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अशुतोश द्विवेदि.jpg

सरस्वती-वंदना

कमलासना, हे सौम्यरूपा, रुचिर-वीणा-वादिनी ।
माला-स्फटिक-शुभ-शोभिता, परमेश्वरी, आल्हादिनी ।
केकी-विहारिणि, हंस-वाहिनि, हस्त-पुस्तक-धारिणी ।
नत शीष बार अनेक, मातु सरस्वती, उद्धारिणी ।

वागीश्वरी, वरदायिनी, विद्या-कला-बुद्धि-प्रदा ।
श्रद्धामयी, शुचि, भारती, करुणालया, माँ शारदा ।
चिरयोगिनी, सन्यासिनी, तेजस्विनी, तपसाधिका ।
सविनय निवेदित वंदना, हे वत्सला ! जगदम्बिका ।

माँ कर कृपा, तू हो प्रसन्न, प्रसन्न हो, वरदान दे ।
माँ ! भक्ति दे, माँ ! शक्ति दे, माँ ! प्रेरणा दे, ज्ञान दे ।
अपराध सब कर दे क्षमा, स्वीकार कर ले प्रार्थना ।
माँ ! हूँ अकिंचन मैं शरण तेरी, मुझे अपना बना ।

प्रेम की हूक (घनाक्षरी छंद)

प्रसंग: – कृष्ण मथुरा जा चुके हैं | बहुत दिन बीत गए हैं | अचानक एक दिन राधा को प्रेम की तेज़ हूक उठती है और वह अपनी सखियों से कहती है… ।

श्याम रंग में रंगे बरसने लगे जो मेघ,
रिमझिम बाँसुरी की तान लगने लगी ।
वायु में भी कृष्ण की हँसी सुनाई दे रही है,
सृष्टि साँवरे का परिधान लगने लगी ।
कल रात मोहन जो सपने में आया सखी !
जीवन से कोई पहचान लगने लगी ।
जाने किस आसन पे मुझको बिठा दिया कि
धरती ये धूरि के समान लगने लगी ।।१।।

रागिनी थिरक उठी आज मेरे अधरों पे,
जैसे बही मलय-बयार मरुथल से ।
अंग-अंग में सखी री ! दामिनी मचल उठी,
खिल गए व्याकुल नयन भी कमल से ।
जिस पल साँवरे ने निंदिया चुरा ली मेरी,
भावना को चैन नहीं आए उस पल से ।
बाँध गया मन को कि मोह नहीं टूटता है,
छलिया ने बाँसुरी बजाई बड़े छल से ।।२।।

रोम-रोम दोहरा रहा है श्याम-श्याम आज,
बन में पपीहा जैसे बोलता पिया-पिया ।
सारा खेद, सारी पीर, अँखियों का सारा नीर,
मोहन कि एक मुस्कान में भुला दिया ।
नेह का ये तीर कब भावना के पार हुआ,
आज तक इसको समझ न सका हिया ।
माखन चुराने वाले जसुदा के लाडले ने,
जाने किस पल मेरे मन को चुरा लिया ।।३।।

अँखियों में साँवरा है, बतियों में साँवरा है,
सारी भूमि श्याम का निवास लगने लगी ।
किन्तु बोलते ही बोलते जो रोई राधा रानी,
पावस में जैसे मधुमास लगने लगी ।
सोचती हैं गोपियाँ कि हर्ष के प्रसंग बीच,
राधिका क्यों इतनी उदास लगने लगी ।
प्रेम की पिपासिता का मन कैसे तृप्त होगा !
देख नदिया को फिर प्यास लगने लगी ।।४।।

आठ मुक्तक 

1.
याद से जाते नहीं, सपने सुहाने और तुम ।
लौटकर आते नहीं, गुज़रे ज़माने और तुम ।
सिर्फ़ दो चीज़ें कि जिनको खोजती है ज़िंदगी –
गीत गाने, गुनगुनाने के बहाने और तुम ।

