कविजन खोज रहे अमराई
जनता मरे, मिटे या डूबे इनने ख्याति कमाई ।।
शब्दों का माठा मथ-मथकर कविता को खट्टाते ।
और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते ।।
सोख रहीं गहरी मुषकैलें, डाँड़ हो रहा पानी ।
गेहूँ के पौधे मुरझाते, हैं अधबीच जवानी ।।
बचा-खुचा भी चर लेते हैं, नीलगाय के झुण्ड ।
ऊपर से हगनी-मुतनी में, खेत बन रहे कुण्ड ।।
कुहरे में रोता है सूरज केवल आंसू-आंसू ।
कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धांसू ।।
बाली सरक रही सपने में, है बंहोर के नीचे ।
लगे गुदगुदी मानो हमने रति की चोली फींचे ।।
जागो तो सिर धुन पछताओ, हाय-हाय कर चीखो ।
अष्टभुजा पद क्यों करते हो कविता करना सीखो ।।
क्रोध
पकी फसल
लाट ले गए होते
खेतों से
आँखों के सामने
तो उतना दुख नहीं होता
जितना कि
कच्ची फसल
काटकर छोड़ गए
खेतों में रातों-रात
जाने क्यों
दस्युओं से भी
अधिक क्रोध आता है
तस्करों पर
तीन रुपए किलो
छोटे-छोटे घरों तक
पहुँचे अमरूद
नाक रख ली फलों की
बिके चार रुपए किलो
नमक-मिर्च से भी
खा लिए गए
छिलके और बीज तक
कर दिए समर्पित
तर गए पैसे
अमरूद के साथ
सजी-धजी दुकानों पर
बैठे-बैठे
महंगे फलों ने
बहुत कोसा अमरूदों को
अपना भाव इतना गिराने के लिए
बच्चों को चहकनहा बनाने के लिए
फलों का राजा भी रिसियाया बहुत
अमरूदों से तो कुछ नहीं कहा
लेकिन सोचने लगा कराने को
लोकतंत्र के विनाश का यज्ञ
धिक्कार भाव से देखा
दुकानों पर बैठे
महंगे फलों ने
ठेलों पर से
उछल-उछल कर
झोलों में गिरते अमरूदों को
ठेलों पर से ही
दंतियाए जाने लगे
बन्धुजनों में बँटने लगे
प्रसाद की तरह
छोटे-छोटे घरों तक
पहुँचकर भी
चौका-बर्तन में
नहीं पहुँच सके अमरूद
उठे तराजू
थमे नहीं एक भी बार
चिल्ला-चिल्ला कर
अपने नाम से
सांझ होते-होते
बिक गए तीन रुपए किलो
अपने में थोड़ी-थोड़ी खाँसी
लिए हुए भी न खाँसते
साफ़ गले से चिल्ला-चिल्ला कर बिकते
वेतन, ओवरटाईम, मज़दूरी या भीख के
पैसों से मिल जाने वाले
किसी को बिना कर्ज़दार बनाए
अमरूद बिके
तीन रुपए किलो
उबारे गए
तीन रुपए
जेब की माया से मुक्त
नहीं फँसे
किसी कुलत्त में
ख़रीद लाए उतने में
एक किलो अमरूद
पाँच-सात मुँह के लिए
अपने प्रेम को
प्रेमी जीव हूँ मैं
जबकि दुनिया प्रेम की ही विरोधी है
बहुत तस्कर हैं प्रेम के
बहुत हैं ख़रीददार
कौन-सा बैंक अपने लाकर में रखेगा इसे?
