Skip to content

Kamleshwar-sahu.png

समाचार वाचिकाएं 

खबरों के बाजार में लगभग
उत्पाद के समान मौजूद होती हैं वे
उनके हिस्से का दुख व अंधेरा
दिखाई नहीं देता हमें
वे देश दुनिया की खबरों को बांचते हुए
आश्चर्य के समान मौजूद होती हैं
हमारे सामने-
टी. वी. के पर्दे पर
वे आंकड़ों, अटकलों,
उत्सुकताओं, जिज्ञासाओं,
संभावनाओं, नतीजों का
बाजार फैलाकर रख देती हैं
हमारे सामने
हमारी इच्छा या अनिच्छा जाने बगैर
देश दुनिया की
छोटी बड़ी घटनाओं पर
गड़ी हुई उनकी निगाहें
देख भी पाती होंगी या नहीं
अपने आसपास की
अपने घर परिवार की
छोटी मोटी साधारण सी समस्याओं को
क्या पता
उनके लिये अमानवीयता
अवसरवादिता, क्रूरता, हृदयहीनता
जोड़-तोड़, साठ-गांठ, उठापटक
वक्त का तकाजा है
बाजार की मांग है
अपने को बनाये रखने की कला है
यानि जीवन के
नये बीज शब्द हैं
हत्या, लूट, बलात्कार
दंगों की दिल दहला देने वाली
जिन घटनाओं को देखकर
पसीने से तरबतर हो
मारे भय के कांप-कांप जाती हैं
हमारे घरों की स्त्रियां
उन खबरों को बांचते हुए
देखते-दिखाते हुए
जरा भी नहीं बदलता
उनके चेहरे का भाव
चिपकी होती है
एक यांत्रिक मुस्कुराहट उनके चेहरे पर
उनके द्वारा पढ़ी जाने वाली खबरों में
शामिल नहीं होता
उनका परिवार, उनके बच्चे
उनका सुख-दुख, संघर्ष,
उनके अभाव, उनके आंसू,
उनकी समृद्धि
उनके बिस्तरों की अवैध सिलवटें
उनके तलाक के किस्से
और तीसरे पति का नाम
हर बार
कामर्शियल ब्रेक के बाद
जब वे लौटती हैं दोबारा
उनके होंठांे पर
लिपस्टिक का रंग
कुछ और गहरा व ताजा हो जाता है
वे तीसरी दुनिया के देश से आयी हैं
मगर लगती बिल्कुल भी नहीं
किसी भी अप्रिय घटना-दुर्घटना
किसी अनहोनी
किसी की मृत्यु या आत्महत्या
या किसी सामूहिक नरसंहार पर
दो मिनट का
मौन रखने की आजादी नहीं उन्हें
वे जानती भी हैं
उनके दो मिनट के मौन से
उनके आकाओं को
पड़ सकता है लाखों का फर्क
मौन की अवधि में
दिखाया जा सकता है
चार ‘प्रचार’
जो दिखाई नहीं देता
वह यह
कि ठीक पर्दे के पीछे
वातानुकूलित केबिन के
रिवाल्विंग चेयर पर बैठा हुआ व्यक्ति
तय करता है
उनके पहनने के कपड़े
ज्वेलरी लिपस्टिक
वही तय करता है
कैमरे में दिखेंगी किस कोण से
खबरें बांचते हुए
पलकें कितना झपकायेंगी
मुस्करायेंगी कब कब और कितना
कितने फैलेंगे होंठ
हंसते हुए दिखेंगे कितने दांत
टी. वी. के पर्दे पर
खूबसूरत, आजाद और बिंदास
तीसरी दुनिया के देशांे से आयी
ये समाचार वाचिकाएं
भले ही लगती नहीं
मगर जकड़ी होती हैं
अदृश्य बेड़ियों से !

रंगों की बारिश में भीगी हुई

सुनीता वर्मा-
इस नाम को मैं
दोहराता हूं मन ही मन
और भर जाता हूँ खुशी से-
मेरे ही शहर में रहती है
जो रंगों को छेड़कर
रंगों से खेलकर
चित्र ही नहीं बनाती
बल्कि रंगों से जीवन रचती है
रचती है जीवन का सौन्दर्य
सौन्दर्य का जीवन
जीवन में सौन्दर्य
सौन्दर्य में जीवन
कल्पना करता हूँ मैं
कागज और कैनवास पर
सार्थक, सजीव, और जीवन्त उपस्थिति के लिये अपनी
कितनी बेचैनी से टहलते होंगे रंग
उसके मन में, मस्तिष्क में
कंूचियों का भी होता होगा
लगभग यही हाल
उनकी नाजुक और मुलायम उंगलियों के सहारे
रंगों में डूबकर
थिरकने, फुदकने, नाचने की चाह में
रंगों की बारिश में
भीगी हुई एक कलाकार
डूबी हुई उनकी गहराईयों में
उनके स्वभाव के अनुसार
अपनी तमाम खामोशियों
और एकाग्रता के साथ
उनसे बोलती बतियाती
उनकी अपनी भाषा में
इस समय भी भीगी हुई है वह
जबकि आई है मुझसे मिलने
छोड़कर अपने कला कक्ष में
रंगों का समुद्र
जिसकी चंचल लहरें
पुकार रही हैं उसे लगातार
मैं पूछता हूं
और चहक उठती है वह-
हर रंग का अपना स्वभाव होता है
जैसे हर मनुष्य की अपनी आदतें
जैसे ‘रसों’ के अपने गुण
हर रंग का स्वाद भी होता है अपना
जिसे कम से कम जीभ से चखकर
जान पाना मुश्किल है
सुखद आश्चर्य से भर जाता हूँ मैं
कि उन्हें देखकर
उनसे मिलकर
उनसे बातचीत कर
जान पाना बहुत मुश्किल है
कि वे चित्रकार हैं
क्योंकि जिन रंगों में उलझी रहती हैं
भीगी रहती हैं जिन रंगों की बारिश से
उन रंगों के छींटे
दिखाई ही नहीं देते
उनके पूरे व्यक्तित्व के
किसी भी हिस्से में
बहुत देर तक बच पाना
बहुत मुश्किल है
उनके व्यक्तित्व की शालीनता
पहनावे की सादगी
बातों की मिठास
संगीतमय हंसी की खनक
और उनकी दो खूबसूरत
निर्दोष और समझदार
कुछ तलाशती सी
बेचैन आंखों के प्रभाव से
जिनमें रंग तैर रहे हैं या स्वप्न
यह भी कह पाना मुश्किल है
इस छोटी सी मुलाकात में
कहता हूँ मैं अपने आप से
इसीलिए तो सुनीता वर्मा है वह-
रंगों के सम्मोहन
और तिलस्म में प्रवेश कर
उसे तोड़ती है
और फिर रचती है उन्हीं से
एक तिलस्म, एक सम्मोहन
बिल्कुल वैसा ही!
उनके रचे हुए पेड़ सिर्फ पेड़ नहीं होते
उनके खिलाये हुए फूल सिर्फ फूल
बनायी हुई चिड़िया सिर्फ चिड़िया नहीं होती
नाचते हुए लोग सिर्फ लोग
उनके द्वारा खोली गई खिड़की सिर्फ खिड़की नहीं होती
खिड़की के पार होता है पूरा जीवन
होता है जीवन और सौन्दर्य का विराट संसार
होती हैं उम्मीदें,
स्वप्न, इच्छायें
यथार्थ के अच्छे बुरे अनुभव और दृश्य
हां हां यही तो जादू है उनका
कि उनके हाथ लगाने के बाद
पेड़ और फूल, भूल जाते हैं मुरझाना
चिड़िया उड़ना, खिड़की बंद होना
और नाचते हुए लोग विश्राम करना
बहरहाल
हमें प्रेम और समर्पण उस तरह करना चाहिए
जिस तरह सुनीता वर्मा
जिस प्रकार रंग बिखरे होते हैं
उनके चारों ओर
जिस तरह बिखरी होती हैं वे
रंगों के इर्द-गिर्द
प्रेम और समर्पण में हमें
कुछ उसी तरह बिखरना चाहिए ।

