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कंथा-मणि (कविता)

उस दिन संध्या को
दृष्टि अभिसार द्वारा मैंने पहचाना तुम्हें पुनः पुनः
मैंने पुकारा तुम्हें मन ही मन बार बार!

अपनी ही सांत्वना के नये नये नामों से
यद्यपि पराजित क्षुब्ध राक्षसों ने किया था शोर
तो भी मैंने पाया तुम्हें अचानक उस संध्या को
जैसे अपनी ही दरिद्र कंथा के भीतर छिपी
कोई भूली उज्ज्वल मणि,
जैसे अपनी ही दरिद्र अनगढ़ भाषा के बीच
कोई प्रखर तेजस्वी अभिव्यक्ति।
अथवा धरती की जीर्णता के मध्य लब्ध
अनुत्तरा ऋतुओं की मधुमती ऋद्धि!

उस दिन अचानक तुम्हें देख कर
सहस्र-सहस्र चन्द्रमाओं की भव्यता में
धोया अपना मुँह बार-बार,
किया प्रशान्त-स्नान बारबार!
(चन्द्रिका भी कितनी क्षुरधार होती है)

तब मुझे लगा कि तुम तुम हो
यानी जन्मान्तर से मेरे भीतर ढकी अज्ञात कंथा मणि हो
जिसने मुझको ही सर्वसम्मत आज उद्घाटित किया है।
और तब उस अपूर्व सहस्रदल उद्घाटन को देख
उन लोगों की तिजोरियों में कैद,
खनकते सिक्कों ने किया था अश्रुपात!
और उद्धत अभिमानी अहंकारियों ने शीश झुका
किया था मेरा नमन बार-बार।

उच्चाटन 

तुम जो लठैत गोपालक हुरियार रात्रिचर
तुम जो राज्यश्यालकों के मसिजीवी श्यालक कुलीन और तुम
अर्थात् विप्र भूसुर भूमार
और तुम जो राजन्यश्री बेइमान शक-हूण संतान।

तुम रक्खो इस धरा को अपने पास
कपट की रचना करो गरल की खेती करो
गंगातट अफीम खूब होती है
बाँटो अहिफेन जीभर
तुमको मुबारक हो
यह पुण्यभूमि शस्यश्यामल।

मैं तो
आदिम मर्म बेदना का एकान्त साक्षी हूँ
मैं उन कठोर करुमोर तीक्ष्ण दंत शिलाओं के बीच
हरीतिमा वर्जित उस भूमि पर रहते हुए
तुम्हारे कूट पाशों के प्रतीक करूँगा उद्घाटित
लिखूँगा हजार हजार वर्षों की संचित सुलगती
मार्मिक व्यथा का काव्य अरण्यमर्मर तालपत्रों पर
लिखूँगा मैं
हजार-हजार वर्षों से उनके टपके श्रमजल और रक्त से
अलंकृत उन्हीं की वेदना का काव्य जिन्होंने
बाहुयुद्ध करके तुम्हारी इस शस्यश्यामलधरा को
उद्घाटित किया था कभी; मैं लिखूँगा
आदिम श्वापदों, नर खादकों, मधुकैटभों से
हजार-हजार वर्ष जूझ इस मेदनी का उद्धार करने वाले
उन श्यामलगौरकाय दो पुरुषों की कथा
आदिम अरण्य से उनका बाहुयुद्ध
और उनकी हरीभरी महाकाव्यों की खेती

और इस कथा को हवा की गतिमान डाक
बाँट आयेगी।
उन्हें जो मेरे सहयोगी हैं बन्धु हैं
मेरे हृदय के टुकड़े हैं रामश्याम मोहन को
नाम वाले को, अनामा को
यह कथा हवा की डाक बाँट आयेगी
वे सबके सब साधारण जन
इस इतिहास की आदिम वेदना का मर्म समझेंगे
अर्थ गुनेंगे और विकल हो उठेंगे,
उनके अवरुद्ध पग-बाहु और कंठ।

उन ऊँची तीक्ष्ण शिलाओं के बीच मैं
करूंगा वास। त्याज्य है मेरे लिए हरित भूमि।
क्योंकि गंगा के शस्य भरे खेतों में विचरता है
शैतान! सरीसृप रूप धारण कर ग्रीष्म की
हवाओं में शाप मँडराता है आदिगन्त।

शोभा के मायामय शोभातट पर हरितश्याम
जम्बू शाखाओं में पातक छिपा बैठा है
लिच्छवियों की भूमि में अवदमित
प्रेतों का विहार है।

तो बन्धुओं रह जाऊँगा निर्वासित
उन तीक्ष्ण नुकीली कठोर शिलाओं की गोद में
लिखूँगा सूखे ताल-पत्रों पर वह असहाय कथा
जो शताब्दी दर शताब्दी पराजित होती रही
नये-नये भण्डों, धूर्तों, निशाचरों की नित नयी संहिताओं से।
और सही आदमी रहेगा सदैव पाँत का आखिरी आदमी
लिखूँगा वह असहाय कथा
जो एक दिन सृष्टि का जयगान बन जायेगी।

ये सूखे तालपत्र बोलेंगे बोल जो सहस्त्र कण्ठ बाहुओं में
उतरकर, एक जीवधारी शब्द बन जायेंगे।

माधवी रात (एक वैष्णव रात)

(१)
चन्द्रवर्णी रात जैसे कोई प्रेमकथा
दूर किसी गाँव में गोकुल के
विलखता है एक स्वप्न प्रति रात
लिखते हैं ताल-पत्र उसे पुनः-पुनः
हवा दुहराती है बार-बार और
नाम ले ले उलूक करुण रव करते हैं
रात जैसे कोई भूली कथा।

(२)
चन्द्रवर्णी रात जैसे श्रीमद्भागवत
मन्द-मन्द फागुनी डोलती है
अश्वत्थ ध्यान तन्मय है
ज्योत्स्ना-हत जम्बुक कंठों ने
अभी-अभी ब्रह्मसूत्र पाठ किया;
फागुन की अर्धरात बाँसुरी
सारा वृन्दावन जग गया
रात ज्यों श्रीमद्भागवत।

(३)
चन्द्रवर्णी रात ज्यों मानस स्नान
मन्द मारुत शय्या पर सो रहा
ध्यान एक; देव लोक उतरा है,
राशि-राशि श्वेत पद्म-पाँखुरी।
कि डूब गये सारे घाट-बाट
तारों का अरूप सुर रात का
श्लोक पट झिलमिल बुनता है
रात ज्यों दिव्य दृष्टि स्नान।

(४)
चन्द्रवर्णी रात ज्यों मन मधु कानन
चिकमिक बुंदकी चोला और चन्दन
नासिका पर रसकसी, दुग्धफेन वसन
दीठ बनी गोपी अभिसारिका
भूली पर बाट; मायावी था कानन
विलख रही माधव की मुरली
अब तो तू गल जा ओ हिया पाहन
रात ज्यों विह्वल वृन्दावन।

शिल्पी रात

चन्द्रवर्णी रात
गढ़ रही है काष्ठ चन्दन
मॅंह-मॅंह गन्ध फैली है

चन्द्रवर्णी रात
छीलती है काष्ठ
खोलती निर्मोक वल्कल
मलयगंधी मूर्ति का जो
काष्ठ के आदिम हृदय में
छिपी बैठी प्रतीक्षारत

चन्द्रवर्णी रात
गढ़ रही एक चन्दन काष्ठ
उभरती जा रही है
एक महाश्वेता रूपसी
ज्यों रूपसर से सद्य स्नाता
उर्वशी निकली
स्तोत्रनूपुर बज उठे सर्वत्र।

इस तरह ताकता मैं रह गया अनिमेष
क्षण-प्रतिक्षण।
बाँचता मैं रह गया इस रात को
क्षण-प्रतिक्षण।
मोर की पहली किरन, पंथ की बाँधवी
जो मुझे हलकी चपत दे कह गई सब राज
सारा मर्म उस शिल्पी रात का
ये उपकरण था मैं स्वयं
मलयगंधी काष्ठ था मैं स्वयं।

यद्यपि ताकता मैं रह गया अनिमेष
बाँचता मैं रह गया अनवरत, अविराम
उस मधुमयी रात को।

जर्जर प्रार्थना 

इस बार भी चैता हवा मधु के बान मार गयी
और बृद्ध जर्जर अश्वत्थ ने पुनः प्रार्थना के श्लोक रचे।
इस बार भी मधुमान सूर्य ने
हन-हन मारे मधु के बान
पलाशदेह पावक जल उठा रूपमय,
रसमसा गई लताओं की देह;
कोंचे-कोंचे टूसे-टूसे कंछी-कंछी सर्वत्र
तरुओं की नस-नस में मधुधारा दौड़ गयी
अपादमस्तक सिहर उठा मैं,
सिहर उठे मनुष्य और महीरुह, तरुलता, विरुध
युवा या अथर्वगात।
घासों में हरी साँस आ गयी;
क्योंकि चैता मधु के बान मार गयी।
अजी अश्वत्थ ने ये प्रार्थना के श्लोक रचे :

हे रूद्र करो प्राणदान!
तमाम नये पत्तों पर टूसों पर
झलक उठे झलमल ताम्राभ धूप
धूप पर रूप और रूप पर मन,
और मन पर यौवन की उज्ज्वल
असि-आभ चमक उठे
धूप रूप मन और यौवन को
मोहकता विह्वलता का
तृषा का मृग्जल का करो दान।

हे निशा विभावरी करो दान
अँजुरी अँजुरी भर यौवन मन और काम
चक्षु-चक्षु, पात-पात दीप बन जाँय
जल उठे फासफोरस का अंग-अंग
तुमको बेध दे कामना की तीक्ष्ण चक्षुधार
जैसे रसलुब्ध आवाहन आदिम इन्द्र का
मेघश्यामलोलुप। आग्रह किसी आदिम जार का
वैसा ही मन और यौवन, वैसा ही काम गरल
हमें महानिशा करो पुनः दान।

हे महिमान रस रामचन्द्र
सृष्टि सोमकला ढालो अंग-अंग
जीवन दो जीवन : तृप्ति और स्वाद
रस और प्राण! हे महिमान चन्द्र,
बरसो रस की फुही सहस्रधार
बरसो आरोग्य और आयुर्दाय
मैं जर्जर पर्णहीन शाखामात्र
तो भी मैं ही सनातन शिशु सहस्रमुख पल्लव खोल
आज बैठा हूँ,
ओ तरुविरूथों के रस के स्वामी
महिमान चन्द्र।

लोकचित्र

(१)
मैं था एक कीर्तिहीन पटुआ
मैंने उदासी का कोरा अशुभ पट चुना
तुमने हल्दी गोरोचन प्रस्तुत कर कहा
“आँको निज तर्जनी से, तमाम अतीत को
जिसका उपसंहार यह कोरा पट है रहा।”
(२)
मैं था एक गरीब मोटिया मजूर
तुमने मेरे ही दुर्बल कंधों को नायकों का
सबल बृषभकंध मान रख दिया एक
दुख का दुर्वह भारी जुआ, और मैं
अकेले हाँफता-हाँफता दुर्गम पथ चढ़ा
कंधे व्यथा से फटते रहे, पर लोगों ने कहा :
“देखो यह सिद्धहस्त सिद्धपग कारुनट
यह कितना अच्छा अभिनय कर लेता है।”
(३)
मैं था एक दुर्बल कण्ठ-कीर्तनियाँ
स्वयं बिकने को तैयार रामनामी ओढ़ बैठा था
इस मुट्ठी उदार पुण्य पण्यागार में
किन्तु तुमने कण्ठ में भर दिया बज्रावेग
मौन असंभव हुआ, कंठ अब फटा, अब फटा;
मैं अवश चिल्ला उठा; और लोगों ने कहाः
“यह तो काल की अधरलग्न तर्जनी से भी
वेपरवाह उत्तर पुरुष का प्रवक्ता है।”

(४)
ओ मेरी सिसृक्षा के सतीर्थ लोकचित्र
ये भलेमानस ये लोग जानते नहीं कि
मेरा सबकुछ प्रवंचना है, फांकी है, लाचारी है
जो सप्त है वह है मेरी अवशता, दुर्बलता और
आर्तनाद!

तर्जनी मेरी थी, कंधे मेरे थे, कंठ मेरा था
पर मणिबन्ध में, पांजर में सुषुम्नमूल में
सक्रिय संवेग, वह तुम्हारा था, देह हमारी थी;
निरन्तर जूझनेवाला मन वह तुम्हारा था
ओ मेरे निप्त सहचर!
लोकचित्र।

उत्तर पुरुष उवाच

पिता क्षमा करो
फेंकता हूँ कंठलग्न यज्ञोपवीत यह
यह कंठलग्न मृत-सर्प बड़ा ही दुर्वह है।
मैं एक प्रकृति-सन्तान लघुमानव मात्र
तो भी थमा दिया तुमने महाकाव्यों का
धधकता अग्निपात्र, जिसमें
मृत मन्वन्तरों की हड्डियाँ जलती हैं
कि मैं उर्धवाहु ढोता फिरूँ सहर्ष
होड़ लूँ तुम्हारे द्रुतगामी नभचर
रथन्तर और बृहद् सुपर्ण बाजिराज से?