समुद्र में डाल दूँ तो
मैं ही कैसे निकालूंगा बाद में
किसी तारे में
उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कर दूँ
कल कैसे खोज पाऊँगा, मैं ही,
आसमान देखकर
एक दिन तो प्रेम
मधु से निकलकर चुपचाप
मिट्टी के तेल में बैठा मिला
एक दिन चाँदनी में
किसी पादप की छाया देखकर
भ्रम हो गया मुझे
कि सो रहा है प्रेम
कुछ दिनों के लिए उसे रख दिया था
तुम्हारी आँखों में
कुछ दिनों के लिए
तुम्हारी हथेलियों में
रख दिया था उसे
कुछ दिनों के लिए
बिछा दिया था प्रेम को
पलंग की तरह
जिसके गोड़वारी (पैताने)मैं था
और मुड़वारी (सिरहाने)तुम
जब निकाल दिया तुमने अपने यहाँ से
प्रेम को
वह मुझ से मिला
जैसे निकाल दिया गया आदमी
मैं उसे अपने साथ लाया
उसके हाथ-पैर धुलाए
उसे जलपान कराया
बहलाया-सहलाया
कुछ दिनों बाद उसे
अपने अन्तर्जगत का कोना-कोना दिखलाया
अपने साथ रहते-रहते
जब कुछ-कुछ ऊबने लगा प्रेम
तो उसे मैंने
बालू भरी बाल्टियों की तरह
जगह-जगह रख दिया
नफ़रत की आग बुझाने के लिए
आग बुझाते-बुझाते एक दिन
वह स्वयं झुलसा हुआ आया
दोनों पहिए पंचर साइकिल की तरह लड़खड़ाता
उसी दिन से
मैंने कहीं नहीं जाने दिया अन्यत्र
अपने प्रेम को
शब्दों में रखकर
हो गया निश्चिन्त
कि उसके लिए
कविता से आदर्श और अच्छी
दूसरी कोई जगह नहीं
अभिशप्त
कँटीली झाड़ी को
कौन-सा अभिशाप
देंगे आप?
सूअर को, चींटी को
ढाल को, आँसुओं को
आप
देंगे कौन-सा अभिशाप?
बिजली के तार को
राख को
मिट्टी के तेल को
तितहे बेल को
हिजड़े को
पिंजड़े को
कौन-सा अभिशाप
देंगे आप?
केंचुए को
कौए को
रंक को
मुर्दे को
कौन-सा अभिशाप
देंगे आप?
वरदान तो
ये आप से
मांग ही नहीं सकते, ऋषिवर्य!
एकतीस दिसम्बर
एकतीस दिसम्बर है आज
इस महीने का चरम दिन
इस वर्ष को
अब कोई नहीं बचा सकता
आधी रात के बाद
न नोबल पुरस्कार डाक्टर
न अमृत
न ईश्वर
अन्तिम सिद्ध होगी यह रात
इस वर्ष के लिए
हर वर्ष
देती है जन्म
दिसम्बर को
और हर दिसम्बर की इकतीसवीं तारीख़
गला घोंट देती है
अपने वर्ष का ।
ऊपर-ऊपर
ऊपर-ऊपर
जिसने भी देखा
हर वक़्त
हरा ही दिखा मैं
समूल उखाड़ने पर ही
समझ सके लोग
कि भीतर गहरे तक
मुझ में मूली जैसी सफ़ेदी थी
या गाज़र जैसी लाली।
यह हंसा भी
“घोड़ों की तरह
हरदम
मुँह लटकाए नहीं रहना चाहिए
मुँह है तो
बोलने के लिए
और हँसने के लिए”
गोबर पाथती हंसा
जब-तब
ऎसे ही सुभाषित कहती है
पता नहीं
यह हंसा भी
किस लोक में रहती है?
जीवन वृत्तांत
उठाया ही था पहला कौर
कि पगहा तुड़ाकर भैंस भागी कहीं और
पहुंचा ही था खेत में पानी
कि छप्पर में आग लगी,बिटिया चिल्लानी
आरंभ ही किया था गीत का बोल
कि ढोलकिया के अनुसार फूट गया ढोल
घी का था बर्तन और गोबर की घानी
चाय जैसा पानी पिया, चाय जैसा पानी
मित्रों ने मेहनत से बनाई ऐसी छवि
चटक और दबावदार कविता का कवि
एक हाथ जोड़ा तो टूट गया डेढ़ हाथ
यही सारा जीवन वृत्तांत रहा दीनानाथ !