2.
दफ़्तरों में दर्द के शिकवे-गिले होते नहीं ।
मेज़ पर तय आँसुओं के मामले होते नहीं ।
फाइलों में धड़कनों को बंद मत करिए कभी,
काग़ज़ों पर ज़िंदगी के फ़ैसले होते नहीं ।

3.
ढल गया दिन और अपना ख्याल तक आया नहीं,
रात आई तो किसी कि आरज़ू में कट गई ।
बेरहम दुनिया में जीना था बहुत मुश्किल मगर,
ज़िंदगी ख़ामोशियों से गुफ़्तगू में कट गई ।

4.
धडकनें बेचैन, साँसों में उदासी है बहुत ।
ऐसा लगता है तुम्हारी रूह प्यासी है बहुत ।
तुम पियो जमकर कहीं कम पड़ नहीं जाए तुम्हें,
क्या हमारी बात, हमको तो ज़रा-सी है बहुत ।

5.
तेरी महफ़िल में चले आए हैं लाशों कि तरह,
और आए हैं तो जी कर ही उठेंगे साक़ी ।
तूने बरसों जिसे आँखों में छिपाए रखा,
आज उस जाम को पी कर ही उठेंगे साक़ी ।

6.
ख़्वाब नाज़ुक थे छू लेने से बिखर जाते थे ।
इसलिए हम उन्हें बिन छेड़े गुज़र जाते थे ।
उम्र भर पर्दा हटाया न गया रुख से कभी,
पहली कोशिश में ही वो शर्म से मर जाते थे ।

7.
हमने फिर रेत को मुट्ठी में पकड़ना चाहा,
भूल बैठे कि वो हर बार फिसल जाती है ।
हमने सपनों की हक़ीक़त को न समझा अब तक,
आँख के खुलते ही ये दुनिया बदल जाती है ।

8.
हर नए मोड़ पे बस एक नया ग़म चाहा ।
गहरे ज़ख्मों के लिए थोड़ा-सा मरहम चाहा ।
हमने जो चाहा उसे पाया हमेशा लेकिन,
एक अफ़सोस यही है कि बहुत कम चाहा ।

यहाँ ख़ामोश नज़रों की गवाही कौन पढ़ता है ?

यहाँ ख़ामोश नज़रों की गवाही कौन पढ़ता है.
मेरी आँखों में तेरी बेग़ुनाही कौन पढ़ता है.

नुमाइश में लगी चीज़ों को मैला कर रहे हैं सब.
लिखी तख्तों पे “छूने की मनाही” कौन पढ़ता है.

जहाँ दिन के उजालों का खुला व्यापार चलता हो.
वहाँ बेचैन रातों की सियाही कौन पढ़ता है.

ये वो महफिल है, जिसमें शोर करने की रवायत है.
दबे लब पर हमारी वाह-वाही कौन पढ़ता है.

वो बाहर देखते हैं, और हमें मुफ़लिस समझते हैं.
खुदी जज़्बों पे अपनी बादशाही कौन पढ़ता है.

जो ख़ुशक़िस्मत हैं, बादल-बिजलियों पर शेर कहते हैं.
लुटे आंगन में मौसम की तबाही, कौन पढ़ता है.

मन में भावों की सरिता 

मन में भावों की सरिता जब अपनी गति से बलखाती है
मैं कविता करता नहीं और कविता खुद ही हो जाती है

कविता मयंक की शीतलता, कविता है रवि का तेज प्रबल
कविता उपासना है, कविता माँ का स्नेहिल पावन आँचल
जलना कविता की शैली है, वह वीरों की प्रज्ज्वलित कथा
अधरों पर सजती मधुर हँसी, नयनों में तिरती मौन व्यथा
कविता स्वप्नों का मूर्त रूप, कविता यथार्थ का चित्रण है
कविता जागती का अलंकार, कविता समाज का दर्पण है
संतों की वाणी में, कविता बसती स्वराष्ट्र के वंदन में
कविता बसती कविता को जीने वालों के अभिनंदन में
मैं नहीं भगीरथ हो सकता, पर कविता पतित-पावनी है
धरती को निर्मल करने को बहती अनंत से आती है

