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Iftikhar arif.jpg

कहाँ के नाम ओ नसब इल्म क्या फ़ज़ीलत क्या

कहाँ के नाम ओ नसब इल्म क्या फ़ज़ीलत क्या
जहान-ए-रिज़्क़ में तौक़ीर-ए-अहल-ए-हाजत क्या

शिकम की आग लिए फिर रही है शहर-ब-शहर
सग-ए-ज़माना हैं हम क्या हमारी हिजरत क्या

दिमश्क़-ए-मसलहत ओ कूफ़ा-ए-निफ़ाक़ के बीच
फ़ुग़ान-ए-क़ाफ़िला-ए-बे-नवा की क़ीमत क्या

मआल-ए-इज़्ज़त-ए-सादात-ए-इश्क़ देख के हम
बदल गए तो बदलने पे इतनी हैरत क्या

फ़रोग़-ए-सनअत-ए-क़द-आवरी का मौसम है
सुबुक हुए पे भी निकला है क़द ओ क़ामत क्या

सजल के शोर ज़मीनों में आशियाना करे

सजल के शोर ज़मीनों में आशियाना करे
न जाने अब के मुसाफ़िर कहाँ ठिकाना करे

बस एक बार उसे पढ़ सकूँ ग़ज़ल की तरह
फिर उस के बाद तो जो गर्दिश-ए-ज़माना करे

हवाएँ वो हैं के हर ज़ुल्फ़ पेच-दार हुई
किसे दिमाग़ के अब आरज़ू-ए-शाना करे

अभी तो रात के सब निगह-दार जागते हैं
अभी से कौन चराग़ों की लौ निशाना करे

सुलूक में भी वही तज़करे वही तशहीर
कभी तो कोई इक एहसान ग़ाएबाना करे

मैं सब को भूल गया ज़ख़्म-ए-मुंदमिल की मिसाल
मगर वो शख़्स के हर बात जारेहाना करे

ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में 

ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में
फिर उस के बाद मुसलसल अज़ाब आँखों में

वो जिस के नाम की निस्बत से रौशन था वजूद
खटक रहा है वही आफ़ताब आँखों में

जिन्हें मता-ए-दिल-ओ-जाँ समझ रहे थे हम
वो आईने भी हुए बे-हिजाब आँखों में

अजब तरह का है मौसम के ख़ाक उड़ती है
वो दिन भी थे के खिले थे गुलाब आँखों में

मेरे ग़ज़ाल तेरी वहशतों की ख़ैर के है
बहुत दिनों से बहुत इज़्तिराब आँखों में

न जाने कैसी क़यामत का पेश-ख़ेमा है
ये उलझनें तेरी बे-इंतिसाब आँखों में

जवाज़ क्या है मेरे कम-सुख़न बता तो सही
ब-नाम-ए-ख़ुश-निगही हर जवाब आँखों में

अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से 

अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
दिल नहीं होगा तो बैअत नहीं होगी हम से

रोज़ इक ताज़ा क़सीदा नई तश्बीब के साथ
रिज़्क़ बर-हक़ है ये ख़िदमत नहीं होगी हम से

दिल के माबूद जबीनों के ख़ुदाई से अलग
ऐसे आलम में इबादत नहीं होगी हम से

उजरत-ए-इश्क़ वफ़ा है तो हम ऐसे मज़दूर
कुछ भी कर लेंगे ये मेहनत नहीं होगी हम से

हर नई नस्ल को इक ताज़ा मदीने की तलाश
साहिबो अब कोई हिजरत नहीं होगी हम से

सुख़न-आराई की सूरत तो निकल सकती है
पर ये चक्की की मशक़्क़त नहीं होगी हम से

हामी भी न थे मुनकिर-ए-ग़ालिब भी नहीं थे

हामी भी न थे मुनकिर-ए-ग़ालिब भी नहीं थे
हम अहल-ए-तज़बज़ुब किसी जानिब भी नहीं थे

इस बार भी दुनिया ने हदफ़ हम को बनाया
इस बार तो हम शह के मुसाहिब भी नहीं थे

बेच आए सर-ए-क़रया-ए-ज़र जौहर-ए-पिंदार
जो दाम मिले ऐसे मुनासिब भी नहीं थे

मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
वो क़र्ज़ उतारे हैं के वाजिब भी नहीं थे

लौ देती हुई रात सुख़न करता हुआ दिन
सब उस के लिए जिस से मुख़ातिब भी नहीं थे

कोई मुज़्दा न बशारत न दुआ चाहती है

कोई मुज़्दा न बशारत न दुआ चाहती है
रोज़ इक ताज़ा ख़बर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा चाहती है

मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़रनी थी सो वो भी गुज़री
और क्या कूचा-ए-क़ातिल की हवा चाहती है

