दिनांक
आज इतनी हलचलें हैं कि सिर्फ हलचलें हैं
उदासी का चेहरा सिर्फ खुद हो नज़र आता है
सभी कोनों में सिर्फ रोशनी और आवाज़ें हैं
शहर से बाहर जाने का हर रास्ता शहर के बीच से होकर जाता है
अकेले होने में कोई आश्चर्य नहीं है यही भय है
इस रहस्य को कोई नहीं जानता कि आप लोगों के बीच नहीं है
पास से चीज़ें गुज़रेंगी ओर हर चीज़ के गंतव्य होंगे
यात्राएँ होंगी पर विषय नहीं
यह चिंता का विषय होगा पर चिन्ता नहीं होगी
अंत में दिन ढल जाएगा
और यही जवाब होगा इस दिन का
अंत में ख़ामोशी होगी जो दूसरे पैदा करेंगे
अंत में दिन का अंत होगा,जो पहले ही सबमें बँट जाएगा
फिर कोई नहीं रह जाएगा सिवाय आपके जो रात को देखेगा
सिवाय कोई नही होगा के जो आपकी देखेगी
अब जो कुछ भी होगा सुबह में होगा
इस वक्त केवल यही एक सच होगा
जो कवि के रूप में मर गया
अच्छी कविताएँ नौकरों द्वारा नहीं लिखी जा सकतीं
कम-से-कम उनके द्वारा तो नहीं जो अपनी नौकरी के प्रति सचेत नहीं हैं
हर नौकरी एक छुरी होती है छोटी या बड़ी
जो हमारे कवि-हृदय को
थोड़ा-थोड़ा छीलती रहती है
एक दिन वह ठूँठ रह जाता
यद्यपि तब तक हमें रहने को
अच्छा घर मिल चुका होता
और हमारे बच्चे अमेरिका में
एम.बी.ए.या ऐसा ही कुछ पढ़ने गये होते हैं
तब हम कविताएँ नहीं लिखते
बस अँगीठी के पास आरामकुर्सी पर बैठे
चर्चित युवा कवियों की किताबें देखते हैं
कभी-कभार कविता भी लिख डालते हैं
यद्यपि मन-ही-मन उनकी व्यर्थता के प्रति आश्वस्त होते हैं
कोई नया संकलन भी आ सकता है हमारा
जो कि बहुत जल्दी छप जाता है
बनिस्पत उन दिनों के जब हम युवा थे फटेहाल
और ऊर्जा से भरी जानदार कविताएँ लिखते थे
यह हमारी मृत्यु का एक और लक्षण होता है
कि हमें इस फर्क का ख़्याल कभी नहीं आता।
आराम से थैला लटकाए
आपकी नींद में
शराब पीना बतियाना देर तक
हर मुस्कान हर समर्थन
मित्रता के हर उदगार में
धनुष की तरह खींचा हुआ माथा
1989 के एक कवि का बयान है ये
जब वह मिला
एक दूसरे कवि से
यूँ वे दरवाज़ों की तरह खुले थे
आगंतुकों के लिए
पर न जाने किस गुमी हुई चीज़ को ढूँढने में व्यस्त थे
लम्बे समय से निरंतर
उन्हें एक दूसरे का भेद पाने का कोई आग्रह नहीं था
फिर भी भेद खुल रहे थे
वे अपने कवि होने के सिक्के को
बार-बार जेब से निकाल रहे थे
और उसकी खनक को देखते खुश थे
वे मनुष्य जैसी किसी चीज़ की
बार-बार पहचान कर खुश थे
वे खुश थे जीवन को देखकर
और कई चीज़ों के प्रति
फिर से आश्वस्त थे।
बर्तोल्त। अच्छी कविताओं के लिए धन्यवाद
बर्तोल्त! पीछे पढ़ी तुम्हारी कविताएँ। जाना था कम कि तुम हो शानदार
कवि भी। अभी हिन्दी में तो बुरा हाल है। नाम तो खूब है तुम्हारा, पर सीखते नहीं
हैं तुमसे कुछ। घिसटते घिसटते चलते हैं हमारे कवि ओर अपने ढह जाने पर
मुग्ध हैं। यूँ वे भले लोग हैं पर वे नहीं जानते भलेपन से कितनी ऊब आती है
आजकल। शर्म सी आती है कि कितने कमज़ोर हो गए हैं कि भले हो गये हैं।
कितने थक गये हैं कि बुद्धिजीवी हो गये हैं। घर-बार के झंझट में इतना डूबे कि
उनका मार्मिकीकरण होकर रहा। यूँ वे यारबाश हैं पर यारों के समझाये समझते
नहीं। अब उन्हें कौन समझाए। उन्हें कौन बताए कि गम्भीर बातें छोड़ो और चाय