पिता क्षमा करो
यह दायित्व बड़ा ही दुर्वह है।
मेरे पिता तुम जानते नहीं
मेरे कंठ में अवरुद्ध वैखरी क्रुद्ध
जीभ पर स्फोट क्षत बन जाती है
(मेरे मुख में है घाव)
मेरे मस्तक में छटपटाते उद्गान
भीतर ही भीतर स्नायुकेन्द्र छिन्न-भिन्न
कर जाते हैं :
(ओठों पर चॅंपी तर्जनी)
मेरे हृदय में उमड़ते क्रोध समुद्र
दब कर शिरा-शिरा मथता है
(मेरे रक्त में है उद्दाम हाहाकार)
मेरे मनदर्पण की आकृतियाँ
मेरे ही त्राहि से चटककर टूट जाती हैं
(मेरा मन है, टूटे मृत्पायों की ढेरी)
मेरी आत्मोपलब्ध अनुष्टुप-भंगिमा
भीतर भीतर गलित हो दुर्वाच्य बन जाती है
(ओह मेरी दुर्गन्धमयी भाषा!)

अतः हे पिता!
फेंकता हूँ ऋणात्मक उत्तराधिकार यह
मुझे अस्वीकार है तुम्हारा
देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण का
यह हिसाब-किताब!
इसी से फेंकता हूँ कंठलग्न यज्ञोपवीत का
मृत सर्प!
डबरे में, कचरे में, वलेद पाप पंक में
आ गिरा है मनुष्य जाति का सूर्य
अश्रुपात कर रहा है मनुष्य जाति का सूर्य
विपन्न है मनुष्य जाति का सूर्य

अत: हे पिता!
यह लो तुम अपना महाकाव्यों का अग्निपात्र
मुझे उद्धार के लिए पुकार रहा है धरती का सूर्य।

इधर देखोः
क्लेद और पंक के भीतर अवरुद्ध असहाय
फंस गया है आज अपनी धरती का पवित्र सूर्य
हमारे और उसके परिश्रम का मधुमय सूर्य
अब मैं उसे धो-पोंछकर पंकमुक्त, बाहर उछालता हूँ
ऊपर स्थित हो सकेगा वह
नक्षत्रों के बीच औंधे मधुपात्र सा
अपनी ही पार्थिव महिमा से प्रतिष्ठित वह
जिससे झर-झर बरसा सके सोना और मधु
हमारी कच्ची उत्तरकालीन फसलों पर
हमारी सद्योजात उत्तरकालीन पीढ़ी पर
जिससे पकहर हो सके खेत यह, और
सार्थक हो सके यह धरती का जनजीवन।

मेरे पिता!
मुझे नहीं चाहिए अपार्थिव, दिव्य उत्तराधिकार
अतः लौटाता हूँ तुम्हें अतीत के मृत्पात्रों का
धधकता अग्निपात्र!
मुझे क्षमा करो, यह उत्तराधिकार दुर्वह है।

[ नेहरू युवा केन्द्र की स्मारिका से ]

माटी

माटी,
मेरी दीन दुखी माटी,
तुमको शतशत प्रणाम।
मेरे ये बोल
दब गये माटी में भीगकर
दिल जब बरस पड़ा था।
हमने जाना वे सड़ गये, बेकार हो गये
रही नहीं अब उनकी अर्थवत्ता।
और उसके बाद
अनेक उषा-संध्या
अनेक दिवस-रात
अनेक जागरण तन्द्रा की भाँवरे पड़ती गयीं
अनेक सूर्य-चन्द्रों की बलि होती रही
और होता रहा पुनर्जन्म
मैं बिलकुल भूल गया कि
मेरे थे कुछ प्यारे शब्द, प्रिय कथिकायें
क्योंकि वे भीगकर माटी में दब गये
उस दिन दिल जब बरस पड़ा था।

उन अगणित दिनों के बाद, मैंने देखा एक दिन
हरे-हरे नये-नये पात, वर्तमान की छाती फोड़कर
निकलते असंख्य सरौरुह शिला जात
उठता हुआ जीवन सगर्त-शक्तिमान श्वेत रक्ताभहरिताभ
जैसे एक श्रीहत हतभाग्य कवि के हृदय से स्वयं जात
नये-नये छन्द-श्लोक-गान
तब मैंने माटी को प्रणाम किया।

[ कलकत्ता : कालेज स्क्वायर, 1958 ]

मधुकरी

मौत की उन रस्सियों से
जीवन के एक सिर्फ सुखद क्षण की भीख माँगी थी।
हार के द्वार से साहस बटोर कर
सिर्फ एक पल की जीत माँगी थी।
छिन्नमस्ता अमामयी
कुहेलिका के नील आँचल से
एक किरण की फाँक माँगी थी।
माना कि ये सब चुप रहे
बेशील, आँखे बन्दकर, मुँह फेर
पर तुम भी तो आँख फेरने लगे
जब मैंने भीगे मन से
केवल पगधूलि माँगी थी।

[ कलकत्ता : मेकलौड हाउस, 1958 ]

आगमनी 

यह अरुण पीताभ उज्ज्वल अवतरण
रथ और जयजयकार
मन का पानी चमक उठा
डबने उतराने लगे, लघुबाल शतदल।

तुम्हारी यह धनुषटंकार
तुम्हारे रोष के ये पुष्प
स्नेह के ज्यों वाण बरसे
ढॅंक रहे मुझको सहस्रों फन पसार।

कल जब नभ से धरा तक
तुम्हारा प्राण पिघलेगा
तब फूल कांटे में उगेगा
नील धूसर वेधता वह शुक उड़ेगा
जिसका पंख दानव काट डाला था।

[ कलकत्ता : वेडेन स्क्वायर, 1959 ]

अपरा 

तुम्हारी अपरा छबि का ध्यान
तब मन में आता था बार-बार
ये बाग बगीचे पेड़ तुम्हारे, पीले सरसों के खेत
यह चुनरी तुम्हारी सबुज-पीत धरती-नभ के आर-पार,
जिसका आँचल मन में फहराया बार-बार।

अमराई के बांसों से हर-हर खड़-खड़ स्वर समवेत
ऊपर उठी तुम्हारे नभ में स्वर की एक बलाका।
पाँत-पाँत में उठते जाते श्वेत बगूलों के दल
दिशा-दिशा को मथता फिरता व्याकुल
कोकिल का पंचम; जब नभ में हँसती राका।

उन सबके भीतर पाया मैंने
तुमको ही बार-बार।
तुम्हारी अपरा छबि का ध्यान
किया है मैंने बार-बार।

[1962 ]

अपर्णा 

यह काया है शुष्क काष्ठ, पत्रहीन छाया विहीन
इस पर शुक-पिक रैन-बसेरा न लें तो क्या?
पथिक ठीक ही है क्यों पछताने इस तक आयें
हर्ज नहीं, पथ भूले नहीं इधर मधु की माया।

जीवन पस्त रहा टूटता विरस अनुदिन
तब भी तो यह काया रही गान- मुखरा!
षट्ऋतुओं के रथ आये, फिर लौटे बार-बार
इस शुष्क काठ पर भी गन्धर्वों का गायन उतरा।

बन्धु, सदैव सरस का गान शुष्क ही है लिखता
अनगढ़ सीपी के अस्थिशेष में उजला मोती पलता,
यह काया है काठ तार जिस पर एक चढ़ा
जिस पर स्वर का वर्त्तिनाग अहरह जलता।
श्वेत रह गये छूँछे पानी गंदला बादल लाया,
पंकज खिलता वहीं जहाँ हो सुलभ पंक की माया।

[1962 ]

अपदार्थ

तो क्या हुआ यदि मैं जगत में रह गया अपदार्थ
राष्ट्र के, संसार के, परिवार के कुछ काम आया मैं नहीं।
हर्ज क्या यदि कुछ भी न पाया स्वार्थ या परमार्थ
कर्म का, संघर्ष का, जयगान का अभिमान कर पाया नहीं।

रेह ऊपर रेत में यदि कामना के बीज मेरे
अर्थ में बोये गये, रिक्त मुट्ठी रह गया मैं,
निरर्थक श्रम सींकरों में बह गई परिकल्पनायें
मृत हुई संभावना, किस्मत रही आँखें तरेरे।

फिर भी तुम्हारा परस मिलता जब कभी
प्रात के उल्लास में, सांझ के उच्छ्वास में
सरल शिशु के रुदन में, वृद्ध के विश्वास में
वृषभ के हुंकार में, पहचान पाता जब कभी
यह सब तुम्हीं हो, शेष सब है व्यर्थ
अपदार्थ,
तब न मैं रह जाता अकिंचन दीन या अपदार्थ।

[1962 ]

अस्मिता

मेरे मन की गहन गुहा में एक असुर रहता है
निशिचारी परियों के शव को हृदय लगाये
मन को मारे शीश झुकाये दिन में बैठा रहता
प्रतिसंध्या को पा प्रदोष बल अट्टहास करता है।

मेरे मन के अतल नीड़ में नील बिहंग बसेरा
निशि की माया विहग-नीड़ को स्वर्णपुरी में बदले
जहाँ असुर के नजरबाग में झरे रात शेफाली
नभ में बिचरे पंख पसारे पाकर पुनः सबेरा।

मेरे मन के गुहागर्भ में एक पुरुष अविनाशी
गुडाकेश निष्कंप शिखा सा अहरह जलता
दिवस-रात की मेरी परिक्रमा का यह साक्षी है
मधुमाधव का रस आखेटक काष्ठ मौन सन्यासी।

असुर, विहग, सन्यासी तीनों सुहद-सखा विश्वासी,
मन की मर्मकथा के ये तीनों हैं परिभाषी।

[1962 ]

अशीर्षक 

नयन मूँदे अन्तर में तत्क्षण बही जाह्नवी वरुणा
शिरा-शिरा में प्रति धमनी में बूँद-बूँद मेरी पहचानी
मेरे अन्तर में जब जागा सहज चेतना का अभिमानी
कथा डुबोती नहीं तुम्हारी निर्मम विगलित करुणा।

भाई पलभर ठहरो मन का दुर्ग टूटता गिरता
कच्चे घट में स्नेहधार में तिरता प्रतिपल गलता
यह करुणा है ऐसी जिससे जग की दुखती रग को
आराम मिले लेकिन अपना तो अस्तित्व गला
रहा नहीं मैं वही दाँव आखिरी था जिसको
हार चुका, तुम हँसे और मैं खाली हाथ चला।

[असमाप्त, 1962]

प्रेम-पथ

वृथा में इतना मत अभिमान करो
मेरा हिमशीतल अहंकार अब नहीं रहा
तुम्हारी सुधियों की वही फागुनी हवा
वसंता-तप में यह मन पिघला
जैसे वर्फ पिघली ओ उपल फूल
देखो न कभी का मैं
मन को काट-काट यमुना पिघला रहा
भूलो न अतीत को इस तरह
इतना मत मान करो
वृथा में इतना मत अभिमान करो।

मुक्तकेश सिरहाने झुके हुए
कोमल एक स्पर्श काफी है
पथ में दूर-दूर खड़ी रहो तुम
केवल एक पहचान दृष्टि काफी है
तिरछे नयन, मुख फेर कर ही सही
एक स्नेह अपांग काफी है
मेरी विनय को इतना लघु मत करो
मैं बहुत ही थक गया
अहं का संबल भी न रहा
तुम भी वृथा मत अभिमान करो।

[1-1-62]

मन दर्पण से

(१)
लेखनी वंध्या कभी नहीं रही
व्यथा तुम्हें मैंने कही
कालिमा सदा बही, घटा घिरी
अनुदिन तुम्हारी छटा सजी
लेखनी वंध्या कभी नहीं रही।

(२)
घोड़े कभी बैठते नहीं
सूरमा मुँह मोड़ते नहीं
कवि की कथा सुनो रे बंधु
दिल लगाकर तोड़ते नहीं
तब फिर चोट खा
बैठे मन को मार
मन के अश्व दौड़ाओ।

(३)
छायी थी घटा आज,
कटी रेशम की डोर
तुम्हारे चपल नयन की,
वयन की; मन ने बढ़ाया हाथ
देखा तुम्हारा भ्रूभंग
सहम गया बच्चा बेचारा
अस्त हुई नभ की छटा।

(४)
यह कैसी कथा है
मर मर कर जी उठती ऐसी व्यथा है
तुम्हारा नयन रस
मेरा हृदय रस
मिले एक में जब
तो यह बनी थी कथा
जिसे बार-बार मैंने मथा
और पाया रतन यह व्यथा।

(५)
झनझन निचाट अमराई
सूनी दुपहरिया सूनी डगर
धूप में दूर मृगजल नाचता
मुझसे दूर मनमृग भागता
झनझन निचाट अमराई
बैठो न क्षण भर यहाँ
बोलो वचन दो एक
कटु मधु कुछ भी तो कहो।

(६)
डोर मत काटो तुम
ऐसा नहीं करते हैं
दो चार पल ठहरो
इतना जल्दी नहीं छलते हैं
ऊष्मा मिटाओ मत
अभी मत बहाओ ठंढी हवा
कुछ रोको तो इस धूप को, आँखों में
मत मुझे व्यर्थ यों बनाओ तुम।

(७)
ठहरो न दो पल
मन को ऐसे न हराओ प्रिय
पार नहीं लगना है
तार नहीं बुनना है
साज नहीं गढ़ना है
चंग नहीं चढ़ना है
मेघ नहीं गहना है
रह जाना है रिक्त-रिक्त शून्य हाथ
जानता हूँ खूब इसे
कल तो डूबना है ही
फिर भी आज ही अभी मत
डुबाओ प्रिय।