सतयुग, कविता और एक रुपया
जैसे कि एक रूपये माने चूतियापा यानी कि कुछ भी नहीं
वैसे ही एक रूपये माने बल्ले-बल्ले यानी कि बहुत कुछ
और कभी-कभी सब कुछ
निन्यानबे पैसे सिर्फ बाटा वालों के लिए अब भी एक क़ीमत है
हक़ीक़त यह है कि एक रूपया
एक कौर या सल्फॉस की गोली से भी कम क़ीमत का है
एक रूपये का एक पहलू एक रूपये से भी कम है
तो दूसरा पहलू अशोक-स्तम्भ यानि कि समूचा भारत
और भारतीयता की क़ीमत बाटा के तलवों से भी नीचे है
उसके नीचे नंगी इच्छाएँ कफ़न के लिए सिसक रही हैं
आधा भारत एक रूपये से शुरू होकर सिर्फ़ धकधकाता है
और भिवानी की तरह सिकुड़कर एक रूपये तक सिमट जाता है
गर्मियों में इतनी ठंडी किसी कोने में रख देने की चीज़ है
जैसे बेइमानियाँ बहुत जतन से रखी जाती हैं
वहीं पर अब एक रूपये क़बूल करने में गोल्लक मुँह बिचकाता है
और बिजली नहीं रहती तो जनरेटर से फ़ोटो कॉपी करने वाले
एक का तीन वसूलते हैं
एक रूपये तेल का दाम बढऩे से दस मिनट लेट से निकलते हैं
लोग घर से कि इतनी तेज़ उडऩे लगेंगी सवारी गाडिय़ाँ
कि दुर्घटनाओं की ख़बरों से पटे मिलेंगे सुबह के अख़बार
न एक रूपये में अगरबत्ती न नहाने धोने का सर्फ़ साबुन
न आत्मा की मैल छुड़ाने वाला कोई अध्यात्म
उखड़ी हुई कैची का रिपिट लगाने में भी एक रूपया नाकाफ़ी
एक पन्ने पर एक रूपया एक रूपया लिखकर भर डालने के लिए भी
कोई एक रूपये का मेहनताना लेने के लिए तैयार नहीं होगा
बल्कि मुफ़्त में वह काम करके अपमानित कर देगा
एक रूपये को जैसे इसे केन्द्र में रखकर लिखी गई
यह कविता नामक चीज़ जिससे पटा हुआ बाज़ार
ऐसी कविताएँ यदि मर जाएँ बिना किसी बीमारी के
तो दो घंटे भी ज़्यादा होंगे कुछ आलोचना को रोने के लिए
इससे सिर्फ़ इतना भर नुकसान होगा कि
विलुप्त हो जाएगी कवियों की नस्ल और तब खाद्यान्न का संकट
कुछ कम झेलना पड़ेगा इस महादेश की शासन व्यवस्था को
ऐसी कविताओं की एक खासियत ये आलोचनाहंता है
दूसरी यह हो सकती है कि किसी प्रकार की उम्मीद की
जुंबिश से भी ये समाज को काफ़ी दूर रखती हैं
जैसे हमारे समय का कवि ख़ुद को काफ़ी दूर रखता है अपने समाज से
आने वाला समय शायद साहित्य के इतिहास को कुछ इस
तरह रेखांकित करेगा कि हमारा समय एक कविता-शून्य समय था
इसीलिए यह कविता के लिए सबसे बेचैन रहने वाले समय के रूप में
जाना जाएगा और विख्यात होगा उतना ही जितना कि
अपने तमाम अवमूल्यन के लिए कुख्यात हो चुकी है एक रूपये की मुद्रा
फिर भी अरबों की संख्या भी नहीं काट सकती एक विषम संख्या को
क्योंकि एक– एक आधारभूत विषम संख्या है
वैसे ही जब मर जाएगी एक रूपये की मुद्रा तो उसकी अन्त्येष्टि में
माचिस की एक तीली भी ख़र्च नहीं करनी पड़ेगी लेकिन
तबाही मचेगी वह कि रहने वाले देखेंगे तांडव
और मन ही मन मनाएँगे कि हे प्रभू, हे लोकपाल, हे पूँजीपुत्र
कि क़ीमतें चीज़ों की या कवियों की
किसी भी विधि से, अनुष्ठान से या किसी अनियम से भी
घट जाती एक रूपये तो वापस आ जाता बल्ले-बल्ले
वापस आ जाती हमारी बिकी हुई कस्तूरी, केवड़ा
और जितनी भी महकने वाली चीज़ें, हमारी दुनिया से ग़ायब हो चुकी हैं
वैसे ज़्यादा से ज़्यादा सच बोलने के इन दिनों में
झूठ क्या बोला जाय पाप बढ़ाने के लिए
क्योंकि अपराध तो वैसे ही आदतन इतना बढ़ चुका है