सुनीता वर्मा : नवनिर्मित राज्य छत्तीसगढ़ के भिलाई शहर में निवास करने वाली सुनीता वर्मा नयी पीढ़ी के चित्रकार हैं। वे अपने चित्रों व पेंटिग्स के जरिये देश भर की पत्र-पत्रिकाओं व प्रदर्शनियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर अपनी मुकम्मल पहचान बना चुकी हैं। वे लम्बे समय तक मशहूर चित्रकार जे. स्वामीनाथन के सानिध्य में रह चुकी हैं। सुनीता वर्मा पेशे से कला शिक्षिका हैं। देहली पब्लिक स्कूल भिलाई में बच्चों को चित्रकला सिखाती हैं। सुनीता वर्मा वर्ष 2007 में मध्यप्रदेश सरकार के कालीदास सम्मान से सम्मानित हो चुकी हैं।

पुरूष-दृष्टि-एक

गर्मी के दिनों में
पीपल की छाया है
शीतल हवा का झोंका
बारिश के दिनों में
सिर पर तना हुआ छाता
ठंड के दिनों में
जिस्म से लिपटी हुई रजाई
और बसंत के दिनों में . . . . .
बसंत के दिनों में
आंगन में खिला हुआ
सबसे सुन्दर सबसे ताजा फूल
सांसों में बसी हुई
सबसे प्यारी खुश्बू है पत्नी !

पुरूष-दृष्टि-दो

घर का दरवाजा है पत्नी
खिड़कियां है
खिड़कियों और दरवाजों पर
हिलगा हुआ परदा है
जो घर के अंदर की
मामूली गैर-मामूली चीजों को
छोटी बड़ी समस्याओं को
असुविधाओं को, अव्यवस्थाओं को
लुकाती-छुपाती है
बचाती है लोगों से
लोगों की बुरी नजरों से
आंगन में खिला फूल है
डाल पर बैठी मैना
जिस पर नजरें मुग्ध होकर टिकी रहती हैं
वह तस्वीर है
केला आम अमरूद शहतूत का पेड़ है
आंगन में लगा हुआ तुलसी का पौधा है
जलता हुआ दीपक है पत्नी
हर आने वाली सुबह के स्वागत में
हर आने वाले मेहमान के सम्मान में
आंगन में बनी हुई
रंगोली है पत्नी !

ऐसा क्यों 

कभी कभी जब
कुछ भी नहीं होता करने को
सोचता हूं
कितने सपने लगते होंगे
एक ताजमहल बनाने के लिये
लोग कहते हैं
जिनके पास
जितने सपने हैं
उतने ही सपनों से
बनाया जा सकता है
ताजमहल
लोग तो
यहां तक कहते हैं
सिर्फ एक ही सपना काफी है
ताजमहल बनाने के लिये
मां के पास सपने ढेरों थे
मगर दुर्भाग्य
ताजमहल एक भी नहीं
ऐसा क्यों ! ?

मुझे नहीं मालूम खुदाबख्श

सितारे कब हुए नाराज
कब बदले करवट नक्षत्रों ने
हाथों की लकीरों ने कब बदलीं अपनी दिशाएं
नहीं मालूम मुझे
कब छूटा तितलियों को पकड़ना
फूलों से खेलना कब छूटा
कब भूली भंवरों के पीछे दौड़ना
मिट्टी के घरोंदे बनाना कब छूटा
नहीं मालूम मुझे
नहीं मालूम मुझे
कब उतरी माँ की गोद से
पिता की उंगली कब और कैसे छूटी
किस सुरंग में जाकर गुम हो गई
गांव की पगडंडी
घर का रास्ता
नहीं मालूम मुझे
खिलखिलाकर हंसना कब छूटा
कब बीते सुहाने सपनों के दिन
बच्ची से कब हुई लड़की
कब बदल गई लड़की से युवती में
युवती से स्त्री में
और कब और कैसे बन गई
स्त्री से तवायफ
मैं बिल्कुल सच कह रही हूं
मुझे नहीं मालूम खुदाबख्श-
खुदा कसम !

तवायफ 

मेरे गजरे की महक से
वह हो जाता है मदहोश
मैं स्वयं मुर्छित
मेरे आंचल का लहराना
जितना भाता है उसे
उतना ही घबराती हूं मैं
मेरे घुंघरूओं की झंकार सुनकर
झूम झूम जाता है वह
और मैं स्वयं जख्मी
तबले के जिस थाप पर वह
करता है वाह
मेरी छाती में
हथौड़ा बनकर गिरता है
उसे नहीं मालूम
जो वह सुन रह है
सारंगी की आवाज नहीं
मेरी सिसकियां है
मेरे जिस नाच पर
जिस थिरकन पर
जिस ‘बल’, ‘खम’ पर
मुग्ध हो रूपये उड़ा रहता है
मेरी तड़प है
छटछपाहट है मेरी
मेरी आंखों में वह
झील की गहराई देखता है
ढूढ़ता है मयखाना, मदहोशी
मुक्ति का मार्ग ढूढ़ती हूं मैं
उसकी आंखों में
उसके साथ में
सानिध्य में
हर बार पालती हूं उम्मीद
हर बार खाती हूं धोखा
इस बाजार में आने वाला
आता है
महज एक रात का प्रेमी बनकर
और मैं रह जाती हूं
तवायफ
उम्र भर की !

तस्वीर में मौजूद तितली

उसके पंख
स्त्री की इच्छाओं से बने हैं
रंग
स्त्री के स्वप्न से
उड़ान पर
पहरा है
अदृश्य पारदर्शी तलवारों का-
तस्वीर में मौजूद तितली
तस्वीर से बाहर आना चाहती है
देखिये
जरा गौर से देखिये
कोई स्त्री
मुक्ति का गीत गाना चाहती है ।

मठ में लड़कियां

सदियों से बुदबुदाये जा रहे हैं भगवान बुद्ध
निर्वाण निर्वाण निर्वाण
मठ में लड़कियां
घूमकर सारा मठ
खड़ी हैं इस वक्त
ठीक भगवान बुद्ध के सामने
जो बुदबुदाये जा रहे हैं सदियों से
निर्वाण निर्वाण निर्वाण
मुस्कुराती हैं लड़कियां
देखकर समाधिस्थ भगवान बुद्ध को
स्वयं बुद्ध को नहीं मालूम
क्या सोच रही हैं
ठीक उसके सामने खड़ी लड़कियां
कोई नहीं कर सकता परिभाषित
इस वक्त
इस मुस्कुराहट को
कहती है कोई एक
बहुत आहिस्ता
बुद्धम् शरण् गच्छाम् ि!
खिलखिलाती हैं लड़कियां-
आ तो गये !

तो
गए
इस हद तक हो गया पारदर्शी
कि उसके पार
साफ दिखाई देने लगा सब कुछ
मारती है कोहनी
कोई एक, दूसरी को-
क्या पर्सनालिटी है
क्या व्यक्तित्व
क्या आकर्षण
क्या सम्मोहन
क्या गठीला बदन
क्या अपीलिंग है यार ऽ ऽ ऽ !
एक सिसकारी के साथ
फड़फड़ाते हैं ढेर सारे होंठ
मठ में लड़कियांे को
भगवान बुद्ध के चेहरे की शांति दिखाई नहीं देती
भगवान बुद्ध के चेहरे पर व्याप्त
संतोष दिखाई नहीं देता
भगवान बुद्ध के चेहरे पर छाया हुआ
समस्त वासनाओं कामनाओं इच्छाओं पर
विजय दिखाई नहीं देता
कहती हैं
लड़कियां
मठ में
भगवान बुद्ध से
लड़कियां नहीं
उनकी देह
उनका यौवन
उनकी उम्र
उनकी आत्माएं कहती हैं-
हम ही सुख हैं
हम ही सत्य
हम ही शांति
हम ही सृष्टि
हम ही मुक्ति
हम ही मोक्ष
मुक्ति. . . . .मोक्ष. . . . .निर्वाण
वही निर्वाण
जो तुम बुदबुदाये जा रहे हो भगवन
भगवान बुद्ध
सदियों से .. . . . . .!