(८)
वौरों के गंध से भरी-भरी
कल जो आयी हवा
तुम्हारी साँस से भरी-भरी
कल जो आयी हवा
साँसों का मधुमास छाया तुम्हारा
बाँधो उसे पलभर और
जीने दो मुझको छणभर और
मत तुम पूर्वा बहाओ अभी
लगाओ न नयनों में अंजन अभी
क्षणभर और प्रिय
बहने दो साँसों भर यह हवा।

(९)
पीकर नयनों का रस
लग गये प्राणों में फूल
लग गई स्नेह की बालें
लग गया खेतों में दाना
पौधों के तन में रस लहराया
फिर पाकर साँसों की गरमी
हो गया पकहर दाना
प्यार की मैंने की खेती
ऐसे में आँखों से हिम बरसाओ।

(१०)
रातभर छाये रहे गन्दे ये बादल
सबेरे अचानक बरसी यह घटा
धुल गयी मन की सारी मैल
छिटकी खुशी की धूप
नैनों में हँस पड़े जंगल
बाजी तुम्हारी छबि की बंशी
गमका मेरी व्यथा का मादल।

(११)
तुम हो मन का दर्पण
चुपचाप मैं पड़ा रहा
मन को कस कर गहे रहा
दिल के नीर में आँखे धो-धो
निर्मल करता रहा
तुम्हारा यह दर्पण
जो तुम हो ही स्वयं मेरे प्रिय
मेरे प्रिय तुम ही हो मेरे मन का दर्पण।

पुरीतट: चन्द्रोदय 

मिस चन्द्रमा मुखर्जी
आज तो जँचती हो ऐसे जैसे प्रतिमा
डूब जाती है शाम रात के सागर में
पानी सा मन छलक छलक जाता
मन की गागर से
तब मिस चन्द्रमा मुखर्जी
मन एक लिखता तुम्हारे नाम अर्जी
यद्यपि जानता हूँ तुम हो क्षय तुम हो क्षयी
फिर भी लिखता हूँ
प्रतिदिन,
प्रतिमास,
प्रतिवर्ष, आगे
तुम्हारी मर्जी;
ओ मिस चन्द्रमा मुखर्जी

[ पुरी : 1964 ]

स्वप्नभंग

मेरे पिता लाचार
जिन्होंने मुझे जन्म दिया
कि पीने को जहर दिया
और कुछ हथकड़ियाँ गढ़ीं
जिन्हें मैंने अकारण वरण किया
कायर पिता, धन्यवाद।

मेरे कवि निर्विकार
जिन्होंने गीतों का दंश दिया
कामक्रोध को छंद दिया
कोमल लिजलिजे अश्वासनों का
मोहक अन्‍तर्द्वंद दिया।
कपटी कवि, धन्यवाद।

मेरे गुरु महामतिमान
ब्रह्म ऋषि, राज ऋषि, लोक ऋषि
सभी ने मिलकर एक चौखट गढ़ा
और शब्दों की निर्मम कीलों से
उसी में मुझको ठोंक दिया
ऐसे कि आज मैं
सत्ता नहीं संज्ञा हूँ
वंचक गुरु, धन्यवाद।

[ 31.1.65 ]

हलायुध

मेरे दोस्त मेरे कंधे पर यह जो है
वह सलीब नहीं!
प्यारे, हरएक काठ सलीब नहीं होता है
हर एक आदमी मसीह नहीं होता है
यह मेरे कंधे पर है
कर्ण के कवच जैसा जन्मजात
जन्य सहचर; आदिम-अस्त्र
पराक्रमी हल है।
जिसके पराक्रम के माध्यम से
सहजवंध्या धरित्री में सगर्व शक्तिमान
आत्मा के फूल फूटते हैं
मणिभोगी रक्तपायी होते हैं निर्वंश
और शत्रुओं के महल होते हैं
क्षार-क्षार
युग प्रतियुग एक ही कथा दुहराते हैं
सभी इसी हल से प्राण त्राण पाते हैं
यह हल है धरती की वन्ध्या योनि तोड़ने को
सीता उत्पन्न करने को
रावण नष्ट करने को।

अतः
मत गलतफहमी करना प्यारे दोस्त
यह तुम्हारा क्रीड़ा सलीब नहीं
सँभल कर छूना इसे
यह काष्ठ का लौहफलक युक्त
हलधर के बेटों का हल है
परम प्राचीन पुण्य पराक्रम हल है
और क्रोध आने पर
इसी की नोक पर खींचकर
तुम्हारे हस्तिनापुर को उखाड़
गंगा-यमुना में फेंक सकता हूँ;
यह हलधर का हल है
तुम्हारा क्रीत सलीब नहीं।

[ 1964-65 में गंगा-गोमती के कोण पर सम्पादक : डॉ. जितेन्द्र नाथ पाठक में छपी। ]

तुम्हारी अश्लील नदी 

अपनी विरजा नदी के जन्मस्रोत पर
बैठा है आरक्त चक्षु महिष एक
हँकड़ता, डकारता गटागट
सारा जल
पी जाता है।
जब से सृष्टि जन्मी
अर्थात् मैं जन्मा
तभी से यह काला महिष
जन्म सहोदरा नदी के स्रोत पर
भूत की तरह डटा है
गटागट सारे जल का पान कर जाता है
इसका आदिगन्त काला विकराल मुख
इसके रक्तवर्ण नेत्र, फुफकारते थुथुने
ऐबी सींगों पर झूलते इन्द्र, वरुण, दिग्पाल
यह जीवन से जुड़े अमोघ शाप की तरह
अनुक्षण नदी स्रोत पर डटा रहता है
कर जाता है सारा जल गटागट पान।

और यह नदी असहाय है
नदी है विरजा पापहरा
परन्तु असहाय है
तुम्हारी अश्लील नदी है।
दूसरी ओर
प्रिय मित्र! बह रही है परम प्राचीन।
अगाध जल से भरी हुई मुक्त वेणी इतराती हुई
पिता-पितामहों के पोसे हुए भेड़ियों की
टमटमाती जीभों से जो था कभी बहा लार
वही विषाक्त कर्मनाशा बन
बह रही है आज।

बजबजाता फेन कुत्सित थक्के गाज
आह, यदि तपा है तो करो पान
चाहो तो पीओ भेड़ियों का मुखस्राव।
छककर पीओ छूट है छूट
ताड़ी है, बड़ा मजा आयेगा।

अरे ऊपर मँडराती मांसभक्षी चीलें
बन जायेगी छोरियां कमनीय
काक बन जायेंगे कलकंठ किन्नर
मेला, महोत्सव जुड़ जायेगा यार
ओ प्यारे जीव हंस
पिता पितामहों का दान यह
कर्मनाशा कीर्तिनाशा बड़ी ही चटुल
और नशीली है।

भूल जा मानसी विरजा को
मुक्ताभक्षी जीवहंस!
तुम्हारी इस अश्लील नदी में
नग्नगात स्नान करके
मैं मानता रहा अपने को
आजन्म धन्य।

[ 1967 ]

सत्ताइस सितम्बर बासठ 

मैंने सुना कल रात
अपनी
इस घरा का प्रेम पुलकित गान
अपनी धरा का रोषमय आह्वान

मैंने सुना कल रात
ओ उर्वसीयम-उर्वशी,
तुम्हारे नयन में सोते हुए
चीड़ श्यामल साल के कान्तार
आदिम नींद तज
कल उठ खड़े हो चल दिये
कल मूर्छा कटी
कल चमकी धरा-आकाश
कल तुम्हारे स्नेह स्पर्श से
हो गयी मोहक अधिक
एक मुट्ठी बर्फ
एक मुट्ठी घास

मैंने सुना कल रात
बहुत दिन के बाद कल मध्याह्न
तुम्हारे तन गये भ्रूबंक
बहुतों ने लिया उर चीर
क्षण में अनेको ने
लुटाया शीश

रक्त ने दी तुरन्त
बन्धु की
सन्तान की पहचान
कि तुम्हारा प्यार है न अनाथ
इसी से हंसने लगी लद्दाख की वह बर्फ
इसी से हंसने लगे आसाम के कान्तार
रक्तसिंचित
स्नेह पिघलित
जननी महीसे
धरती प्रियासे
आधी रात को उठने लगे कल
कुछ प्रेम पुलकित गान,
-कुछ रोषमय आह्वान

[ २६ सितम्बर को नेफा (उर्वसीयम) पर चीनी आक्रमण हुआ था। यह कविता दूसरे दिन लिखी गयी थी – २७ सितम्बर १९६२ को ]

फल्गुतट: तीन सानेट

सूख रही नदी अनावृत, नग्न और निर्जन तट
यह उदास कंकाल सृष्टि का, कालपुरुष की भाषा
जेठ दुपहरी दूर-दूर तक फैली हुई निराशा
कई, दलदल, कीट कुछ नहीं शेष नहीं कोई तलछट।

यह थकान यह तीव्र पिपासा इसी रेत को कर दो अर्पित
मित्र, करोगे क्या आखिर यह पथ ही है बन्ध्या
वीतराग निर्वेदमयी सब जेठ दुपहरी पावस संध्या
सारी ममता और सफलता करो इसी को सहज समर्पित।

मधुपायी वे मीत अनेको सब अपने से छले गये
वह कवि भी जिसने शैल बालिका का निर्मल तप देख
वे सबके सब जो तृषा लिए आये चले गये
चाक्षुष या वह भी जिसने नापी यह अंधी पथरेखा।
सब भ्रान्त रहे सोचे, उस पार हमारी भूख प्यास को धवती
इसीलिए यह पड़ी रही, रही शापग्रस्त जीवन की परती।

[ ‘आवेग’ से ]

तीन कविताएँ 

तुम्हारी दक्षिण पाणि

वधू, वह संशय की रात थी :
हम और तुम
परस्पर आहत बैठे रहे जैसे
प्रश्न और प्रतिप्रश्न।

पश्चिम दिगन्त-रेखा पर अस्त होते रहे दिव्य महल
झलमल कंगूरे और कलश। सर्वभक्षी अन्धकार
करता गया ग्रास। हम सुनते रहे लगातार हवा में
रक्तपायी चमगादड़ों के झपट्टे बार-बार।
अचानक तुमने कहा, अँधेरा अधिक हो गया’ मैं चुप रहा।….. तब तुमने फिर कहा, ‘देखें क्या है समय?’ और तुम्हारी दक्षिण पाणि उठी, रोशनी की एक मूँठ जैसी
आश्चर्य तुम्हारे हाथ से झरते प्रकाश-वलय की- वज्रहीरक-द्युति में मैंने पुनः देखा

एक कुत्सित गोमेदवर्णी सरीसृप विषाक्त
तुम्हारे ही दक्षिण पग को स्पर्श करता हुआ
सरकता आ रहा, निकट अतिनिकट, मेरी ओर!
कि तुम्हारी दक्षिण पाणि से झरती एक मुट्ठी रोशनी की चोट खा
वह नतशीश, लज्जावनत, बिफर रहा धरती पर।
वधू, वह थी संशय की रात, वह था संशय का सर्प
और सर्प वह मारा गया!
वधू, तुम्हारी भास्वर दक्षिण पाणि मुझे दे गयी
अभय और त्रासमुक्ति
स्तब्ध हो गयीं रक्तपायी चमगादड़ों की चीखें
और घनीभूत अन्धकार साँसों की कविता जैसा सुखद हो गया।

सुख, अतिशय सुख

मैं था उस दिन असहज, अति असहज
मैंने तुम्हारे आयत चक्षुओं में देखा एक प्रमत्‍त नागिन
जो अपनी ही छाया को डँस-डँस लहराती है।
मैंने कहा, मैं हूँ विकल, अतिविकल
तुम्हारे संशय-सर्प तुम्हारा ही अमृत पीकर
तुम्हीं को बार-बार डँसते हैं, परन्तु देखो, आश्चर्य
दंश तुम पाती हो, लहर मुझे आती है
मैं विकल, अतिविकल! मैं चला जाऊँगा
ये सर्प तुम्हारे अंग-अंग का अमृत चूस डालेंगे।
और तभी तुम्हारी आँखें हो उठी नम
बाष्पाच्छादित लोचनों में उतर पड़ी प्रीति
एक अनुकम्पा, एक अद्भूत दाक्षिण्य,

तब मैंने देखा, तुम्हारे चक्षुओं से उतर
अंग-अंग विचरते वे कालसर्प बन गए छन्द,
स्रग्धरा, मालिनी, वसन्ततिलका चटुल
मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी और चपल अनुष्टुप्।
सारे ललित छन्दों का मेला उतर आया- तुम्हारे श्रीअंगों पर
जब तुम्हारे दो लोचन हो उठे प्रीति से आर्द्र
ओ प्रिया स्वाती।
तुम्हारी क्षणदृष्टि की फुही से सारे दंश बन गए।
सुख, अतिशय सुख!

कैसे हो?