कि घटते घटाते कम से कम हाथी जितना बचेगा ही
इसलिए कहना पड़ता है कहकुओं को कि
एक रूपये के मर जाने से दुनिया किसी
संकट में नहीं फँसेगी
क्योंकि उसके विकल्प के रूप में अब चलाई जा सकती है
हत्या, बेरोज़गारी, बलात्कार और आत्महत्या में से कोई भी एक चीज़
और समाज की जगह थाना, एन०जी०ओ०, कैफ़े साइबर, बार
या कोई राजनीतिक पार्टी इत्यादि
लेकिन उखड़ी उखड़ी बातों के झुंड से
अगर निकल आए काम की एक कोई पिद्दी-सी बात भी
तो मानना पड़ेगा कि कविता की धुकधुकी अभी चल रही है
और अगर एक रूपये क़ीमतें घट जाएँ किसी भी अर्थशास्त्र से
तो फिर वापस आ जाएगा सतयुग
वानर सबके कपड़े प्रेस करके आलमारियों में रख देंगे
शेर आएगा और कविता लिखते कवियों को बिना डिस्टर्ब किए
साष्टांग करके गुफ़ा में वापस लौट जाएगा
सफाईकर्मियों को शिमला टूर पर भेजकर
राजनीति के कार्यकर्ता गलियों में झाडू लगाएँगे
पुलिस की गाड़ियाँ प्रेमियों को समुद्रतट पर छोड़ आएँगी
पागुर करते पशु धरती पर छोटे-छोटे बताशे छानेंगे
बादल कहेंगे हे फसलों तुम्हें कितने पानी की दरकार है
और वह साला सतयुग राम नाम का जाप करने
या रामराज्य पर कविता लिखने वाले महा-महाकवियों की वाणी से नहीं
बल्कि चीज़ों की क़ीमतें एक रूपये घट जाने से आएगा…
जवान होते बेटो!
जवान होते बेटो !
इतना झुकना
इतना
कि समतल भी ख़ुद को तुमसे ऊँचा समझे
कि चींटी भी तुम्हारे पेट के नीचे से निकल जाए
लेकिन झुकने का कटोरा लेकर मत खड़े होना घाटी में
कि ऊपर से बरसने के लिए कृपा हँसती रहे
इस उमर में
इच्छाएँ कंचे की गोलियाँ होती हैं
कोई कंचा फूट जाए तो विलाप मत करना
और कोई आगे निकल जाए तो
तालियाँ बजाते हुए चहकना कि फूल झरने लगें
किसी को भीख न देना पाना तो कोई बात नहीं
लेकिन किसी की तुमड़ी मत फोडऩा
किसी परेशानी में पड़े हुए की तरह मत दिखाई देना
किसी परेशानी से निकल कर आते हुए की तरह दिखना
कोई लड़की तुमसे प्रेम करने को तैयार न हो
तो कोई लड़की तुमसे प्रेम कर सके
इसके लायक ख़ुद को तैयार करना
जवान होते बेटो !
इस उमर में संभव हो तो
घंटे दो घंटे मोबाइल का स्विच ऑफ रखने का संयम बरतना
और इतनी चिकनी होती जा रही दुनिया में
कुछ ख़ुरदुरे बने रहने की कोशिश करना
जवान होते बेटो !
जवानी में न बूढ़ा बन जाना शोभा देता है
न शिशु बन जाना
यद्यपि बेटो
यह उपदेश देने का ही मौसम है
और तुम्हारा फर्ज है कोई भी उपदेश न मानना…
देह की सत्ता
देह की सत्ता ही
है आख़िरी पत्ता
यही सबके पास
और यही पत्ता सबको चलना है
लेकिन किसी को भी
नहीं पहुँचना है
देह से चलकर देह तक
हा बुद्ध ! हे राम !
थू यमराज और हाय आदमी
लघुशंका ऐसी हिंसा पर !
सरमा के बोल
हे परीक्षित के लाडले
राजा जममेजय
कान खोलकर सुनो
अपने बंधु-बांधवों की करतूत
मैं– देवताओं की कुतिया
सरमा बोल रही हूँ
यज्ञ-वज्ञ जो भी करो
पुण्य-पाप जो भी कमाओ
हमसे भी ज़्यादा कटकटाओ
इससे हमें कोई मतलब नहीं
श्रुतसेन, उग्रसेन, भीमसेन
सेन बिसेन जो भी हों
हमें तो यह बताओ
कि तुम्हारे उद्दण्ड भाइयों ने
हमारे निरपराध सारमेय को क्यों मारा ?
न उसने तुम्हारी वेदी को छुआ
न तुम्हारी हवन सामग्री की ओर ताका
न ही उसे झूठा किया
न किसी पर भूँका
न किसी को काटा
फिर भी उन्होंने
हमारे पिल्ले को क्यों मारा ?
