Skip to content

Iffat zareen.jpg

अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता 

अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता
तो दरमियाँ न मुक़द्दर का फ़ैसला रखता

वो मुझ को भूल चुका अब यक़ीन है वरना
वफ़ा नहीं तो जफ़ाओं का सिलसिला रखता

भटक रहे हैं मुसाफ़िर तो रास्ते गुम हैं
अँधेरी रात में दीपक कोई जला रखता

महक महक के बिखरती हैं उस के आँगन में
वो अपने घर का दरीचा अगर खुला रखता

अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था
तो अपने साथ सितारों का क़ाफ़िला रखता

जिसे ख़बर नहीं ख़ुद अपनी ज़ात की ‘ज़र्रीं’
वो दूसरों का भला किस तरह पता रखता

बे-सम्त रास्तों पे सदा ले गई मुझे

बे-सम्त रास्तों पे सदा ले गई मुझे
आहट मगर जुनूँ की बचा ले गई मुझे

पत्थर के जिस्म मोम के चेहरे धुआँ धुआँ
किस शहर में उड़ा के हवा ले गई मुझे

माथे पे उस के देख के लाली सिंदूर की
ज़ख़्मों की अंजुमन में हिना ले गई मुझे

ख़ुश-बू पिघलते लम्हों की साँसों में खो गई
ख़ुश-बू की वादियों में सबा ले गई मुझे

जो लोग भीक देते हैं चेहरे को देख कर
‘ज़र्रीं’ उन्हीं के दर पे अना ले गई मुझे

घबरा गए हैं वक़्त की तंहाइयों से हम

घबरा गए हैं वक़्त की तंहाइयों से हम
उकता चुके हैं अपनी ही परछाइयों से हम

साया मेरे वजूद की हद से गुज़र गया
अब अजनबी हैं आप शानासाइयों से हम

ये सोच कर ही खुद से मुख़ातिब रहे सदा
क्या गुफ़्तुगू करेंगे तमाशाइयों से हम

अब देंगे क्या किसी को ये झोंके बहार के
माँगेंगे दिल के ज़ख़्म भी पुरवाइयों से हम

‘ज़र्रीं’ क्या बहारों को मुड़ मुड़ के देखिए
मानूस थे ख़िज़ाँ की दिल-आसाइयों से हम

ख़्वाब आँखों से ज़बाँ से हर कहानी ले गया

ख़्वाब आँखों से ज़बाँ से हर कहानी ले गया
मुख़्तसर ये है वो मेरी ज़िंदगानी ले गया

फूल से मौसम की बरसातें हवाओं की महक
अब के मौसम की वो सब शामें सुहानी ले गया

दे गया मुझ को सराबों का सुकूत-ए-मुस्तक़िल
मेरे अश्कों से वो दरिया की रवानी ले गया

ख़ाक अब उड़ने लगी मैदान सहरा हो गए
रेत का तूफ़ान दरियाओं से पानी ले गया

कौन पहचानेगा ‘ज़र्रीं’ मुझ को इतनी भीड़ में
मेरे चेहरे से वो अपनी हर निशानी ले गया

ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे

ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
एक ही घर में बहुत से अजनबी रहते रहे

दूर तक साहिल पे दिल के आबलों का अक्स था
कश्तियाँ शोलों की दरिया मोम के बहते रहे

कैसे पहुँचे मंज़िलों तक वहशतों के क़ाफ़िले
हम सराबों से सफ़र की दास्ताँ कहते रहे

आने वाले मौसमों को ताज़गी मिलती गई
अपनी फ़स्ल-ए-आरज़ू को हम ख़िज़ाँ कहते रहे

कैसे मिट पाएँगी ‘ज़र्रीं’ ये हदें अफ़कार की
टूट कर दिल के किनारे दूर तक बहते रहे

मंज़िलें आईं तो रस्ते खो गए

मंज़िलें आईं तो रस्ते खो गए
आबगीने थे के पत्थर हो गए

बे-गुनाही ज़ुल्मतों में क़ैद थी
दाग़ फिर किस के समंदर धो गए

उम्र भर काटेंगे फ़सलें ख़ून की
ज़ख़्म दिल में बीज ऐसा बो गए

देख कर इंसान की बे-चारगी
शाम से पहले परिंदे सो गए

अन-गिनत यादें मेरे हम-राह थीं
हम ही ‘ज़र्रीं’ दरमियाँ में खो गए

Leave a Reply

Your email address will not be published.