प्रिय सोनल, तुम्हारी कथिका ही वैसी थी!
बहुत-बहुत दिन बाद
उस दिन तुम मिली थी अचानक पथ पर
मुझे लगा कि अगल-बगल झाड़ियों से चीते और बाघ
धूर्त नेत्र एकटक देख है रहे, हमें और तुम्हें।
काले रीछ मुँह फाड़ने लगे बार-बार।
परन्तु सोनल, क्या यह नहीं आश्‍चर्य?
कि तुमने पूछा, ‘कैसे हो?’ कि तभी वे काले रीछ
लज्जित हो, हो गए नतशीश। बाघ और चीते बड़े प्यार से
आकर चाटने लगे हमारे घुटने और पाँव।
तुम्हारी आँखों से छूटी थी पहचान की ज्योति
तुम्हारी नन्हीं-सी कथिका ‘कैसे हो?’ दे गयी अभय
कर गयी मुझे अयाच और मृत्यु ने भी रख दिया उस दिन
अपना खातापत्र एक ओर, चुपचाप सुनने लगी कविता,
वह अशब्द कविता, जो दो शब्दों से छन्द-प्रतिछन्द बनती गयी।

[ नलबाड़ी कॉलेज, नलबाड़ी (असम) ]

तीन मुक्तक

पराजय

टेर-टेर मैंने लिखे गीत
पर आये नहीं मीत
गीत दमदार रहे- पर भक्त दमदार नहीं
कवि ने तो कहा ही है- (पर में ही नहीं मानता था)
प्रिय, तुम्हे भी सता रही कलि की रीति।

उर्ध्वबाहु

उस गुरु ने कहा- “बहुत दिनों तक, गहरी घाटियों में छिपी मोहि तूने देखी है
बहुत, बहुत दिनों तक
सूखी स्रोतस्विनी में भटक-भटक कर मृगजल पिया है,
अरे तू
अपनी ही क्षुद्रता में बँधा अनजान
तू ही है सहस्र सूर्यों का सहचर बन्धु
अपनी ही बाहुओ में सहस्रधार सृष्टि स्रोतस्विनी बाँधे हुए।”
-कहा उस गुरु ने शिष्यों से भुजा उठा
“फिर भी तुम मेरी बात नहीं सुनते!
वह अरण्य से टकराती है
फिर लौट आती है
छू दी, मृतक-श्‍वास, अर्थहीन
लज्जित, कातर, और अति दीन।”

एक कामेडी

‘तू एक पत्ता उड़ाता हवा में
तू क्या जाने लघुबीज की बात!
वह लघु
वह क्षुद्र
वह दीन-हीन
पर दिल में अनागत के
हरे-हरे बिराट को सँजोये हुए
वही है भविष्य का वेधा
वही है नये सृजन का पिता।’ जब तूने सुनी यह बात
तू अकड़ा
कूदा
फुदका और चढ़ गया हवा की डोर पर
उच्च स्वर से चिल्ला उठा- “सुनो, सुनो, मैं अपराजेय
मैं चराचर वर्त्‍तमान का स्वामी
यह बीज, भविष्य का अस्तित्व,
क्या जाने आज का सृष्टि तत्व?
कभी देखा भी है?- नाता इस झंझा का उन्मत्त नृत्य!
कभी सुनानी है?- उस पर उमड़ती हुई शंख-ध्वनि वर्त्‍तमान की।”
कि एक झोंका
उधर से आया उसे
ला पटका जमीन पर।
बीज देख यह हँस पड़ा।

एक नगर नागफनियों का

इस कविता को लिखते समय टी. एस. इलियट का ‘Waste Land’ तथा मुक्तिबोध का ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, ये दोनों काव्यग्रन्थ मेरे मन में अपना प्रभाव विस्तार कर चुके थे। रूप और भंगिमा दोनों क्षेत्रों में इन कवियों का ऋण स्वीकार करता हूँ। परन्तु कविता के ढाँचे में अंकित स्थितियाँ और भाव अनुभावलब्ध है। इसका निष्कर्ष भी मेरा अपना है। १९६६ में लिखी गयी यह कविता ‘ज्ञानोदय’ के मार्च ६७ में एक वर्ष बाद प्रकाशित हुई थी।

मंगलाचरण

तो धरती तू भी झूठ बोलती है।
तुम्हारी, कोमल नरम नीलिमा
तुम्हारी, कोमल नरम हवा
तुम्हारा, कोमल नरम आकाश
तुम्हारे, कोमल नरम खेत
मेमने मृग शावक
श्‍वेत श्याम बछड़े
अरुण पीत पाखी
प्रात और सन्ध्या के गान
ओह, धरती तुम मोहक हो, माया हो, माता हो
पर आह, तू भी झूठ बोल गयी!
कितना बड़ा धोखा हुआ
कितनी बड़ी ट्रेजेडी हुई
जननी, तूने दुश्मन का साथ दिया
तूने जनम दिया
पर अपनी नहीं हुई!

“वत्स किसने कहा था तुम्हें
जननी और जनक विश्वसनीय होते हैं?
युग है चिन्ता का, शंका का,
भय का, अविश्वास का।
किसने कहा था तुम्हें-
जननी जनक विश्वसनीय होते हैं?”

फिर वह वाणी मौन हुई।
टका-सा जवाब मिला।
प्रसविनी वसुन्धरा मुझे नकार गयी!
पर मैं नहीं।
मैं तो भी स्वीकारता हूँ
धरित्री, तुम्हारे दिये हुए दान
क्षुधा और पिपासा
साहस और भाषा।
धरती, तुझे मैं स्वीकारता हूँ।

सर्ग १ : फाउस्ट और दुश्मन

(१)
कल इस नागफनियों के महानगर में
मिल गया दुश्मन- एक रेस्त्राँ में बैठा हुआ
‘सिंगल’ कप चाय मैं था पी रहा-
श्‍वेत धवल वेश और कोमल केश
ओठों पर हलकी मुसकान
लहजे में दिल्ली का जोर
लखनऊ का नाज और बम्बई की तान
सिगरेट का पैकेट बढ़ा, लीजिए!
(‘नहीं, धन्यवाद!’) प्रश्न पर प्रश्न
वह पूछता रहा- और मेरे शीश पर
कालमेघ मँडराता रहा संशय और शंका का;
दूर कहीं पेड़ पर काक विश्वास हीन
भाषा बोलता रहा- “हाजिर हूँ मैं, सर!”
दुश्मन बोलता रहा- “कोई सेवा मेरे योग्य…….”
मैं था मन्त्रमुग्ध उर्दू और हिन्दी की
मिली-जुली कल्चर का नमूना देख।
तब तक वह मार्क्स और नेहरू
रवीन्द्र और इक़बाल
ताज और अजन्ता
आदि की चर्चा करता रहा और बताता रहा-
‘अवाम’ की खुशी के लिए
इतिहास संशोधित हो,
दास्तानें गढ़ी जायें, भाषा गढ़ी जायँ
प्रगति के दस्तावेज को जबान ‘इण्डियानी’ हो
गान्धी-चिन्तन से आगे….” आदि-आदि

बातें बताता रहा
मैं भी जताता रहा
मैं कप पोता रहा चुपचाप
(इकन्‍नी की चाय कब तक चले?) दुश्मन भी
अन्त मे हारकर कहा- “अच्छा मैं चला।
दर्शन होंगे फिर जनाब के कभी।”
जाती हुई एक झलक! नजर गयी पीठ पर
मैं काँप उठा- दुश्मन को गर्दन में
चमकती पीली कौड़ी-सी आँखें थी….
और मुँह था पीठ को तरफ़…. मुँह नहीं फण!
मै कांप उठा, जो मानवाकृति मुँह था
बोलता रहा घण्टे-भर; वह था काठ का
गढ़ा गया दूर देश-कुटिल दक्ष हाथों से।
ओह काठ की जबान भी,
कितनी भद्र होती है- सोचकर, काँप उठा।

(२)
चलो उस पार केतकी वन में
जहाँ बरसात गन्ध से पागल है
जहाँ धरित्री छन्द से आकुल है
जहाँ आकाश मुफ्त कविता लुटा रहा
चलो, चलो, उस केतकी वन में
जहाँ नारियाँ निरावरण कटि में
मात्र पुष्पमेखला बाँधती हैं
जहाँ हम और तुम यही मात्र दो पुरुष
शेष सब नारियाँ, असंख्य पद्मिनी नारियाँ,
कर रहीं हमारी और तुम्हारी प्रतीक्षा।
चलोगे, कवि मित्र, केतकी वन में
रूप-रस-गन्ध के चोर और डाकू
तुम और हम,
चलोगे मित्र, चलोगे?”

दुश्मन ‘सुआ’ बन सुनाता रहा
कथा उस सिंहल के केतकी वन की।
चुपचाप सुनता रहा, दुबका खरगोश-सा
विशाल इस नगर के ‘लॉन’ के कोने में;
सामने खोल रखा था, पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व
लिखा गया एक काव्य, एक श्लोक:
[“पुरा स दर्भाङ्करमात्रवृत्तिश्चरन्मृगैः
सार्धमृषिर्मघोना समाधिभीतेन
किलोपनीतः पञ्चाप्सरो यौवनकूटबन्धम।”]

“सोचते हो क्या यार कवि, छोड़ो न
चिन्ता ‘अवाम’ की ‘कल्चर’ की चलो चलें
उस केतकी वन में, चाँदी की धूप है,
स्वर्णगात नग्न देह नारियो के देश में।”
मै ‘रघुवंशम्’ के पन्ने उलटता रहा
भीड़ अगल-बगल गुजरती रही।

[‘मुन्नी तू क्यों पीछे रह गयी’
‘चावल का भाव तीन रुपये किलो’
कहाँ भाई, कहाँ?’
‘ओ डब्बू, मुन्नी को छेड़ो मत,
आ रानी बिटिया’ ‘कल उस मिल में
चार मजूर मारे गये- गोली चली…..’
‘कहाँ भाई, कहाँ?’
‘हाँ, तो ठीक मेट्रो सिनेमा के सामने
तीसरे खम्भे के पास…. हाँ….साढ़े छह
शाम को, टैक्सी-सड़क के उस पार
मैं और तुम-मनु और सतरूपा
पाँच गज के फ़ासले पर चलेंगे ठीक है।’
‘कहाँ भाई, कहाँ?]

मैं समवेत स्वर सुनता रहा।
रघुवंशम् उलटता रहा- गौरव की कथा है
दिलीप और रघु की, राम और सीता की-
दुश्मन ‘केतकी वन, केतकी वन’ रटता रहा
दूर कहीं एक सुर बेसुरा बजता रहा-
“बाङ्लार माटी, बाङ्लार जल,
पुण्य हउक! पुण्य हउक!”

(३)
आधी सिगरेट बुझा, पॉकेट में रख लिया
सोचता रहा-
आहार मन्त्री का भाषण अखबार में छपा है,
चूहे के ‘विटामिन’ की तारीफ़ की है,
आदत बदलनी है देश को, प्रगति करनी है।
यही सब सोचता था कि चौंक पड़ा
सुना एक स्वर को, देखा एक रूप को
“क्या सोचते हो, सदैव काव्य मर्मज्ञ मित्र,
स्वप्नलीन, उर्वशी के सहचर बने….”

देखा तो दुश्मन खड़ा है, अपूर्व छवि
माथे पर सरपेंच रेशमी-अंशुकपट,
कामदार चोगा, मखमल और रेशम
स्वर्ण और रजत के तारों से मढ़ा हुआ
राजवेश अभिराम झल मल कर उठा

“चलो मित्र, तुम्हारे लिए लाया हूँ
हेलीकोप्टर यह ‘इन्द्रमेघ’, चलो चलो,
सागर के उस पार राजकन्या कुँआरी है
धरती उस देश की सूखी है
क्योंकि राजकन्या कुँआरी है
हरीतिमा उस देश की मर गयी
क्योंकि राजकन्या कुँआरी है
बच्चे जनमते नहीं, या जन्ममृत होते हैं,
क्योंकि राजकन्या कुँआरी है
चलो-चलो मित्र, तुम्हारी प्रतीक्षा है
प्रभु ने तुम्हारे ललाट पर राजतिलक खींचा है
तुम्हारे माथे पर छिपी हुई मणि है प्रभापूर्ण,
शीघ्र करो, जल्दी करो
राजकन्या कुँआरी है
धरती बन्ध्या है- नारी बाँझ है
हरीतिमा उदास है, जल्दी करो!
त्राहि माम्, कर रहे प्रतीक्षा तुम्हारी वे!”

दो क्षण रुका रहा फिर बोला वह-
मैं हूँ महीपति का अनुचर,
देखो यह राजमुहर
देखो यह पत्र और जल्दी करो
श!!!! बताना मत किसी से, रखो इसे
गुप्त, अति गुप्त; जनता बौखलायेगी,
लाभ क्या? चलो न, योगिनी अनुकूल है
उत्तम ‘चर योग’ है, चन्द्रमा सम्मुख है
इस शुभ लग्न में प्रयाण करो
दिशाओं को प्रणाम करो- चढ़ो ‘इन्द्रमेघ’ पर।
अन्यथा राजकन्या कुँआरी रह जायेगी
उठो, उठो, गौरव का वरण करो।”

-मैंने निहारा दुश्मन की ओर फिर एक बार
काँप उठा भय से, आँखें थी गोल-गोल
पीत वर्ण कौड़ी के माफि़क, दुश्मन ताड़ गया
बोला- “ये आँख सागर के पार से
गेहूँ के बोरों में भरकर आयी हैं
दिव्य-दृष्टि दाता हैं, चाहो तो एक जोड़े
तुम भी खरीद लो। खुलेआम मिलती हैं।
यही तो लोकतन्त्र के लाभ हैं।
फिर रुक कर कहा- “पर, चलो, उठो!
‘प्राप्य वरान्निबोधत….’ सागर के उस पार
राजकन्या कुँआरी है। श्रेय का वरण करो।

(४)
शाम को घास पर बैठा था- सामने
विजयदीप्त जगर-मगर क्लाइव का ‘कलकटा’
उन्नत शीश हँसता था- पास में खड़ी थी
गान्धी की, उदास पत्थर की, नेत्रहीन प्रतिमा
-शिल्पकार राय चौधरी- बड़ी झंझट के बाद
कलकत्ते की छाती पर गड़ी थी कील-सी
ब्राह्मण-समाज में अछूत-सी, बे-जगह, बेशर्म,
ओह, धरती तू फट जाती नहीं? प्रतिमा
समाती नहीं?