इस जंगल में
कोई कानून नहीं
जिसका दरवाज़ा खटखटाऊँ
कोई थाना नहीं जिसमें प्राथमिकी लिखाऊँ
कोई राजा नहीं जिसे दुखड़ा सुनाऊँ
अपना पति नहीं जिसे ज़ोर-ज़ोर से भुँकवाऊँ
मार का बदला काट से नहीं ले सकती
चोट का बदला वोट से नहीं ले सकती
बदले की भावना से नहीं प्रेरित होते आर्तजन
बहुत दुखी होने पर दे सकते हैं अभिशाप
मैं तुम्हें अभिशाप देती हूँ
जाओ, तुम सब कुत्ते हो जाओ !
आओ मेरे शावक
आओ मेरे मुन्ने
रोओ मत
आओ मेरे सरमेय !
फिर कभी उधर मत जाना
याज्ञिकों के आसपास कदापि न मँडराना…
यजामहे यजामहे
कूच किए ललमुँहे
कि कूद पड़े कलमुँहे
चलल चलल चलल चलल
लुहे लुहे लुहे लुहे !
रात को सियार चुहे
दिन में झट-उखार चुहे
गन्ने के गेंड़ हरे
ढीठ नीलगाय चुहे
भगल भगल भगल भगल
लुहे लुहे लुहे लुहे !
धरती को लोग दुहे
जंगल को लोग दुहे
सेठ क्षीरसागर के
साँड छानकर दुहे
चलल चलल चलल चलल
लेहे लुहे लुहे लुहे !
कुछ रहे बिना, रहे
कुछ बिना रहे, रहे
कुछ बिना कहे, रहे
कुछ बिना सहे, रहे
स्वाहा जजमान्हे
यजामहे ! यजामहे !
गणित एक प्रश्न
किसी धर्मस्थल के
विवाद में
तीन हज़ार लोग बम से
दो हज़ार गोली से
एक हज़ार चाकू से
और पाँच सौ
जलाकर मार डाले जाते हैं
चार सौ महिलाओं की
इज्ज़त लूटी जाती है
और तीन सौ शिशुओं को
बलि का बकरा बनाया जाता है
धर्म में
सहिष्णुता का
प्रतिशत ज्ञात कीजिए ।
धर्म बहुत ही सहिष्णु है
सहिष्णुता का प्रतिशत है
कभी सौ तो कभी दो सौ
गिनती अनंत तक जाती है
लेकिन सबकी एक सीमा होती है ।
ऐसे में जब मचा हो
नास्तिकता का चार्वाकी उत्पात
करते सर्वशक्तिमान पर आघात
ईश-निंदा की काट तो खोजना होगा
कुछ तो विधि का विधान बनाना होगा
धर्म की सहिष्णुता अनंत
धर्म को समाज चलाना है
खुदा के बंदो को उल्लू बनाना है
और परवरदिगार को भी बचाना है
उसके क़ानून को लगाना है ।
मौत से कम सज़ा वह क्या दे
कोई गर विधि का विधान बदल दे ?
“धरती सूरज के चक्कर करती है”
कोई सिरफिरा ऐसा यदि कह दे !
रसूल-उल-अल्लाह से लोगे पंगा
कैसे रहोगे भला-चंगा ?
बानाओगे अगर उनकी तस्वीर
मौत ही बनेगी तक़दीर
भारत में रहोगे कहोगे नहीं वंदेमातरम्
कौन सहेगा, कितना भी सहिष्णु धर्म ?
कहे नहीं जो जय श्रीराम
धरती पर उसका क्या काम ?
मिटा देंगे रामभक्त उन सबका नाम-ओ-निशान
माँ के गर्भ से भी करेंगे गर राम-द्रोह का ऐलान
कर दिए थे नापाक मुस्लिमों ने कुछ स्थान
मस्ज़िद ओ दरगाह का इस राष्ट्र में क्या काम ?
बजरंगी वीरों ने मन में लिया ठान
मिटा देंगे ऐसे सारे निशान
मिल गया जब मोदी का फरमान
मार दिए उनने काफी मुसलमान
कर दिया था नापाक जिन जगहों को मुसलमानों ने
कर दिया मटियामेट , रामभक्त बजरंगी दीवनो ने
नापाक रही जगह ख़ुद राम के लिए नामाकूल थी
लेकिन हनुमानो के लिए काफ़ी अनुकूल थी
मस्जिद थी जहाँ बैठे वहान गोधडिआ हनुमान
बैठ गए मजार पर हुल्लडिआ हनुमान
और कौन सुपात्र ऐसा भाग्यवान ?