सुबह की धूप

प्रेयसी सी खूबसूरत
शर्मीली
मौन
चुप !
पत्नी सी शांत
बेटे सी नटखट
बेटी सी कोमल
सुबह की
गुनगुनी धूप !!

मुनिया की मासूम आंखें 

मुनिया रोज ही देखती है
गौर से
दादी के चेहरे को
झांकती है रोज ही
दादी की
निश्तेज आंखों में
हर सुबह रौशनी
यहीं से फूटती है
मुनिया नहीं कहती
कहती हैं
मुनिया की मासूम आंखें !

पिता की मृत्यु के बाद पूनम

पूनम को देखकर
याद आ गईं मुझे वे लड़कियां
जो सपने पालने की उम्र में
संभालने लगती हैं
घर की जिम्मेदारियां
पिता की मृत्यु के बाद
उस तरह नहीं मिल पाते हम पूनम से
जिस तरह मिला करते थे पहले
जब जीवित थे उनके पिता
अल्हड़ मुर्खताओं से भरे
अपनी मासूम हरकतों से परेशान करते
होकर निश्चिंत, लापरवाह, गैर जिम्मेदार
हा. . . .हा. . . .ही. . . .ही करते
भकभकाते !
अब घर में घुसते हुए
रहना पड़ता है मर्यादित और गंभीर
भड़भड़ाने की आदत पर रखना पड़ता है काबू
रखना पड़ता है ध्यान
कि पिता खो चुकी लड़की
और पति खो चुकी स्त्री रहती है यहां
ये चाहिए वो चाहिए की जिद्द से
परेशान करना
भूल गई एक ही पल में
मानो ले गये पिता अपने साथ
अपनी मासूम बेटी का यह स्वभाव
चली गई लगभग
बात बात पर
रिसाने रूठने की आदत
चेहरे से चली गई कोमलता
चंचलता और चमक पर
चढ़ गया हल्का पीला उदास रंग
हर वक्त खिले रहने वाले चेहरे से
चली गई रौनक
ताजगी और उमंग से भरी हंसी
गायब हो गई उसके होंठों से
मानो लम्बे समय से रूक गया हो
संगीत का उसका रियाज़
पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद
बदल गया बहुत कुछ पूनम के जीवन में
अब तक जिसे संभालती रही मां
वही बेटी अब
संभालने लगी मां के समान
पिता के जाते ही अचानक
भीतर-बाहर से टूटकर बिखर रही मां को
दो छोटे भाईयेंा की देखभाल
और उनकी पढ़ाई-लिखाई की चिंता
अक्सर रेत बनकर गिरती है
उसके खयालों में
अचानक अपनी उम्र से बड़ी होकर
संभालने लगी पिता की मृत्यु के बाद
उनकी छोटी-बड़ी सारी जिम्मेदारियां
अपने नाजुक कंधे पर
समय से पहले
अपनी उम्र से बड़ा हो जाना
किसी सजा से कम नहीं,
पिता की मृत्यु के बाद
न जाने क्या क्या खो देती हैं बेटियां
जाने-अजाने एक ही झटके में
जैसे पूनम
समय के क्रूर पंजे ने
ली हो हल्की सी करवट
और खत्म हो गया हो एक पूरा जीवन पूनम का
और अब दूसरे जीवन की शुरूआत में
न बचा हो
प्यार करने के लिए समय और इच्छा
कभी कभी ऐसा होता जरूर होगा
कि पहले जीवन में किया गया प्रेम
देता होगा दस्तक उसके एकांत में
कोई प्यास अचानक आ बैठती होगी
उसके कंठ और आत्मा में
कोई आग अचानक सुलग उठती होगी देह में
पहले जीवन में लिखे गये
अधूरे प्रेम पत्र
फड़फड़ाते होंगे बेचैन बेतहाशा स्मृतियों में
कभी कभी ही सही
पिता की मृत्यु के पहले
देखे गये ढेरों सपने ऐसे भी होंगे
जिनके सिर उठाने से पहले ही
दबोचकर दफन कर देती होगी
मन के किसी ठंडे रेगिस्तान में
और झांकने से डरती होगी
पिता की मृत्यु के बाद पूनम !

जांता

तब चक्की नहीं थी
जांता था
जैसे मिक्सर ग्राइन्डर से पहले
सिलबट्टा
तब हर घर में
कोई न कोई कोना
होता था सुरक्षित
इस जांते के लिये
तब बहुएं
इतनी नाजुक नहीं होती थी
तब उनका सौन्दर्य
सौन्दर्य प्रसाधनों के इस्तेमाल से नहीं
श्रम से निखरता था।
रात के तीसरे पहर से ही
शुरू हो जाती थी उनकी दिनचर्या
और शुरूआत
जांता से
जब तक जागते घर भर के लोग
पीस चुकी होती
पूरे परिवार की रोटी के लिये आटा
उनके बच्चों की आधी नींद
बिस्तर में पूरी होती
और आधी
गेहूं पीस रही मां की
फैली हुई टांग पर सिर रखकर
और सुलाता
जांता चलने का संगीत
तब आटा पालीपैक में नहीं मिलता था
तब अपने आटे को शुद्ध
व पौष्टिक बताने वालों की
होड़ न थी
तब मुनाफा कमाने के तरीके न थे-
तब जांता था
चक्की नहीं !

सिलाई मशीन

मेरे लिये कोई महत्व नहीं
कपड़ा पहले आया
या आयी सिलाई मशीन
पहनावा यदि सभ्य होने की पहचान है
तो हमारे पहनावे में
यानी हमारे सभ्य होने न होने में
उत्तरोत्तर परिवर्तन का
चश्मदीद गवाह है यह
सरकार की सबसे सस्ती
सरल व उपयोगी योजनाओं में से
एक है इसका वितरण
गरीब, विधवा, परित्यक्ता महिलाओं में
माताएं अपनी बेटियों को सिखाती हैं
सिलाई-बुनाई-कढ़ाई
देती हैं दहेज में इसे
कि आड़े वक्त में आये काम
बंधा रहे चार पैसा
उनकी बेटियों की गांठ में
हमारी बेटियों के समान चंचल व बातूनी
हर वक्त करती रहती है पटर पटर
इसकी ‘भाखा’ को समझते हैं कपड़े या फिर दर्जी
आवाज में जरा सा भी बदलाव
कर देता है चौकन्ना
किस पुर्जे में आयी है खराबी
जान जाता है दर्जी
ऐसे समय में
जबकि खत्म हो रहे हैं रोजगार के अवसर
बाजार का खेल चल रहा है उटपटांग
पूंजीपति रच रहे है षडयंत्र
बाजार में रेडीमेड कपड़ों के
एक छत्र राज के बीच
भरोसा दिलाती है यह
कि फिलहाल
दर्जी का परिवार रहेगा सुरक्षित
जुटा लेगा आजीविका
दो वक्त की रोटी
नहीं करेगा आत्महत्या
दो घंटे पचास मिनट की
फूहड़ दृश्यों, उत्तेजक नृत्यों,
कोरी कल्पनाओं, मूर्खतापूर्ण भावुकताओं,
अविश्वसनीय अपराधों,
प्यार व बदले के चालू फार्मूलों से लबरेज
बिना ओर-छोर की कहानी वाली
भारतीय फिल्मों के मायाजाल में
कहीं कुछ यथार्थ होता है
तो सात मिनट के उस दृश्य में
जिसमें होती है सिलाई मशीन
जिसे पति की मृत्यु के बाद
चलाती है उसकी पत्नी
सिलती है पड़ोसियों के कपड़े
और पालती है अपने बच्चे को
बाद में यही बच्चा
बड़ा होकर बनता है नायक
और फिर
दो घंटे पचास मिनट की पूरी फिल्म में
कहीं दिखाई नहीं देती यह
सिलाई मशीन न होती
तो जाने क्या होता कविता मिश्रा का
भूख व पारिवारिक जिम्मेदारियों से
हलाकान परेशान
न जाने
उठाती कौन सा कदम
इस अमानवीय समय में
हम सुई और धागे के समान नहीं जी सकते
किसी के जीवन का ऐसा कुछ भी नहीं सी सकते
जैसे सिलाई मशीन
गाता है फकीर का इकतारा
और शाम भर जाती है
उदासी
उत्कंठा
वितृष्णा
खटास से !