ॐ मणिपद्मे हुं!” मैं सुन चौंक उठा
देखा तो बग़ल से दुश्मन गुजर रहा
साथ में थे कोई सज्जन ‘भद्रलोक’
दुश्मन आज था काषाय गैरिक वेश में
तनिक रुक मुझसे यों कहा- “देखो इन्हें,
ये हैं कॉमरेड जमशेद गुहा- तंजुर और कंजुर२ का
नया एडीशन निकाला है- सुन्दर लाल स्याही में
सजा-धजा चित्रमय। बहुत बड़े प्रकाशक हैं।
वाल्मीकि और व्यास भी शीघ्र ही….”

फिर कहा- “जरा हमें जल्दी है, जाते हैं हम
काली के मन्दिर में, रक्तवरण माता की जय हो!”
‘ॐ मणिपद्मे हुं!’३ दुश्मन चला गया।
‘ॐ मणिपद्मे हुं’ उठो, उठो कीर्ति को वरण करो
“विश्व विजय नौजवान!
विश्व विजय नौजवान!”
उठता है स्वर नये आसाम से
“चल चल रे, मोशलमान
चल चल रे, मोशलमान!”
उठता है स्वर पुराने बंगाल से
“चीन है हमारा, अरब है हमारा
काश्मीर है हमारा, जहाँ है हमारा।”४
उठता है स्वर पुराने पंजाब से
“उठो उठो री, द्राविड सन्तान
आर्य हैं नीच, तुम हो महान्!”
उठता है स्वर नये मदरास से
ॐ मणिपद्मे हुं! ॐ मणिपद्मे हुं!

ऐसे में मित्र मैं क्यों पड़ा रहूँ!
मिथिला है जाग उठा
सिक्ख है जाग उठा
तब मैं ही क्यों पीछे रहूँ भोजपुरी सन्तान!
हिन्दी का अत्याचार अब बरदाश्त नहीं।
बाबा की मोटी लाठी उठाऊँगा
कलकत्ता प्रवास के गौरव का राजचिह्न-
मोटी-सी लाठी वह और बाबा के ‘प्रभुओं’
का आशीर्वाद! दोनों है साथ-साथ!
हिन्दी मुर्दाबाद! भोजपुरी वीर सन्तान हम!
हम हैं महान्, ‘ॐ मणिपद्मे हुं।’

लगता था मेरी हुंकार सुन भीरु यह
आकाश है काँप उठा, भयभीत यू. पी.,
त्रस्त है बिहार, हम हैं वीर सन्तान!
ऐसे में मुझे लगा बूढ़े ऋषि की
दयनीय प्रतिमा की, अन्धी आँखों से झर-झर
झर रहा
परम पवित्र कुछ- नीर है या रक्त है?
पता नहीं। ‘फ़र्क, क्या पड़ता है। जो हो!
ॐ मणिपद्मे हुं!’

सर्ग २ : मरण-यज्ञ

“कोथाय जाबी रे, अनू? एमन साजे-गूजे….”
“मार्केट जाबो, माँ” “कार संगे?” “दादार संगे
-तपन दा?” “आहा, तपन। ठीक आछे।
कोनो क्षति नेंई।” और यह तपन बोस
अभागा सर्वश्रेष्ठ, पॉकेट में नम्बरी नोट रख
भटका है नीली यमुना की खोज में
हजार-हजार रात-बाड़ी से बाड़ी, गली से गली
एक मरुतृषा लिये और बार-बार कि़स्‍मत ने
फल्गु के उदास तप्त बालू में ढकेल दिया-
फिर भी सोचता है नम्बरी नोटों के प्रवाह से
कभी तो धरती पिघलेगी!
नीली यमुना निकलेगी!
धरती का बोझ यह अभागा तपन बोस!

ट्राम लाइन के उस पार बैठे हैं
शकुन्तला-दुष्यन्त, मूंगफली छीलते हैं
हरी घास नोचते हैं, अर्थहीन बातें कुछ
कहते हैं, सन्ध्या उदास उतरती है
घर-घर दरबों में कबूतर बन्द होते हैं
वे करुणा से रोते हैं, रात उतरती है
सपनों की फैक्टरी के कारीगर गुलाम
जँभाई ले उठते हैं, काम में जुटते हैं
सड़-सड़ सड़ाक्, कोड़ों की मार और
बढ़ती है हाथों की गति, हाथों का कौशल
खिलौने तैयार होते हैं! खरीद लो
खरीद लो, शकुन्तला, खरीद लो!
गुलामों के खुरदुरे हाथों ने
सिसकती आँखों से इनको गढ़ा है।

पीठ लहूलुहान! सड़सड़ सड़ाक्!
भोली शकुन्तला दर्द के खिलौने खरीद ले
सपनों के देश में गढ़े गये
जब तक दुष्यन्त नहीं लौटता है
अँधेरी टैक्सी को साथ लिये।

वृन्दावन जलता है
नीली यमुना में कंस ने तुम्हारी
हजार-हजार गायों को काट कर फेंका है
पानी मँहकता है, बदबू आती है
राधिका की चिता जलती है
मैं सस्वर पढ़ता हूँ गीत एक :
[“स्मरगरलखण्डनम् मम शिरसि मण्डनम्
देहि पद पल्लवमुदारम्।”५]
किन्तु कृष्ण सिर्फ़ रोते हैं
यमुना विधवा है, वृन्दावन जलता है
कृष्ण सिर्फ रोते हैं!
समीरण धीरे बहो। राधा नहीं आयेगी।

“ओ री प्रिया तेरे शरीर को छूकर
धन्य यह पवन-रज मेरे अंग से लगी
अंग यह कंचन हुआ, जनम यह धन्य हुआ
मरण मैं जीत गया, जनम यह धन्य हुआ
पवन-रेणु मेरे अंग से लगी!”

-कल की स्मृति मुझे आती है
पर आज? आज तो मरणयज्ञ चलता है
उपस्थ ही काष्ठ है, योनि ही ज्वाला है
कामना आहुति है, सामगान उठता है
“ॐ कामदेवाय विद्महे
पुष्पबाणाय धीमहि
तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्।”६
मरणयज्ञ चलता है,
शकुन्तला, यूप काष्ठ है
दुष्यन्त यज्ञपशु है- मरणयज्ञ चलता है।

तिरिया रे तिरिया, तेरे रुदन से
रोते हैं पाखी, रोते हैं पत्ते
रोता है भादर, रोता है सागर
तिरिया रे तिरिया, क्यों तू कातर है?
क्या गीतों को बेच अभी नहीं लौटा तेरा बनजारा?
जननी री जननी, क्यों तू कातर है?
क्या तेरा भी लाल चुराकर ले गया मथुरा का राजा?

बिटिया री बिटिया, तू क्यों रोती है?
क्या कहा? मेले में भटक गयी।
पिता ही खो गया?
कहाँ है प्रीतम? कहाँ है लाल?
कहाँ है पिता? कहीं नहीं, कहीं नहीं।
मरणयज्ञ चलता है।

सर्ग ३ : तब तीनों मुँह बोल उठे!

रानी बिकाऊ है, राजा बिकाऊ है!
सच्चाई बिकाऊ है, प्यार बिकाऊ है!
हाँ, एकदम ‘न्यूड’ बिल्कुल नफ़ीस
ड्राइंग रूम सजा लो, सुरुचि कमा लो
राजा बिकाऊ है, रानी बिकाऊ है
लोगे मोल, लोगे मोल
लोगे मोल, लोगे मोल
‘अजी मरघट पर जाओ चिल्लाओ!
डोम हैं हम? जो खरीदें इस कौड़ी के तीन
रानी और राजा को? हम हैं नागरिक।
काशी की बात न्यारी है। क़स्बे और
नगर की रुचि में भेद होता है।’ -भीड़ ने जवाब दिया। पर कोई
चिल्लाता रहा- ‘लोगे मोल?’
अचानक तन मन थर्रा गया, मानो
खोपड़ी पर ब्रज है कड़क उठा
दुबक गया आसमान, दुबक गयी भीड़
दिशाएँ शान्त हुई और एक तीनमुखी
यक्ष का चेहरा दीख पड़ा और
मेघमन्द्र स्वर में क्रमशः मुँह बोल उठे।
चेहरे पहचाने लगे, स्वर पहचाना लगा।
(रवीन्द्र) : “अरे रे, अभागे रे, मैंने कब कहा-
-मैंने कब कहा कि
मानुष मत बन- बंगाली बन?
मैंने कब कहा कि
मानुष मत बन- बिहारी बन?
‘आप नारे शुधू घेरिया, घेरिया’ मरते हो पल-पल, रे भाई भद्रलोक
तुम्हारे अहंकार से मेरी आत्मा में घाव है
ओह, मेरी पीड़ा का अन्त नहीं
ओह, मेरी पीड़ा का अन्त नहीं
‘एकला चल’ का यह अर्थ नहीं।”
(विवेकानन्द) : “अरे रे कायर, मैंने ‘अभय’ दिया
फिर भी तू भीरु रहा डरता रहा
अरे रे पामर, मैंने ब्रह्मास्त्र दिया
जिसे तूने ट्रांजिस्टर के वास्ते बेच दिया
प्रत्यंचाहीन धनुष लिये मूर्खवत्
धनुर्धर की कीर्ति ढोता रहा टट्टू-सा
इज्ज़त कमाता रहा लट्टू-सा
पर लक्ष्य बाण मारा नहीं
मौत को ‘माँ’ कह निर्भय पुकारा नहीं।
आज मेरी आत्मा में घाव हैं
तू मेरा क़फ़न बेच खाता रहा
मेरा ‘अभय’ व्यर्थ गया
मेरा ब्रह्मास्त्र खाली गया!”
(चैतन्य) : “ओह, तुझे शर्म नहीं आती है?
नदिया के कूल पर खेलते बनपाखी को
देखो और शर्म करो!
चोंच से चोंच, पंख से पंख, अंग से अंग!
-अह, देखो और शर्म करो!
रंभाती है धौरी, दौड़ता है बछड़ा उमंग से
देखो और शर्म करो!
प्रात और सन्ध्या में, तप्त दोपहर में
काली क्रुद्ध रात में, फूटते फूल-निर्द्वन्द्व
देखो और शर्म करो!
सब कुछ मरता है- कुछ भी टिकता नहीं।
सिर्फ़ वही बच जाता है
जिसे प्यार तुम करते हो
शेष काल लील जाता है
पचाता है, गोबर बनाता है!
पर जिसे तुम प्यार करते हो
वह छवि नहीं मरती है, वह क्षण नहीं मरता है
वह मुख नहीं मरता है,
वह परस नहीं मरता है।
बूँद में समुद्र है, क्षण में चिरन्तन है
प्रिया का ललाट ही प्रभु का ठिकाना है!
जिसे तुम प्यार करते हो
वही नहीं मरता है, मात्र वही नहीं मरता है
जिसे तुमने अमृत से सींचा है!
मरण-अग्नि जल रही- हा हा उठ रहा!
क़तार पर क़तार, पाँत पर पाँत
मन्त्र की डोर पर कर्षण हो रहा
मरण है खींच रहा, दुर्निवार पाश है
भस्म सब हो रहे, मरणयज्ञ चल रहा।
पर प्यार बच जाता है!
पवन प्यार को उड़ाता है,
आकाश क्षमा करता है
धरती व्यथा सहती है, सृष्टि चलती रहती है
इस तरह प्यार बच जाता है।
अतः शर्म करो, शर्म करो
बाँबी में पड़े पड़े जहर सिर्फ़ पालते हो
यह काम नहीं आयेगा, मरण जब आयेगा
तुम्हारे माथे मणि है, मणि छीन ले जायेगा।
अत: प्यार करो, मणि का दान करो
समर्पण ही प्यार है, मुक्ति है, अमृत है।”

उपसंहार : शाप-मोचन

आकाशवाणी पर बजता है एक संवाद :
“सन्ध्या सुनहली है, हवा में धीरज है
दु:ख आज शान्त है, आसमान नि:रज है
वधू, कुछ कथा कहो
वधू, कुछ बात करो
समय के मेघ उमड़े हैं, छन-छन बरसते हैं
पर,
असुर रोस पी जाता है, जीवन पछताता है
असुर के खप्पर से फिसल पड़ा
एक बूंद ‘समय’, मैं चुरा लाया हूँ
वधू, इस क्षण को वरण करो
वधू, इस क्षण को अमर करो
वधू, अभिसार करो
सोना पिघल गया पश्चिम का
नीली बाढ़ में दिशाएँ डूब गयीं
देखो, न क्षण कहीं रिक्तहस्त लौट जाय!
वधू, अभिसार करो!”
[“मन्दिर बाहर कठिन कपाट
चलइत पंकिल शंकिल बाट
हे सखि काह, करब अभिसार- हरि रहु मानस सुरधुनि पार!७]