शहर-ए-बे-मोहर में लब-बस्ता ग़ुलामों की क़तार
नए आईन-ए-असीरी की बिना चाहती है

कोई बोले के न बोले क़दम उट्ठें न उठें
वो जो इक दिल में है दीवार उठा चाहती है

हम भी लब्बैक कहें और फ़साना बन जाएँ
कोई आवाज़ सर-ए-कोह-ए-निदा चाहती है

यही लौ थी के उलझती रही हर रात के साथ
अब के ख़ुद अपनी हवाओं में बुझा चाहती है

अहद-ए-आसूदगी-ए-जाँ में भी था जाँ से अज़ीज़
वो कलम भी मेरे दुश्मन की अना चाहती है

बहर-ए-पामाली-ए-गुल आई है और मौज-ए-ख़िज़ाँ
गुफ़्तुगू में रविश-ए-बाद-ए-सबा चाहती है

ख़ाक को हम-सर-ए-महताब किया रात की रात
ख़ल्क़ अब भी वही नक़्श-ए-कफ़-ए-पा चाहती है

ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है

ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है
यहाँ वादों की अर्ज़ानी बहुत है

शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं
मगर लहजों में वीरानी बहुत है

सुबुक-ज़र्फ़ों के क़ाबू में नहीं लफ़्ज़
मगर शौक़-ए-गुल-अफ़शानी बहुत है

है बाज़ारों में पानी सर से ऊँचा
मेरे घर में भी तुग़्यानी बहुत है

न जाने कब मेरे सहरा में आए
वो इक दरया के तूफ़ानी बहुत है

न जाने कब मेरे आँगन में बरसे
वो इक बादल के नुक़सानी बहुत है

मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे

मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे

ये रौशनी के तआक़ुब में भागता हुआ दिन
जो थक गया है तो अब उस को मुख़्तसर कर दे

मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत
जो हो सके तो दुआओं के बे-असर कर दे

सितारा-ए-सहरी डूबने को आया है
ज़रा कोई मेरे सूरज को बा-ख़बर कर दे

क़बीला-वार कमानें कड़कने वाली हैं
मेरे लहू की गवाही मुझे निडर कर दे

मैं अपने ख़्वाब से कट कर जियूँ तो मेरा ख़ुदा
उजाड़ दे मेरी मिट्टी को दर-ब-दर कर दे

मेरी ज़मीन मेरा आख़िरी हवाला है
सो मैं रहूँ न रहूँ उस को बार-वर कर दे

ख़्वाब-ए-देरीना से रुख़्सत का सबब पूछते हैं 

ख़्वाब-ए-देरीना से रुख़्सत का सबब पूछते हैं
चलिए पहले नहीं पूछा था तो अब पूछते हैं

कैसे ख़ुश-तबा हैं इस शहर-ए-दिल-आज़ार के लोग
मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र जाती है तब पूछते हैं

अहल-ए-दुनिया का तो क्या ज़िक्र के दीवानों को
साहिबान-ए-दिल-ए-शोरीदा भी कब पूछते हैं

ख़ाक उड़ाती हुई रातें हों के भीगे हुए दिन
अव्वल-ए-सुब्ह के ग़म आख़िर-ए-शब पूछते हैं

एक हम ही तो नहीं हैं जो उठाते हैं सवाल
जितने हैं ख़ाक-बसर शहर के सब पूछते हैं

यही मजबूर यही मोहर-ब-लब बे-आवाज़
पूछने पर कभी आएँ तो ग़ज़ब पूछते हैं

करम-ए-मसनद-ओ-मिम्बर के अब अरबाब-ए-हकम
ज़ुल्म कर चुकते हैं तब मर्ज़ी-ए-रब पूछते हैं

इन्हीं में जीते इन्हीं बस्तियों में मर रहते 

इन्हीं में जीते इन्हीं बस्तियों में मर रहते
ये चाहते थे मगर किस के नाम पर रहते

पयम्बरों से ज़मीनें वफ़ा नहीं करतीं
हम ऐसे कौन ख़ुदा थे के अपने घर रहते

परिंदे जाते न जाते पलट के घर अपने
पर अपने हम-शजरों से तो बा-ख़बर रहते

बस एक ख़ाक का एहसान है के ख़ैर से हैं
वगरना सूरत-ए-ख़ाशाक दर-ब-दर रहते

मेरे करीम जो तेरी रज़ा मगर इस बार
बरस गुज़र गए शाख़ों के बे-समर रहते

दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो

दयार-ए-नूर में तिरा-शबों का साथी हो
कोई तो हो जो मेरी वहशतों का साथी हो

मैं उस से झूट भी बोलूँ तो मुझ से सच बोले
मेरे मिज़ाज के सब मौसमों का साथी हो

मैं उस के हाथ न आऊँ वो मेरा हो के रहे
मैं गिर पडूँ तो मेरी पस्तियों का साथी हो

वो मेरे नाम की निस्बत से मोतबर ठहरे
गली-गली मेरी रुसवाइयों का साथी हो

करे क़लाम जो मुझ से तो मेरे लहज़े में
मैं चुप रहूँ तो मेरे तेवरों का साथी हो

मैं अपने आप को देखूँ वो मुझ को देखे जाए
वो मेरे नफ़्स की गुमराहियों का साथी हो

वो ख़्वाब देखे तो देखे मेरे हवाले से
मेरे ख़याल के सब मंज़रों का साथी हो

अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया 

अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
के एक उम्र चले और घर नहीं आया