सेवक से बन जाए जो ख़ुद ही भगवान ?
लूटा माल, जलाया मकान
चूर किया औरतों का गरूर ओ’ गुमान
न छोड़ी इज़्ज़त बच्ची की न बुढिया की आन
युगदृष्टा के राजधर्म का गुजराती अभियान
धर्म की सहिष्णुता होती अनंत,
लेकिन हर चीज़ की सीमा होती है
प्लेटो और लॉक ने भी यही कहा है,
नास्तिकता की सज़ा मौत होती है ।
इस कँपकँपाने वाली ठण्डी में
बर्रै या बिच्छू
सब नदारद हैं
लेकिन झनझना रही हैं अँगुलियाँ
पानी में हाथ डालने का मन नहीं करता
मन करता है कि आग में खड़ा हो जाऊँ
इस कँपकँपी ठण्डी में
मुँह से
शब्दों की जगह
सिर्फ़ भाप निकल रही है
मुट्ठियाँ बँधी हैं
किसी पर छोड़ दूँ इन्हें
तो वह भी
न हिलेगा न डुलेगा
ऐसी सुन्न कर देने वाली ठण्डी है
कुहरा है ऐसा
कि सफ़ेद अन्धेरा है
जिसमें सब कुछ गायब है
अपना ही बायाँ हाथ
दाहिने को नहीं पहिचान पाता
पुराना अस्थमा उभर आया है—
जानलेवा !
खँखार रहा हूँ
और थूक रहा हूँ
यह सूखी खाँसी नहीं है
खूब बलगम भरा है भीतर
एक बूढ़े देश का
चाहता हूँ
कि जिस पर थूकूँ
ठीक उसी पर पड़े बलगम
कमज़ोर आँखों से
ज़ोर लगाकर देखता हूँ
इस कँपकँपाने वाली ठण्डी
और सब कुछ
सफ़ेद कर देने वाले
कुहरे में
चूहे
खाकर फूले जैसे ढोल
जाने कैसे खुल गई पोल
बिल में कैसे घुसड़ें बोल
बढ़ई भइया पुट्ठे छोल
संविधान की क़समें खाए
धर्मग्रन्थ के पन्ने खाए
नीति कूट अवलेह बनाए
लाज हया सब पी गए घोल!
टू जी थ्री जी खूब डकारे
पचा गए पशुओं के चारे
बड़े बड़े भूखण्ड निगलकर
उगल रहे अब काला कोल
पूँछ पकड़कर मुसहर खींचे
थोड़ा आगे थोड़ा पीछे
गई सुरंग कहाँ तक नीचे
पाजामों के नाड़े खोल
उठ बँसुले तू थू-थू बोल
बढ़ई भइया पुट्ठे छोल
माई
घर में अकेली माई
जिसके नाम कोई चिट्ठी नहीं आई
घर लौटकर सबने पढ़ी
अपने अपने नाम की चिट्ठी
लेकिन माई से
सबने अपनी अपनी चिट्ठी की बात छिपाई
फिर भी
जब-जब ख़ुद को सच्चा साबित करने की नौबत आई
सबने माई की ही सौगन्ध खाई
वन्दे मातरम्
1.
गेहूँ की कुशाग्र मूँछों पर गिरी वृष्टि की गाज
काली-काली भुङुली वाली बाली हुई अ-नाज़
हुए अन्नदाता ही दाने-दाने को मोहताज
भिड़े कुकुरझौंझौं में राजन महा ग़रीबनवाज़
2.
पँगु पाँव, गूँगी जबान, लकवा से लूले हर कर
आँख-आँख मोतियाबिन्द सूझे परिवार न घर वर
चौपट हुई रबी ऐसे कि प्राण-पखेरू तड़पें
बादल बरसे नहीं गगन से एसिड मूते छर-छर
3.
रबी गई सो गई खरीफ़ गई सूखे से
मुँह सूखे सूखे से पेट युगों भूखे से
गश खा-खा गिर गए खेत में ग्राम देवता
हरे भरे से रुख़ खड़े रूखे-रूखे से
4.
धान हुए कुश धरती में दरार की अनगिन रेखा
मुँह में जूठ नहीं लगने के आगम घर-घर देखा
आँख, आँख की ओर ताक, मुँह लेती फेर, सिसककर
कागज-पत्तर में सूखा-सैलाब का लेखा-जोखा
5.