कविता मिश्रा : बिहार के जन कवि स्व. राम प्रिय मिश्र ‘लालधुआं’की 70 वर्षीय वृद्ध पत्नी, जो इस उम्र में भी सिलाई मशीन सुधारकर व कपड़े सी कर अपने परिवार का भरण पोषण करती है। यह कविता संडे आब्ज़र्वर में छपी एक खबर के
आधार पर बहुत पहले लिखी गई थी।

रसोईघर-एक

घर के अंदर
एक और घर का नाम है
रसोई घर
पूरे घर में
सिर्फ एक कमरे में बसती है
यह जादू नगरी
और यह जादू नगरी चलती है
एक स्त्री के इशारे पर
यह एक ऐसी पहेली है
जिसे हल करने के लिये
आपको चाहिए एक स्त्री का साथ
नहीं तो चाय की पत्ती ढ़ूढ़ने में ही
बीत जायेगा सारा समय
पानी उड़ जायेगा भाप बनकर
केतली रह जायेगी सूखी और गर्म
आग बबूला
ढेर सारे बर्तनों
छोटे बड़े डिब्बों, कनस्तरों
चाकू, पैसूल, हंसिया और सिलबट्टे की
एक ऐसी दुनिया है यह
जहां किसी भी चीज को हाथ लगाते हुए
कांपता है पुरूष का मन
नीबू मिल भी गया
तो नमक ढ़ूढ़ना हो जाता है मुश्किल
प्याज हाथ में हो
तो पैसूल हो जाता है लापता
चावल, दाल, शक्कर ढ़ूंढकर
अपनी पीठ थपथपा भी लें
तो सरसों, जीरा, आजवाइन खोजते
आ जाता है पसीना
जैसे-तैसे आटा गूथ भी लें
तो रोटी बेल पाना हो जाता है असंभव
चाकू और कद्दू के चक्कर में
कट जाती है उंगली
निकल आता है खून
यहीं आकर जलता है
हवन करते हुए हाथ
यह स्त्री के हाथ लगाने से
खिलने वाला फूल है
यह ऐसा वाद्य यंत्र है
जो स्त्री के हाथ लगाने से बजता है
यहां के संगीत के संसार का स्वप्न
अधूरा है स्त्री के बगैर
स्त्रियों की अस्मिता
उनकी प्रगतिशीलता
उनकी आजादी
उनकी मुक्ति
उनकी स्वतंत्रता की
तमाम घोषणओं व लड़ाईयों के बीच
यह स्त्री को ही पुकारता है
उसी के कदमों की आहट
और चूड़ियों की खनक से
खुलता है
इस जादू नगरी का द्वार
चाय-पानी, दाल-रोटी
चौका-बर्तन के चक्कर में
स्त्री को उलझाये रखने के लिये
रचे गये षडयंत्र का नाम
कतई नहीं है
रसोईघर !

रसोईघर-दो

स्त्रियों का ऐसा संसार है यह
जहां पुरूषों का प्रवेश वर्जित तो नहीं
मगर अघोषित तौर पर है असंभव
तमाम किस्म की लड़ाईयां
तमाम किस्म के युद्ध जीतने वाले
अक्सर इस व्यूह में प्रवेश कर
हुए हैं पराजित
उनके संघर्षों का ग्राफ
यहीं आकर गिरा है
उनकी सफलता
यहीं आकर मांगती है पानी
यह एक ऐसा तिलस्म है
ऐसी मायानगरी
जहां प्रवेश करते ही
मारी जाती है मति
सारा दंभ, सारा अहंकार
यहां प्रवेश करते ही
उड़ जाता है कपूर बनकर
और पूरूष के चेहरे पर
झुंझलाहट लगा देती है अपना मुहर
जिस धैर्य के लिये
जाने जाते हैं वे
दे जाता है जवाब
इस कारावास (पुरूष लगभग यही मानता है) में
रहना पड़ जाय दो चार घंटे
तो घुटने लगता है दम
दिमाग के सारे पुर्जे हो जाते हैं ढीले
जिन पुरूषों को लगता है
वे जान चुके हैं
इस किले को भेदने का रहस्य
उनको मंुह चिढ़ाता
उनको झुठलाता
स्त्रियों का यह संसार
स्त्रियों का यह स्वप्नलोक
ताल ठोकती चुनौती है
आज भी
उन पुरुषों के लिये
सदियों से अपराजेय है यह किला
इस किले पर
किसी पुरूष ने
आज तक नहीं गाड़ा
फतह का कोई झंडा !

जिन्दगी के शेष दिन

उसने
एक बेहद खूबसूरत लड़की से प्रेम किया
जिया एक अच्छा प्रेमी बनकर
अपनी जवानी के स्वर्णिम दिन गुजारे
उसने
परिवार की मर्जी से
एक सुन्दर लड़की से विवाह किया
रहा अच्छा पति बनकर
किया पति का फर्ज अदा
दहेज के पैसे से बनवाया मकान
अपनी जिन्दगी के अच्छे दिन बिताए
प्रेमिका अच्छी थी या पत्नी
प्रेम के दिन अच्छे थे
या विवाह के बाद के दिन
उसकी जिन्दगी के शेष दिन
यही तय करने में बीत रहे हैं !