मन के भीतर तक गहरे घावों को भर देती है कविता
सुंदर, मंगलमय भावों को गहरा कर देती है कविता
लेकर मशाल आंदोलन की आगे बढ़ जाती है कविता
मानवता की रक्षा में सूली पर चढ़ जाती है कविता
दो-चार बार क्या, बार-बार विषपान किया है कविता ने
फिर वर्तमान की ध्वनियों को विस्तार दिया है कविता ने
कविता आवाहन मंत्र बनी, कविता मन का विश्वास बनी
घुट-घुट कर मरते लोगों को नवजीवन देती श्वास बनी
मेरे अधरों की गति प्राकट्य नहीं है मेरी प्रतिभा का,
कविता तो स्वयं बैठ जिह्वा पर मीठे राग सुनाती है

जब-जब प्रकाश की माँग हुई तब दीपक कवि की देह बनी
जीवन बाती सा दहक उठा, कविता फिर हँसकर नेह बनी
कविता रातों को जागी है, दिनकर को प्रात जगाया है
जब-जब तम गहन हुआ तब-तब कविता ने दीप जलाया है
कविता संस्कृति का व्यक्त रूप, कविता परंपरा का वाहन
कविता राघव का धनुष-बाण, है मोहन का वंशी-वादन
सबके दुख में है आर्द्र हुई अपने दुख पर मुसकाई है
कितनी आँखों में झाँका तब जाकर कविता बन पाई
है इसे समझना कठिन बहुत, अंदाज़ अनोखा कविता का,
कविता खुद प्यासी रहकर भी औरों की प्यास बुझाती है

देखो स्वराष्ट्र की रक्षा में होते कितने बलिदान अमर
देखो जौहर करने वाली बालाओं का अभिमान अमर
चकवा शशि की आशा में देखो अंगारों को खाता है
चातक का प्रेम निराला देखो अंगारों को खाता है
थी चहल-पहल जिसमें पहले, देखो इस सूने आँगन को
पतझड़ में मुरझाकर, बसंत में फिर से खिलते उपवन को
इनमें तलाश कविता की, निर्भर है दृष्टा के दर्शन पर
पत्थर भी चेतन हो उठते हैं करुणामय आवाहन पर
सौभाग्यवान हूँ मैं, दो बूँदें मिल जाती हैं मुझको भी,
जब हो कृपालु माँ वाणी भू पर काव्यामृत बरसाती है

आज बाध्य हर विचार है 

भाव-भाव सुप्त, आज बाध्य हर विचार है
हम हुए असभ्य, हुआ लुप्त सदाचार है

फाग चीखता रहा, बसंत चीखता रहा
चीखती रही धरा, अनंत चीखता रहा
बादलों की आह और सिसकियाँ समीर की
गूँजती रही यहाँ कराह चक्षु-नीर की
किन्तु अकस्मात हुआ मौन हृदय का सितार,
उँगलियाँ अशक्त हुआ क्षीण-क्षीण तार-तार है

सौम्य सृष्टि के स्वरूप को बिगाड़ने लगे
झूमते हुए वनोपवन उजाड़ने लगे
शेष एक ज्योतिमान दीप भी बुझा दिया
और तुच्छ जुगनुओं से रात को सजा दिया
हो गया दिमाग पर सवार प्रगति का बुखार
बढ़ रही विराममुक्त पाप की कतार है

कौन क्या कहे किससे आज हृदय की व्यथा
बंद होठ बोल रहे एक अनकही कथा
हम भी जानते हैं आज देश में स्वराज है
किन्तु क्यों डरा हुआ स्वदेश है, समाज है
कर रहे समाज में सतत अशांति का प्रसार,
क्रांति नहीं मात्र यह समाज का विकार है