आसमान का दिल पत्थर हो गया ऐन बसकाल
चमके गरजे तड़के भड़के फिर भी पड़ा अकाल
काँख-काँख रह गए न झलकीं जल की बून्दें
पकड़ा करक जलधरों को बेआब हुए तत्काल
6.
बना भव्य कॉम्प्लेक्स काँच का नामक भूल भुलइया
बिक्री हुई अपार लक्ष्य के पार बाप रे दइया
बड़के कोविद बिके यसों दस बीस डिजिट डालर में
हुआ चित्रपट फिल्मी-इल्मी सबसे बड़ा रूपइया
7.
सूचकाँक मत देखो टोपी नीचे गिरी दरोगा
मूत में रोहू खोज रहे पोंगा के पोंगा
अबकी ऐसी क़िस्मत — लेखक आए हैं कि
राष्ट्र कनक भूधराकार मिण्टों में होगा
8.
सुजला रोज़ निर्जला होती वन्दे मातरम्
विफला बनकर सुफला रोती वन्दे मातरम्
धुधुआकर जल रही चतुर्दिक् शस्य-श्यामला भूमि
जाति-धर्म की होती खेती वन्दे मातरम्
पुरुषसिंह और स्त्री
किसी रूपककार ने
कभी पुरुष को सिंह कह दिया
तो वह समझने लगा खुद को पुरुषसिंह
फिर खुद को समझा बब्बर शेर
पुरुषसिंह ने देखा स्त्री की ओर
सबसे पहले
सहमी सिकुड़ी चौकन्नी चंचल चितकबरी
गहरी काली आँखों वाली
हिरनी जैसी लगी उसे स्त्री तन्वंगी
उसे देखकर
जाने कितने लड्डई फूटे
पुरुषसिंह के मन में
लेकिन आखेटक सिंह भला
सौन्दर्य देखकर क्या करता
पूजा उसकी ?
वह हिंस्र सिंह
उसको तो केवल नरम माँस की चाह
फिर निर्जन वन में हिरनी की चीख़ती कराह
फिर से देखा पुरुषसिंह ने —
स्त्री को ।
सीधी सादी गाय
सींगें मात्र दिखाने भर को
या खुजलाने को अपनी देह
बन्धी हुई खूँटे-पगहे से
विवश – दुधारू बिल्कुल शाकाहार
पुरुषसिंह ने बदल लिया फिर
अपना मूल स्वभाव
हो गया शाकाहारी
उसे भूख मिटाने से मतलब
फिर-फिर देखा पुरुषसिंह ने —
उस स्त्री को।
अबकी लगी उसे वही
साक्षात् सिंहिनी, ठीक स्वकीया
कुलगोत्रीया, सन्तानवत्सला पर मादा
किन्तु दहाड़ती
लगभग उसके ही पौरुष से जैसे प्लुत
और खटकने लगे उसे रह-रह जब तब
तब स्त्री ने फिर-फिर सोचा
अपने बारे में
पशुओं और जानवरों की उपमा
अपमान लगी उसको अपनी
पुरुष-दृष्टि को अनदेखा कर
बोली पहली बार
सधे स्वरों में —
‘‘मैं मृगी नहीं, मैं गाय नहीं
मैं नहीं सिंहनी या पशुवत् मादा
मैं स्त्री हूँ
और रहूँगी स्त्री जैसी
और दिखूँगी स्त्री जैसी साँगोपाँग
चाहे किसी की आँख फूटे
या फटे कलेजा
या सीने पर लोटे साँप
हम स्त्री हैं तो स्त्री हैं’’
किन्तु सिंह का तमगा बान्धे पुरुषसिंह
आक्रामक ही बना रहा
उसके मुँह में ख़ून लगा था
धीरे-धीरे बन गया वह पूरा नरभक्षी
और कुछेक गोलियाँ खाकर
फिर पिंजरे में क़ैद हो गया
बस, खोखली दहाड़ ही बची उसकी
आँखों का हिंस्र ख़ून
तब लगा बदलने पानी में
अब भी स्त्री
अपनी ही करुणा से उद्विग्न
भूखे-प्यासे पुरुषसिंह को
डाल आती कुछ घास-पात
उसके पिंजरे में
और लौटती भारी क़दमों से
पोंछती हुई आँखें अपनी
इस प्रत्याशा में
कि यह शायद अब मनुष्य बन जाए बेचारा
अपने ही कर्मों का मारा
स्त्री अब केवल स्त्री है
वह नहीं किसी कमज़ोरी की अब पुत्तलिका
वह मनुष्य की मृदुल शक्ति है
— अनुपमेय ।
चार साल का नाती
अच्छा खासा उत्पाती है
यह जो अपना
चार साल का नाती है
बेटी का बेटा —
पूरा प्रश्नोपनिषद् !