ममता दादौरिया दहेज हत्याकांड 

प्लास्टिक, पेट्रोल, मिट्टी तेल और कपड़े के साथ
गोश्त के जलने की बद्बू फैली हुई है
फरसगांव की फ़िजा में
समाज का बेहद वीभत्स, क्रूर, घिनौना चेहरा
सरेआम हो गया है नंगा
सुधीर दादौरिया और सगुना दादौरिया की शक्ल में
अखबार में यह खबर भी बिल्कुल वैसी
और उतनी ही छपी
जितनी और जैसी छपती रही है
आज से सैकड़ों-हजारों बार पहले
इससे ज्यादा कुछ हो भी नहीं सकता
क्योंकि अखबार के पास खबर से आगे
सोचने या लिखने के लिए
न तो समय है
न शब्द
और न ही संवेदना !
दूसरे ही दिन ममता दादौरिया के
जले हुए जिस्म पर
देश-विदेश की इतनी खबरें
इतनी परतों में आ चिपकीं
कि लोग भूल ही गए
कि कल ही ममता नाम की लड़की
दहेज के लिए जला दी गई
वे लोग भी भूल गए
जिनके घरों में हैं ममताएं
बावजूद इसके
एक अदृश्य संवाददाता मौजूद है इन दिनों
फरसगाँव में
जो जानना चाहता है
वे बातें
कारण
घटनाएं
जो रह गईं अखबार में छपने से
या जिसे जानने में चूक गए अखबार नवीस
फरसगाँव में बहुत सारे लोग थे
जो दहल गए थे इस घटना से
बहुत सारे लोग थे, जो बदल चुके थे भीड़ में
बहुत सारे लोग थे, जो गायब थे भीड़ से
बहुत सारे लोग थे, जिनमें मात्र उत्सुकता थी
बहुत सारे लोग थे, जिनकी संवेदनाएं मर चुकी थीं
बहुत सारे लोग थे, जो बारूद में बदल चुके थे
बहुत सारे लोग थे, जो बारूद में बदल चुके थे
बहुत सारे लोग थे, तो बहुत सारी बातें थीं
बहुत सारे लोगांे की
बहुत सारी बातों को जानने से पहले
जानना होगा उस घर को
जो ममता में रहता था
या जिसमें रहती थी ममता-
ममता के साथ
ममता के बराबर जला है यह घर भी-
इस जलकर मरे हुए घर को देखो
तो लगता है
ममता थी तो बोलता-बतियाता था घर
ममता थी तो राह चलते लोगों से गपियाता था
ममता थी तो मुस्कुराता था आंगन
सजता था रंग-बिरंगी रंगोली से
ममता थी तो पायल और चूड़ियों का
संगीत बजता था घर में
ममता थी तो खिलखिलाते थे घर के बर्तन
ममता थी तो चींटियों को मिलता था शक्कर
ममता थी तो भिखमंगों को मिलता था
मुट्ठी भर चावल, छुट्टे पैसे, दो मीठे बोल
ममता थी तो घर की हर चीज में थी रौनक
ममता थी तो घर के चेहरे पर थी जिंदादिली
गरज कि
ममता के होने से था घर का घर होना
एक ममता के न होने की तकलीफ तो
वह घर ही बताएगा
जिस घर में जलती है ममता
जलाने वाले क्या खाक बताएंगे
ममता के न होने से
अब कुछ भी नहीं है इस घर में
बल्कि बाहर बंद दरवाजे पर
लटक रहा है सील बंद ताला
जिसे लगा गया है थानेदार
लेकिन घर के बाहर
बहुत सारे लोग थे
तो बहुत सारी बातें थीं
मसलन (मार्फत सुधीर दादौरिया के मित्रों के)
-ममता का बाल विवाह था
-ममता कम पढ़ी लिखी थी
-ममता मोटी थी
-ममता खूबसूरत नहीं थी
-मां नहीं बन सकती थी ममता
-ममता के भाईयों ने कम दिया था दहेज
बहुत सारे लोगों की
बहुत सारी बातों में
शामिल नहीं था बहुत कुछ
मसलन (मार्फत फरसगांव में फैली हवा के)
ममता को भी चाहिए था सम्मान
ममता भी थी सहानुभूति की हकदार
ममता भी थी श्रद्धा-सेवा-संवेदनशीलता की मिसाल
ममता भी खटती थी दिन-रात
घर की सुख-शांति के लिए
स्त्रियों से नैतिक आचरण की उम्मीद पालने वाला समाज
ममता से भी रखता नैतिक आचरण!
बहुत सारे लोग थे
तो बहुत सारी बातें थीं ममता के पक्ष में
मसलन
ममता ने कभी नहीं कहा
जिसकी लंबी उम्र के लिए करती थी मंगल कामना
हर वक्त अश्लील अपशब्दों से करते थे संबोधित
ममता ने कभी नहीं कहा
जिन कदमों में झुकती थी
दिन-रात मारते थे ठोकर
ममता ने कभी नहीं कहा
कि पति का पतलून खिसकने से रोकने वाला बेल्ट
हर रात उसकी पीठ के साथ करता है रति
ममता ने कभी नहीं कहा
उसका बनाया हुआ खाना
बेस्वाद करार देकर ठोकर मार दिया जाता है
ममता ने कभी नहीं कहा
उसका पति आदमखोर, अय्याश, शराबी और क्रूर है
ममता ने कभी नहीं कहा किसी से
अपनी इच्छाओं, शौकों और सपनों के बारे में
ममता ने कभी नहीं कहा
उसे मारने के लिए रचा जा रहा है षडयंत्र
ममता ने जो कभी नहीं कहा
कहना चाहती थी वही सब
मिट्टी तेल, पेट्रोल, माचिस की एक तीली
और परिवार वालों की क्रूरता का शिकार होकर
जलकर पड़ी थी अस्पताल के बिस्तर पर ममता
उसकी आंखों में भय, दुख, घृणा और क्रोध का
मिला-जुला भाव तैर रहा था
अपने पति और पति की मां के लिए
चेक करने आया डॉक्टर
रो पड़ा सुनकर ममता की बात-
”डॉक्टर साब !
फरसगांव में किसी ने मेरे पैर का
नाखून तक नहीं देखा था
अब सारा गांव देख रहा है
तो बिना कपड़े के !“
भरी भीड़ के सामने
निरपराध-सा खड़ा था उसका पति
और सास कह रही थी
बचा लूंगी बेचकर पांच बीघा जमीन
कानून व न्याय की
तंग, संकरी और घुमावदार गलियों में
सैकड़ों चोर दरवाजे हैं
जिनसे होकर बच निकलता है हर बार अपराधी
यदि ऐसा न होता
तो पांच बीघा जमीन बेचकर
बचा लेने का दावा न करती
सगुना दादौरिया ( सुधीर दादौरिया की मां )
तो क्या सचमुच बच जायेगा सुधीर दादौरिया
तो क्या सचमुच बच जाना चाहिए उसे
तो क्या हर बार भाईयों का विश्वास हारता रहेगा ?
हारा हुआ विश्वास भी
हत्या का रास्ता अपना सकता है
क्योंकि चार भाइयों की
अकेली बहन थी ममता,
कोई एक चल दे जेल
मारकर सुधीर दादौरिया को
तो क्या फर्क पड़ता है
किस तरह बचाई जाय ममता
या ममता जैसी लड़कियों को जलने से
कौन सा रास्ता अपनाया जाए
कि आने वाले दिनों में
न जलाई जाए कोई ममता
क्या सोचते हैं आप ?
आपका सोचना इस वक्त
ममता के पक्ष में
आपका फैसला होगा
एक अदृश्य संवाददाता की रिपोर्ट है यह कविता
किसी अखबार के लिए नहीं
उन भाईयों के लिए
जिनकी बहनें हैं
उन मां-पिताओं के लिए
जिनकी बेटियां हैं
उन घरों के लिए
जिन घरों में रहती हैं ममताएं !

पुनश्च: मैं यह बताना तो भूल ही गया
अखबार के जिस पन्ने में
ममता दादौरिया के जला दिए जाने की खबर छपी थी
तीन दिन बाद ही
उसी कोने में
छपा एक वैवाहिक विज्ञापन
‘‘वधू चाहिए’’
जिसमें दहेज का कहीं कोई जिक्र नहीं था !