के खोखे पर चलो। ई0पी0डब्ल्यू0 नहीं पढ़ेंगे तो कहर नहीं टूट पड़ेगा। वे चाहें तो
तुम्हारी भी किताबें रख सकते हैं एक ओर। उनसे कहो कि वो बेहतर कविता
की चिंता ज़्यादा न करे और खोखे पर बैठें। यूँ हमारे कई बेहतर कवि तो
उधर नहीं जाते पर मुझे लगता है कि जोरों से तलाश की जाने वाली बेहतर कविता
वहाँ हो सकती है। ऐसा आभास मुझे वहाँ चाय पीते लोगों की बातचीत सुनकर
हुआ। मैं इतना बड़ा मार्किसस्ट तो नहीं कि कह दूँ कि बेहतर कविता लिखने के
लिए गरीबी ज़रूरी है पर इतना मेरा ख़्याल ज़रूर बन रहा है कि बेहतर कविता
खोखे पर ही होगी। जैसा पहले कहा ऐसा मुझे वहाँ चाय पीते लोगों की बातचीत
सुनकर लगा। तुम्हारी भाषा में तो खोखे को कुछ और कहते होंगे । अच्छा,अब
चलता हूँ। काफी अच्छी कविताएँ थीं तुम्हारी।
इतिहास
उसका बुख़ार नहीं जाता वह लम्बे समय से बीमार है
ना माओं की गिनती है न बेटों की
साईकिल और कारें हड़बड़ाई जाती हैं रेहड़ियाँ,आदमी
दूसरे आदमी को धक्का देता
खून से सभी को कै आती है पर ज़िन्दगी की छुरी
ज़्यदा कातिल है
सब कुछ के बावजूद दुनिया धुरी पर घूमती है
सब कुछ के बावजूद दुनिया धुरी पर घूमेगी
सड़कों और खेतों में लाशें हैं मुकाबले और मुठभेड़े
रोमाँचक कथा दर कथा
हत्या से मिलती है हत्या डर कर भागते हुए
यह बसंत है
प्यार अँगड़ाई लेता है बेशर्मी और निर्ममता से
समय रुक चुका है
पर उसकी फसल बिल्कुल पकी खड़ी है दराती वाले
हाथों के इंतज़ार में
बचपन विहीन अधिकार
अधिकारी का पता नहीं चलता
कि उसका कभी बचपन था
और ऊँचे अधिकारी का बचपन
लगभग बचपन खत्म हो जाता है
शेष जो बचा रहता है
वह है एक गुलाम चेहरा
देश के सबसे अच्छे ब्लेड से शेव किया
गुलाम चेहरा
कितना भद्र है एक गुलाम चेहरे का रूआब
कितना प्रामाणिक
यह रात को नी6द में घुसते किसी आम हिन्दुस्तानी से पूछें
देखें साँच को आँच नहीं
कर्मयोग पर उसका व्याख़्यान
सुना गया कितने ध्यान से
विद्यालय के दीक्षांत समारोह में
वह उसकी आत्मा के धुलने का क्षण था
एक सभ्रांत,महिमामंडित और राष्ट्रीय गदगद क्षण।
किशोरी
वह अभी से हारी नज़र आती है। वह ज़मीन ही नहीं
थी जहाँ इस उम्र में फूल खिलते हैं। ओह! बीस बरस
बाद वह याद करेगी यह दिन। तब उस समय की उसकी
हार और कई गुणा बढ़ जायेगी।
शहर-2
छुप कर शराब पीता युवा मुझे अच्छा लगा
मुझे अच्छा लगा उसका नाराज़ होना मेरे मना करने पर
मुझे अच्छा लगा उसका मेरे पैसों में से चुपके शराब लाना
मुझे अच्छा लगा उसकी आत्मा को चीरता हुआ दुख
उस शहर में जिसमें मैं रहता था मुझे अच्छा लगा
एक युवा का फड़फड़ाता दुःख
वह शहर मुझे अपना लगा कुछ क्षण
मुझे उसका लुढ़क जाना अच्छा लगा
मुझे उसका ख़्याल आना अक्छा लगा
वह शहर उस वक्त मुझे कुछ अच्छा लगा
वरना उस श्हर में क्या था आवाज़ों के अलावा
या कुछ लोगों के अनुसार खामोशी के अलावा
मुझे उसका आटा गूँथना अच्छा लगा
मुझे अच्छी लगी उसकी रोटियाँ
मुझे उसका बड़बड़ाना अच्छा लगा
मुझे उसका हड़बड़ाना अच्छा लगा
मुझे लगा हाँ यह भी एक शहर हुआ
मुझे उस वक्त उस शहर में अपना होना लगा
उस वक्त उस शहर में मुझे मरने से डर नहीं लगा
उस शहर में मैं जाने को नहीं हुआ उस वक्त
