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श्याम नारायण मिश्र की रचनाएँ

अहसासों का चौरा दरका

कौन करे दिये-बत्तियाँ
तुमने जो लिखी नहीं
मैंने जो पढ़ी नहीं
आँखों में तैर रहीं चिट्ठियाँ

छाती से
सूरज का दग्ध-लाल गोला लुढ़काकर,
अभी-अभी बैठा हूं
आँखों के दरवाज़े
पलकें उढ़काकर ।
भीतर ही भीतर
लगता है कोई
खोद रहा खत्तियाँ ।

सुबह-शाम
विष की थैली उलटाकर
समय-साँप सरका ।
नेह-छोह से तुमने
लीपा था पोता था,
भीतर अहसासों का चौरा दरका ।
खेल हैं, खिलौने हैं,
किसके संग करूँ कहो
फिर सग्गे-मित्तियाँ ।

मुक्त क्रीड़ामग्न होकर खिलखिलाना

ऊब जाओ यदि कहीं ससुराल में
एक दिन के वास्ते ही गाँव आना।

लोग कहते हैं तुम्हारे शहर में
हो गये दंगे अचानक ईद को ।
हाल कैसे हैं तुम्हारे क्या पता
रात भर तरसा विकल मैं दीद को ।

और, वैसे ही सरल है आजकल
आदमी का ख़ून गलियों में बहाना ।

शहर के ऊँचे मकानों के तले
रेंगते कीड़े सरीख़े लोग ।
औ’ उगलते हैं विषैला धुआँ
ये निरन्तर दानवी उद्योग ।

छटपटाती चेतना होगी तुम्हारी
ढ़ूंढ़ने को मुक्त-सा कोई ठिकाना ।

बाग़ में फूले कदम्बों के तले
झूलने की लालसा होगी तुम्हारी ।
पाँव लटका बैठ मड़वे के किनारे
भूल जाओगी शहर की ऊब सारी ।

बैठकर चट्टान पर निर्झर तले
मुक्त क्रीड़ा-मग्न होकर खिलखिलाना ।

जन्मगाथा गीत की

बाँस का जंगल जला,
फिर बाँसुरी ने
गीत गाए ।

तुम कहाँ हो
गीत की यह जन्मगाथा
मन सुनाए ।

तीर्थ से लौटी नहीं है
श्वास पश्चाताप की,
दूर तक फैली हुई
पगडंडियां है पाप की,

पोर गिन-गिन
उँगलियाँ
डाकिन चबाए ।

अस्थियाँ इतिहास की
कलश देहरी पर धरा है ।
और आँगन में अधूरे
क़त्ल का शोणित भरा है ।

कौन आँखों के दिए में
आग भर के
प्रेत को फिर से जगाए ।

समय के देवता !

ओ समय के देवता !
थोड़ा रुको,
मैं तुम्हारे साथ होना चाहता हूँ ।

तुम्हारे पुण्य-चरणों की
महकती धूल में
आस्था के बीज बोना चाहता हूँ ।

उम्र भर दौड़ा थका-हारा,
विजन में श्लथ पड़ा हूँ ।
विचारों के चक्के उखड़े,
धुरे टूटे,
औंधा रथ पड़ा हूँ ।

आँसुओं से अँजुरी भर-भर,
तुम्हारे चरण
धोना चाहता हूँ ।

धन-ऋण हुए लघुत्तम
गुणनफल शून्य ही रहा ।
धधक कर आग अंतस
हो रहे ठंडे, आँख से
बस धुआँ बहा ।

तुम्हारे छोर पर
क्षितिज पर,
अस्तित्व खोना चाहता हूँ ।

आग छूटी जा रही

उँगलियाँ सम्हालूँ
या दिया बालूँ,
आग छूटी जा रही है
मुट्ठियों से ।

आग का आकार
हाथों में अधूरा है,
इसे भीतर तक उतरने दो ।

दे रहा हूँ
एक आकृति आग को
रोशनी में धार धरने दो ।

आप भी अवसर मिले तो,
खोजना भीतर
आग जो माँ ने भरी
है घुट्टियों से ।

मन-मस्तिष्क सितार हो गए

तुमने
नेह-नज़र से देखा
सब अभाव अभिसार हो गए ।

मनु के
एकाकी जीवन में
श्रद्धा के अवतार हो गए ।

हर मौसम
वसंत का मौसम
रात चाँदनी रात हो गई ।
काँटों के
जंगल में जैसे
फूलों की बरसात हो गई ।

जब से
छेड़ दिया है तुमने
मन-मस्तिष्क सितार हो गए ।
तुमने नेह-नज़र से देखा
सब अभाव
अभिसार हो गए.