बलात्कार कथा का अंत 

कहीं ऐसा तो नहीं
जो बच्चे पल रहे हैं हमारे घरों में
भविष्य की अपराध कथाओं के नायक हैं
‘पूजा’ को खोकर
कुछ सीखते हम
तो भविष्य में बच जातीं
हमारी मासूम और नाबालिग बेटियां
बलात्कार व हत्या का शिकार होने से
सीखना हमारे स्वभाव के विपरीत है
हम संवेदनहीन समाज के
बेजान पूर्जे में बदल चुके हैं
पूर्जे सीखा नहीं करते
हमारा गुस्सा
सोडे की बोतल में भरा हुआ है
हमारी चिंता
चाय की प्याली में
हमारा आक्रोश
हमारे घर के सामने की
नाली से होकर
निकल जाता है शहर से बाहर
हम उस बलात्कार कथा
(दरअसल ‘घटना’) का अंत देखकर प्रसन्न हैं
जिसका शिकार ‘पूजा’ नाम की मासूम बच्ची हुई थी
जो जानती तक नहीं थी
बलात्कार क्या है
और जो बलात्कार का
अर्थ जानने के लिये
जिन्दा भी नहीं बची
बलात्कार का शिकार होने के बाद
इस बलात्कार कथा का अंत भी
उन तमाम बलात्कार कथाओं के समान ही हुआ
जिनमें अपराध साबित होने पर
अपराधियों को
भेज दिया जाता है जेल
18-20 की उम्र के
‘पूजा’ के बलात्कारियों को
यानी जसवंत, मोहित, ओमप्रकाश
दिलीप ताड़ी और रवीन्द्र को भी
भेज दिया गया सलाखों के पीछे
जहां से न वर्तमान दिखाई देता है
न भविष्य
और इस तरह हो गया अंत
बलात्कार की एक हृदयविदारक घटना का
‘पूजा’ की नुची-खुंची लाश देखकर
भड़का हुआ जन आक्रोश अब
हो चुका ठंडा
दिनचर्या भी सामान्य
पूजा के पिता निभाने लगे हैं
अपना पिता धर्म
दूसरे बच्चों की परवरिश की चिंता से घिरे
जाने लगे हैं नौकरी पर
माँ की आंखों में
उमड़ आते हैं कभी कभी आंसू
पूजा को याद कर
भाईयों का पीछ कर लेती हैं
कभी कभार
पूजा की दर्दभरी चीखें
और वे नींद में चौंककर
उठ बैठते हैं
जिस बलात्कार कथा का अंत देखकर
प्रसन्न हैं आप
हैं निश्चिंत
कि पकड़े गये अपराधी
और सजा भी हो गई उन्हें
हमें देखना चाहिये उसका आरम्भ
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि ‘पूजा’ की चीख
हमारे कानों तक पहुंचती तो है
मगर हमें बेचैन नहीं करती
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि हम इस घटना के बाद भी
आश्वस्त हैं
कि भविष्य में बलात्कार का शिकार होने वाली लड़की
हमारी बेटी नहीं होगी
निश्चिंत हैं कि
हमारे बेटे नहीं करेंगे
बलात्कार व हत्या जैसे
जघन्य अपराध
भविष्य में जो भी होगा
हमारे साथ नहीं होगा
भविष्य में जो भी करेंगे
हमारे बच्चे नहीं करेंगे
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि हम अपने आसपास फैले
अंधेरे के प्रति फिर भी आश्वस्त हैं
कि तमाम किस्म की बुरी चीजें
बुरे विचार
बुरे इरादे सांस नहीं ले रहे हैं
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि जिस शराब-सिगरेट-गांजा
नशे के अन्य तमाम साधनों से
बरसता है सरकारी खजाने में पैसा
वह समाज को इतनी तेजी से
खोखला, हृदयहीन, अमानवीय
और क्रूर बना रहा है
जिसकी कीमत
सरकार या सत्ता नहीं
जनता चुका रही है
समाज चुका रहा है
विकास व समाज सुधार के
तमाम आंकड़ों का ग्राफ
गिरता जा रहा है तेजी से
एक खूबसूरत धोखा
व सुनहरे रंग का पर्दा है
जो हमें यह सब देखने से
रोक रहा है
या देखकर भी
अनदेखा करना सीखा रहा है
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि उपलब्ध मनोंरंजन के साधनों में
बलात्कार व हत्या की
जिन कथाओं को देखते हैं हम
उन कथाओं को
महज कथा
या कल्पना मानकर भ्ूाल जाते हैं
यथार्थ मानने से कतराते हैं
जिसकी संगीतमय प्रस्तुति से मुग्ध
हम भूल जाते हैं
कि यह घटना
हमारे आसपास भी घट सकती है
सेटेलाइट के माध्यम से
टी.वी. और उसके चैनलों के जरिये
समाज में घोला जा रहा है जहर
न बच्चों को
कोई चेतावनी मिल रही है
न अभिभावकों को कोई सीख
चिंता तो मानो दूर ही है कोसो
निश्चिंत हैं सभी
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि लोग मानने लगे हैं
कि ये समस्याएं
हमारे हल करने के लिए नहीं हैं
इन समस्याओं का समधान लेकर
आयेगा कोई नायक
कोई अवतार
कोई ईश्वर
मित्रो
इस कथा का आरंम्भ
बहुत वीभत्स, घिनौना और हृदयविदारक है
इस कथा के आरम्भ के जिम्मेदार
हम हैं
हम ही हैं कहीं न कहीं ज्यादा
यह घटना
ये साबित और आगाह करती है
कि हमारे घरों में
हमारे परिवार व देश में
बेहतर भविष्य के रूप में
पल रहे हैं जो बच्चे
दरअसल वे ही
इन अपराध कथाओं के
भावी नायक हो सकते हैं
हो सकते हैं असली नायक !

स्त्री

चित्रकार का जीवन रंगहीन था
मगर उसके पास रंग थे ढेर सारे
कूची थी
कैनवास भी था
रंगहीन जीवन से ऊबकर
लगभग डरकर
चित्रकार ने
एक स्त्री की तस्वीर बनायी
और कैनवास को
भर दिया रंगों से
रंगों के आकर्षण से
आकर्षण इन्द्रधनुषी !
इतने सारे रंग देख
जीवन में आने की इच्छा हुई स्त्री की
आई भी
मगर दुर्भाग्य
सारे इन्द्रधनुषी रंग
कैनवास में ही रह गये !!

पीपल 

स्त्री के सिर पर टोकरी थी
पुरूष के कंधे पर फावड़ा-कुदाल
दोनों जिस रास्ते से जा रहे थे
पास ही पीपल का पेड़ था
पीपल का पेड़
उन्हें पुकार रहा था
बुला रहा था
अपनी छाया में
कुछ देर सुस्ताने के लिये
कहना मुश्किल है
उन्होंने पुकार सुनी या नहीं
बस!
दोनों आगे बढ़ गये
पीपल को
कातर व उदास निगाहों से देखते
इस घटना के बाद
कभी किसी ने नहीं सुनी
पीपल की आवाज
या ये भी हो सकता है
कभी किसी को पुकारा ही नहीं
पीपल ने !

गठरी 

पुरूष की तमाम प्रताड़नाओं के बाद भी
बची हुई थी स्त्रियां
और दुनिया की अंतिम स्त्रियां नहीं थीं
ऐसी ही बची हुई स्त्रियों में से
एक स्त्री के पास
दुख की गठरी थी
दूसरी के पास
सुख की
दोनों एक दूसरे को
जानती भी नहीं थीं पहले से
इसे संयोग ही कहें
कि राह चलते
टकरा गईं आपस में
पेड़ के नीचे
स्त्रियां थीं
तो बतियाने का मन हुआ उनका
वे बतियाने लगीं आपस में
परिचय बढ़ा
तो एक अपनी
दुख की गठरी खोल दी
दूसरी ने सुख की
जब वे उठकर जाने लगीं
तो दुख की गठरी हल्की हो चुकी थी
और सुख की गठरी भारी
आपको बेहद आश्चर्य होगा जानकर
जब वे दोनों लौटीं
अपने अपने रास्ते
बेहद खुश थीं
खुश खुश लौटीं !

चित्रकार 

जीवन के सारे रंग थे उनकी तस्वीरों में
जीवन का सारा सौन्दर्य
प्रकृति और मनुष्य के सारे रूप
सारे संबन्ध
संबन्धों की सैकड़ों परिभाषाएं
प्रशंसा और प्रशस्तियों से घिरा
मशहूर चित्रकार वह
आत्ममुग्ध
गर्दन अकड़ाए निहारता अपने चित्रों को
देखता प्रशंसाओं और प्रशस्तियों को
भर जाता अभिमान से
चमकने लगतीं उसकी आखें
खिल खिल जाता चेहरा
मशहूर चित्रकार वह
जिस स्त्री से करता था प्रेम
बनाया एक दिन उसी का चित्र
और हो गया मुग्ध
मुग्धता में बेसुध
हादसा यह हुआ
कि चित्र की स्त्री पर मुग्ध एक चित्रकार
भूल ही गया
जीवन की स्त्री को !

