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अज़ीज़ अहमद खाँ शफ़क़ की रचनाएँ

हर इक फ़नकार ने जो कुछ भी लिक्खा ख़ूब-तर लिक्खा

हर इक फ़नकार ने जो कुछ भी लिक्खा ख़ूब-तर लिक्खा
हवा ने पानियों पर पानियों ने रेत पर लिक्खा

दरख़्शाँ कितने लम्हे कर गया इक बर्ग-ए-जाँ रफ़्ता
शजर से गिर के उस ने दाएरों में किस क़दर लिक्खा

सुबुक से रंग हल्के दाएरा उभरे हुए शोशे
किसी ने कितनी फ़नकारी से इस के जिस्म पर लिक्खा

मैं हूँ ज़ुल्मत-गज़ीं ये खेल है तक़दीर का वर्ना
सियाही से भी मैं ने रौशनी के नाम पर लिक्खा

‘शफ़क़’ का रंग कितने वालेहाना-पन से बिखरा है
ज़मीं ओ आसमाँ ने मिल के उनवान-ए-सहर लिक्खा

जुनूँ-नवाज़ सफ़र का ख़याल क्यूँ आया

जुनूँ-नवाज़ सफ़र का ख़याल क्यूँ आया
किसी की राहगुज़र का ख़याल क्यूँ आया

न जाने कौन अपाहिज बना रहा है हमें
सफ़र में तर्क-ए-सफ़र का ख़याल क्यूँ आया

जुनूँ को तेरी ज़रूरत का क्यूँ हुआ एहसास
सफ़र-गुज़र को घर का ख़याल क्यूँ आया

बहुत दिनों से इधर उस को याद भी न किया
बहुत दिनों ये उधर का ख़याल क्यूँ आया

यहाँ तो और भी रहते हैं अहल-ए-दर्द ‘शफ़क’
तुम्हें पड़ोस के घर का ख़याल क्यूँ आया

वक़्त जब राह की दीवार हुआ

वक़्त जब राह की दीवार हुआ
कोई सैलाब नुमूदार हुआ

उस ने पेड़ों से हटा ली शाख़ें
बाग़ में से तू कई बार हुआ

मैं ने जो दिल में छुपाना चाहा
मेरे चेहरे से नुमूदार हुआ

साहिली-शाम का फैला मंज़र
कुछ लकीरों में गिरफ़्तार हुआ

रात इक शख़्स बहुत याद आया
जिस घड़ी चाँद नुमूदार हुआ

यही नहीं कि नज़र को झुकाना पड़ता है 

यही नहीं कि नज़र को झुकाना पड़ता है
पलक उठाऊँ तो इक ताज़ियाना पड़ता है

वो साथ में है मगर सब अमानतें दे कर
तमाम बोझ हमीं को उठाना पड़ता है

मैं उस दयार में भेजा गया हूँ सर दे कर
क़दम क़दम पे जहाँ आस्ताना पड़ता है

अंधेरा इतना है अब शहर के मुहाफ़िज़ को
हर एक रात कोई घर जलाना पड़ता है

तमाम बज़्म ख़फ़ा है मगर न जाने क्यूँ
मुशाइरे में ‘शफ़क़’ को बुलाना पड़ता है

ज़ौक़-ए-अमल के सामने दूरी सिमट गई 

ज़ौक़-ए-अमल के सामने दूरी सिमट गई
दरवाज़ा हम ने खोला तो दीवार हट गई

बेटे को अपने देख के इक बाप ने कहा
तुम हो गए जवान मगर उम्र घट गई

पहले तो ख़ुद को देख के हैरत-ज़दा हुई
चिड़िया फिर आईने से लपक कर चिमट गई

पतवार भी उठाने की मोहलत न मिल सकी
ऐसी चली हवाएँ कि कश्ती उलट गई

नाराज़ हो गया है ख़ुदा सब से ऐ ‘शफ़क’
दुनिया तमाम प्यार के रिश्ते से कट गई

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