मनु के एकाकी जीवन में
श्रद्धा के
अवतार हो गए ।

पालों से फहरे दिन फागुन के

सेमल की शाखों पर
शत्‌-सहस्त्र कमल धरे,
कोहरे से उबरे,
दिन फागुन के ।

उबटन-सी लेप रही
आँगन में,
हल्दी-सी चढ़ी हुई
बागन में,

धूप गुनगुनी,
पत्तों को धार में
नचा रही,
अरहर के खेत में
बजा रही,
पवन झुनझुनी ।

मड़वे पर बिरहा
मेड़ों पर दोहरे,
लगा रहे पहरे,
दिन फागुन के ।

आँखों में उमड़े
हाट और मेले,
चाहेगा कौन
बैठना अकेले,
द्वार बंद कर ।

दिन गांजा-भंग पिए
रात पिए ताड़ी,
कौन चढ़े–हाँके
सपनों की गाड़ी,
नेह के नगर ।

साँझ औ’ सवेरे
नावों पै ठहरे,
पालों से फहरे,
दिन फागुन के ।

प्रणयगंधी याद में (नवगीत)

चू रहा मकरंद फूलों से,
उठ रही है गंध कूलों से ।

घाटियों में
दूर तक फैली हुई है चांदनी
बस तुम नहीं हो ।

गाँव के पीछे
पलाशों के घने वन में
गूँजते हैं बोल वंशी के रसीले
आग के
आदिम-अरुण आलोक में
नाचते हैं मुक्त कोलों के कबीले

कंठ में
ठहरी हुई है चिर प्रणय की रागिणी
बस तुम नहीं हो ।

किस जनम की
प्रणयगंधी याद में रोते
झर रहे हैं गंधशाली फूल महुओं के
सेज से
भुजबंध के ढीले नियंत्रण तोड़कर
जंगलों में आ गए हैं वृन्द वधुओं के

समय के गतिशील नद में
नाव-सी रुक गई है यामिनी
बस तुम नहीं हो ।

अगहन में

अगहन में ।

चुटकी भर
धूप की तमाखू,
बीड़े भर दुपहर का पान,
दोहरे भर
तीसरा प्रहर,
दाँतों में दाबे दिनमान,

मुस्कानें
अंकित करता है
फसलों की नई-नई उलहन में ।

सरसों के
छौंक की सुगँध,
मक्के में गुँथा हुआ स्वाद,
गुरसी में
तपा हुआ गोरस,
चौके में तिरता आल्हाद,

टाठी तक आए
पर किसी तरह
एक खौल आए तो अदहन में ।

मिट्टी की
कच्ची कोमल दीवारों तक,
चार खूँट कोदों का बिछा है पुआल,
हाथों के कते-बुने
कम्बल के नीचे,
कथा और क़िस्से, हुँकारी के ताल;

एक ओर ममता है, एक और रति है,
करवट किस ओर रहे
ठहरी है नींद इसी उलझन में ।

गीत कालातीत पर्वत के

घाटियों में,

लाल-पीली माटियों में,
ढल रहे हैं नील-निर्झर-गीत पर्वत के ।

पीकर बूँद पखेरू पागल
जंगल-जंगल चहके ।
चुल्लू भर पीकर वनवासी
घाटी-घाटी बहके ।

मादलों से,
होड़ करते बादलों से,
जब बरसते हैं सुधा-संगीत पर्वत के ।

सुबह पहाड़ों के माथों पर
मलती जब रोली ।
माला हो जाती वनवासी
कन्यायों की टोली ।

अर्गलाएँ,
तोड़ सारे द्वन्द्व सीमाएँ,
तौलते हैं बाजुओं को मीत पर्वत के ।

दुपहर छापक पेड़
ढूँढकर बैठी काटे घाम ।
संध्या की रंगीन छटाएँ
बंजारों के नाम ।

यामिनी में,
दूध धोई चांदनी में,
तैर जाते गीत कालातीत पर्वत के ।

प्यास औंधे मुँह पड़ी है घाट पर

शान्ति के
शतदल-कमल तोड़े गए
सभ्यता की इस पुरानी झील से।

लोग जो
ख़ुशबू गए थे खोजने
लौटकर आए नहीं तहसील से।

चलो उल्टे पाँव भागें
यह नगर
रंगीन अजगर है ।
होम होने के लिए आये जहाँ हम
यज्ञ की वेदी नहीं
बारूद का घर है ।

रोशनी के जश्न की
ज़िद में हुए वंचित
द्वार पर लटकी हुई कंदील से ।

हवा-आँधी बहुत देखी
धूल है बस धूल है,
बादल नहीं ।
प्यास औंधे मुँह पड़ी है घाट पर
इस कुएँ में
बूँद भर भी जल नहीं ।

दूध की
अंतिम नदी का पता जिसको था,
मर गया वह हंस लड़कर चील से ।

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