मैं द्वार तोड़ता हूँ- मैं कपाट खोलता हूँ
मानस की सुरधुनी बहती है
ओ राजा की बिटिया,
हर्ज नहीं यदि डूब जाओगी
भोर हुए, नीलोत्पल बन जाओगी।
यह देह वल्लरी मृणाल बन जायेगी
यह छवि नीलोत्पल बन जायेगी।
ओ राजा की बिटिया, मन के दर्पण में
मानस की सुरधुनी बहती है
यदि पार कर जाओगी
तो पहचान पाओगी उस पार
प्रीतम खड़ा है, योगी का वेश धर!
द्वापर लौट आयेगा।
वधू, अभिसार करो।”
आकाशवाणी गोहाटी है। बज रहा
संवाद मणिपुरी भाषा में। चित्रा
सुनती है, अर्जुन कहता है।
अचानक सुई घूम गयी य द्वापर-सुर भंग हुआ।
“पूरब, पछाँह-देस, उत्तर से दक्खिन लौ”
नये स्वर घूमने लगे, आसमान मथने लगे
रतन निकलने लगे, मोह छिन्न-भिन्न हुआ।

संदर्भ संकेत
१. पुरा स दर्भाङ्कुरमात्रवृत्ति….” (रघुवंशम, १३वा सर्ग)
२. ‘तंजुर’ और ‘कंजुर’- तिब्बती बौद्ध शास्‍त्र के दो अंग।
३. ॐ मणिपद्मे हुं– नेफा (उर्वशीयम्) और लद्दाख तथा हिमालय के अन्‍य बौद्ध अंचलों का अत्यन्त लोकप्रिय मन्त्र।
४. “विश्व विजय नौजवान”- असम का लोकप्रिय राष्ट्रीय गीत।” चल-चल रे मोशलमान” नज़रुल का एक गान जिसका दुरुपयोग नोआखाली और पूर्वी बंगाल के दंगों में खूब हुआ। काज़ी नज़रुल इस्लाम की दृष्टि साम्प्रदायिकता से बिलकुल मुक्त है। पर उनके कुछ गीतों का दुरुपयोग हुआ है। “चीन है हमारा….” इकबाल के एक सम्प्रदायवादी गान की पैरोडी है।
५. “स्मरगरलखण्डनम्, मम शिरसि मण्डनम् देहि पद पल्लवमुदारम्”-गीत गोविन्द की प्रसिद्ध पंक्ति।
६. ॐ कामदेवाय विद्महे, पुष्पबाणाय धीमहि तनोऽनङ्गः प्रचोदयात्” तान्त्रिकों को कामगायत्री।
७. “मन्दिर बाहर कठिन कपाट” इत्यादि- यह ब्रज बोली के बंगाली वैष्णव कवि गोविन्ददास का पद है। कुछ लोगों को संशय है कि ये मैथिली है।

प्यार नहीं मरता है कभी भी
अत: गीत का वरण करो
सूरज नहीं मरता है कभी भी
अत: माटी का वरण करो
ईश्वर नहीं मरता है कभी भी
अत: मानुष का वरण करो।
क्योंकि तुम हो गीत
तुम हो माटी
तुम हो मानुष
यही है तुम्हारी मुक्ति, यही है तुम्हारा चरम ठिकाना।

मोह-मुद्गर 

साँझ : आग्रह

निर्जन सुनसान एक गाँव
कटे-कटे खेत पीत-मृत घास
उदास एक नदी उदास एक गाँव
दूर पर लड़ते हैं कुत्तों के झुण्ड
उड़ते आकाश में शवभक्षी काक

पर लाख सड़ी बदबू के बावजूद
इस पगले मन को क्या हो जाता है
उठता है करने को अभिसार
और तब, आश्चर्य, चारों ओर
उदासी का वल्कल फोड़कर
फूटता है छवि का प्रसार उदार
साथ ही हल्की वकुल की गंध

हवा में चतुर्दिक तैर जाती है।
गोकि तब भी
निरन्तर मँडराता है शीश पर
शवलोभी
शवभक्षी
एक क्रुद्ध काक पंख को पसार।

साँझ : व्यथा-बीज

आज हवा मस्त है- पीली धानकटी क्यारियाँ
और मन में तुम्हारी ही नरम उँगलियाँ
बुन रही, रंगीन रेशमी धारियाँ!
आज हवा मस्त है।
नहीं तो, फिर बाहर क्या है?
पीले बदरंग खेत-पुराना पीपल
लटकते घोंसले-चीखते गृद्ध-शिशु
खउराया बूढ़ा श्वान एक, गर्दन मरोड़
देह खुजला रहा, दांत दिखा रहा
बस यही? कौन गर्व? कौन हर्ष?

सारा वातावरण पस्त है
पर मन में तुम्हारी नरम उंगलियाँ
वेध वेध सुई काढ़ रहीं
रंगीन रेशमी धारियाँ
यही कारण है कि
अकारण ही यह हवा चंचल है
चौदह बरस की फ्रॉककसी
हासदीप्त, डबडब तरल नेत्र,
अभी-हाथ-छुड़ा-भगी बालिका- हवा चंचल है, मस्त है।

रात्रि : प्रथम पाश

गीत एक टूटता है चोट खा
गीत एक मरता है दमतोड़
दूर कहीं दूर-उदास एक गाँव में
पर रंग नजदीक कहीं सजते हैं
किसी की मयूरकण्ठी लहराती है
किसी की बनारसी के पल्लू पर
अरुप अंधकार में रुप-रंग उगते हैं
और बहुरूपी यक्ष एक मैं
सारी लीला देख-देख चिन्तित होता हूँ
क्यों चोट भीतर लगती है
पर रंग चेहरे पर उठ आते हैं
साथ ही तुमने कभी कुछ कहा,
क्यों याद आ जाता है?
और तब पूरब से पश्चिम तक सर्वत्र
क्यों मृग शावक दौड़ने लगते हैं?
बहुरूपी मन का यक्ष मैं
देख देख चिन्ता करता हूँ।
अर्धरात्रि : चरम पाश
इस रात की जड़ें मेरे अन्दर समा गयी हैं
मेरी कठोर आत्मा की दीवार को फोड़ती हुई
घाव और दरारें बनाती हुई
जिन पर मैं मोह के चिरकुट बाँध रहा
कामना की राख पर पानी दे
घावों पर मोह के चीथड़े निरन्तर बांध रहा
मेरी बांहों की, हृदय की,
मस्तक की, टांगों की,
अंग-अंग की
शिराओं में धमनियों में
भीतर ही भीतर फैलती लता की तरह
आलिङ्गन बद्ध देह की तरह

यह रात बढती फैलती-उगती जाती है शाखा-प्रशाखा फेंकती
गाँठ पर गाँठ बाँधती
देह मन सर्वत्र फैल रही
यह रात भीतर और भीतर
आत्मा के अतल में- ग‍हरे और गहरे
जड़ों का जाल फेंकती प्रतिक्षण
बढ़ती ही जाती है। ओह, क…. निश्चय-निश्चय
किसी किरण से एक चाकू उधार लाऊँगा
और इसकी प्यारी खूबसूरत गर्दन
काट फेकूँगा।

दिवस-प्रसव

आज से हजार वर्ष पहले,
क्रोध की मैंने बहायी एक नदी,
मोह का मैंने बसाया गाँव
मन को पीट पीट पक्की बनायी सड़क एक
और किनारे लगाया पीपल का एक पेड़।
पीपल का वह एक पेड़
जिस पर बैठा है आज एक प्रेत
असभ्य कुरूप कुत्सित कदर्य- एक प्रेत
जो करता है छेड़छाड़ अश्लील
उधर से जब कभी नम्रपद धीर मंद
गुजरती हवा-वधू
मर्मस्पर्शी, कल्पना, निरञ्जना
अनुपमा मेरी वधू हवा!
“बदमाश प्रेत, ठहर! तेरी इतनी हिम्मत!”
पर मेरा ही लगाया हजार वर्ष पूर्व का
अथर्वपुरुष पीपल छठाकर हँस पड़ा
और मैंने-शीश उठा
देखा, पहचाना, चकित हुआ

कि वह प्रेतमुख और कोई नहीं
मेरा है-हूबहू मेरा है!

तो, ये हैं विधि के दो आशीर्वाद!
हवा वधू मेरी है
प्रेतमुख मेरा है
क्योंकि मैंने ही एक दिन
बहायी एक नदी, बसाया एक गाँव!


सृष्टि में नौ रसों का एक मोह-मुदगर है, जिससे काल-पुरुष सभी को निरन्तर पीटा रहा है। यह कविता विविध खण्डों में एक ही रात में लिखी गयी है-एक रात के भीतर मोह-भोग से मोह-मुक्ति तक की मानसिक यात्रा के रूप में।

महावल्लीपुरम्: समुद्र-कथ

[वक्तव्य : समुद्र इन कविताओं का विषय नहीं ‘पृष्ठभूमि’ मात्र है। विषय है ‘मैं’ इस ‘मैं’ में। ‘समूह’ भी स्थित है। इस कविता में ‘मूड’ की एकता नहीं, पर अविच्छिन्नता है। यों ही कविता बहुत कम लिखता हूँ। जो लिखता हूँ प्राय: फाड़ दिया करता हूँ। जानता हूँ कि मेरा मैदान गद्य है। मैंने गद्य की गदा हाथ में लेकर अवतार लिया है। पर कभी-कभी काव्य-वन में वैसे ही प्रवेश करता हूँ जैसे यक्षराज के ‘सौगन्धिक-वन’ में भीमसेन। यक्षों और किम्पुरुषों के कड़े पहरे के बावजूद क्रोध, शोक और करुणा के कमल चुन लाया हूँ। ये कवितायें १९६५ में मामल्लपुरम्, (महावल्लीपुरम्) के समुद्र के सान्निध्य में लिखी गयी हैं। ]

प्रभात

लहरों के उत्ताल घोड़े
गरजते उछलते कूदते प्रबल वेग
गर्दन उठाये, अयाल बिखराये
हरित वर्ण इन्द्रनील घोड़े
श्याम कर्ण घोड़े।
एक पर एक
पाँत पर पाँत
फ़ौज पर फ़ौज
लेते हैं टक्कर- तोड़ते हैं व्यूह
घटा बाँध चढ़ती आ रही
दिग्विजयी चंगेज़ की
अंतकवाहिनी।
प्रवाह कौन थामेगा?
कौन रोक सकता है
इस महामत्त क्रूर
पीत धूसर असुरों की अंतकवाहिनी
को?
एक उत्तर-शान्त और संयत,
‘हमारी यह मौन कठोर
क्षमाशील धरती,
मनुजगर्भा वसुन्धरा।’

संध्या

हवाओं के कोड़े
पीटते हैं वरुण के सवार
बढ़ते हैं लहरों के घोड़े
पागल चिल्लाते हैं
सिर पटक जाते हैं
खाकर हवाओं के कोड़े।
ये हस्तिकाय लहरें
नीग्रो गुलामों सी शक्तिमान
बल और पौरुष मूर्तिमान
फिर भी चिल्लाती हैं मार खा
पीटते बरुण के सवार
इनके माथे हवाओं के
चुभते अङ्कुश
मुक्ता-गर्भ-शीश पर।
एक दिन-
वह होगा, जो कभी नहीं हुआ,
जब कालपुरुष फेंकेगा चैलेञ्ज
तब यह युगों से क्षुब्ध और क्रुद्ध
पीटी गयी पददलित
हस्तिकाय लहरों की सेना
आकाश के देवलोक को
गटागट लील जायँगी।
प्रतीक्षा करो-उस कल्पान्त की,
एक दिन वह पवित्र आह्वान आयेगा।

चाँदनी रात

समुद्र एक नायिका है
मुग्धा प्रगल्भा नायिका है
रात भर कामना की उद्याम लहरों में
तन और मन को निचोड़ती है
दोपहर को
रतिश्रान्त मौन पस्त पड़ी रहती है
संध्या के आगमन पर
फिर वह क्लियोपात्रा बनती है
जिसका तन और मन थकता नहीं
जिसका सौन्दर्य घिसता नहीं
जिसका सौन्दर्य चिरस्थायी है
पर उससे भी चिरस्थायी है उसका विष
जिसे मथ कर कोई भी निकाल सकता है
अमृत और लक्ष्मी
सुरा और उर्वशी
रम्भा और रतन
प्रतिगामी उच्चैश्रवा
अग्रगामी ऐरावत
ये सारे सहज जीवन के शत्रु
ये सारे विष के वंशज
जिन्हें पान करना, भोगना
सजना और सजाना
और जिनके दंश में मत्त रहना
यही है मनुज की चरम उपलब्धि
यही है मनुज की मुक्ति,
इसी में वह पाता है
अपने ईश्वर का पता और ठिकाना।
समुद्र एक नायिका है
विषधात्री, विषकन्या नायिका।

शान्त दोपहर : दूसरे दिन

आसमान में
तेज-तप्त यक्ष ने
रोशनी की हस्तिकान्त वीणा बजायी
मध्याह्न के रथ पर सवार हो।
कैसा सम्मोहन है!
ये गरजते चिघ्घाड़ते हाथी
भयंकर, विशालकाय, बीस हज़ार हाथी
सम्राट चण्डाशोक की उन्मत्त रणवाहिनी,
क्षितिज से दौड़ते शुण्ड उठा
वेग से आते थे अभी-अभी
और मेरी क्षमाशील धरा के
कलिंग-व्यूह से टकराते थे।
अचानक, यह वरुण की गजघटा
नील आसमान के अमित आभा
यक्ष की
हस्तिकान्त वीणा सुन
शान्त हो अचानक सो गयी।
क्या सम्मोहन है!
(तुम कहते हो दुपहर को
सागर कुछ शान्त हो ही जाता है।)
पर अब भी एक ऐरावत है,
कृष्णकाय पट्ठा ऐरावत है,
जो क्षुब्ध और जाग्रत है
मन की गुफा में निरन्तर गरजता है
कोमल हस्तिकान्त न सही!
है कोई निर्मम जृम्भकास्त्र
जो उसको सुला दे?