ऐसा पहली बार हुआ

वह लड़की पर कविता लिखना चाहता था
लिख गया नदी पर
वह लड़के पर कविता लिखना चाहता था
लिख गया पेड़ पर
उसने आगे और लिखा
तो लड़की नदी में बदल गई
और लड़का पेड़ में
ऐसा पहली बार हुआ
आखिर ऐसा हुआ क्यों
वह सोचने लगा
सोचते सोचते
अचानक ख्याल आया उसे
कि वह लड़की
जिस पर कविता लिखना चाहता था वह
नदी में नहा रही थी
वह लड़का करीब ही खड़ा था
पेड़ के नीचे
जिस पर कविता लिखना चाहता था वह
वह फिर सोचने लगा
यदि ऐसा हुआ तो क्यों
क्यों आखिर ?
यदि ऐसा हो गया कविता में
तो यकीनन कोई न कोई संबंध होगा
लड़की-नदी-पेड़-लड़के में
जब उसे लगा कि वह
कुछ भी नहीं सोच सकता आगे
तो उसने कलम रख देना चाहा
बस यही वक्त था
जब लड़की
नदी से निकल कर
लड़के के साथ चली गई
ताकती रह गई नदी
देखता रह गया पेड़-
ऐसा पहली बार हुआ !

प्रेम करने वाली लड़की

एलबम में लगी तस्वीर के नीचे
छुपाकर रखती होगी कोई तस्वीर
तह किये हुए कपड़ों के बीच
पुराने पीले कागज बतौर प्रेम पत्र
रूमाल में टांकती होगी
कोई खूबसूरत फूल
या फिर किसी के नाम का
पहला अक्षर
खुशी और उदासी के
तमाम रंगों से सजते होंगे
उसके ख्वाब
मन का एक कोना ऐसा भी होगा
जिसमें छुपाकर रखती होगी
अपने सारे स्वप्न
और झांकने से डरती होगी
अपनी किताब के पन्नों पर
लिख रखती होगी
किसी मशहूर शायर की पंक्तियां
सिसकते साजों का संगीत
बहलाता होगा उसका मन

पुनश्च: प्रेम करने वाली लड़की
अपने प्रेम के
सार्वजनिक होने से डरती है
यदि ऐसा हो जाय
तो अपने प्रेम के पक्ष में
सबसे पहले बगावत करती है !

फूल खुश्बू चांद नहीं होना मुझे 

फूल के बारे में पूछी
तो कह दिया
तुम ही तो हो फूल
खुश्बू के बारे में पूछी
तो कह दिया
तुम्हारे बदन से जो आती है
चांद के बारे में पूछी
तो कह दिया
तुम्हारा चेहरा
खुश नहीं हुई
उदास हो गई वह
सुनकर अपनी तारीफ-
अगर फूल हूं
तो तोड़ ले जाएगा कोई मुझे
खुश्बू हूं अगर
तो बिखर जाऊंगी
यदि हूं चांद
तो रहना पड़ेगा
आजीवन तुमसे दूर
रोने लगी
लिपटकर मुझसे
कहने लगी
फूल खुश्बू चांद नहीं होना मुझे
ये सब होने से बेहतर है
कुछ और होना मंजूर
तुम्हारे पास
बहुत पास होने के लिये
आजीवन !

परिसंवाद का माध्यम 

चूड़ियां होती हैं रंगीन, पारदर्शी
जैसे लड़की के स्वप्न
चूड़ियां खनकती हैं
जैसे खिलखिलाती हैं लड़कियां
लड़की के नाजुक दिल के समान
नाजुक होती हैं चूड़ियां
लड़की नहीं
अक्सर चूड़ियां करती हैं
प्यार का इजहार
इंकार या इकरार
चूड़ियां होती हैं
लड़की और प्रेमी के मध्य
परिसंवाद का माध्यम
सबसे पहला माध्यम !

प्यार के इस क्षण में तुम मुझे 

प्यार के इस क्षण में तुम मुझे
ऐसे महसूसो
जैसे खुश्बू
ऐसे छुओ
जैसे फूल
ऐसे देखो
जैसे चांद
ऐसे बुनो
जैसे स्वप्न
ऐसे मानो
जैसे सच
ऐसे पढ़ो
जैसे शीर्षकहीन
कोई प्रेम कविता-
प्यार के इस क्षण में
तुम मुझे !

कभी

कभी मैं आंगन हो जाता
और वह गौरैय्या
कभी वह मंुडेर हो जाती
और मैं कबूतर
कभी हम दोनों
दाना हो जाते
एक दूसरे के लिये
हां
मगर कभी
कभी कभी ही !

दृश्य में चुंबन

दृश्य में चुंबन तो है
मगर प्रेमी युगल नहीं
दो मशीने हैं मानो
न आग है न, उत्तेजना
न प्यास है न, मिठास
न डर है न, शर्म
न बेचैनी है न, थरथराहट
न सांसें तेज है न, धड़कन बेकाबू
न भावनाओं का आवेग है
न नसों के फट जाने का अंदेशा
न होंठों से खून टपक पड़ने की आशंका
एक के होठों पर
दूसरे के होठों का
कैसा चुंबन है यह
कि लग रहा है
छपाई मशीन के
किसी पुर्जे पर रखा जा रहा हो
कोई दूसरा पुर्जा-
कि जैसे टकरा रहे हों
एक दूसरे से आहिस्ता
आग रहित दो मुलायम पत्थर !

कुछ इस तरह

हमारे जीवन में
प्रेम था कुछ इस तरह-
कभी छूने से पहले
खरगोश में बदल जाता मैं
कभी चखने से पहले
इमली में बदल जाती वह
कभी देखने से पहले
चांद में बदल जाता मैं
कभी चूमने से पहले
तितली में बदल जाती वह-
जीते / कुछ इसी तरह
करते हुए प्रेम
हम दोनों
और सोचते
सही गलत से परे
इसी तरह होना चाहिए
लोगों के जीवन में
प्रेम !

ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठकर प्रेम करना 

ज्वालामुखी के मुहाने पर
बैठे हुए थे हम
बैठे हुए थे हम
आग ताप और लावा के ठीक ऊपर
जहां ठंडक थी
थी नमी
हम बैठे हुए थे
तो प्रेम भी था वहां
हमारे दिल धड़क रहे थे
मगर खामोशी भी थी
हम गा रहे थे
अपने समय का गीत
अपने लिए
प्रेम करते हुए
जिसमें प्रेम ही था
और जिसे
हम ही सुन रहे थे
हमारे प्रेम में
वही आग थी
वही ताप
वही लावा
जो ज्वालामुखी में
जिसके मुहाने पर
बैठे हुए थे हम
हम अपने भीतर की आग
ताप और लावा से परेशान थे
परेशान इसकदर कि बेचैन
बेचैन इतना
कि डर की हद तक
जितना डर ज्वालामुखी के
फट जाने से नहीं था
उससे कहीं ज्यादा डर
हमारे प्रेम से था दुनिया को
दुनिया हमें पागल करार देकर
जीवन से बहिष्कृत कर
इतिहास में ढकेल देना चाहती थी
हम इतिहास में नहीं
जीवन में रहना चाहते थे
ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठकर प्रेम करना
हमारा विद्रोह नहीं था साथियो
मगर माना जा रहा था
विद्रोह ही !

आवाज-एक

एक दिन एक मीठी आवाज
कुछ सहमी सी
कुछ थरथराती सी
पूछती है मुझसे
मेरे फोन पर-
क्या तुम मुझे पहचानते हो ?
पहचानता था मैं
उस आवाज को
विगत बीस वर्षों का
फासला तय कर पहंुची थी मुझ तक
मुझे चौकाती
उस आवाज का रंग गुलाबी था
गुलाबी रंग में सांवला चेहरा
सांवले चेहरे पर दूध सी निर्मल हंसी थी
सफेद निर्दोष अबोध
और उस हंसी में कोई जादू था
वह इकलौती आवाज थी दुनिया की
जिसे पहचानता था मैं
और जिसमें घुल जाने का
स्वप्न देखा करता था कभी
मैंने कहा नहीं
मैं पहचानता हूं तुम्हें
मैंने यह भी नहीं बताया
तुम वही आवाज हो
जो बैठी हुई है मेरी आत्मा में
विगत कई वर्षों से
किसी नटखट और शरारती बच्चे के समान
अपनी तमाम मासूमियत और भोलेपन के साथ
मुझे तंग करती
पूछती-
क्या तुम मुझे पहचानते हो ! ?

