारा भी

अलामत-ए-शजर-ए-सायादार भी वो जिस्म
ख़राबी-ए-दिल-ओ-दीदा का इस्तिआरा भी

उफ़ुक़ थकन की रिदा में लिपटता जाता हूँ
सो हम भी चुप हैं और इस शाम का सितारा भी

बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है

बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है
ये तजरबे भी इसी ज़िंदगी में करना है

हवा दरख़्तों से कहती है दुख के लहजे में
अभी मुझे कई सहराओं से गुज़रना है

मैं मंज़रों के घनेपन से ख़ौफ़ खाता हूँ
फ़ना को दस्त-ए-मोहब्बत यहाँ भी धरना है

तलाश-ए-रिज़्क़ में दरिया के पंछियों की तरह
तमाम उम्र मुझे डूबना उभरना है

उदासियों के ख़द-ओ-ख़ाल से जो वाक़िफ़ हो
इक ऐसे शख़्स को अक्सर तलाश करना है

गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा

गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
एक ही रंग है दुनिया को जिधर से देखा

हमसे ऐ हुस्न अदा कब तेरा हक़ हो पाया
आँख भर तुझको बुज़ुर्गों के न डर से देखा

अपनी बांहों की तरह मुझको लगीं सब शाख़ें
चांद उलझा हुआ जिस रात शजर से देखा

हम किसी जंग में शामिल न हुए बस हमने
हम तमाशे को फ़क़त राह-गुज़र से देखा

हर चमकते हुए मंज़र से रहे हम नाराज़
सारे चेहरों को सदा दीदा-ए-तर से देखा

फूल से बच्चों के शानों पे थे भारी बस्ते
हमने स्कूल को दुश्मन की नज़र से देखा

जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया 

जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
मैं उसके हुस्न पे इक रोज़ ख़ाक डाल आया

ये इश्क़ ख़ूब रहा बावजूद मिलने के
न दरमियान कभी लम्हा-ए-विसाल आया

इशारा करने लगे हैं भंवर के हाथ हमें
ख़ोशा के फिर दिल-ए-दरिया में इश्तिआल आया

मुरव्वतों के समर दाग़दार होने लगे
मुहब्बतों के शजर तुझ पे क्या ज़वाल आया

हसीन शक्ल को देखा ख़ुदा को याद किया
किसी गुनाह का दिल में कहां ख़याल आया

ख़ुदा बचाए तसव्वुफ़ गुज़ीदा लोगों से
कोई जो शेर भला सुन लिया तो हाल आया

जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं 

जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं
अजीब लोग हैं क्या ख़्वाब देख सकते हैं

समंदरों के सफ़र सब की क़िस्मतों में कहाँ
सो हम किनारे से गिर्दाब देख सकते हैं

गुज़रने वाले जहाज़ों से रस्म ओ राह नहीं
बस उन के अक्स सर-ए-आब देख सकते हैं

हवा के अपने इलाक़े हवस के अपने मक़ाम
ये कब किसी को ज़फ़रयाब देख सकते हैं

ख़फ़ा हैं आशिक़ ओ माशूक़ से मगर कुछ लोग
ग़ज़ल में इश्क़ के आदाब देख सकते हैं

कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है

कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है
मंज़र यहाँ तमाम मगर करबला का है

आते हैं बर्ग ओ बार दरख़्तों के जिस्म पर
तुम भी उठाओ हाथ के मौसम दुआ का है

ग़ैरों को क्या पड़ी है के रुसवा करें मुझे
इन साज़िशों में हाथ किसी आश्ना का है

अब हम विसाल-ए-यार से बेज़ार हैं बहुत
दिल का झुकाव हिज्र की जानिब बला का है

ये क्या कहा के अहल-ए-जुनूँ अब नहीं रहे
‘असअद’ जो तेरे शहर में बंदा ख़ुदा का है

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