तोंद पर चढ़ जाता है
चढ़कर ताक धिनाधिन ताक धिनाधिन
तबला बजाता है
और पुरखों की तरह
छाँटता है कबोधन —
‘अच्छा नाना, अच्छे नाना, इधर करो मुँह, सुनो ज़रा
मम्मा कहती है —
तुम मेरे बेटे हो
और मेरे पेट से पैदा हुए हो
तो मम्मी आपकी बेटी है
क्या वो भी आपके पेट से पैदा हुई है ?
’
मैं कहता हूँ —
मेरा पेट कुछ पैदा नहीं कर सकता
केवल खाता है
फिर वह छौना खूब खिलखिलाता है
और उसी रौ में
फिर थाप लगाता है
कहता हूँ मैं —
तुम्हें पीट दूँगा अब
डूब रहा दिन
भागो तुरत मच्छरदानी में
बच्चामार मच्छरों की अब है भरमार
तीस साल से धरे हाथ पर हाथ
बैठी है सरकार वाग्मी
और मन्त्रिपरिषद् वाचाल
हेहर टुच्चे साहब सूबा ठगवा बिगवा
कई-कई तो यह भी कहते हैं नालायक
अक्सर अगस्त में बच्चे मरते हैं
मुँह में उनके पड़ें घिनौने कीड़े
और जीभ गलकर गिर जाय
शेम-शेम हाय हाय !!
कहता है वह —
नाना एक बात कहकर
फिर आप बड़बड़ाते हैं बहुत देर तक
इससे क्या पाते हैं ?
कहता हूँ मैं —
तुम्हें पीट दूँगा अब निश्चित
भगो तुरत मच्छरदानी में
नानी भी अब नहीं तुम्हारी बचा पाएँगी तुम्हें
चलो उतरो छाती से मेरे
नहीं तो चटकना खाओगे
फिर कहता वह —
नानी तो कहती हैं
यदि आप हमें मारोगे
तो काँपेंगे हाथ आपके ऐसे ऐसे
चमकाता है
नहीं रोक पाता मैं अपनी हँसी
और हँसता जाता हूँ
भगो तुरत मच्छरदानी में
फिकिर नहीं अब
जीत चुके हो कई अगस्त
और जियो तुम लाख बरीस
लेकर मेरी उमर जिओ
हँसते और खेलते जीओ
पढ़ते, लिखते और समझते
सावधान रहना परिसर से
और कमीने लोगों से
कौए के बच्चों जितना चतुर बनो
समय बहुत आतातायी है
भगो तुरत मच्छरदानी में
चलो उतरो छाती से मेरे ।
कविजन खोज रहे अमराई
शब्दों का माठा मथ-मथकर कविता को खट्टाते ।
और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते ॥
सोख रहीं गहरी मुषकैलें, डांड़ हो रहा पानी ।
गेहूं के पौधे मुरझाते , हैं अधबीच जवानी ॥
बचा-खुचा भी चर लेते हैं , नीलगाय के झुंड ।
ऊपर से हगनी-मुतनी में , खेत बन रहे कुंड ॥
कुहरे में रोता है सूरज केवल आंसू-आंसू ।
कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धांसू ॥
बाली सरक रही सपने में , है बंहोर के नीचे ।
लगे गुदगुदी मानो हमने रति की चोली फींचे ॥
जागो तो सिर धुन पछताओ , हाय-हाय कर चीखो ।
अष्टभुजा पद क्यों करते हो कविता करना सीखो ॥
साफ़-साफ़
जो रोशनी में खड़े होते हैं वे
अंधेरे में खड़े लोगों को
तो देख भी नहीं सकते
लेकिन अंधेरे के खड़े लोग
रोशनी में खड़े लोगों को
देखते रहते हैं साफ़-साफ़ ।
सहमति
भाग रहा हूं निपट अकेला
खोज रहा उस साथी को
दोनों हाथों में सहमति हो
तो कस लेंगे हाथी को ।