बोलते बहुत परंतु कर्म का अभाव है
खोखली हर एक बात दोगला स्वभाव है
जब हुई सुबह तो हमने नेत्र बंद कर लिए
छोड़ उजाला अंधेरी राह से गुज़र लिए
हाट-हाट बिक रहा ममत्व, स्नेह और प्यार,
तीर पतित-पावनी का आज क्षार-क्षार है

हो सके तो अब दिलों के फासले मिटाइए
फिर नवीन रीति से समाज को सजाइए
तम हटे निशा का फिर ज्योतिमय विहान हो
सीख ले भविष्य, यूँ सशक्त वर्तमान हो
लेषमात्र भी न हुआ यदि समाज में सुधार,
शब्द-शब्द व्यर्थ आज गीत निरधार है

चक्षुओं के अश्रुओं को

चक्षुओं के अश्रुओं को हृदय का उल्लास कह दूँ !
चाहते हो मित्र, मैं पतझार को मधुमास कह दूँ !

मित्रता भी स्वार्थ की आपूर्ति का है एक साधन
बिक रहे संबंध स्नेहिल, है खड़ा बाज़ार में मन
आज आदर, मान की वह भावना भी मर गयी है
और ममता आत्मजों की नीतियों से दर गयी है
देखते हैं नेत्र ललचाते हुए सौन्दर्य को भी
वासनाओं की क्षुधा को प्रेम मधु की प्यास कह दूँ !

दानवों का लक्ष्य तो है सृष्टि का विध्वंस करना
किन्तु प्रभु का ध्येय है – इस विश्व का विद्वेष हरना
कैकेयी है, मंथरा है और दो वरदान भी हैं
राम भी हैं, लक्ष्मण भी, भक्त भरत समान भी हैं
धर्म की संस्थापना के मार्ग पर पहले चरण को,
हो दुखी हर बार मैं श्री राम का वनवास कह दूँ !

शृंखला है वेदनाओं की कमी होती नहीं कम
मौसमों ने रंग बदला, पर बदल पाये न थे हम
सुन रहे हो चीख नभ की, भूमि का अविराम रूदन
मृत्यु की जैसे प्रतीक्षा कर रहा हो आज जीवन
छोड़ गंगाजल नहाते लोग शोणित की नदी में,
इन कटीले अनुभवों को शांति का आभास कह दूँ !

कर्म है किसने किया अधिकार किसको मिल गए है !
कौन है राजा, सजे दरबार किसको मिल गए हैं !
रौशनी देता रहा निशिभर हमें जो दीप जल कर,
प्रात होने पर उसे हम याद कर पाये न क्षण भर
गीदड़ों को मैं कहूँ राणा प्रताप, शिवा, हकीकत,
और कौवों को बिहारी, सूर, तुलसीदास कह दूँ !

आज अपना गाँव भी हमको पुराना लग रहा है
देश का इतिहास बस गुज़रा ज़माना लग रहा है
पूर्वजों की चीर पुरातन संस्कृति का क्या पता है
दूसरों की नकल करना ही हमारी सभ्यता है
खो चुके हैं देश का गौरव, स्वयं को भूल बैठे,
आज इस दयनीय स्थिति को मैं नवीन विकास कह दूँ !

धार-धार प्रेम की कथा कही

धार-धार प्रेम की कथा कही,
आँसुओं ने बात और क्या कही !