इस एक ख़्वाब की हसरत में जल बुझीं आँखें
वो एक ख़्वाब के अब तक नज़र नहीं आया

करें तो किस से करें ना-रसाइयों का गिला
सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया

दिलों की बात बदन की ज़बाँ से कह देते
ये चाहते थे मगर दिल इधर नहीं आया

अजीब ही था मेरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़
बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया

हरीम-ए-लफ़्ज़-ओ-मआनी से निस्बतें भी रहीं
मगर सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया

अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई

अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई
नए सफ़र के लिए रास्ता न माँगे कोई

बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं
अजीब रस्म चली है दुआ न माँगे कोई

तमाम शहर मुकर्रम बस एक मुजरिम मैं
सो मेरे बाद मेरा ख़ूँ-बहा न माँगे कोई

कोई तो शहर-ए-तज़बज़ुब के साकिनों से कहे
न हो यक़ीन तो फिर मोजज़ा न माँगे कोई

अज़ाब-ए-गर्द-ए-ख़िज़ाँ भी न हो बहार भी आए
इस एहतियात से अज्र-ए-वफ़ा न माँगे कोई

हरीम-ए-लफ़्ज़ में किस दर्जा बे-अदब निकला

हरीम-ए-लफ़्ज़ में किस दर्जा बे-अदब निकला
जिसे नजीब समझते थे कम-नसब निकला

सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़ताब का सर
किस एहतिमाम से परवरदिगार-ए-शब निकला

हमारी गर्मी-ए-गुफ़्तार भी रही बे-सूद
किसी की चुप का भी मतलब अजब अजब निकला

बहम हुए भी मगर दिल की वहशतें न गईं
विसाल में भी दिलों का ग़ुबार कब निकला

अभी उठा भी नहीं था किसी का दस्त-ए-करम
के सारा शहर लिए कासा-ए-तलब निकला

हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं 

हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं
आँसू भी तो माओं जैसी बातें करते हैं

रस्ता देखने वाली आँखों के अनहोने-ख़्वाब
प्यास में भी दरियाओं जैसी बातें करते हैं

ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं

एक ज़रा सी जोत के बल पर अँधियारों से बैर
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करते हैं

रंग से ख़ुशबुओं का नाता टूटता जाता है
फूल से लोग ख़िज़ाओं जैसी बातें करते हैं

हम ने चुप रहने का अहद क्या है और कम-ज़र्फ़
हम से सुख़न-आराओं जैसी बातें करते हैं

कहीं से कोई हर्फ़-ए-मोतबर शायद न आए

कहीं से कोई हर्फ़-ए-मोतबर शायद न आए
मुसाफ़िर लौट कर अब अपने घर शायद न आए

क़फ़स में आब-ओ-दाने की फ़रावानी बहुत है
असीरों को ख़याल-ए-बाल-ओ-पर शायद न आए

किसे मालूम अहल-ए-हिज्र पर ऐसे भी दिन आएँ
क़यामत सर से गुज़रे और ख़बर शायद न आए

जहाँ रातों को पड़ रहते हों आँखें मूँद कर लोग
वहाँ महताब में चेहरा नज़र शायद न आए

कभी ऐसा भी दिन निकले के जब सूरज के हम-राह
कोई साहिब-नज़र आए मगर शायद न आए

सभी को सहल-अंगारी हुनर लगने लगी है
सरों पर अब ग़ुबार-ए-रह-गुज़र शायद न आए

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है 

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऐसी तन्हाई के मर जाने को जी चाहता है

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है

डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए
ऐसी नद्दी में उतर जाने को जी चाहता है

कभी मिल जाए तो रस्ते की थकन जाग पड़े
ऐसी मंज़िल से गुज़र जाने को जी चाहता है

वही पैमाँ जो कभी जी को ख़ुश आया था बहुत
उसी पैमाँ से मुकर जाने को जी चाहता है”

कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहजे में

कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहजे में
अजब तरह की घुटन है हवा के लहजे में

ये वक़्त किस की रुऊनत पे ख़ाक डाल गया
ये कौन बोल रहा था ख़ुदा के लहजे में

न जाने ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कौन से अज़ाब में है
हवाएँ चीख़ पड़ीं इल्तिजा के लहजे में

खुला फ़रेब-ए-मोहब्बत दिखाई देता है
अजब कमाल है उस बे-वफ़ा के लहजे में

यही है मसलहत-ए-जब्र-ए-एहतियात तो फिर
हम अपना हाल कहेंगे छुपा के लहजे में

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