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सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का

सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का
शजर मिज़ाज समझते हैं राहगीरों का

किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का
जो धूप – छाँव से रिश्ता बनाये रहता है

ये रहबर आज भी कितने पुराने लगते हैं
की पेड़ दूर से रस्ता दिखाने लगते हैं

अजब ख़ुलूस अजब सादगी से करता है
दरख़्त नेकी बड़ी ख़ामुशी से करता है

पत्तों को छोड़ देता है अक्सर खिज़ां के वक़्त
खुदगर्ज़ी ही कुछ ऐसी यहाँ हर शजर में है

समझ में उसकी ,ये बात आएगी कभी न कभी 

समझ में उसकी ,ये बात आएगी कभी न कभी
चढ़ी नदी तो उतर जायेगी कभी न कभी

ख़मोश रह के सहा है हरेक ज़ुल्म तेरा
यही ख़मोशी गज़ब ढाएगी कभी न कभी

लाख ऊँचाई पे उड़ता हो परिंदा लेकिन
दाना दिखते ही ज़मीं पर वो उतर आता है

लाख मजबूत से मज़बूत सहारा दीजे
झूठ सच्चाई की दीवार से गिर जाता है

सर्द मौसम की हवाओं से लड़ें हम कब तक
अपना सूरज भी तो किरदार से गिर जाता है

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