उस वक्त मेरी इच्छा नहीं हुई कि मैं पूछूँ वक्त
वह शहर मुझे कुछ ठीक ठाक लगा उस वक्त
इस तरह से मैं हुआ उस वक्त उस शहर का
प्यार-3
यह जँगल जो कि मैं हूँ
यह तुम जो कि मैं हूँ
यह मैं जोकि मैं नहीं हूँ
यह हरापन जो कि क्या है
ये बादल जोकि फूल है
ये बच्चे जो कि घर हैं
ये बकरियाँ जो कि कथा हैं
यह समय मैदान है
यह रस्ता नदी है
यह चुप एक पहाड़ी
होगी
प्रेम में कवि
उसे ऐसे छुओ
जैसे तुम उतारते हो पट्टी ज़ख़्म से
ध्यान से उसे छुओ
वह सुबह की झील के पानी की तरह
हल्का-हल्का हिल रहा है
वह हमारी सभ्यता का एक थका हुआ मनुष्य है
वह हमारी सभ्यता का अकेला मनुष्य है
जो अकेला हुआ
दूसरों के बारे में सोचता-सोचता
वह अभी एक दरवाज़े से निकल कर आया है
कुछ बदला हुआ
पर सच मैं धूल में पड़ा उसका एक हिस्सा बस पुँछा है
यद्यपि उसे कई देर तकआराम मिला
पर अब एक विस्तृत थकान के आनन्द में डूबा है वह
जिसके अर्थ जानने को वह
एक कविता से दूसरी कविता तक दौड़ रहा है
छवि
तुम्हारी स्मृति रहेगी सिर्फ एक स्त्री की तरह
अगले आठ या दस हज़ार दिन
एक चेहरा सामने रहेगा
यो जुड़ता जाएगा
दूसरी जगहों से बीनी गई चीज़ों के साथ
एक दिन इस चेहरे की उम्र समाप्त होगी
एक दिन यह सम्पत्ति भी गल जायेगी
मनुष्य-दो
किताबें लिखने नहीं आया था मैं दुनियाँ में
न ही लाईब्रेरियाँ बनाने
यद्यपि जानता हूँ लिखूँगा किताब
और अच्छी लगती हैं मुझे अच्छी किताबें
एक खोज को दे दिया गया था
इतिहास के किसी बनते क्षण में
यही खोजा मैंने
जब मैं थकान में से उबरा
जैसे जाल में गोताखोर
मनुष्य अथाह मनुष्यों के बीच मैं के मनुष्य
यह एक सुख था कि मनुष्य थे इतने
उनके बीच में मैं ऐसे था जैसे
पानी में गिरता सिक्का
आखिर मैं बादल बरसा तेज़ तेजम तेज
जल-थल हुआ सब
सड़क पर त्एज़-तेज जाता हुआ एक आदमी
बेतरह भीगा हुआ जाता एक आदमी
अपने घर
वह दुनिया का कोई एक मनुष्य था
जो गली का मोड़ मुड़ गया
आगामी
(चैन नहीं आयेगा शाम के बाद तक)
भीतर झम-झम बरसात होगी
सड़कें बीरान
आधी रात के समीप का समय होगा कोई
कोई गाड़ी जाती होगी अपने किसी गंतव्य पर
निश्चित
एक कुत्ता णर करेगा दृश्य गली के अदृश्य में
अचानक मुझे याद आयेगी माँ
मैं बुक्का फाड़ रोऊँगा
तभी सड़क से गुज़रेगा एक मनुष्य तेज़-तेज़
घर जहाँ उसे होना चाहिए था वक्त पर
तभी बिल्कुल तभी
कविता का दरवाज़ा कोई ऐसे भड़भड़ाएगा
जैसे टाँग में गोली लगी हो
हिसाब
जब मैं लौट कर आया मेरे हाथ में शाम की
कुछ टहनियाँ थी
जब मैं शाम को लौट कर आया तो पूरा दिन खर्च करके
मेरी जेब में दिन के जितने हरे नोट थी मैंने खर्च कर
डाले
मैंने पूरा दिन ऐसे नीलाम कर दिया जैसे
नीलाम करते हैं लोग सामान घर बदलते हुए
जब मैं शाम को घर लौटकर आया
तो मेरे हात में शाम की पत्तियाँ थी
हरी,मुलायम और घनी
घाटी के ऊपर की रात
यदि मैं चला चलूं इसके बेच में से गुज़रता हुआ
क्या यह एक्नदी है
जिसमें से हैं चुल्लू भर जल पी लूँ
क्या इस पर बर्फ जमी है
और मैं फिसलता चला जाऊँगा मैदान की रात में
इससे बातें करूँ
या इसे सुनूँ
यह इतनी अच्छी ओर अलग रात है
मैं इसका क्या करूँ
मैं इसका कुछ तो करूँ
क्या इसे तकिया बना कर सो जाऊँ