भूल गए जीत, हार, जन्म और मरण
साँवरे की वंशी का कर लिया वरण
प्रेम-प्रेम बस हृदय में और कुछ न था
एक रूप कृष्ण-राधिका हुए यथा
इस प्रकार चक्षुओं से झाँकते हुए,
गोपियों की विरह-वेदना कही

प्रेम का पवित्र रूप भंग कर दिया
लांछनों ने प्रेम को अपंग कर दिया
प्रेम को भी एक खेल जानने लगे
लोग भ्रम भरे विचार मानने लगे
रोकने की लाख कोशिशों के बाद भी
बार-बार एक ही व्यथा कही

प्रेम ब्रह्म का दिया अनूप दान है
प्रेम परम इष्ट का अखंड ध्यान है
प्रेम का हमें ये पुरस्कार क्या मिला !
दर्द का अटूट एक सिलसिला मिला
कष्ट में भी है प्रसन्नता छिपी हुई,
बात यही गीत में समा कही

सजी मन में भावों की बारात 

सजी मन में भावों की बारात इक दिन,
तो फिर झूमते मन से की बात मैंने

था बरसात से मेरा परिचय बहुत कम,
मगर मेरी सूखे से यारी बड़ी थी
मेरी सोच से बिजलियों का चमकना
महज काले मेघों की धोखा-धड़ी थी
मैं हरियाली की बात करता भी कैसे,
मेरी भावना-भूमि बंजर पड़ी थी
हुई झूम सावन की बरसात इक दिन
तभी मस्त सावन से की बात मैंने

विचारों की धारा तरंगित हुई और
मेरे भाव मन में मचलने लगे तब,
मिटा बेकली का वो झूठा अँधेरा,
मेरे गीत दीपक से जलने लगे तब,
सजी मुस्कुराहट जो अधरों पे मेरे
औ’ नयनों से आँसू निकालने लगे तब
लिए साथ साँसों की सौगात इक दिन,
मेरे सूने जीवन से की बात मैंने

पृष्ठ रीता है 

फिर नयन व्याकुल हुए हैं आज लिखने को नई कोई कहानी
रन हुआ है शांत, रणभू खोजती है प्यार की खोई निशानी
आज तक निष्कर्ष सम्मुख आ न पाया,
कौन हारा, कौन जीता है ?
अभी तक पृष्ठ रीता है

भीड़ है लेकिन कहीं गहराइयों में एक सूनापन छिपा है
श्वास की गति में हृदय की धड़कनों में गीत का जीवन छिपा है
बाँवरा मन रिक्तियों में प्रेम का पय
मस्त होकर आज पीता है
अभी तक पृष्ठ रीता है

धूर्तता कितनी अधिक है, हाय! जग ने काँच को कंचन बनाया
फिर दिया निर्दोष को विष और आँचल में किसी काजल लगाया
फिर हुई मीरा कलंकित, बाध्य जलने
के लिए फिर आज सीता है
अभी तक पृष्ठ रीता है

और इस निर्मम जगत में भी सदा ही प्रेम के हम गीत गाते
जानती हो तुम प्रिए, क्यों वेदना को गीत की भाषा बनाते?
सिद्ध करना है तुम्हारी अश्रुधारा
जान्हवी से भी पुनीता है
अभी तक पृष्ठ रीता है

पृष्ठ रीता है अभी तक, उस घड़ी तक पृष्ठ रीता ही रहेगा
जिस घड़ी मौसम तुम्हारे आगमन ही की सूचना हमसे कहेगा
बिन तुम्हारे फूल से कोमल हृदय पर
क्या कहें, क्या-क्या न बीता है ?
अभी तक पृष्ठ रीता है