आत्मा के घाव : विदा

(क)
सागर, हम पराजित पीढ़ी के बेटे हैं
हमें रोष नहीं आता है
क्रोध नहीं आता है
हमें लाज है, न शर्म है
हम हैं डुण्डुभ दार्शनिक
गलित कीच खाते हैं
स्थितिप्रज्ञ कहाते हैं
और जब आवाहन आता है
तुम्हारी ही गरजता हुआ
रोब के, क्रोध के कोड़े पटकता हुआ
तो हम टाँगों में पूँछ चुरा
कूर्म-वृत्ति-महिमा गाते हैं
दर्शनकोपीन में मुँह छिपा
स्वयं अपनी नग्नता देखने से बच जाते हैं
सागर,
हम पतित पराजित पीढ़ी के बेटे हैं।

(ख)
सागर, तुम रत्नाकर हो
और हम हैं कौड़ी-कंजूस
एक एक कौड़ी पर एक एक जनम हारते गये
परसों, मेरे पितामह ने पिता को
दो कौड़ी में दुश्मन के हाथ बेचा था
कल, पिता ने मुझको एक कौड़ी में बेच दिया।
और आज
ऐसी तेजी से आदमी का भाव गिर रहा है
कि
मुझे भय है, मेरी सन्तान का दाम हो
सिर्फ कौड़ी का दाँत एक।
(‘वत्स, करोगे क्या? युग ही ऐसा है
आदमी कौड़ी का तीन हो गया!’)
गो कि तुम रत्नाकर हो
गरज गरज सिंह ध्वनि से
बार-बार अपने अतल गर्भ के
रत्नों को लूटने की प्रेरणा देते हो
पर हम पौरुषहीन, कौड़ी के तुच्छ
हम केवल गुलाम, साहस नहीं रखते।
वंध्या रति
मोह मूढ़ तप
मायामृग-महिमा
इन सबके मयूर-पंख बाँधकर पूँछ में
आदमी अपना मूल्य घटाता जाता है
दिल को तंग बनाता जाता है।
मूल्य-विस्तार के लिए
दिल-विस्तार की शर्त है
दिल की मुक्तावस्था में ही
गन्दे जल पंक से
जीवन की विकृति से
छवि के रंग फूटते हैं
शोभा का बसन्त उतरता है।
क्षमा करो मित्र,
तुम निस्मीम मुक्त सागर हो
पर मेरा दिल कूप
तुम जैसा निस्सीम और मुक्त
सागरोपम नहीं बन पाता है
क्यों कि मैं हूँ
कौड़ी पर बिका हुआ एक अपदार्थ।

भरत वाक्य : लौह वृक्ष

मैंने देखा
ग़ाजीपुर में एक सड़क पर
जो टारी से ज़मानियाँ जाती है
लोहे का एक पेड़
एक कठोर मन-पेड़
उस पर है बर्रे का एक छत्ता
जो भभक भभक जलता है आधी रात
पर रहता है दिन भर मरा मरा शान्त
पछुआ पवन के वैरागी झकोरे
लू का क्रोध- अकारण प्रहार
और प्रेतग्रस्त आछी के फूलों की-
गँध का तीव्र व्यंग
सब कुछ बरदाश्त कर लेता है, और
रहता है दिन भर शान्त- मरा मरा।
यह करता है प्रतीक्षा उस प्रात की
जब हमारे बच्चे इसे खेल खेल में
खोद कर उकसायेंगे
और तब
रक्त पीतवर्रों की अग्निवाहिनी
टोली बाँध
समस्त क्रोध के साथ टूट पड़ेगी
नीचे की जमीन पर लू भरी वायु पर
गरबीली गंध पर
जो सनातन से प्रेत-ग्रस्त है
और क्षण भर में समाँ बदल जायगा
बदल जायँगे हमारे चेहरे
और साथ ही बदल जायगा
इस लोहे के पेड़ का कठोर सख्त चेहरा
वाल्मीकि का पाप-मोचन हो जायगा
और इसी सूखी लौह शाखा से जनमेंगे
कोमल नरम टूसे, जिनसे
हमारे, तुम्हारे, और उसके, और उसके
बच्चे मिलजुल खेलेंगे।

पत्र उत्तराफाल्गुनी के नाम

“मैं उन पर्वत की नील श्रेणियों से नीचे उतरकर
जिसमें किन्नरकण्ठ देवदारु पढ़ते है कोई
दिव्य-गाथा,
जिसमें एकान्त में जलधारायें और शिलाखण्ड
करते हैं परस्पर प्यार
और आदिम वंशरी सम्मोहन के सुरों का
जाल बुनती है
जहाँ है निर्मलता और अभय
आदिम साहस और गरिमा,
भरोसा, आश्वासन और शान्ति।

मैं उन नील श्रेणियों से उतर आया बहुत नीचे
गलत लोगों के बीच, गलत गाँव में
गलत नदी के किनारे,
जहाँ रोटी बड़ी मँहगी, दुर्लभ है स्वादिष्ट जल
जहाँ न कोई पक्षी न कोई गान।
कुछ नहीं : सहज सुन्दर और स्वस्थ्य कुछ भी नहीं।

मैं उतर आया बहुत नीचे एक अत्यन्त ग़लत देश में
जहाँ रात में चलते हैं लोग लेकर
धारदार गुप्ती हाथ में, वृक्षमूलों पर
दिन दुपहर रगड़ते हैं तीक्ष्णदंत काले वाराह,
रात्रि में बोलते उलूक मंत्र अभिचार के,
जहाँ सरस्वती है कैद और श्रद्धा है बन्धक!

मैं उतर आया बहुत ग़लत लोगों के बीच, गलत नदी के किनारे
जहाँ न मुक्त खुला आकाश, न धूप,
न तारा-पाँत, न ऋतुओं की हवाओं में
कोई संवाद, कहीं कुछ नहीं,
सब कुछ विरूप, किंकर्तव्यविमूढ़ता और जडि़माग्रस्त,
त्रस्‍त!

मैं उतर आया नीचे, बहुत नीचे, एक ग़लत देश में
एक ग़लत गाँव में, एक ग़लत नदी के किनारे!
जहाँ न कोई गान! न कोई पंछी, न कोई लड़की,
न ताजी धूप, न गरम रोटी और न स्वादिष्ट जल।
जहाँ है उमस दिन रात, पसीने की बदबू
जहाँ रति नहीं, उपरति है, उबकाई है
जहाँ आत्मा का पवित्र कमल कीचड़ से शीश उठा नहीं
पाता है।

जहाँ है घर-घर के कपाट बन्द
न कोई दस्तक, न कोई आहट, न कोई सांस,
न स्नान-यात्रा, न प्रीतिभोज की पांत।
जहाँ शब्द खिलते नहीं फूल की तरह
जहाँ शब्द बन नहीं पाते रोशनी की तेज किरण,
या कोमल दृष्टिपात।
जहाँ अन्तर की करुणा आँखों में आकर
विवश ठोस पत्थर बन जाती है
बन जाती है एक चितवन अपरिचित क्रूर।

परन्तु ऐसे में भी तुम उतरो एक बार, मेरी शिखर वासिनी प्रिया
मेरी प्रिय ‘असमिया’ छोकरी!
तुम उतरो बनकर एक पुलक, एक आलोक
तुम उतरो बनकर, एक स्वाद, एक मधु, एक गान
बनकर उतरो बनपाँखी, पुरोहितों का कण्ठ-स्वर
निर्मल प्रसन्न प्रात और आशीर्वाद!
जिससे मुहूर्त बन जाये सूर्य
सूर्य बन जाय शब्द, शब्द बन जाय जीवन
टहनियों से उगती पत्तियां फूल और फल
पकहर होती हुई फसल, मधुमय दानें,
प्रसन्न स्वादिष्ट जल की धार और
और घर-घर के कपाट खोलती सार्थक
सहज स्वस्थ्य भाषा, अपनी निजी भाषा।
ओ मेरी अनुत्तरा उत्तराफाल्गुनी,
तुम बनकर उतरो एक उज्ज्वल उद्धार।
और मैं एक अकिंचन महामूर्ख कालीदास
मैं एक ‘बाभन’ का छोकरा,
लिखूँगा तुम्हारी रूपगाथा के
श्लोक, छन्द और गान।”

[ लेखक की पुस्तक ‘मराल’ से ]

नदी और मैं : एक प्रेम-कथा

[नदी प्रतीक है त्रिकालव्यापी व्यक्ति चैतन्य के प्रवाह की। इसी व्यक्ति चैतन्य के भीतर लोकचैतन्य (कलेक्टिव कांशसनेस) भी प्रतिष्ठित है, ठीक वैसे ही जैसे व्यक्तिदेह के भीतर कूटस्थ अचल विश्वसत्ता प्रकाशित है। अत: जो मेरी नदी है वह सर्वव्यापिनी भी है। और मेरा भोग, मेरा आस्वादन, वास्तव में एक प्रीतिभोज है, सारे समूह के भोग और आस्वादन से जुड़ा हुआ। यदि उस बाहर की नदी के साथ भीतर की नदी का जो वस्तुतः एक चैतन्य प्रवाह के दो रूप है योग-संयोग निबिड़तर और अधिक अनुभव-संवेद्य हो उठे तो मेरा सम्पूर्ण जीवन ही सारी सृष्टि के लिए एक प्रीतिभोज बन जायगा। पर ऐसा होना बड़ा कठिन है। यह असाध्य साधना है। यही तो बुद्धत्व है। इसी को निर्वाण कहते हैं। (कु. ना. रा.)]

प्रस्तावना

मैं उस अनामा नदी के तट पर
बार बार जाऊँगा
जहाँ जरठ काले महीरुहों की छाँह में
तह पर तह शीतल शान्ति है, सुरक्षा है
जहाँ चलती है मन्द-मन्द, पके जामुन की
गन्ध से लदी मीठी काषाय हवा
जहाँ नदी के प्रवाह की अविराम कटि भंगिमा है
जहाँ अनवरत प्रवाहमान संकोचहीन प्रतीक्षा है
जहाँ यहाँ से वहाँ तक सर्वत्र व्याप्त है
एक अविभाजित अभुक्त काषाय क्षण का स्वाद
(मेरी प्रतीक्षा में, केवल मेरी प्रतीक्षा में!)
उसी अनामा नदी के तट पर
आज
कल
सदैव, बारबार जाऊँगा।
जहाँ घनी झमार पत्र-राशि के बीच
सरस परिपक्व गूदेदार गुच्छ के गुच्छ
लटके हैं रूप के रस के गन्ध के,
जहाँ मन चाभता है सद्य ताजे स्वादिष्ट प्राण,
जहाँ दूर अति दूर कोई दुर्विनीत शब्द
सघन वन गर्भ में टूटती शाखा सा चटखता है
फिर उधर ही कहीं, किसी गहरे गम्भीर में, डूबता-डूबता
उसी ओर कहीं अतल लीन हो जाता है
जहाँ कोई लीला हिल्लोलित शोख क्षण
क्रीड़ावश या लोभवश तट से आ टकराता है
और,
नरम ऊँगलियों से कठोर कगार का दृढ़ मन टटोल जाता है
फिर, प्रवाह समर्पित हो विनीत बह जाता है
एक बार भी घूमकर देखता नहीं।
चला ही जाता है विनीत और नतशीश
किसी सजल, अनन्त और व्यापक हृदय के पास।
मैं इन शोख दुर्विनीत क्षणों की विनीत इच्छाओं का
खेल देखने आज, कल
सदैव और बार-बार
उस अनामा नदी के तट पर जाऊँगा।

दृष्टि अभिसार

वह दिवस अद्भुद रहा, वह धूलिधूसर सांझ
दिन भर बेंत वन के मध्य, क्षीण कटि,
वैतसी तनु-भार, चन्दन-खौरी
साजती, अनिमेष लोचन ताकती
कोमल नरम वपु श्यामली,
एक वह कोई नदी।
और, मैं मानस-मुकुल को भूनता
सृष्टि को निष्कर्म सिद्धि बाँटता
काष्ठमौनी सिद्धियों का पीता रहा काषाय।
(कटु काषाय पर ही स्वाद जल का मिष्ट होता है!)
पर वह दिवस अद्भुद रहा, वह धूलिधूसर सांझ
हृदय में, कण्ठ में, देह में, मन में
सर्वभक्षी तृषा ले जब एक संध्या
बेंतवन के मध्य क्षीण कटि चंचल
वैतसी तनुभार, सांध्य चन्दन खौरि
आंकती, अनिसेष लोचन ताकती
एक वह कोई नदी तनुश्यामली।
मैंने उसे देखा,
मैंने नदी की दृष्टि को देखा,
क्षण दृष्टि वह, पर बन गयी अभिसार
पीने लगी मेरे सहज अस्तित्व को
नदी की अम्बुश्यामल दृष्टि वह!
मुझको लगा, तब, यह नदी है
प्रेयसी का भाल, अथवा दिशा-निर्देश
प्रभु की तर्जनी का, लक्ष्य है यह,
चरम परिणति है हमारी, मुक्ति है-गति है।
नयन पल्लव मुँद गये मेरे विकल विह्वल।
तो यह नदी देगी मुझे
अविराम गति की वेदना
औ’ मुक्ति का सुख स्वाद!
नयन पल्लव मुँद गये मेरे
निःशब्द मैंने प्रार्थना की-
ओ नदी, तू जाग; तू प्रवाहित हो
कण्ठ में, मन में, देह में सर्वत्र
अनवरत, कर मुझे तू पान, छककर,
जिससे पा सकूँ मैं
अविराम गति की वेदना औ’ मुक्ति का सुख स्वाद