आवाज-दो

सर्दी के मौसम की एक दोपहरी
जबकि धूप तब रेशमी थी
थी नटखट गुनगुनी मुलायम
एक कांपती सी आवाज मुझे चौकाती है
मेरे फोन पर
सुखद आश्चर्य से भर जाता हूं मैं-
वह मेरी कल्पनाओं की आवाज थी
मेरे देखे हुए सपनों की आवाज
बहुत पहले कहीं खो गई आवाज थी वह
जिसके साथ जीने की
इच्छा पल रही थी मेरे मन में
उस आवाज से बहुत दूर था मैं
मगर वह मेरे इतने पास थी
कि उसकी गर्म सांसें
गिर रही थीं मेरे गाल पर !

आवाज-तीन

मेरा दामन थामो
और चले आओ मेरे पास
गर पाना चाहते हो मुझे
मुझसे कहती थी एक आवाज
बरसों पहले
उस आवाज का दामन थामें
उसी के बुने धागे पर
चल रहा हूं बरसों से अविराम
फासला उतना ही है
जितना
बरसों पहले
थक तो नहीं गये
हार तो नहीं जाओगे-
आवाज वह
अब भी पूछ रही है मुझसे-
मर तो नहीं गई
मुझ तक पहुंचने की
तुम्हारी इच्छा !

किताब से निकलकर प्रेम कहानी.. 

किताब से निकलकर एक प्रेम कहानी ने
ले ली अपनी गिरफ्त में
मेरे शहर की एक भोली-भाली लड़की को
आ घुसी उसके कोमल मन में
जीवन में मचा दी हलचल
लड़की ने बिल्कुल वैसा ही प्रेम किया
जैसे किताब की प्रेम कहानी की नायिका ने
लड़की के वही आदर्श
वही आकांक्षा वही स्वप्न
जीवन और प्रेम को लेकर वही आस्था
वही लालसा वही ललक
संकट और संघर्ष के बारे में
ठीक-ठाक कुछ कह पाना मुश्किल है
कहानी से बाहर प्रेम
और जीवन में अक्सर
जोखिम कुछ ज्यादा ही होता है
लड़की ने जिससे प्रेम किया
वह वैसा नहीं निकला
जैसा प्रेम कहानी का नायक
इस तरह एक लड़की का प्रेम
देखते ही देखते कहानी होकर रह गया
इस तरह एक प्रेम कहानी
जीवन्त होने से रह गई
इस तरह प्रेम
कहानी में ही होकर रह गया दफ्न !

सजा 

मैंने प्रेम किया
और मुझे वंचित कर दिया गया
पृथ्वी के सुख से
भेज दिया गया स्वर्ग
मेरे लिये
यह सबसे बड़ी सजा थी !

विवाहित पुरूष से प्रेम करने वाली लड़की 

सब कुछ अद्भुत, अलौकिक, असाधारण था उसके लिए
एक विवाहित पुरूष से प्रेम करने लगी थी वह
एक विवाहित पुरूष
जिसकी सीधी-सादी, भोली-भाली घरेलू पत्नी थी
और एक छोटी सी गोल मटोल बातूनी बच्ची
जो पिछले दिनों से ज्यादा
असहाय पा रहा था स्वंय को
अगले दिनों के जीवन संघर्ष में
अपने परिवार को
वह खुश होकर जिम्मेदारी की तरह नहीं
बल्कि बोझ के समान ढो रहा था
जी तोड़ मेहनत के बाद भी
नहीं जुटा पा रहा था
जीवन के लिए जरूरी चीजें
ऐसा भी नहीं कि मुहल्ले में
अविवाहित लड़के नहीं थे
या फिर
हो गये थे लापता
सारे नौकरी पेशा नवयुवक !
मुहल्ला ऐसा था
कि पाश्चात्य संस्कृति में रंगे
भारतीय फिल्मों की फुहड़ता से प्रभावित
चिकने चुपड़े, स्वांग रचने वाले लड़के
मिल ही जाते राह चलते
और घूरते भी ओझल होने तक
प्रेम का ऐसा कोई
सर्वमान्य सिद्धांत तो है नहीं
कि प्रेम
अविवाहित से ही हो
या किया जाय
या फिर विवाहित पुरूष होते ही नहीं
प्रेम करने के योग्य
निश्तेज चेहरे
और दुर्बल काया में
ऐसा क्या दिख गया उसे
कैसा था उसका सौन्दर्य बोध
प्रेम को लेकर
ऐसा क्या था उसमें
कि प्रेम करने लगी थी
एक ऐसे पुरूष से
जो विवाहित था
और जिसकी जान
अपनी पत्नी और बच्ची में बसती थी
कुछ न कुछ तो रहा होगा उसमें
जो किसी और में नहीं
या फिर मारी गई थी मति उसकी
या फिर हमारे पास नहीं था
उसका मन
नहीं थी उसकी आंखें
उसकी दृष्टि
जैसा कि आप जानते हैं
प्रेम को लोगों से छुपाकर रखने का रिवाज है
सो छुपाती रही वह भी
और जैसा कि आप जानते हैं
प्रेम को लाख छुपाओ
छुपता ही नहीं
सो नहीं छुपा उसका भी प्रेम
हो गया जग जाहिर
जैसा कि होता आया है
प्रेम के मामले में
सारे मुहल्ले में ढिंढोरा पिटने के बाद ही
पता चला परिवार वालों को-
रिश्तेदार करने लगे थू थू
बहनों को लगा घर से बाहर निकलना हो गया दूभर
भाईयों को लगा
कहीं के भी न रहे हम
मां बाप को लगा
जीते जी मर गये
कहीं की न छोड़ी कलमुंही
धर्मशास्त्र के सारे उपदेश
चील बनकर मंडराने लगे थे
उसके चारो ओर
लड़कियों और स्त्रियों के लिए
बनी हुई आचार संहिताओं के
खुलने लगे थे पन्ने
और चीखने लगे थे
अपनी विशिष्ट और डरावनी आवाज में-
विवाहित पुरूष से प्रेम करना
असामाजिक है
अमर्यादित है
पाप है पाप
समाज व परिवार के
तमाम दृश्य-अदृश्य प्रतिबंधों
मर्यादाओं और अकुंशों में जकड़ी हुई
इन सबसे बे-परवाह
इन सबको ठेंगे पर रखती
मारती ठोकर
प्रेम कर रही थी वह
एक विवाहित पुरूष से !

प्रेम 

सृष्टि की रचना में
जो कुछ भी था प्रेम था
धर्मग्रथों से ज्यादा पवित्र
संस्कृत के श्लोकों से ज्यादा गूढ़
रहस्यमय
किन्तु सरल सरस सुकोमल
वेदों की भाषा से ज्यादा चमकदार
दुनिया के इतिहास में
सबसे ज्यादा पुरातन है
प्रेम का इतिहास
निर्विवाद
सर्वमान्य
किन्तु जो लिखा नहीं गया
आकाश भर स्याही से
यदि लिखना चाहें प्रेम
तो पड़ जाए कम
पृथ्वी भर कागज
दुनिया भर के तमाम चूहे मिलकर
इसे कुतरने में रहे नाकाम
दीमकों का पूरा हुजूम लगा रहा सदियों
लेकिन चाट नहीं पाया
इस छोटे से शब्द को
प्रलय के बाद
तब जबकि सब कुछ हो जायेगा नष्ट
जो कुछ भी बचा रह जाएगा सृष्टि में
वह होगा-
प्रेम
सृष्टि की पुनःरचना
पुनः सृजन के लिये !

Leave a Reply

Your email address will not be published.