प्यार की अनसुनी आहों से हजारों नग़मे

प्यार की अनसुनी आहों से हजारों नग़मे
कल बरसते थे निग़ाहों से हजारों नग़मे

खुशबुएँ सिर्फ रह गयी हैं और कुछ भी नहीं,
गुज़र गए इन्हीं राहों से हजारों नग़मे

लाख चाहा कि चले आयें पर नहीं आते,
लौटकर उसकी पनाहों से हजारों नग़मे

कोई बता दे भला और कहाँ जायेंगें,
छूटकर संदली बाहों से हजारों नग़मे

जब भी आता है ख्याल अपना तो छिप जाते हैं,
मेरे सीने में गुनाहों से हजारों नग़मे

मेरे वज़ूद पे’ छा जाते हैं तारे बन कर,
दिल की बिखरी हुई चाहों से हजारों नग़मे

एक वो वक़्त भी आया कि खड़े रहते थे,
मेरे खिलाफ गवाहों से हजारों नग़मे

पहली गलती कि तेरा नाम लिए जाते हैं 

पहली गलती कि तेरा नाम लिए जाते हैं
उस पे’ हद ये कि सरे-आम लिए जाते हैं

अहले-महफ़िल भला क्योंकर न सजा दे हमको ?
हम निग़ाहों से भरे जाम लिए जाते हैं

आये तो थे तेरे पहलू में उम्मीदें लेकर,
वक्ते-रुख्सत दिले-नाकाम लिए जाते हैं

हमको जिस बात पे रुस्वाई मिली थी हरसूँ,
वो उसी बात पे’ ईनाम लिए जाते हैं

हम ग़रीबों को कहाँ पूछ रही है दुनिया,
ग़म-गुसारी के भी अब दाम लिए जाते हैं

हमारे हाल पे’ कुछ लोग मज़ा लेते हैं,
उस गली में हमें हर शाम लिए जाते हैं

हैं वो कहते हमें दीवाना बेरुखी के साथ,
और हम हँस के ये इल्ज़ाम लिए जाते हैं

अपनी मर्ज़ी से थे चलते तो भटक जाते थे,
अब तो जाते हैं, जहाँ राम लिए जाते हैं

हमसफ़र, हमराह, सबके काम आती है सड़क

हमसफ़र, हमराह, सबके काम आती है सड़क
बस नहीं उसकी गली तक ले के जाती है सड़क

जब थिरकते हैं किसी की राह में बढ़ते कदम,
चलते-चलते साथ मेरे गुनगुनाती है सड़क

टूटती है ज़र्रा-ज़र्रा, हादसा-दर-हादसा,
कोई टकराए किसी से, चोट खाती है सड़क

हर नए चौराहे पर उगती नयी उलझन के साथ,
आदमी की ख्वाहिशों पर मुस्कुराती है सड़क

जूझते दोनों तरफ, लाचार फुटपाथों के बीच,
ज़िन्दगी के सैकड़ों मंज़र दिखाती है सड़क

पत्थरों के बोझ से लेकर गुलों के नाज़ तक,
वक़्त पड़ने पर कभी क्या-क्या उठाती है सड़क !

थका आवारापन मेरा यही बेहतर समझता था 

थका आवारापन मेरा यही बेहतर समझता था –
तुम्हारे घर चला आया कि अपना घर समझता था

तुम्हें शायद नहीं मालूम लेकिन है यकीं मुझको,
मेरे क़दमों की बेचैनी तुम्हारा दर समझता था

तुम्हारे नूर ने मुझको मेरी औकात दिखला दी,
नहीं तो ख़ुद को मैं अब तक बड़ा शायर समझता था

बिठाना मेल दुनिया से हुआ मुश्किल इसी कारण –
मैं जो भीतर समझता था, वही बाहर समझता था

मुझे वो छोड़ आए डाकुओं के गाँव ले जाकर,
जिन्हें मैं दोस्त कहता था, जिन्हें रहबर समझता था

मेरे महबूब को नज़रों पे’ था कुछ कम यकीं शायद,
वो रिश्तों की नज़ाकत हाथ से छूकर समझता था

निगाहों की शरारत पर मुझे बदनाम कर डाला,
वो मेरी बात का मतलब ग़लत अक्सर समझता था

पकड़कर कान उसके, बज़्म से बाहर किया हमने,
वो था अफ़सर कि जो महफ़िल को भी दफ़्तर समझता था

भरम टूटा, खिलीं होठों पे’ जब महकी हुई गज़लें,
ज़माना इश्क की तक़दीर को बंजर समझता था

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