राग

मुझ पर गुजर जाती है प्रति आधी रात
एक कोई सर्वभक्षी नदी
अनजाने आदिम जल की अकूल
सर्वभक्षी नदी।
मेरी शय्या के अगल बगल असंख्य
गुलाब और केतकी के दुर्गम झोंप,
असंख्य मणि सर्पों के निवास,
अनेक-अनेक पुतुल खेल, कोमल,
कूलद्रुम दृढ़ और बेपरवाह; सबको
सब कुछ को डुबाती यह सर्वग्रासी नदी
पता नहीं
आती कहाँ से और कहाँ चली जाती है।
प्रति आधीरात!
आदिम जल की सर्वभक्षी नदी!
पर ज्यों ही सुबह होती है
भास्वर वारिधार, नदी एक ज्योति:सरा
अवतरण करती है मुझपर, नदी पवित्र पापहरा।
तब न शय्या है, न शवाधार, न संशय।
यह दृश्यावली और है, यह दर्पण अन्य है,
स्पष्ट चेहरे हैं विराग और राग,
फिर-फिर नजरों के इशारे इत्यादि इत्यादि,
प्रेम पत्र, डांट-फटकार, ताजे समाचार
सरल आकृतियाँ, मनीआर्डर-तार
हम और यह सम्पूर्ण दृश्यावली हमारी
मलमल नदी स्नान करते हैं, प्रति प्रात
प्रसन्न मन, देहतल पोंछ पोंछ, फिर-फिर स्नान करते हैं।
प्रति सुबह नित्य जब यह उतरती है
भास्वर वारिधार, नदी पापहरा!
रात भर हा हा-रव शववाही धारा प्रवाहमान;
पर सुबह-सुबह, सब कुछ निर्मल है
झिर झिर ज्योतिर्मय, भास्वर प्रसन्न जल।
हे नदी, हे तामसी शववाही, हे भास्वर वारिधार!
तुझे शत शत नमन, तुझे बहुत बहुत प्यार।

समागम

नदी यह जानी पहचानी
अन्तर्वाहिनी, आपाद मस्तक बह रही ऐसे
मानो अंगांग लिपटी हो प्रेमिका की देह।
परस्पर थर थराते हृदय दो
रक्त की वह तीव्र वेग पछाड़
आपाद मस्तक बह रही उन्माद विद्युतधार
सुखद है यह मिथुन पीड़ा, मोहवंशी
बज रही, सुख-सर्वस्व है रतिसार
मन लिप्त-मूर्छित, रुद्ध हैं सब शेष रव,
रुक गये दिक् काल, शेष सृष्टि असार,
लौचन-स्नायुओं के मूल से उठते हुए
ब्रह्मरंध्र कपाल तक, चेतना के
सुखद दंशन, ‘शॉक’ और प्रवाह।
सुख-सर्वस्व है, यह रति-क्रिया, एकान्त
अह, चक्षु मेरे मुँद गये सुख स्नात।
कुछ क्षण बाद
आँखें खोलता हूँ, देखता हूँ
सुन्दर धरामुख, सृष्टि सुन्दर
सुन्दर यामिनी, तारिका-शृंगार,
सुन्दर गृहों के बन्द द्वार गवाक्ष
सुन्दर चाँदनी की रात निर्जन
धरती, कुसुमिता-वनकानना
सभी सुन्दर-विशुद्ध-पवित्र।
मुझ परम दरिद्र को यह महा अनुभव दान
कर गयी जो नदी
आपाद मस्तक बह रही है जो नदी
वह नदी मेरी यार, मेरी प्रेमिका है।
नदी, तेरे भाल पर चुम्बन, तुझको बहुत सा प्यार।

महाभाव

यह नदी अन्तर्वासिनी आपाद मस्तक बह रही।
कर रही मेरा निरन्तर पान,
पी रही मुझको निरन्तर यह नदी!
वाम-दक्षिण बाहु-पग, नयन युग के मध्य
गुल्फ त्रिकुटी बीच, स्नायु मण्डल-मध्य
सींचती, शिश्न-नाभि-ललाट
कर रही मुझको निरन्तर तृप्त,
कर रही मेरा निरन्तर पान।
आह, यह कैसी तृषा मेरी और उसकी भूख
देह भीतर, प्राण मन के मध्य
गुरु ने, पिता ने, प्रेमिकाओं ने
जो लगाये थे सघन कान्तार
अथवा पुष्पवन
सर्प संकुल केतकी वन
या कुसुम-संकुल झाड़-विहार-वीथी कुंज
नदी इन सबके मध्य अन्तर्धान
निरन्तर बह रही है, कर रही है तृप्त!
उनको कराती पान, उनका कर रही है पान!
यह नदी चिर संगिनी!
ओ नदी मेरी प्रिया, ओ नदी मेरी द्वितीया,
नदी मेरी यार, मेरी पुनः पुनः पुनर्जन्म!
यह परस्पर-पान ही है जन्म-धारण की
खेचरी-बज्रौलिका, पाँचवाँ पुरुषार्थ अथवा मुक्ति!
इसी से बार बार आना है ओ नदी,
ओ अनामा, ओ नदी, तेरे तट बार बार आना है!

साधारणीकरण

नदी, तू निमंत्रण बांट जाती है।
नदी, तू निमंत्रण की पाती है!
मेरे मन में जटिल-वरारोह देशकाल व्यापी,
महा महीरुह सहस्र वर्ष वृद्ध,
नदी, तू उसी की निमंत्रण-पाती है।
उसी के किसी चिरंजीवि-श्रीमान पौत्र-प्रपौत्र की
जन्म-द्वादशी अथवा विवाह-व्रतवन्ध की
हल्दी-अभिषिक्त एक स्वति श्री निमंत्रण पाती है
जिसे कल कल ध्वनि से तू सर्वत्र बाँट आती है,
अपने को बूंद-बूंद काट-काट सर्वत्र बाँट आती है।
नदी, स्वयं तू निमंत्रण की पाती है।
मिलते हैं बन्धु से बन्धु गले
जाता उल्लास रव दूर के गाँव तक
हँसी की वर्षा, मुस्कान पहचान की
काका और दादा, भइया और बचवा
उमड़ी है जवार; सभी भाई है
सभी परस्पर दृढ़ दाहिनी बाँह है।
(‘भइयारे बिराना, तब भी दहिन बाँह!]
षट रस स्वाद की बहार, दही-शक्कर।
कुल्हड़ पर कुल्हड़, पात्र पर पात्र
‘वाह भाई वाह’, ‘दो, इन्हें और दो’,
‘लो भाई, लो’, ‘वाह भाई वाह!’
जुड़ता है प्रीतिभोज गाँव में
वीरोचित रोमांचक पंक्तिभोज
पाँत हँकड़ती है, खाती है, तृप्त डकारती है,
षट रस की होती है वर्षा, बजती है
अह, सुख और तृप्ति की बाँसुरी।
वह जो मेरे संस्कारों में हजार वर्ष व्यापी
महामहीरुह है वही इस समूचे ग्राम के
हजार हजार वर्षों के स्थावर संस्कारों का
‘उर्ध्वमूलं अधोशाखा’ विग्रह है,
उस वृद्ध महीरुह में नये मुकुल लगते हैं
वृद्ध तरु-जटाजूट लहलहा उठता है
आनन्द इसके पत्ते हैं, तृप्ति है फूल
और प्राण हैं लाल लाल गोदे,
मधुर और रसाल।
(दो सुपर्ण इसकी डाल पर बैठे हैं!
एक है दर्शक उपवासी और अन्य सरसफल का भोक्ता है।)
नदी तू स्वयं ही
मेरी उदार धरा, वत्सला भूमि की
मेरे मन में अतिष्ठ महावृद्ध
उर्ध्वमूल-अधोशाखा पीपल की
हल्दी-अभिषिक्त निमंत्रण-पाती है!
ओ नदी, तू इस बार जाकर जन जन से
वे जन-जन जो मेरे ही अस्तित्व के
विभिन्न टुकड़े हैं, जयमल-शुकदेव से
जितेन्द्र से, मंगला से, रामसागर से
शोभा से, एब्राहम और अजीज से-
सबसे जन-जन से जाकर कहना तुम :
‘स्वति श्री सर्व उपमा योग्य बड़े को
प्रणाम और छोटों को हार्दिक आशीष’
ओ जन्मान्तर-सहगामिनी चेतन अस्तित्व की,
अस्मिता की, त्रिकाल व्यापी व्यक्तिचित्त की,
साथ ही मेरे, अपने, निजी लोकचित्त की नदी!
ओ, नदी, ओ जन्मान्तर-प्रवाह,
तू स्वयं में एक निमंत्रण की पाती है
अविच्छिन्न प्रीतिभोज की निमंत्रण पाती है।

उपसंहार

दूर कहीं दूर, कहीं पर
किसी एक दिन जुड़ता है पर्व संक्रान्ति का
जुटती है भारी भीड़- झारी-कमण्डलु,
दूब और अक्षत, दीप और पार्थिव
तट पर बिखरे हैं या प्रवाह को अर्पित हैं।
‘ओ री मुन्नी, गहरे में मत जा’
‘ओ टंकू, जल में दंगा नहीं करते हैं।’
‘वाह री भाभी, पीती हो डूब डूब,
कहाँ ऐसा सीखा धार में सन्तार काटना?’
(भाभी की देह गोरी मछली है यार!
भाभी नदी कन्या है, गुदाज और स्वादिष्ट!)
‘सब्र करो न, बैशाख तो आता ही है!’
(ओह, हल्दी और लग्न का माधवमास!)
‘भाभी तेरा मुंह है अनूपम वाटिका
फूल जो झड़ते हैं मौसम-बेमौसम’
(मन कहता है : देह है अनूपम वाटिका!)
इधर इस प्रकार सस्वाद चलते हैं, उधर उस ओर।
भीगे वस्त्र, कम्पित गात सूर्योन्मुख कोई
अंजलि समर्पित कर रही, नयन मूंद;
विगलित करुणा चेहरे पर झलक गयी;
फिर कुछ पुष्प दल गिरे नदी की धार में।
मैं देखता हूँ उस पार से प्रवाहिता
आ रहीं फूलों की पाँत पर पाँत
सार्थक है श्रम जल सरयूदास का
धन्य हैं उनका फूल वन, उनकी कुटी
और धन्य है यह गंगातट, गायों के ढारे
अरहर के झाड़, वन तुलसी के झोंप
खट्टी झड़बेरी के जंगल भी धन्य हैं,
शूकर, चित्रमृग, साँप और शृगाल
दौड़ते हिरन और कूजते चक्रवाक
ढेकीं की पाँत और सारस की वलाका।
धन्य है बाबा सरयूदास का परिवार।
दिन में, बाबा सरयूदास मधुकरी
माँग खाते हैं और फूल उगाते हैं
रात को श्वापदों के बीच किसी अन्तर की
अनामा नदी को ‘योगवाशिष्ट’ के
श्लोक बोल बोल कर सुलाते हैं
देते हैं श्लोकों की थपकी, कहते हैं;
‘नदी, अब तू बस कर, अब तू मत रो,
ओ मेरी रानी, ओ मेरी फल्गु, सो जा!’
‘नदी, अब तू सो जा!’
तो भाई मेरे, जान ले तू भी असल बात
एक ही वह नदी है जो बहती सर्वत्र
मुन्नी में, टंकू में, भाभी में, दादी में
मुझमें और तुझमें वही है जो
बाबा सरयूदास में फल्गु बन जाती है,
हाँ, हाँ, वही एक ही सर्वव्यापी अतः सलिला है
अरे वही है बुद्ध की निर्मल निरञ्जना भी।
वही बाहर और भीतर, सर्वत्र, सबको
परस्पर जोड़ती है, परस्पर बाँटती है,
वही भगवती सुरेश्वरी भागीरथी बनती है
और तट पर संक्रान्ति पर्व जुड़ता है।
पर जन जन के भीतर भिन्न नाम, भिन्न रूप,
निर्मल निरञ्जना या मरुस्रोता फल्गु
अनामिका यमुना या लुप्तस्रोत सरस्वती
या और कुछ बनती है, पर नदी है
एक, अखण्ड, व्यक्ति के सामूहिक चित्त की।
पात्र-पात्र में सिमट कर भिन्न भिन्न
नाम रूप लेती है, जन्म प्रति जन्म
हमारी व्यक्ति-सत्ता की अस्मिता की
वाहिका बनी हुई आमरण साथ चलती है
अतीत और अनागत के जन्मों का
गर्म बीज धारण किए हुए यह नदी
जन्म प्रति जन्म नखशिख बहती है
इसी से कहता हूँ, नदी, तुम मेरी द्वितीय स्वयं।
नदी, तुम वान्धवी, प्रेमिका, माता
नदी, तुम देवता,
तुम्हें बार-बार नमन
तुम्हें बहुत-बहुत प्यार!

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